जून 13, 2019

POST : 1121 खुद से कहनी है सुननी खुद है ( ज़िंदगी की दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

 खुद से कहनी है सुननी खुद है ( ज़िंदगी की दास्तां ) डॉ लोक सेतिया 

    अब इंतज़ार को ज़िंदगी समय कब तलक देगी और कितनी उम्र राह तकनी है कि कोई मिलेगा मुझे मेरी दास्तां सुनेगा अपनी सुनाएगा। अनकही छोड़ जाएंगे अपनी कहानी तो रूह को मर कर भी चैन नहीं मिलेगा। आज यही सोचकर खुद से खुद की कहानी कहने लगे हैं। था तो इक मेला साथ मेरे फिर भी साथी कोई नहीं था कोई मुझसे आगे चलता रहा कोई रास्ता बदल साथ छोड़ गया कोई किसी मोड़ से बिछुड़ गया। चल रहा हूं सामने कुछ दूर धुंधली सी तस्वीर दिखाई देती है शायद उन्हीं लोगों की है जो कारवां में साथ चले थे पर आगे निकल गए मुझे पीछे छोड़ कर , वापस मुड़ कर देखता हूं तो इक धूल का गुबार है जो बाकी रह गया है। याद आती है बात कितने लोग कहते थे अकेले अकेले क्यों हैं हम भी साथ साथ हैं मगर साथ पल दो पल का रहा फिर किसको थी फुर्सत साथी बनकर साथ निभाने की। हर कोई चाहता था अपनी किसी मंज़िल को पहुंचना समय रहते शाम ढलने से पहले। आप तो बहुत धीमी रफ़्तार से धीरे धीरे चलते हो बात भी करते हो तो कहने से पहले सोचने लगते हो तभी कह नहीं पाते अपने दिल की बात। अपने आप से बातें करना लोग इसको पागलपन समझते हैं , कोई नहीं सुनेगा सभी को अपनी अपनी कहनी है ऐसे में लिखनी खुद ही पढ़नी दिल बहल जाता है।

                लोग राज़ की बात भी बता देते हैं किसी न किसी को अपनी तो ज़िंदगी खुली किताब जैसी है फिर भी किसी को बता नहीं सके भला किसको फुर्सत है कौन सुनेगा समझेगा। हर कोई अपनी लघुकथा को विस्तार देकर कहानी मुकम्मल करना चाहता है। मेरी कहानी तो दो हर्फों की है मगर आवाज़ मिले तो उपन्यास से भी लंबी होती जाती है। जाने क्या बात है हर कोई मुझे मिलता रहा है खरीदार बनकर मैं तो बिकने को तैयार ही नहीं था मगर जब जिस ने चाहा मुझे अपनाना मैंने बदले में कीमत यही चाही थोड़ा सा प्यार अपनापन और भरोसा मिल जाए तो बेदाम बिकने को राज़ी था। किसी के पास प्यार की मुहब्बत की अपनेपन की दौलत नहीं थी शायद सभी को ज़रूरत थी पाने की देने को कोई नहीं तैयार हुआ। टुकड़े टुकड़े मिला सभी कुछ जी भर कर कभी प्यास बुझी नहीं दिल की।

        दुनिया भर से दोस्ती की तो समझ आया फिर इक ज़ख्म सीने पे खाने को मिला है। जी पहली ग़ज़ल थी हम अपनी दास्तां किस को सुनाएं दूसरी थी नया दोस्त कोई बनाने चले हो। दर्द आंसू पिरोकर बनती है ग़ज़ल और तीसरी ग़ज़ल कही , हमको तो कभी अपने काबिल नहीं समझा। जाने काबलियत का क्या अर्थ है कोई पैमाना कभी नहीं पता चला आपकी सफलता कुछ है किसी और की चाहत कुछ और बन जाने की है। कई बार खुद को झूठे सपनों से बहलाया है ख्वाब की दुनिया बनाई है उस में रह कर सुकून पाया है , हंसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है कोई हमदर्द नहीं दर्द मेरा साया है , ऐसे गीतों ने मुझे समझाया है। फिर कोई भूला हुआ नग्मा याद आया है। मेरा दिल है प्यार का आशियां यहां जी तो लूंगा करार से मेरे आगे नामे चमन न लो मैं डरा हुआ हूं बहार से। मेरी ज़िंदगी है अजीब सी मुझे ग़म मिला न ख़ुशी मिली , कभी हंस दिया कभी रो दिया मैं लिपट के दामने यार से। बीडी तेरे बगैर मेरी कहानी अधूरी रह जाती है तुम मेरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं भी हो और हिस्सा हो भी कुछ ऐसे शामिल हुए जैसे रूह में समा गया कोई चुपके से। टॉवर हॉउस की ग़ज़ल बड़ा चैन देती है आज भी। ए मेरे दिले नादां तू ग़म से न घबराना इक दिन तो समझ लेगी दुनिया तेरा अफसाना। सोचता हूं क्या तेरा अफसाना किसी को समझ आया कभी। मैंने तो ये चाहा ही नहीं कि दुनिया मेरी कहानी समझे भी फ़साना बनकर नहीं रहना चाहता मैं सबकी तरह से।

      मुझमें मुहब्बत प्यार के सिवा कुछ भी नहीं है मगर इस दुनिया में इसकी कोई कदर नहीं कीमत नहीं मोल नहीं है। बस सबकी तरह खुद से प्यार करना नहीं आया बहुत कोशिश की दिल चाहता है उसी तलाश की बात पर रहना कभी न कभी कोई न कोई मिलेगा जिसकी मुझे तलाश है तुम तो किसी और जहां में शायद अपने हंस परदेसी को मिल गए होंगे। ये किसी और दुनिया की बात है भला इस दुनिया वाले समझेंगे कभी अपनी बात को। और क्या कहूं बहुत कुछ लिख रखा है कहानी ग़ज़ल व्यंग्य कविता जाने कितना कुछ मगर अभी भी नहीं मिला तो वही जिसको अपनी ये विरासत सौंप कर दुनिया से अलविदा होना चाहता हूं। अपनी इक ग़ज़ल से बात को विराम देता हूं बात खत्म कभी नहीं होने वाली जानता हूं।
 


 


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