जून 04, 2019

बर्बाद होने के रास्ते ( फज़ूल की चर्चा ) डॉ लोक सेतिया

      बर्बाद होने के रास्ते ( फज़ूल की चर्चा ) डॉ लोक सेतिया 

    बर्बाद शब्द पर मत जाना यहां अर्थ कुछ अलग सा है। इबादत इक ऐसा काम है जिस में खुदा भगवान वाहेगुरु अल्लाह मिलते नहीं कभी मगर उनको पाने में अपने आप को खोना फनाह करना बर्बाद होना सबसे बढ़कर ख़ुशी देता है। ये परिभाषा समझाना ज़रूरी था कि बर्बादी कोई खराब चीज़ नहीं होती है बर्बाद होना अच्छी बात है बर्बाद होकर जो मिलता है आबाद रहकर कहां हासिल होता है। आज बर्बाद होने के रास्तों की बात करनी है। 

       राजनीति और आशिक़ी बर्बाद करती है तो कहीं का नहीं छोड़ती। सत्ता की चाहत महबूब की चाहत चैन नींद सब छीन लेती है। कोई कोई खुशनसीब होता है जिनको मंज़िल मिलती है राजनीति में और आशिक़ी में , वर्ना तमाम लोग सालों तक राहों पर भटकते रहते हैं। बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ती है राजनीति में दीन ईमान नैतिकता आदर्शवादी मूल्य जैसी बातों को किसी कूड़ेदान में फैंक कर आने की इजाज़त मिलती है। अगर आपको दोस्तों में दुश्मन मिलते हैं और आपको परखना नहीं आता तो राजनीति की तरफ भूल कर भी मत जाना उधर दोस्ती दुश्मनी एक साथ की जाती है। ऊपर बंधी रस्सी पर संतुलन बनाकर चलना होता है थोड़ा संतुलन बिगड़ा और आपकी हालत घायल दर्द से बेहाल मरीज़ जैसी हो सकती है। रही बात इश्क़ की तो इश्क़ वालों का मुकदर है यही आप अपनी आग में में जल जाइए। प्यार धोका है तो धोका ही सही , चाहता है दिल कि धोका खाईए। हमको अपना इम्तिहां मंज़ूर है और भी तड़पाइए तरसाइए। दिल है हाज़िर लीजिए ले जाइए और क्या क्या चाहिए फरमाइए।

   इन दोनों के इलावा भी बर्बादी की राहें बहुत हैं। ज़िंदगी का रास्ता कभी सीधा किसी मंज़िल की तरफ नहीं जाता है। बीच में कोई दोराहा आता है और आपको चुनना होता है किस तरफ मुड़ना है इक  राह आसान इक कठिन होती है। आसान राह चुनते हैं तो आबाद तो रहते हैं ख़ुशी नहीं मिलती है मुश्किल राह चलते हैं तो कोई साथी नहीं होता अकेले अकेले चलना पड़ता है। कहीं कोई चौराहा आता है आपको किस दिशा को जाना है सवाल खड़ा होता है और जो राह लिखा हुआ रहता है उस तरफ जाती है वास्तव में जाती नहीं कभी भी। ये सबसे बड़ा धोखा है राह चलती नहीं कभी जाना मुसाफिर को होता है कहते है ये रास्ता उस देश को जाता है। मंज़िल की तलाश अपना रास्ता खोजने के बाद शुरू होती है मगर अधिकतर समय हम राह से भटकते हुए इधर उधर जाते रहते हैं। कितना सामान जोड़ते रहते हैं जिस की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती है और जिसकी ज़रूरत बहुत होती है उसी को बहुत पीछे छोड़ आये होते हैं। सब लुटवा कर होश आता है चाहिए क्या था और हम क्या ढूंढते रहे जमा करते रहे।

        छोटे छोटे घर हुआ करते थे गांव में इक आंगन होता था इक पेड़ की छांव जिस पर पक्षियों की आवाज़ का संगीत सुनाई देता था। पनघट पर पानी पिलाती थी गांव की गोरियां हंसी की आवाज़ भी सुनते थे। कोई इकतारा बजाता गुज़रता था तो लगता था जाने कैसा स्वर है दर्द भी सुकून भी एक साथ महसूस किया करते थे। उस घर को छोड़ शहर में मकान बनाकर रहने लगे तो बंद कमरे की घुटन से बाहर निकलने को कोई दरवाज़ा खिड़की खुली नहीं दिखाई देती है। भीड़ है चहल पहल है जाने पहचाने लोग हैं मगर सब में इक अजीब सा अजनबीपन परायापन लगता है अपनत्व की कमी खलती है। वापस गांव जाने की राह बंद कर आये है और महानगर जाने से खो जाने का डर भी है और उसकी चमक दमक रंगीनियां लुभाती हैं आकर्षित करती हैं बुलाती हैं। ऊपर जाने का हासिल यही है नीचे देखते हैं सर चकराता है और लगता है फिसलन है गिर सकते हैं कदम कदम संभल कर रखना है। मिट्टी की सुगंध को छोड़कर पत्थरों से दिल लगाने को बर्बादी कहें या कुछ और भला सा नाम दिल को समझाने को। इक ग़ज़ल याद आई है।


यही सोचकर आज घबरा गये हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

यही सोचकर आज घबरा गये हम
चले थे कहाँ से कहाँ आ गये हम।

तुम्हें क्या बतायें फ़साना हमारा
किसे छोड़ आये किसे पा गये हम।

जिया ज़िंदगी को बड़ी सादगी से
दिया जब किसी ने ज़हर खा गये हम।

खुदा जब मिलेगा कहेंगे उसे क्या
यही सोचकर आज शरमा गये हम।

रहे भागते ज़िंदगी के ग़मों  से
मगर लौट कर रोज़ घर आ गये हम।

मुहब्बत रही दूर हमसे हमेशा
न पूछो ये हमसे किसे भा गये हम।

उसी आस्मां ने हमें आज छोड़ा
घटा बन जहाँ थे कभी छा गये हम।

रहेगी रुलाती यही बात "तनहा"
ख़ुशी का तराना कहाँ गा गये हम।    
 

 

कोई टिप्पणी नहीं: