कब होगी पूरी , इक हसरत अधूरी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
बस इक नॉबेल पुरूस्कार की चाहत है , सब कुछ थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है , ख़ुद से खफ़ा खफ़ा हैं दोस्त कहते हैं मगर अदावत है उनकी अपनी यही इक मुहब्बत है । रक़ीब हैं दोनों ख़ुद को बड़ा नामावर समझते हैं बदनाम हुए हैं शोहरत की ख़ातिर सब समझते हैं कैसे हुई मैली चादर समझते हैं । ऐसी हालत होती है जब ढलती उम्र में किसी को हसरत होती है ख्याति दुनिया भर में हो महान हैं कुलीन हैं सबसे श्रेष्ठ उत्कृष्ट हैं । मुश्किल बड़ी है जीवन भर ऐसा आचरण करना नहीं सीखा बल्कि अपने स्वार्थ से बढ़कर कुछ नहीं माना दिल चाहता है काश इक नॉबेल पुरुस्कार उनकी झोली में डाल दे कोई जिस से आभास हो कि उनका जीवन ही परोपकार समाज कल्याण को समर्पित रहा है । जॉर्ज सविले का कथन है कि शोहरत की चाहत इक जुर्म बन जाती है जिस पल आप उसकी कामना करते हैं , ये आपके अच्छे आचरण और ऊंचे आदर्शों का पालन करने से ख़ुद ब ख़ुद मिलती है । एक अनार सौ बिमार नहीं आजकल जिसे देखो खुद को ख़ुदा से बढ़कर समझने लगा है । इतने नकली भगवान दुनिया में पैदा हो गए हैं कि असली ईश्वर को पहचानना असंभव हो गया है ।
काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती समझते थे लेकिन चतुराई से दो ही नहीं तीन बार भी दाल पकाने का कीर्तिमान स्थापित करने वाले पहले कहते थे इतनी हसरत काफ़ी है मगर जब इक आरज़ू पूरी हुई तो दिल और मांगता है । हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले । राजनेताओं में कभी मसीहाई नहीं मिलती लोग पछताते हैं मसीहा मानकर अक़्सर कहते हैं ' तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला ।
कभी लोग लिखते थे और साहित्य पुरुस्कार मिल जाते थे , अब ईनाम पाने पुरुस्कृत होने को लालायित रहते हैं मिल भी जाये तो लगता है और बड़ा पाने के हकदार थे । समाजसेवा धर्म उपदेश से लेकर अभिनय कला क्षेत्र तक ही नहीं उद्योग धंधा कारोबार नहीं योग तक सिखाने वाले सभी धन दौलत पाकर आगे और क्या क्या नहीं चाहते हैं । संसद सदस्यता से ऊपर पद्मश्री पद्मविभूषण ही नहीं भारत रत्न भी सरकार रेवड़ियों की तरह बांटती है । बड़े अधिकारी से न्यायधीश तक सेवानिवृत होने के उपरांत बहुत बाक़ी रहता है पाने की चाहत के लिए । संतोष रखने का सबक दुनिया को पढ़ाने वाले बेचैन रहते हैं अगर लगता है ढलान पर हैं फ़िसलने का भय पहाड़ पर खड़े लोगों को सताता है तो नींद चैन सब खो बैठते हैं । हर कोई सोचता है मर कर भी ज़िंदा रहना है किसी तरह इतिहास में नाम दर्ज होना चाहिए । बशीर बद्र कहते हैं , ' शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है , जिस शाख पे बैठे हो टूट भी सकती है ' । चकबस्त जी भी कहते हैं , ' बाद ए फ़ना फ़िज़ूल है नाम ओ निशां की फ़िक्र , जब हम न रहे तो रहेगा मज़ार क्या '।
कितनी अजीब विडंबना की बात है , सभी मतलबी हैं बिना मतलब कभी कुछ भी नहीं करते लेकिन चाहत रखते हैं कि दुनिया उनको महात्मा संत सन्यासी से बढ़कर कोई फ़रिश्ता था ज़मीं पर आया कल्याण करने को अवतरित हुआ था । आदमी इंसान भी नहीं बनता मगर कहलाना भगवान चाहता है , ख़ुद अपने आप को छलना चाहता है । जय और वीरू की यारी को क्या हुआ , एक आसमान पर पांव रखने को व्याकुल है दूसरा हवाओं को मुट्ठी में कैद करने को आतुर है । घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार , पंख हैं कोमल आंख है धुंधली जाना है सागर पार । अब कोई नहीं समझा सकता कि राह कहां से भूले थे और कब भटक कर अपनी सीमा लांघ कर किसी और की ज़मीं पर अपना डेरा जमाने लगे हैं । झगड़ा बंद करवाने वाले खुद धमकाने लगे हैं सरपंच जी अपनी असलियत बताने लगे हैं । ये ज़माना पंचायती राज का नहीं है आप किस बात की धौंस दिखाने लगे हैं , कहावत है नज़रें झुकाने वाला नज़रें मिलाने लगे , ख़ंज़र दिखाने वाला गले लगाने लगे तो समझना चक्रव्यूह रचा जा रहा है , मगर यहां उल्टा हो रहा है । पहले गले से मिले गलबहियां डालते थे अब गले पड़ने लगे हैं । नॉबेल पाने को शराफ़त छोड़ शरारत करने लगे हैं यार को आंखें दिखाने की नौबत आ गई है क्या मुसीबत की क़यामत आई है । लगता है सभी बड़े बड़े ईनाम पुरुस्कार इतने छोटे और सस्ते हो गए हैं कि भिखारी भी अपने कटोरे में भिक्षा मांगते कहते हैं , इक अधूरी चाहत है झोली में कोई नॉबेल मिल जाये जीवन का लक्ष्य यही है ।

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