मई 31, 2020

सच से बच झूठ बना सच ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   सच से बच झूठ बना सच ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  कोरोना से बचना है तो उसको पहचान लो क्योंकि कोरोना सच है और सभी मानते हैं सच कभी नहीं मर सकता है हमेशा ज़िंदा रहता है कभी हारता नहीं है आखिर जीत सत्य की होती है। काश कोरोना भी झूठ होता तो कभी किसी न किसी की पकड़ में आ ही जाता। आपको यहीं रहना है और कोरोना को भी सरकार ने घोषित किया है उसे देश से निकालना मुमकिन नहीं है। जिनका दावा रहा है सब मुमकिन है उनको भी नामुमकिन लगता है कोरोना को हराना भी और सत्य को पराजित करना भी। आपको सीखना है कैसे कोरोना के साथ जीना है उस से बचकर रहना है। जैसे हमेशा आप सच से इक फ़ासला बनाकर चलते हैं कोरोना से भी दूरी रखनी है हाथ नहीं मिलाना दूर से नमस्कार करना है। अब आपको कोरोना की नहीं सच की पहचान करनी है और सच को अपना दुश्मन समझना है जो बेशक कितना छोटा दिखाई देता हो कभी भी खतरा साबित हो सकता है। अमेरिका घोषित कर सकता है कि कोरोना चाईना से आया है फिर भी अपने देश से बिना पासपोर्ट वीज़ा घुसने वाले इंसानों को निकाल बाहर करता है कोरोना को हाथ से छूना भी नहीं चाहता। भारत से उसको नमस्ते का सबक ऐसा समझ आया है कि उसकी नमस्ते नमस्ते नमस्ते हो गई है। कोरोना खतरनाक है सच भी कम खतरनाक नहीं होता है। सच को फांसी पर सूली पर चढ़ाते हैं कभी ज़हर का प्याला पिलाते हैं। सदा सच बोलो। ये तीन शब्द बेहद खतरनाक हैं। जो इनको मान ले उसकी दशा खराब हो जाती है। आपको विस्तार से सच की पहचान समझा दी है कोरोना की भी पहचान यही है सच को ख़त्म नहीं किया जा सका है झूठ ने कितने जाल बिछाए हैं सच और कोरोना झूठ को पाताल से भी ढूंढ लेते हैं। सच बताओ आजकल कौन है जो सभी को अपनाता है , कोरोना ने कोई भी भेदभाव नहीं किया सारी दुनिया को अपना माना है।

झूठ का बोलबाला है झूठ खूब ऊंचे दाम बिकता है सच को कोई खरीदार नहीं मिलता है उसकी कीमत दो कौड़ी का इक धेला भी नहीं है। सच्चे फांसी चढ़दे वेखे झूठा मौज मनाये , लोकी कहंदे रब दी माया मैं कहंदा अन्याय। की मैं झूठ बोलिया की मैं कुफ्र तोलिया। झूठ सच से बचने को सच बनकर रहता है क्योंकि झूठ से बड़ा बहरूपिया कोई नहीं है। झूठ दावा करता है सबको भलाई सबका साथ सबका विकास करने का मगर ये सब मिलता झूठ के अपने कुनबे को ही है। आपको सभी कुछ हासिल हो सकता है अगर आप भी झूठ को अपना भगवान समझ उसकी आराधना कर झूठ की डगर पर चलते हैं। सच की राह चलना बहुत कठिन है। झूठ सिंहासन पर विराजमान है और सच कटघरे में खड़ा अपनी सफाई देने को विवश है उसके पास अपने सच होने का कोई सबूत कोई दस्तावेज़ नहीं है। झूठ ने अपने पर सच का लेबल लगवा रखा है और वही अदालत है वकील है न्यायाधीश भी है। सच को खुद झूठ ने गायब करवा दिया है। दुनिया के बाज़ार में खरा सच किसी के पास नहीं बचा है आधा सच आधा झूठ मिलावट वाला सभी खरीद रहे हैं। सच कभी बिकता नहीं बाज़ार में मगर सच का इक आधुनिक मॉल शहर शहर खुल गया है। झूठ बनाने वाले झूठ पर सच का लेबल लगा कर खूब मालामाल हो रहे हैं। सच को लेकर इक ग़ज़ल कही है मैंने पेश है।


                     ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"


इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का।

हर गली हर शहर में देखा है हमने
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का। 

 

खत हवेली का फुटपाथ के नाम ( व्यंग्य-व्यथा ) डॉ लोक सेतिया

 खत हवेली का फुटपाथ के नाम ( व्यंग्य-व्यथा ) डॉ लोक सेतिया 

 सत्ता का मज़ाक है कि अट्टहास है क्या है। ये जो बिगड़े रईस ज़ादे होते हैं कुछ भी करते हैं। अभी कल ही की बात तो है इक मां की लाश से नन्हा बच्चा खेल रहा था उसके ऊपर से चादर खींचता हुआ। बेचारा क्या समझता उसकी मां किस नींद में सोई है। ये जो हालात हैं कोई आजकल में नहीं बने हैं और इसके दोषी आज के शासक नहीं पहले के भी तमाम लोग हैं जिन्होंने गरीबों के नाम पर राजनीती की गरीब को दिया भीख मांगने का हक भी नहीं। कल उसके घर मातम था मगर यही बेदर्द लोग भीड़ बनकर अपनी अपनी अमानवीय राजनीति करने को चैक देने आये थे मीडिया के कैमरे साथ लाये थे। इतना कम था जो आज इक और बड़े सरकार ने खत भेजा है सभी देशवासियों को जिनमें ऐसे बदनसीब भी शामिल हैं जो जाने ज़िंदा भी हैं कि मर गए हैं। सरकार ने लिखा है उसने पिछले साल भर में बड़े बड़े कीर्तिमान स्थापित किये हैं। आपको कौन रोक सकता है जनाब आप मौज मस्ती जश्न मनाओ जनता के धन से देश विदेश जाओ। किसी को अपने देश में बुलाओ गरीबों से नमस्ते नमस्ते कहलवाओ और गरीबी को इक दीवार बनवा कर छुपाओ। पर जले पर नमक मत छिड़को मुर्दों को धर्म कथा मत सुनवाओ उनकी आत्मा की शांति के नाम पर उनकी रूहों को और मत तड़पाओ। कोई नहीं है इस देश में दर्दमंद गरीबों का जानते हैं ये बात अब ना समझाओ। गरीबों को आंसू बहाने दो आप अपनी बांसुरी अपने महल में बजाओ हमको मत सुनाओ। बहुत हुआ और मत सताओ।  
 
मेरी ग़ज़ल से कुछ शेर :-

हमको ले डूबे ज़माने वाले ,  नाखुदा खुद को बताने वाले। 

देश सेवा का लगाये तमगा , फिरते हैं देश को खाने वाले।

उनको फुटपाथ पे तो सोने दो ,ये हैं महलों को बनाने वाले।

तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं ,मेरी अर्थी को उठाने वाले।


  फुटपाथ को पहली बार ऊंची हवेली ने लिखा है खत खुले आम पढ़ा सुनाया जा रहा था लगता है मन की बात करते करते उकता गए हैं।  सच कहूं ये अंजाम देख कर समझ नहीं आया रोया जाये या हंसा जाये। खत बड़ी नाज़ुक चीज़ होती है अल्फ़ाज़ परखता रहता है आवाज़ भी मेरी तोल कभी। खुशबू की ज़ुबां में बोल कभी फूलों की तरह लब खोल कभी। ये खत लिखना मन की बात करना ये हम दिल वालों की विरासत है इसको अपनी सत्ता की राजनीति का माध्यम मत बनाओ। मगर आपका निज़ाम है नहीं मानोगे मगर वो खत क्या जो हाथ में पकड़ आंखों से पढ़ दिल से महसूस कर उसका जवाब देने को मज़बूर नहीं कर सके। हमने भी भेजे हैं सैंकड़ों नहीं हज़ारों खत डाक से ईमेल से किसी का भी कोई जवाब नहीं आया। बैरंग लौट आये हमने जितने भी खत भेजे उनको सभी को। नाचो झूमो राजा की सवारी निकली है शानदार लिबास पहनकर। और अपने छोटे बच्चों को खामोश रखना कहीं कोई सच नहीं कह बैठे राजा तो नंगा है। हवेली ने आपको सूचना भेजी है उनके घर ख़ुशी पैदा हुई है साल बाद का जश्न है इसको बुलावा मत समझना। चाहो तो जो मिला बीस लाख करोड़ में से आपको उनको शगुन भेज देना शुभकामनाएं देते समय।

   ये चिट्ठी कैसी है जिस में जिसको लिख कर भेजी उसका हाल चाल नहीं पूछा ये सोच लिया सरकार में सब राज़ी ख़ुशी हैं तो जनता भी राज़ी ख़ुशी से रह रही होगी। मालूम नहीं कहां से ये तहज़ीब सीखी है जनाब ने कोई हाल ए दिल बताया पूछा नहीं बस खुद ही अपना यशोगान गुणगान महिमा का बखान किया। अपने मुंह मियां मिट्ठू बन गए ये भी नहीं सोचा होगी आपकी सरकार की वर्षगांठ जनता की हालत इस से बदतर कभी नहीं थी। अमावस की रात को चांदनी रात बताकर ये प्यार मुहब्बत की मीठी बातें करने का सही समय नहीं है जब लोग केवल घर में कैद नहीं हैं मौत से आमना सामना करते कोरोना से ज़िंदगी को छीन कर जीने का जतन कर रहे हैं। और आप ख़ैरख़्वाह हैं जो समझते हैं नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। ये आर पी महरिष जी का शेर है

 " ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आखिर , नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। "

     लोग कोई वक़्त था , डाकघर से लोग जवाबी पोस्टकार्ड लेकर भेजते थे जिस पर अपना पता लिखा पोस्टकार्ड सलंग्न रहता था। ताकि खत मिलने पर जवाब भी ज़रूर देना है ताकीद रहे।


   कही मैं उसका पता भूल ना जाऊं राशिद ,  मुझको लिखता है वो हर बार जवाबी काग़ज़।

  मगर आपको जवाब पसंद नहीं आएगा इसलिए आपने ये एकतरफा संवाद का तरीका ढूंढ लिया है। मन की बात कहते हैं दर्द की दास्तां हमारी नहीं सुनते। चिट्ठी भी अपने भेजी मिली नहीं खबर इश्तिहार बन गई और आपका पता तो सबको पता है। मगर ये भी पता है  कुछ  भी लिख भेजो कौन पढ़ता है। आपने अपनी बात लिखी या लिखवाई और सुनाई भी सुनवाई भी। लेकिन लोग आपको नहीं बता सकते उनकी भी कोई बात है। मेरे इक दोस्त ज़रूरी खत भेजना होता था तो बैरंग भेजते थे जिस पर कोई टिकट नहीं लगाते थे मगर जिसको मिलता उसको दुगनी कीमत देनी होती थी। गरीबी में आटा गीला कहावत है अब आपका खत है बैरंग है मिला है लेना भी ज़रूरी है। इतनी बेदर्दी भी अच्छी नहीं। आज कहा सो कहा अब ऐसा सितम मत करना ये तो इक फ़रमान है इसको चिट्ठी नाम मत देना फिर कभी। खत चिट्ठी बड़े कोमल एहसास होते हैं जिनमें उनका नाम है बदनाम नहीं करना। कभी मिली थी कोई चिट्ठी आपको लिखा हुआ था चिट्ठी नहीं तार समझना , टेलीग्राफ को तार कहते थे। थोड़े लिखे को बहुत समझना घर जल्दी वापस आ जाना। मिली क्या कभी लगता है आपको नहीं खबर चिट्ठी क्या होती है कितना असर करती है। हंसाती है रुलाती है , आपकी चिट्ठी ने आंसुओं का समंदर बहा दिया फुटपाथ की आंखें भर आईं हैं।

मई 30, 2020

बैरंग चिट्ठी आई है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      बैरंग चिट्ठी आई है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

                        खत हवेली का फुटपाथ के नाम - गरीबों का मज़ाक

    ये जो बिगड़े रईस ज़ादे होते हैं कुछ भी करते हैं। अभी कल ही की बात तो है इक मां की लाश से नन्हा बच्चा खेल रहा था उसके ऊपर से चादर खींचता हुआ। बेचारा क्या समझता उसकी मां किस नींद में सोई है। ये जो हालात हैं कोई आजकल में नहीं बने हैं और इसके दोषी आज के शासक नहीं पहले के भी तमाम लोग हैं जिन्होंने गरीबों के नाम पर राजनीती की गरीब को दिया भीख मांगने का हक भी नहीं। कल उसके घर मातम था मगर यही बेदर्द लोग भीड़ बनकर अपनी अपनी अमानवीय राजनीति करने को चैक देने आये थे मीडिया के कैमरे साथ लाये थे।

आज बड़े सरकार ने खत भेजा है सभी देशवासियों को जिनमें ऐसे बदनसीब भी शामिल हैं जो जाने ज़िंदा भी हैं कि मर गए हैं। सरकार ने लिखा है उसने पिछले साल भर में बड़े बड़े कीर्तिमान स्थापित किये हैं। आपको कौन रोक सकता है जनाब आप मौज मस्ती जश्न मनाओ जनता के धन से देश विदेश जाओ। किसी को अपने देश में बुलाओ गरीबों से नमस्ते नमस्ते कहलवाओ और गरीबी को इक दीवार बनवा कर छुपाओ। पर जले पर नमक मत छिड़को मुर्दों को धर्म कथा मत सुनवाओ उनकी आत्मा की शांति के नाम पर उनकी रूहों को और मत तड़पाओ। कोई नहीं है इस देश में दर्दमंद गरीबों का जानते हैं ये बात अब ना समझाओ। गरीबों को आंसू बहाने दो आप अपनी बांसुरी अपने महल में बजाओ हमको मत सुनाओ। बहुत हुआ और मत सताओ।


मेरी ग़ज़ल से कुछ शेर :-

हमको ले डूबे ज़माने वाले ,
नाखुदा खुद को बताने वाले।

देश सेवा का लगाये तमगा ,
फिरते हैं देश को खाने वाले।



उनको फुटपाथ पे तो सोने दो ,
ये हैं महलों को बनाने वाले।

तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं ,
मेरी अर्थी को उठाने वाले।
 
 
  आज आपको इक राज़ की बात बताता हूं जो कोई राज़ की बात है नहीं। मेरे लिखने की शुरआत चिट्ठियों से ही हुई है। कॉलेज के समय कॉलेज में ही डाकघर था जो कॉलेज से हॉस्टल जाते रास्ते में ही था और अगर कॉलेज की डॉक्टर की पढ़ाई की खातिर अस्पताल जो उसी परिसर में ही था को जाते तब भी राह उधर से जाती थी। कमरा नंबर बता कर डाकघर से अपनी चिट्ठी का पता चल जाता था और शायद महीने में कोई एक दिन होता था जब मेरा कोई खत नहीं आता और मैंने कोई खत नहीं लिख कर भेजा हो। लोग अक्सर मुहब्बत में लिखे खत की बात करते हैं मुझे अपने हर खत में मुहब्बत की खुशबू का एहसास होता था। बहुत साल तक सभी खत संभाल कर रखे थे न जाने कब कैसे कहीं खो गए। अपने खत हर किसी को नहीं पढ़ाए जा सकते हैं , कभी कबूतर पालते थे आशिक़ , कभी महबूबा डाकिया से लिखवाती थी खत और कभी कोई कासिद होता था खत ले जाता जवाब ले आता। सरकार को खुले खत भी बहुत भेजे हैं अब उसकी बात मत करना नहीं तो विषय छूट जाएगा। पहले मेरी कुछ कविताएं खत को लेकर हैं कुछ शेर भी हैं उनको पढ़ते हैं।

लिखे खत तुम्हारे नाम दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

लिखता रहा नाम तुम्हारे
हर दिन मैं खत 
अकेला था जब भी
और उदास था मेरा मन  
जब नहीं था कोई
जो सुनता मेरी बात
मैं लिखता रहा
बेनाम खत तुम्हारे नाम।

जानता नहीं 
नाम पता तुम्हारा
मालूम नहीं
रहते हो किस नगर की
किस गली में तुम दोस्त।

मगर सभी सुख दुःख अपने
खुशियां और परेशानियां
लिखता रहा सदा तुम्हीं को
तलाश भी करता रहा तुम्हें।

फिर आज दिल ने चाहा
तुमसे बात करना
और मैं लिख रहा हूं 
फिर ये खत नाम तुम्हारे।

सोचता हूं  शायद तुम भी
करते हो ऐसा ही मेरी तरह 
लिखते हो मेरे लिए खत
तुम भी यही सोच कर।

कि मिलेंगे हम अवश्य
कभी न कभी तो जीवन में
और पहचान लेंगे
इक दूजे को।

तुम तब पढ़ लेना मेरे ये
सभी खत नाम तुम्हारे 
और मुझे दे देना इनके
वो जवाब जो लिखते हो
तुम भी हर दिन सिर्फ मेरे लिये 
मेरे दोस्त। 
मुझे अभी भी उस दोस्त की तलाश है और उसको खत देने भी हैं उस से लेकर पढ़ने भी। खतों को लेकर मेरा पागलपन इतना ही नहीं और भी हैं खत आज खोलता हूं। 

मेरे खत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मेरे बाद मिलेंगे तुम्हें
मेरे ये खत मेज़ की दराज से
शायद हो जाओ पढ़ कर हैरान
मत होना लेकिन परेशान।

लिखे हैं किसके नाम 
सोचोगे बार बार तुम
मैं था सदा से सिर्फ तुम्हारा
पाओगे यही हर बार तुम।

हर खत को पढ़कर तुम तब
सुध बुध अपनी खोवोगे
करोगे मन ही मन मंथन
और जी भर के रोवोगे।

मैंने तुमको जीवन प्रयन्त
किया है टूट के प्यार
कर नहीं सका कभी भी
चाह कर भी मैं इज़हार।

कर लेना तुम विश्वास तब
मेरे इस प्यार का तुम
किया उम्र भर जो मैंने
उस इंतज़ार का तुम।  
शायद अब आपको ख़त किसे कहते हैं महसूस हुआ अवश्य होगा। खत स्याही से कम अश्कों से ज़्यादा और लहू से भी लिखे जाते थे। अब कहां वो ज़माना वो भावनाएं वो लोग वो दिल के जज़्बात। तब नाकाम मुहब्बत भी आशिक़ महबूब या महबूबा के खत दुनिया से छिपाकर रखते थे उसकी रुसवाई नहीं होने देते थे। 

कुछ शेर भी अर्ज़ हैं मेरे लिखे खत को लेकर :-

उसको लिखेंगे ख़त कभी दिल खोल के हम भी ,
हम हो गये तेरे लिये बदनाम लिखेंगे।
ऐसा इक बार नहीं , हुआ सौ बार ,
खुद ही भेजे ख़त पाये हमने। 

      आज किसी का खत खुले आम पढ़ा सुनाया जा रहा था लगता है मन की बात करते करते उकता गए हैं। मुझे याद आया इक दोस्त कभी मुझसे अपनी महबूबा को भेजने को खत लिखवाने आया था। मैंने उसकी थोड़ी मदद की थी लेकिन ताकीद भी की थी हर किसी को अपना खत मत दिखाना देवर फिल्म में यही हुआ था दोस्त को भेजा था अपने लये जिसे देखने दोस्त खुद उसी पर फ़िदा हो गया था। मुझे क्या खबर थी कभी इश्क़ में रकीबों को कासिद बनाते नहीं , खता हो गई मुझसे क़ासिद मेरे तेरे हाथ पैगाम क्यों दे दिया। बहारों ने मेरा चमन लूटकर। फूल तुझे भेजा है खत में फूल नहीं मेरा दिल है। ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कि तुम नाराज़ न होना। चिट्ठी आई है , लिखे जो खत तुझे , चिट्ठी न कोई संदेश। आख़िरी खत फिल्म भी थी , बहारो मेरा जीवन भी संवारो। हमने सनम को खत लिखा। खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू कोरे कागज़ पे लिख दे सलाम बाबू। तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे। कहां तक बताएं क्या क्या गिनवाएं खत क्या होते हैं कमबख़्त मोबाइल ने चिट्ठियों का लुत्फ़ ही खत्म कर दिया। किसी की ग़ज़ल है एक आंसू कोरे कागज़ पर गिरा और अधूरा खत मुकम्मल हो गया। सच कहूं ये अंजाम देख कर समझ नहीं आया रोया जाये या हंसा जाये। खत बड़ी नाज़ुक चीज़ होती है अल्फ़ाज़ परखता रहता है आवाज़ भी मेरी तोल कभी। खुशबू की ज़ुबां में बोल कभी फूलों की तरह लब खोल कभी। ये खत लिखना मन की बात करना ये हम दिल वालों की विरासत है इसको अपनी सत्ता की राजनीति का माध्यम मत बनाओ। मगर आपका निज़ाम है नहीं मानोगे मगर वो खत क्या जो हाथ में पकड़ आंखों से पढ़ दिल से महसूस कर उसका जवाब देने को मज़बूर नहीं कर सके। हमने भी भेजे हैं सैंकड़ों नहीं हज़ारों खत डाक से ईमेल से किसी का भी कोई जवाब नहीं आया। बैरंग लौट आये हमने जितने भी खत भेजे उनको सभी को।

   ये चिट्ठी कैसी है जिस में जिसको लिख कर भेजी उसका हाल चाल नहीं पूछा ये सोच लिया सरकार में सब राज़ी ख़ुशी हैं तो जनता भी राज़ी ख़ुशी से रह रही होगी। मालूम नहीं कहां से ये तहज़ीब सीखी है जनाब ने कोई हाल ए दिल बताया पूछा नहीं बस खुद ही अपना यशोगान गुणगान महिमा का बखान किया। अपने मुंह मियां मिट्ठू बन गए ये भी नहीं सोचा होगी आपकी सरकार की वर्षगांठ जनता की हालत इस से बदतर कभी नहीं थी। अमावस की रात को चांदनी रात बताकर ये प्यार मुहब्बत की मीठी बातें करने का सही समय नहीं है जब लोग केवल घर में कैद नहीं हैं मौत से आमना सामना करते कोरोना से ज़िंदगी को छीन कर जीने का जतन कर रहे हैं। और आप ख़ैरख़्वाह हैं जो समझते हैं नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। ये आर पी महरिष जी का शेर है " ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आखिर , नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। लोग कोई वक़्त था , डाकघर से लोग जवाबी पोस्टकार्ड लेकर भेजते थे जिस पर अपना पता लिखा पोस्टकार्ड सलंग्न रहता था। ताकि खत मिलने पर जवाब भी ज़रूर देना है ताकीद रहे।

   कही मैं उसका पता भूल ना जाऊं राशिद ,  मुझको लिखता है वो हर बार जवाबी काग़ज़।



     मगर आपको जवाब पसंद नहीं आएगा इसलिए आपने ये एकतरफा संवाद का तरीका ढूंढ लिया है। मन की बात कहते हैं दर्द की दास्तां हमारी नहीं सुनते। चिट्ठी भी अपने भेजी मिली नहीं खबर इश्तिहार बन गई और आपका पता सबको पता है ये भी पता है कुछ भी लिख भेजो कौन पढ़ता है आपने अपनी बात लिखी या लिखवाई और सुनाई भी सुनवाई भी। लेकिन लोग आपको नहीं बता सकते उनकी भी कोई बात है। मेरे इक दोस्त ज़रूरी खत भेजना होता था तो बैरंग भेजते थे जिस पर कोई टिकट नहीं लगाते थे मगर जिसको मिलता उसको दुगनी कीमत देनी होती थी। गरीबी में आटा गीला कहावत है अब आपका खत है बैरंग है मिला है लेना भी ज़रूरी है। इतनी बेदर्दी भी अच्छी नहीं। आज कहा सो कहा अब ऐसा सितम मत करना ये तो इक फ़रमान है इसको चिट्ठी नाम मत देना फिर कभी। खत चिट्ठी बड़े कोमल एहसास होते हैं जिनमें उनका नाम है बदनाम नहीं करना। कभी मिली थी कोई चिट्ठी आपको लिखा हुआ था चिट्ठी नहीं तार समझना , टेलीग्राफ को तार कहते थे। थोड़े लिखे को बहुत समझना घर जल्दी वापस आ जाना। मिली क्या कभी लगता है आपको नहीं खबर चिट्ठी का असर मुझे याद है इक घटना पर छोडो इक ग़ज़ल जो ऐसे गलत पता देने वाले आशिक़ को लेकर है।






  







आसमान खुल गया उड़ना भूल गए ( अफ़साना लॉकडाउन ) डॉ लोक सेतिया

    आसमान खुल गया उड़ना भूल गए ( अफ़साना लॉकडाउन ) 

                                        डॉ लोक सेतिया 

    उनकी उड़ान आसमान को छूने से भी ऊंची है मगर आकाश पर अभी बसेरा नहीं बन सकता है। आपको दो कहानियां फिर से सुनानी हैं शायद उसके बाद आप को खुद ही अपनी वास्तविकता समझ आ जाएगी। उसके बाद इक कविता किसी जाने माने शायर की और फिर अंत में अपनी इक कविता भी शायद और साफ समझने को काफी होगी । 

           एक बार किसी पहाड़ी घाटी में घूमते हुए इक महात्मा को नीचे गहराई से इक आवाज़ सुनाई दी मुझे आज़ाद करो। ढूंढते ढूंढते महात्मा पहुंचा तो देखा इक पंछी पिंजरे में बैठा है पिंजरा खुला हुआ है फिर भी बाहर नहीं निकल रहा और सहायता मांग रहा है। महात्मा ने भीतर हाथ डालकर उसे बाहर निकाला और आकाश में उड़ा दिया। लेकिन अगली सुबह महात्मा फिर विचरण करते उसी जगह पहुंचे तो वही आवाज़ दोबारा सुनी मुझे आज़ाद करो। अब महात्मा ने सोचा कहीं किसी ने फिर उसको पिंजरे में तो नहीं बंद कर दिया , मगर अजीब बात थी पिंजरा खुला हुआ था पंछी भीतर खुद ही बंद था , महात्मा को समझ  गया उस पंछी को पिंजरे से लगाव हो गया है। अब इस बार महात्मा ने पंछी को बाहर निकाला ऊपर आसमान की ओर उड़ा दिया और साथ ही उसके पिंजरे को भी उठाकर नीचे बहते पानी में फैंक दिया ताकि वो वापस लौटे तो कोई पिंजरा ही नहीं दिखाई दे। पिंजरे में रहने की आदत हो जाती है तो खुले आकाश को छोड़ फिर चले आते हैं पिंजरे में ये समझते हैं कि यही सुरक्षित जगह है। 

          दूसरी कहानी किसी राजा के पास दो बाज़ थे दोनों को साथ साथ उड़ना सिखाया था पक्षियों की देखभाल करने वाले ने। इक दिन राजा ने देखना चाहा उनकी उड़ान कितनी ऊंची है। मगर जब प्रशिक्षक उनको उड़ाने को संकेत देते तो इक बाज़ बहुत ऊपर तक उड़ता रहता मगर दूसरा जिस पेड़ की शाख पर बैठा हुआ होता थोड़ा उड़ वापस उसी पर आकर बैठ जाता। राजा ने कितने जानकर लोगों को बुलवाया मगर कोई भी उसको ऊंची उड़ान भरवाने  को नहीं सफल हो पाया। राजा ने मुनादी करवा दी अगर कोई उसको उड़ना सिखा देगा तो उसको बहुत धन हीरे जवाहरात दिए जाएंगे। इक दिन राजा ने देखा वो बाज़ भी पहले बाज़ की ही तरह ऊंची उड़ान भर रहा था। जब पता करवाया ये किस ने किया है तो इक किसान दरबार में आया , राजा ने पूछा अपने ये कैसे किया है। किसान ने कहा मैं कोई जानकर नहीं हूं मुझे तो कि उस बाज़ को अपनी पेड़ की शाख को छोड़ना नहीं चाहता है इसलिए मैंने उस शाख को ही काट दिया जिस पर उसका बसेरा था। और वो उड़ने लग गया उड़ना जानते हैं हम मगर अपने पिंजरे से अपनी पेड़ की शाख से अधिक लगाव होने से उड़ते ही नहीं।

      तीसरी इक कविता है जो कैफ़ी आज़मी की लिखी हुई है। कुछ लोग इक अंधे कुंवे में कैद थे और अंदर से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ देते रहते थे , हमें आज़ादी चाहिए , हमें रौशनी चाहिए। जब उनको अंधे कुंवे से बाहर निकाला गया तो बाहर की खुली हवा रौशनी को देख कर वो घबरा गए। और उन्होंने फिर उसी अंधे कुंवे में छलांग लगा दी। अंदर जाकर फिर से वही आवाज़ देने लगे , हमें आज़ादी चाहिए हमें रौशनी चाहिए। ये तीनों बातें लगता है वक़्त दोहरा सकता है जैसे इतिहास कहते हैं खुद को दोहराता है फिर से। अंत में मेरी दिल के करीब इक बहुत पहले की कविता है मुक्त छंद की उसको भी पढ़ना सुनना समझना।

        कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने  ,
खुद अपनी ही कैद से।   
 

 

मई 29, 2020

शहंशाह तलाश लिया हमने ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    शहंशाह तलाश लिया हमने ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

नारद जी को समझना था या समझाना उनको पता नहीं चला मगर जैसा उन्होंने वादा किया था नारद जी को वो राज़ की बात बतानी ही थी। कहने लगे हे मुनिवर आपको मालूम है भारत के नागरिक हमेशा इस उलझन में रहते हैं कि बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातों के अर्थ कभी किसी को समझ नहीं आते हैं। जैसे बच्चे स्कूल में अध्यापक से पढ़ते हैं और परीक्षा में लिखते भी हैं कि अगर कभी उनको किसी बड़े ऊंचे पद पर नियुक्त किया जाये तो उनको क्या क्या करना पसंद होगा। सभी बच्चे जो सीखा था उनको सिखाया गया था वही अच्छी आदर्शवादिता की बातें लिखते हैं ताकि अच्छे अंक मिलें मगर कोई नहीं बताता वास्तव में उनको ऐसा मौका मिल जाये तो उनकी हसरत क्या होगी। मानव सवभाव है जो मन में होता है ज़ुबान पर नहीं होता है और जो ज़ुबां से बोलते हैं मन की चाहत वो नहीं होती है। शासक बनकर कोई भी सामान्य जीवन जीने की बात नहीं सोचता है दिल यही चाहता है कि काश ऐसा हो जाये तो जितने सपने हैं सब को पूरे कर कर लेंगे। 

जब देखा कोई उसी तरह का है खूब शान से रहीसाना अंदाज़ से महाराजा बनकर रहता है तब लोग यही मानते हैं कि यही तो आनंद है शासक बनने का। राज पाकर भी मनमानी नहीं की अपना सिक्का नहीं चलाया तो क्या ख़ाक मज़ा किया। लोग खुद कितने झूठ बोलते हैं और चाहते हैं सभी यकीन करें ये सच है ऐसे में सत्ता का मकसद ही यही है कि आपका झूठ भी सच से बड़ा समझा जाये झूठ सच की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं लिखी गई झूठ को सच साबित करने का हुनर होना सबसे महत्वपूर्ण बात है। वास्तव में आम नागरिक की मानसिकता ही यही बनी हुई है कि शासक है तो उसको सभी को अपने सामने झुकाना आना चाहिए। जो उसकी बुराई करे उसको नानी याद दिलवा दे और जो उसके सामने करबद्ध खड़े हों उनकी झोली भरता रहे। शासक बनकर भी सादगी से रहना कोई इसकी कल्पना भी नहीं करता सभी सोचते हैं ये तो कथा कहानी में लोगों से वास्तविकता छुपाने की घड़ी हुई झूठी बातें हैं। इसलिए भले आजकल राजाओं के अपने राज्य नहीं और लोकतंत्र में जनता के निर्वाचित सांसद विधायक हैं जनसेवा करने को मगर आम नागरिक समझते हैं उनको सत्ता की बागडोर सौंप दी तो वो ख़ास बन गए हैं। अब ख़ास आम कैसे हो सकता है ख़ास होने का मतलब ही आम नहीं रहना है। 

नारद जी ये देश कहने को नैतिकता और आदर्शों की बात करता है मगर सही मायने में ईमानदारी का मार्ग कोई नहीं चलना चाहता है। मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी सुना होगा आपने ,लोग शराफत से रहना नहीं चाहते बदमाशी नहीं कर पाते तभी शराफत को ओढ़ते हैं। मौका मिलते ही सभी बेईमान होने को तैयार हैं। हाथी के दांत खाने के और दिखाने को और होते हैं की ही तरह लोग जो कहते हैं चाहते उसके विपरीत हैं। जब कोई उस तरह का मिल गया है जैसा उनकी चाहत थी बन जाएं तो ऐसा होना है तब उनको लगता है शायद कभी उनको भी ये अवसर मिल ही जाये उसी की तरह से शहंशाह की तरह जीने को। ऐसे में क्या महसूस होता है समझना होगा , इस तरह की सोच वाले ऐसे शासक को देखते हैं तो उनको अपनी सूरत नज़र आती है। आईने में अपनी शक्ल हर किसी को बेहद खूबसूरत लगती है आपने ध्यान दिया सोशल मीडिया पर अजीब सी शक्ल सूरत वाले भी अपनी सेल्फ़ी या कोई फोटो जो शायद ही लुभावनी लगती है जिसकी डीपी है उसको खुद को विश्वसुंदरी से बढ़कर लगती है। नहीं मेरा मकसद कदापि ये नहीं कि देखने में खूबसूरत होना कोई बड़ी बात है असली महानता आपके आचरण की सुंदरता होती है मैं मानता हूं लेकिन ये जो अपने खुद पर मोहित होने का पागलपन है ये लाईलाज रोग है कोरोना की तरह।

लोग सोचते हैं अपने शासक की दुनिया में बड़ी अहमियत है उसको जब भी कोई शासक मिलता है तपाक से गले लगाता है हाथ मिलाने के साथ। ये राजनीति का धंधा है गंदा भी है लगता चंगा है। ये कुछ ऐसा है तुम मुझे चौधरी साहब कहकर बुलाना मैं तुझे मेहता जी संबोधित किया करूंगा। शुद्ध लेन देन की बात है दिल में दोनों नेताओं के अपना अपना गणित रहता है। दुनिया चढ़ते सूरज को नमस्कार करती है सुनते थे आजकल सब मामला आयत निर्यात का है जिस को जिस देश से कमाई होती है वही भाई भाई होते हैं। जनता तो भौजाई होती है मज़ाक उड़ाने को कभी किसी ने जनता को बहन की तरह आदर नहीं दिया। वोट लेते समय भाईयो और बहनों के बाद दोस्तो संबोधन उपयोग करते हैं। बहन का रिश्ता देने का हुआ करता है और सत्ता को देना भी हो तो भीख की तरह देती है प्यार का उपहार लेते हैं देते नहीं कभी भी।

कितने लोग होंगे जो धन दौलत सत्ता ताकत शोहरत पाने के बाद भी खुद को अहंकार से लोभ लालच से बचा कर रख सकते हैं। अधिकांश की मानसिकता यही होती है कि जो उसको नहीं अच्छा लगता काश उसको कभी सामने ही नहीं देखना पड़े चाहे तो व्यक्ति सच कहने वाला ही हो। अपनी आलोचना करने वाले को मुमकिन हो तो देश दुनिया से ही हटवा दें , कौन नहीं चाहता। जब हर किसी के मन में यही सत्ता का चलन उचित लगता है तब उनको जैसे ही ऐसा शासक मिला उनको लगा यही उनकी चाहत है कल्पना है। अब ऐसी सोच के लोग सत्ताधारी के अन्याय अत्याचार करने को मानते हैं उसका अधिकार है मर्ज़ी है। और ऐसे शासक भी आये दिन कोई न कोई कठोर कदम उठाकर ये परखते रहते हैं कि उनका रुतबा कायम है या कहीं कोई कसर तो नहीं है। आपने इक कहानी सुनी है इक राजा ने इक रेगिस्तान में जहां कोई पानी नहीं था इक पुल बनवा दिया और सबको दूसरी तरफ जाने को इक कर देने का नियम रख दिया। किसी ने नहीं सवाल किया कि जब बिना पुल के ही आसानी से सीधे रास्ते जा सकते हैं तो क्यों पुल का उपयोग ज़रूरी किया गया है और क्यों कोई कर सरकार को हर बार देना पड़ता है। जब शासक ने देखा कोई भी विरोध करने का साहस नहीं करता तो और कठोर निर्णय किया गया सबको आने जाने के समय इक इक डंडा मारने की शुरुआत की गई। लोग फिर भी कुछ भी नहीं बोले। मगर इक दिन कुछ लोग साथ मिलकर दरबार में आये तो शासक को लगा अब लोग ज़ुल्म नहीं सहने वाले और विरोध की बात करने आये होंगे। मगर फिर भी शासक ने पूछा क्या बात है आपको कोई परेशानी है पुल से गुज़रने में। नहीं सरकार कोई परेशानी नहीं है हम तो जनाब से निवेदन करने आये हैं कि इक इक सिपाही नियुक्त है और हमें कतार में बहुत समय खड़े होना पड़ता है आप इक की जगह दो या चार सिपाही नियुक्त कर देते तो हमारी परेशानी दूर हो सकती है। कर बढ़ा दे या सज़ा बढ़ाता रहे लोग हाथ जोड़ स्वीकार करते हैं। ये कहानी पढ़ी सभी ने थी आज़माई पहली बार किसी ने है और कमाल की बात है लोग फिर भी खुश हैं और चाहते हैं उसी को बार बार चुनकर शासक बनाना। पहले शासक मिले राजा महाराजा जैसे मगर शहंशाह पहली बार मिला है। ताजमहल देखते हैं तो शाहजहां की प्यार की निशानी कहते हैं। मुमताज को कौन याद करता है मुमताज ने कब ताज को देखा था कहते हैं शाहजहां अपने आखिरी समय में बंद कैद की खिड़की से ताजमहल को निहारा करता था। शाहजहां की मुहब्बत की हक़ीक़त इक तस्वीर बयां करती है। शाहजहां ने ताज बनवाया था इसको क्या बनाना है कोई नहीं जानता।  इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर , हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक। साहिर की नज़्म याद आयी है सुनते हैं।



बना कर सरकार बड़े पछताये ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 बना कर सरकार बड़े पछताये ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कहते हैं खुदा एक को बनाओ अगर हर किसी को बनाओगे तो हाथ मलते रह जाओगे। साहूकार भी सोच समझ कर बनाना चाहिए हर चौखट पर सर नहीं झुकाना चाहिए। सयाना ईयाणा दो शब्द हैं पंजाबी में  ईयाणा वो होता है जो आपकी बात का ढिंढोरा पीटता है और उस से उधार क़र्ज़ लेना अपनी फजीहत करवाना होता है ऐसा साहूकार बड़ा हानिकारक होता है अब चाहे वो आपका बाप ही क्यों नहीं हो। हम नासमझ लोग हैं एक दो नहीं तीन तीन सरकार बना रखी हैं। देश की सरकार राज्य की सरकार और इक घर की सरकार अब आपको इक को नहीं तीन को साधना है। रहीम जी कहते हैं

    " एकै साधे सब सधै , सब सधै सब जाय , रहिमन मूलहि सींचिबो फूलहि फलिह अघाय "।

आपका ध्यान इक की तरफ होना चाहिए ठीक है मगर मुश्किल ये है एक कौन जड़ को सींचना है मगर जड़ किसे समझें किसे फल फूल यहां सब मामला गड़बड़ है। अब हर सरकार की मर्ज़ी है जो वो कहती है वही आदेश है आपको पालन करना चाहिए। और आपको जीना भी है और मन को शांत भी रखना है तो आपको मौन तपस्वी की तरह सब देखते समझते विचलित नहीं होना है जो देश में होता है होने दो जो राज्य में घटता है घटने दो जो घर की हालत है रहने दो। मैं ग़म को ख़ुशी कैसे कह दूं जो कहते हैं उनको कहने दो। या दिल की सुनो दुनिया वालो या मुझको अभी चुप रहने दो। 

बात यहां से शुरू होती है। सरकार ने नियम बनाया है आपको घर से बाहर कब निकलना है कैसे और क्यों का भी हिसाब रखना है। आपको सभी को चेहरे को ढकना चाहिए , अब भूल जाओ न मुंह छिपा के जिओ और न सर झुका के जिओ। ग़मों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जिओ। कोरोना का रोना धोना छोड़ के जिओ मगर सरकार नहीं इजाज़त देती। आपको मास्क लगाना है क्या मास्क से आपको कोरोना नहीं होगा , नहीं आपको कोरोना है ये मान कर चलो और आपको मास्क लगाना है ताकि किसी और को कोरोना नहीं देते रहो। मतलब इस तरह है घर में किसी को नहीं आने देना आपके पास जो खज़ाना है कोई भी आकर लूट सकता है , अब सभी को चोर की तरह से कोरोना का रोगी समझने में ही भलाई है। अब आपको किसी पर भी भरोसा नहीं करना है भरोसा रखना है सरकार पर मगर मुश्किलें बहुत हैं सरकार तीन हैं उनकी बातें हज़ार हैं। सब अच्छे भले हैं मगर सभी बीमार हैं नासमझ है जो वही समझदार हैं। आजकल के अजब किरदार हैं बात दस्तूर की जब करते नहीं किसलिए बन गए आप सरदार हैं। सरकार आपको बताती है आपको कोरोना है भी नहीं भी आप को डॉक्टर के पास जाना भी नहीं और जाना भी ज़रूरी है मगर कब क्यों सरकार की बात समझ लो। क्या सरकार को कोरोना की जानकारी है कहते हैं नहीं है मगर आपको देनी है जो सरकार कहती है वही सच है। 

सरकार कोई भी बनाने वाले को समझना कठिन होता है बाद में पछताने से भी कोई फ़ायदा नहीं सरकार को सरकार रहना है आपको समझ आती है चाहे नहीं भी आती है। घरवाली सरकार है घर देश है शहर है गांव है सब है और आप क्या हैं कुछ भी नहीं हैं जनता की तरह कहने को मालिक हैं अधिकार कोई भी नहीं है। ये कुछ भी नहीं बेमतलब की तकरार है। घर भी अपने में इक संसार है कोई इस पार कोई उस पार है हर किसी को सब कुछ दरकार है। यहां सभी 52 गज़ के हैं कोई चालाक है कोई समझदार है कोई किसी तरह साबित करता है उसी की चाहत है अहमियत है जो नहीं जानता हुनर सभी को खुश रखने का नहीं किसी काम का वो बस बेकार है। लिखी तो ग़ज़ल थी अब छंद को छोड़ बात लिखता हूं। जो अंधें हैं सबको रास्ता दिखा रहे हैं। जो बहरे हैं बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। जो गूंगे हैं वही बड़े मधुर स्वर में गा रहे हैं। सबको उन्हीं पर है ऐतबार भी जो रात को दिन बता रहे हैं। सरकार हैं , वही पुरानी बात है। राजा बोला रात है। रानी बोली रात है। मंत्री बोला रात है। संत्री बोला रात है। मीडिया को भी जोड़ लो वो भी बोला रात है। ये सुबह सुबह की बात है। हर सरकार का यही यकीन होता है कि उसका कोई विकल्प नहीं है। घरवाली समझती है उस से अच्छी आपको नहीं मिल सकती थी। देश की सरकार मानती है उसको बदलोगे तो पछताओगे राज्य की सरकार दावा करती है वही मन मोहने वाली मनोहर सरकार है। अपना मत पूछो क्या विचार है जिसका निज़ाम है सब उसी का इख़्तियार है बंदा क्या है इक कागज़ की तलवार है। तकदीर उनकी है जिनके सर पर कोई सरकार सवार नहीं रहती है। मोदी योगी खट्टर क्या समझेंगे सरकार सर पर लटकी दो धारी तलवार होती है।

मई 28, 2020

अब लगे टूटने सब भरम आपके ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब लगे टूटने सब भरम आपके ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

अब लगे टूटने सब भरम आपके 
क्या करम आपके क्या थे ग़म आपके। 

वक़्त ने आपकी पोल सब खोल दी 
कितने झूठे थे सारे वहम आपके। 

अब मसीहा नहीं मानते लोग भी 
काम आये नहीं पेचो-खम आपके। 

सोचना एक दिन ओ अमीरे-शहर 
लोग सहते रहे क्यों अलम आपके। 

कब निभाई किसी से वफ़ा आपने 
आप किसके हुए कौन हम आपके। 

ज़हर देते रहे सबको कहकर दवा 
ख़त्म होंगे कभी क्या सितम आपके। 

खून की बारिशें जिसमें "तनहा" हुईं 
लोग देखा करेंगे हरम आपके।

मई 27, 2020

भगवान आपने क्यों किया ऐसा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    भगवान आपने क्यों किया ऐसा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

जीवन भर जिसका इंतज़ार था आखिर वो पल आ ही गया। मौत का इतना लंबा इंतज़ार भला कौन करता है। भगवान सामने थे अब और देरी नहीं करनी चाहिए। अभिवादन किया और बोल दिया आपको मालूम तो होगा मुझे इस क्षण का कितना इंतज़ार रहा है। भगवान कहने लगे जानता हूं सभी को मेरे दर्शन की लालसा रहती है मगर अभी मुझे चित्रगुप्त जी से आपका बही-खाता मंगवाना है। मैंने कहा भगवान क्या आपने भी भारत सरकार की तरह अपने आमदनी खर्च का विवरण को यही नाम दे दिया है। भगवान बोले नहीं नादान ये कोई बजट की बात नहीं कि आपको बीस लाख करोड़ में कुछ भी मिलना भी है या नहीं ये तो आपका हिसाब किताब है। मैंने कहा क्या देखना मुझे पता है मैंने आपके मंदिर में इक दो रूपये से अधिक दानपेटी में नहीं डाले मगर मैंने बदले में कुछ मांगा भी नहीं था। जानता था आपको लाखों करोड़ों देने वाले सोने चांदी के गहने मुकट आसन जाने क्या क्या भेंट करने वाले भक्त हैं उनकी इच्छाओं को ही पूर्ण करना आपको कठिन लगता होगा। मुझ जैसे जो सच में भक्ति का अर्थ नहीं समझता कोई भजन कीर्तन आरती नहीं गाता जिसे आपको खुश करने को गुणगान करना आपके नाम की माला जपना नहीं आता उसकी मनोकामना का कोई महत्व ही क्या होगा। हां किसी किसी दिन शायद जब हद से ज़्यादा परेशान हुआ कोई फरियाद की थी वो भी शिकायत की तरह। अब बस भी करो भगवान और दुःख दर्द नहीं सहे जाते। मगर लगा तब इतना अधिक शोर था कि तुम तक मेरी सिसकियों की आवाज़ पहुंची भी कहां होंगी। 

भगवान को अभी तक मेरा लेखा-जोखा वाला पन्ना नहीं मिला था इसलिए कहने लगे शायद ये 1951 के साल का बही खाता नहीं है अब इतना पुराना हो गया कि वर्ष साफ पढ़ने में नहीं आया और किसी साल का उठा लाया अभिलेख कक्ष से। मैंने कहा भगवान मेरा कर्मफल बाद में देखते रहना और अभी कोई सज़ा बची हो तो दे लेना कोई ना- नुकर नहीं करूंगा। मगर ज़रा अपने हिसाब पर भी निगाह डालते आपने क्यों किया ऐसा। भगवान हैरान मैंने क्या क्यों किया क्या कहना चाहते हो। मैंने कहा भगवान होना अपनी जगह इंसान होना अपनी जगह मगर नियम असूल सब पर बराबर होने चाहिएं। आपकी भगवान कहलाने की चाहत ने धरती पर क्या चलन चलाया है कि सबका जीना दुश्वार कर दिया है। भगवान अचंभित होकर बोले ये क्या माजरा है ऐसा क्या है जिसका दोष मुझी पर दे रहे हो। 

भगवान मुझे पता है आप सब जानते हैं मगर अनजान बन रहे हैं लेकिन मैं भी आपको मनवा कर रहूंगा आप को खुल कर साफ साफ कहना ज़रूरी है। आपको मालूम है धरती पर हर कोई अपना गुणगान करवाना चाहता है और जिनको किसी का गुणगान करना नहीं आता उनकी गिनती न नौ में होती है न तेरहां में ही। जाने क्या मिलता है आपको सुबह शाम अपना नाम जपवाने से आरती चालीसा कथा भजन कीर्तन सुनने से। कुछ लोगों की कमाई होती है उनको छोड़ अधिकतर को जो चाहते हैं कहां मिलता है सच तो ये है कि मिलता उनको है जिनको भगवान कभी याद ही नहीं रहता है। उनको याद ही पैसा कारोबार राजनीति या कुछ भी हर पल रहता है भगवान आपका नाम तो लोग अर्थी उठाते वक़्त याद करते हैं बस बाद में श्मशानघाट में भी चर्चा जाने क्या क्या होती है। वहाँ भी हर तरफ आपका गुणगान लिखा रहता है कोई देखता भी नहीं कोई समय बिताने को राम नाम लेने की बात कहता है जिसे सुनते नहीं लोग विवश होकर सुनना पढ़ता है। आपको इतना ही अच्छा लगता है तो अपने पास इक डीजे मंगवा लो आवाज़ जितनी चाहे ऊंची रखना कोई यहां आपको रोक नहीं सकेगा जब जहां अदालती कानून है वहां भी कोई नहीं मानता और पुलिस भी भगवान से डरती है सख्ती से रोकती नहीं जाकर विनती करती है थोड़ा लाऊड कम रखो। 

भगवान के पास कोई जवाब नहीं था देने को कुछ सोचने लगे , मैंने कहा क्यों आई बात समझ में। तभी 1951 साल का बही - खाता ढूंढ लाया कोई। खैर मैंने कहा चलो पहले मुझे जितनी सज़ाएं देनी हैं बताओ और फैसला सुनाओ तैयार हूं मैं हर सज़ा के लिए। मगर जवाब तो देना पड़ेगा आपने क्यों किया ऐसा। अब भगवान इक लंबी सांस लेकर बोले मुझे तो याद नहीं कि मैंने कब किसी को मेरा गुणगान करने को कहा था। किसी का भी किसी को अपना नाम जपने को कहना भला कितना छोटापन होगा और मुझे दुनिया वालों से कोई अपने होने नहीं होने का सबूत क्यों चाहिए। सच्ची बात तो ये है कि मुझे पहले इस बारे किसी ने क्यों नहीं सवाल किया , मैंने भी विचार नहीं किया ये तो गलत परंपरा है किसने शुरू की। लेकिन सच्ची बात तो ये है कि हमने कभी किसी के ऐसे कामों को कोई महत्व नहीं दिया है। कोई जीवन भर राम नाम की माला जपता रहे उसको यहां हिसाब केवल उन्हीं बातों का देना पड़ता है जो भलाई या बुराई उसने सभी के साथ की। भगवान का गुणगान या अपने किसी नेता अभिनेता खिलाड़ी का गुणगान उनकी अपनी गुलामी की मानसिकता के कारण है। मैंने इंसानों को अपना गुलाम कभी नहीं बनाना चाहा और भगवान ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु जीसस कोई भी नाम रटने से कुछ नहीं हासिल होता है। आस्तिकता भगवान को मानने का अर्थ है सभी से अच्छा व्यवहार करना अच्छाई सच्चाई की राह चलना। बेशक भगवान को भूल जाओ मगर इंसानियत को शराफ़त को कभी नहीं भुलाना। भगवान मुश्किल में हैं चाहे जिस किसी ने ये किया करवाया हो बही खाते में उनको ये अपने नाम लिखने को छोड़ कोई चारा नहीं बचता है। मुझे समझ आ गया अभी भगवान को अपना हिसाब ठीक करना है उसके बाद ही मुझे मेरा हिसाब किताब बताएंगे। इंतज़ार में खड़ा हूं।

मई 26, 2020

अच्छी सच्ची जनता की नाकाबिल झूठी सरकार ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  अच्छी सच्ची जनता की नाकाबिल झूठी सरकार ( आलेख )

                                              डॉ लोक सेतिया

   ये सवाल कभी शायद खुद आपने भी अपने आप से किया हो। यूं ये सवाल दुनिया भर के लोग औरों से करते हैं। बेशक ऐसे लोगों को अपनी क़ाबलियत पर गरूर होता है और बाक़ी लोग उनको नाकाबिल लगते हैं। आज जो बात मुझे कहनी है उसका मकसद अलग है भले सब दुनिया आपको नासमझ और नादान या किसी काम का नहीं मानती हो आपको अपने को लेकर ज़रा भी दुविधा मन में नहीं रखनी चाहिए। सबसे पहले तो किसी को किसी और को जांचने परखने का अधिकार क्यों हो उनको जो खुद अपने को शायद नहीं परखना चाहते औरों को अच्छा खराब घोषित करते हैं और खुद को लेकर सोचना जानते ही नहीं। दुनिया ऐसे लोगों से भरी पड़ी है जो अपनी नज़र में हर तरह से शानदार हैं। होंगे भी मगर उनको इक बात की समझ नहीं है कि कोई भी आदमी सभी कुछ नहीं हासिल कर सकता फिर भी सभी में कुछ अच्छाई भी होती है जिसकी पहचान उनको नहीं होती है और ऐसे लोग कमियां ढूंढते हैं अच्छाई नहीं देख पाते हैं। 

   अब उस सवाल का जवाब आपको किसी को नहीं देना खुद सोचना है और समझना भी है। जिनको लेकर समझा जाता है सत्ता पाकर सब कुछ हासिल किया है और काबिल हैं सफल हैं नाम है शोहरत है। वास्तव में देखेंगे तो उन्होंने देश समाज को कुछ भी नहीं दिया होता है। जनता ने उनको भरोसा कर जनकल्याण और देश समाज की सेवा करने को निर्वाचित किया था शासक बनकर सत्ता का मनमाना उपयोग करने का अधिकार नहीं दिया था। लेकिन सत्ता की लूट जारी रही है लोग बदलते रहे हैं। हुआ करते थे कभी जो लोग इक आदर्श थे अपना तन मन धन देश समाज को अर्पण किया करते थे। आजकल खुद को गरीब परिवार का बताने वाले और गरीबी क्या है ये समझने का दम भरने वाले देश की गरीबी का उपहास करते हैं अपनी शान रहन सहन अपने तमाम ऊंचे ख्बाब जनता के धन से पूरे करते हैं। करोड़ों रूपये अपने गुणगान पर बर्बाद करते हैं। कितने झूठ बोलते हैं जिस बात को कभी अनुचित बताते थे सत्ता मिलते खुद और बढ़चढ़कर करते हैं। कोई नैतिकता कोई मर्यादा का पालन नहीं करते सत्ता और ताकत पाने को। देश सेवा जनता की सेवा भाषण तक वास्तव में अपने अपने दल अपनी संस्था संगठन या अपने ख़ास लोगों को खज़ाने की लूट की छूट देने का काम किया करते हैं। उन के चाहने वाले उनकी आलोचना नहीं पसंद करते बचाव में कहते हैं तो क्या फलां नेता को सत्ता सौंप दी जाये , अब उनको कोई नहीं समझा सकता कि सत्ता किसी दल की भी विरासत नहीं है न किसी भी परिवार की बपौती है। सवा सौ करोड़ में काबिल ईमानदार बहुत लोग मिल सकते हैं और अगर हमने देश की समाज की भलाई करनी है तो दल जाति धर्म परिवार की बात छोड़ केवल सच्चे ईमानदार लोगों को चुनना होगा जिनको आजकल के लोभी सत्ता के भूखे नेताओं की तरह लाखों करोड़ों अपने ऐशो आराम पर खर्च करना देशभक्ति नहीं लगता हो। मुझे ऐसे लोग कभी अच्छे नहीं लगते जो खुद आपने आप को महान घोषित करवाने को किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। मुझे कई साल पहले मेरे जन्म दिन पर बेटे अनुराग ने इक डायरी भेंट की थी जिस के पहले पन्ने पर लिखा था। हिंदी में अनुवाद किया है इंग्लिश में लिखा हुआ है। 

Popularity is a crime from the moment it is sought; it is only a virtue where men have it whether they will or no. 

          जॉर्ज सविले इक राजनेता के शब्द हैं।

 " शोहरत उसी पल इक गुनाह बन जाती है जब आप उसकी इच्छा रखते हैं। ये आपके उच्च नैतिकता वाले आचरण पर है कि आपको सफलता और शोहरत हासिल होती है या नहीं। "

      लेकिन अगर हमने जनता ने देश की मालिक होने के बावजूद भी खुद अपनी चाहत हासिल करने को किसी और का पैसा या सार्वजनिक धन का उपयोग नहीं किया है ये हम कर सकते हैं कभी नहीं। हम सभी साथ साथ चैन से रहते हैं आपसी मतभेद अपनी जगह। हमने अपने विरोधी या आलोचक को नुकसान पहुंचाने का काम नहीं किया है।  जबकि शासक ऐसा अधिकतर करते हैं और अपने गुणगान करने वालों को चाटुकार लोगों को बढ़ावा देते हैं जो सत्ता का अनुचित इस्तेमाल और खतरनाक है क्योंकि ऐसे अंध समर्थक कुछ भी करते देखे गए हैं। हम अपनी आलोचना को अपना अपमान नहीं समझते हैं। हम समझते हैं जब कोई कड़वा सच बोलता है निडर निष्पक्षता से विचार रखता है।  मगर शासक वर्ग को सच अखरता है सत्यमेव जयते देश का आदर्श वाक्य है। समाज की वास्तविकता को दर्शाना हर नागरिक का फ़र्ज़ है और शिक्षित हैं तो समाज को सच बताना अपना कर्तव्य समझना चाहिए । बहुत लोग हर शासक की महिमा बढ़ाई कर के बदले में अपनी आकांक्षा पूरी करते देखे हैं आजकल टीवी चैनल अख़बार यही करने लगे हैं। सत्ताधारी सरकार अपना पक्ष रखती है तमाम तरह से साधन उसके पास हैं और वो हमेशा यही बताते हैं हमने क्या क्या किया वह भी पूरा सच शायद ही बताते हैं। और जो करना चाहिए था मगर नहीं किया उस पर पर्दा डालने का काम किया जाता है। देश की जनता को वास्तविकता मालूम होनी चाहिए और सरकार जो नहीं करती वो भी पता होना चाहिए। सत्ता के लिए किसी भी तरह के हथकंडे अपनाना देश हित की बात नहीं हो सकती है। आजकल देश की राज्यों की सरकारें आये दिन अनावश्यक आयोजन करने पर सरकारी साधनों और पैसे तथा मशीनरी का दुरूपयोग करते हैं। शायद उनको याद दिलवाना चाहिए ऐसा करने पर जून 1975 में अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित किया था ये भी भष्टाचार है तब भी आज भी। अपनी बात से असहमत लोगों की भी राय का आदर करना जो नेता जानते थे उनकी तारीफ उनके विपक्षी भी करते थे। मतभेद होना लोकशाही में ज़रूरी है अन्यथा तानाशाही बन जाती है।

    इस बात को समझने को इक मिसाल देना चाहता हूं। आपने अपने घर खाना बनाने को खेत में काम करने को या किसी भी तरह कोई सेवक रखा हो तो क्या वो अपना काम करने को अपनी महानता बताएगा। वास्तव में उसे सही ढंग से और जो समझा कर नियुक्त किया था संतोषजनक कार्य नहीं करने पर आपको हक होगा आदेश देने का कि अगर सही ढंग से काम नहीं करना तो आपकी ज़रूरत नहीं है। देश से इतना तगड़ा वेतन सुविधाएं पाने के बाद भी जनता ही बदहाल हो तो ये कैसे जनसेवक कैसी कल्याणकारी सरकार है, कभी अपने मतलब की खातिर झूठ को सच बनाते हैं कभी देश समाज में नफरत फैलते हैं। सच देखा जाये तो देश की जनता अच्छी सच्ची और ईमानदार है मगर नेता सरकार अधिकारी कर्मचारी खुद अच्छा वेतन पाने के बाद भी कर्तव्य सच्ची ईमानदारी से निभाना नहीं चाहते। नागरिक को बेबस और मज़बूर करते हैं उनके सामने हाथ जोड़ अधिकार भी खैरात की तरह मांगने को। जिस देश की आधी आबादी भूखी बदहाल है उस देश का शासक अगर खुद अपने पर हर दिन लाखों खर्च करता है करोड़ों रूपये व्यर्थ के आयोजन आडंबर और अपनी शानो-शौकत पर बर्बाद करता है तो उसे मतलबी और संवेदनारहित ही समझा जाएगा। और ऐसे मुखिया के नीचे के लोग भी उसकी तरह मनमानी करेंगे ही। 

 




ज़िंदगी को तबाह कर बैठे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    ज़िंदगी को तबाह कर बैठे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 
ज़िंदगी को तबाह कर बैठे 
फिर वही हम गुनाह कर बैठे । 

कर लिया ऐतबार गैरों का 
पास था सब फ़नाह कर बैठे । 

सब चले राह उस पुरानी पर 
हम नई अपनी राह कर बैठे । 

जब हक़ीक़त खुली कहानी की 
आह भर लोग वाह कर बैठे । 

हम नहीं जानते मुहब्बत क्या 
बेवफ़ा फिर भी चाह कर बैठे । 

हम नहीं बन सके किसी के पर
इक तुझी पर विसाह कर बैठे । 
 
आज वादे सभी भुला "तनहा"
याद कर उसको आह कर बैठे । 
 

 

ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

     कैसे नादान लोग हैं ज़िंदगी से मौत का खेल खेलते हैं। मौत का कारोबार करते हैं मौत का सामान बना रखा है और उसी पर घमंड करते हैं इतराते हैं धमकाते हैं मौत का बाज़ार सजाते हैं। जंग का साज़ो-सामान जंगी जहाज़ हथियार बेच कर अर्थव्यस्था को मज़बूत बनाते हैं। ऐसे समझदार औरों के घर आग लगाते हैं और दूर से खड़े देखते हैं मंद मंद मुस्कुराते हैं। धंधे की भाषा समझते हैं मुनाफ़े वाली दोस्ती बनाते हैं जब तक फ़ायदा नज़र आये दोस्ती निभाते हैं मतलब निकलते ही पतली गली से निकल जाते हैं। उल्लू बनाते हैं कभी हाथ मिलाते हैं कभी हाथ मरोड़ जाते हैं। मौत का व्यौपार करने वाले दो चार नहीं हैं असंख्य लोग हैं जो सस्ते दाम मौत बेचते हैं ज़िंदगी नाम देकर। मौत का कारोबार करने वाले इंसानियत मानवाधिकार और बीच बचाव बिचौलिया का उपयोग कर मसीहाई भी करते हैं। तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तरह मगर क़ातिल भी खुद गवाही भी खुद और फैसला भी खुद करने वाले जब न्याय करने का काम करते हैं तो कमाल करते हैं। उनका इंसाफ यही होता है कि जिसका क़त्ल हुआ वही खुद अपना क़ातिल भी था। किनारे पर खड़े होकर डूबती हुई कश्तियों का तमाशा देखने वाले भी कभी मझधार में फंसते हैं तो नाखुदा को ही ख़ुदा कहते हैं।

    मौत का खेल सर्कस में भी दिखाया जाता था इक कुंवे में मोटरसाईकिल चलाने का नज़ारा लोग देखने को दिल थाम कर बैठते थे। मौत का सामान बेचने वालों में भी मुकाबला होता रहता है बस यही झगड़ा है। कहते हैं कि मुहब्बत और जंग में कुछ भी अनुचित नहीं होता है लेकिन अब मगरमच्छ आंसू बहा रहा है ये नो बॉल है जिस पर उसको बाहर होना पड़ा है। सभी खिलाड़ी जिसे नो बॉल साबित करने लगे हैं उस बॉल को किसने किधर डाला अभी रहस्य बना हुआ है ये बाउंसर है सर से ऊपर थी। कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात  को-रोना-आया। अब आंसू कौन पौंछे सभी का अपना अपना कोई न कोई रोना है। कोई अंपायर नहीं जिसे सभी सरपंच समझते हों जिसका निर्णय अंतिम समझा जाये हर कोई किसी न किसी की तरफ का हो चुका है। ऊपरवाला कब से दुनिया को उसके हाल पर छोड़ चुका है , जैसे कोई पिता अपनी संतान से तंग आकर घोषणा कर देता है ये जो भी करेगा इसकी ज़िम्मेदारी होगी मेरा इस से कोई मतलब नहीं है ये औलाद मेरे कहने से बाहर है। जब लोग बाप बदलने लगे बाप को गधा गधे को बाप बनाने बताने लगे तो वो क्या करता। अब नहीं सुनता हमारी चीख पुकार उसे समझ आ गया है ये लोग मतलबी हैं मतलब निकलते बदल जाएंगे।

           कैक्टस आंगन में लगाने लगे थे जाने क्यों कांटे दिल लुभाने लगे थे। मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली गीत गाने लगे थे फूलों से दामन बचाने लगे थे। फूल बाज़ार में बिकने लगे थे कलियों को भी मसलने के दिन आने लगे थे। कोई शायर कहने लगा था , " ज़िंदगी की तल्खियां अब कौन सी मंज़िल पे हैं , इस से अंदाज़ा लगा लो ज़हर महंगा हो गया। " ज़हर के दाम बढ़ने लगे तो लोग ज़हर का कारोबार करने लगे फिर इक दिन ये भी हुआ कि शायर हैरान होकर कहने लगा , " ज़िंदगी अब बता कहां जाएं , ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।    " शायर कृष्ण बिहारी नूर नहीं जानते थे जो राहत इंदौरी कब के कह चुके थे। " मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में , अब कहां जा के सांस ली जाये। दोस्ती जब किसी से की जाये , दुश्मनों की भी राय ली जाये। " कुछ नासमझ लोग कवि शायर ज़िंदगी और दर्द की किताब लिए फिरते रहे लेकिन कोई ज़िंदगी का ख़रीदार नहीं मिला ज़िंदगी से सभी लोग दूर भागते रहे और मौत इतनी खूबसूरत लगती थी कि सभी उसी से रिश्ते निभाते रहे। मौत की कविता सबको पसंद आई हंसते मुस्कुराते गुनगुनाते रहे। मौत बेचते रहे मौत को घर बुलाते रहे ज़िंदगी से नज़रें चुराते रहे। सच कड़वा लगा नहीं अच्छा समझा झूठ का ज़हर पीते पिलाते रहे , झूठ को खुदा तक बनाते रहे।

 इक ऐसी आंधी चली सब ऊंचे ऊंचे पेड़ों के जंगल तिनकों की तरह उड़ने लगे। बचाओ बचाओ का हाहाकार चहुंओर सुनाई देने लगा है। आग ही आग धुंवा ही धुंवा दुनिया के आकाश पर मौत के बदल मंडरा रहे हैं। सभी अपने अपने निशाने साधने लगे हैं खुद को पीड़ित साबित करने और किसी को मुजरिम ठहराने लगे हैं। आजकल लोग चांद पर बस्ती बनाने लगे हैं सितारों का जहां बसाने के सपने दिखाने लगे हैं। खण्हर हो चुकी हैं विरासत की इमारतें उन्हें मिट्टी में मिलाने लगे हैं उनको पुरानी बुनियाद लगती बेकार है बिना बुनियाद के महल बनाने लगे हैं दरो - दीवार थरथराने लगे हैं। ज़मीं को छोड़ कर आसमान पर आशियाने सजाने लगे हैं हवा में बड़ी बड़ी बातें बनाने लगे हैं। बुलेट से तेज़ रेलगाड़ी लाने लगे हैं क्या क्या सपने दिखाने लगे हैं। अच्छे दिन के मतलब अब समझ आने लगे हैं। शायद भूल से या भुलावा देने को उल्टा कहा था , अच्छे दिन आने वाले हैं , कहना चाहिए था अच्छे दिन जाने वाले हैं। हर कोई आजकल कहता है वो कितने अच्छे दिन थे काश फिर से वापस आ जाएं। कोई लौटा से मेरे बीते हुए दिन , बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन्न। गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा , हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा। मगर अब खुदा हाफ़िज़ शब्द भी काम नहीं आता खुदा को खुदा नहीं समझा किस किस को खुदा बना डाला है। आखिर में इक पुरानी भूली हुई ग़ज़ल का मतला याद आया है।

        ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे  , हम ये कैसा गुनाह कर बैठे।

देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान , 
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान। 


                                   अब भी बात नहीं समझ आई।

मई 24, 2020

ताकि सनद रहे को-रो-ना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     ताकि सनद रहे को-रो-ना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     अभी आपको न अपना महत्व पता है न इस कालखंड के महत्व को लेकर कुछ भी सोचा होगा। मगर आने वाले पचास सालों के बाद जब हम में से बहुत लोग नहीं होंगे तब शायद इक दिन कोरोना के नाम किया जाना संभव है। तब इतिहासकार कथाकार कविता ग़ज़ल लिखने वाले जब लॉक डाउन की चर्चा करेंगे तब ये भी लिखा जाएगा कितनी बार देश की जनता को अपने घर में बंद रहने को कहा गया था। जिनको घर में नज़रबंद होने का अनुभव नहीं क्योंकि इस से पहले ख़ास लोगों को ही उनके घर में कैद रहने की सज़ा मिलती थी उनको समझ आएगा बंधन बंधन ही होता है। आज़ादी से पहले विदेशी सरकार भी अनगिनत लोगों को कैद में डालती थी और उन के नाम दर्ज हैं इतिहास के पन्नों में। आपात्काल में जिनको जेल हुई बाद में उनको ईनामात भी मिले और सत्ता की भागीदारी भी। ऐसा भी हुआ कि 35 - 40 साल बाद किसी ने सत्ता मिलने के बाद जो भी उनके साथ जेल में थे उनको पेंशन देने का काम भी किया। कहते हैं कुछ लोगों ने आज़ादी से पहले किसी और जुर्म में कैद की सज़ा पाई थी मगर दस्तावेज़ बनवा कर कितने साल सरकार से पेंशन और सुविधाएं हासिल करते रहे ये घोषणा कर के कि उनको आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण सज़ा मिली थी। असली लोग रह गए उनको बदले में कुछ भी मांगना अच्छा नहीं लगा और समझदार या चतुर लोग बहती गंगा में डुबकियां लगाते रहे। आप के बाद आपके वारिस भी हकदार हो सकते है इसलिए आपको अभी इक शपथपत्र पंजीकृत करवा या नोटरी से सत्यापित करवा रख देना चाहिए ताकि समय और ज़रूरत पर काम आये , ऐसे दस्तावेज़ के आखिर में यही शब्द लिखने ज़रूरी हैं कि ये लिख दिया है ताकि सनद रहे। आप को-रो-ना कालखंड के साक्षी हैं आपका नाम दर्ज होना ज़रूरी है।

  अब मुद्दे की बात करते हैं सोचो क्योंकि सोचने पर कोई रोक नहीं है आप को घर से निकलने पर समय की और कितनी तरह की पाबंदी लगाई जा सकती हैं सरकार आपको सोचने से नहीं रोक सकती है। हालांकि हर सरकार की मंशा यही होती है कि लोग कुछ भी सोचें विचारें नहीं। फिर भी सरकार कुछ भी कर ले चाहे आपको सोचना भी मना हो तब भी आपने सोचा या नहीं सरकार नहीं साबित कर सकती है। सरकार चाहती है आप कोरोना को लेकर जितना मर्ज़ी सोचो मगर सरकार का आदेश क्या है क्यों है क्या सही है क्या सही नहीं है बिल्कुल भी नहीं सोचो। हां मुझे आपको कहना है कि सोचो , कभी दस बीस तीस साल बाद कोई शासक या कोई अदालत आदेश जारी कर सकती है कि कोरोना के समय में जिन जिनको अनावश्यक परेशानी हुई घर में बंद रहना पड़ा उनको कोई मुआवज़ा मिलना चाहिए। आपको साबित करना पड़ सकता है कि आप कितने दिन किस जगह बंद रहे थे। जो मज़दूर मीलों पैदल चलकर अपने घरों को वापस गये उनको भी सरकार को हर्ज़ाना भरना पड़ेगा। सरकार ने बाकयदा घोषित किया है कि हम सभी कोरोना से जंग लड़ रहे हैं अब भले आपको कोरोना को हराने को घर में बंद रहना पड़ा है आपने भी लड़ाई में किसी सैनिक की तरह भागीदारी निभाई है और कभी आपको भी पेंशन पाने का हक मिल सकता है। इतना ही नहीं जो लोग कोरोना रोग से पीड़ित होने के बाद ठीक हुए कोरोना को हराने का श्रेय उनको अवश्य मिलना चाहिए और उनको इस साहस पूर्ण कार्य के लिए मुमकिन है ईनाम पुरुस्कार के साथ कोई सांसद या विधायक बनने की योग्यता समझा जाये। आपकी जानकारी के लिए आज ऐसे कितने लोग सत्ता के बड़े पदों पर इसी योग्यता के कारण हैं कि उनको 19 महीने जेल या घर में नज़रबंद रहना पड़ा था। किसी किसी को लेकर संशय भी है कि जब वो जेल में थे या कहीं छुपे हुए थे तब उन्होंने असंभव को संभव कैसे किया था।

आप को दिखाने को मेरे पास कोई सबूत नहीं है कोई दस्तावेज़ नहीं है कि मैंने इमरजेंसी में भी खुलकर निडरता से सच लिखने का साहस किया था। मेरे पास आकर जो लोग छुपकर रहे आज सत्ता में हैं मगर उनकी तरह मैंने किसी संगठन से राजनीतिक दल से रिश्ता नहीं रखा था। हां जो आजकल शासक हैं मुझे समझाते थे सच मत कहा करो कोई सरकार को जानकारी देकर पकड़वा देगा। ऐसा कुछ तो नहीं हुआ मगर फिर भी जनहित की बात लिखने पर पुलिस थाने जाना पड़ा था सफाई देने को नहीं वास्तविकता समझाने को। खैर उन दिनों सरकारी अधिकारी भी असलियत को जानकर आदर सहित और अपनी भूल की क्षमा मांग कर बात को खत्म कर देते थे। अख़बार में लिखने को अपराध नहीं समझते थे। जैसे आज़ादी की जंग में जेल जाने वालों ने बदले में कुछ पाना नहीं चाहा था मैंने भी चालीस साल से अधिक नियमित लेखन के बदले कोई नाम शोहरत या कोई और विशेषाधिकार नहीं चाहा है। कुछ अख़बार में कॉलम लिखने वाले बाद में अपने काम को सीढ़ी बनाकर बहुत ऊंचे पहुंचे भी थे। आपको ये ध्यान दिलवा रहा हूं कि मेरी तरह नासमझी मत करना अपने आधार कार्ड पैन नंबर कार्ड की तरह इक दस्तावेज़ बनवा लेना इस को साबित करने को कि हम भी कोरोना के रोगी नहीं थे मगर कोरोना के नाम पर सज़ा पाई बंधन में रहे या अकारण आपकी आज़ादी और मौलिक अधिकार छीने गए। आजकल जो सत्तासीन हैं उनकी यही शिकायत है इमरजेंसी में सबके मौलिक अधिकार छीन लिए थे शासन करने वाले ने। तब उनके इस कदम को भी अनुशासन पर्व नाम दिया था संत विनोबा भावे जी ने। क्या पता उसी तरह आज जिस कदम को अच्छा और ज़रूरी घोषित किया जा रहा है और उचित मानते हैं इस कालखंड के बीतने के बाद उल्टा समझा जाये और जिनको भी आज़ादी से वंचित होना पड़ा उनको मुआवज़ा या पेंशन मिलने का निर्णय हो।

मगर जब ऐसा हो तब आपको इक बात याद रखनी चाहिए कि ये सलाह किसी ज्योतिषी ने या वकील ने आपको नहीं दी थी इस लेखक ने आपको चेताया था कि लिख कर रखना ताकि सनद रहे। नहीं नहीं मुझे कोई कमीशन नहीं चाहिए बस दिल से धन्यवाद करना और ये भी सोचना मेरी रचना कितनी काम की और सार्थक होती थी जिसे कभी आपने फालतू समझने की गलती की हो।

सत्ता का हम्माम सभी एक समान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   सत्ता का हम्माम सभी एक समान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   हमारे ही देश की नहीं दुनिया भर की आम जनता की तकदीर यही है। उसको चाहत होती है नायक की मगर नसीब में ख़लनायक मिलना लिखा है। शराफ़त ईमानदारी जनसेवा देशभक्ति राजनेताओं के मुखौटे हैं बाहरी दिखावे को हाथी के दांत की तरह शासन की बागडोर मिलते ही असलियत बाहर निकलती है और तब सब इक जैसे बन जाते हैं। सत्ता उनकी महबूबा है सत्ता उनकी चाहत है सत्ता मिलने के बाद उसको खोना कोई भी नहीं चाहता जबकि वास्तव में सत्ता कभी किसी की नहीं होती है सत्ता और कुर्सी बड़ी बेरहम होती है पल भर में इक को ठुकरा दूसरे को अपना लेते हैं। सत्ता का नशा चढ़ता है तो हर शासक समझने लगता है वही है जो सबसे अच्छा और महान है और खुद को मसीहा भगवान घोषित करवाने को किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहते हैं। दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है शासक वर्ग और शासित वर्ग जनता ये दो किनारे हैं जो इक साथ चलते हैं मगर मिलते नहीं कभी भी। नदी के दो किनारे बीच में बहता पानी जो सत्ता की ताकत और मर्ज़ी से किसी की प्यास बुझाता है किसी को जीवन भर प्यासा रखता है। नदी या तो किसी रेगिस्तान में पहुंच कर सूख जाती है तब किनारे किनारे नहीं रहते या फिर कहीं समंदर में मिल जाती है और अपनी मिठास खो कर नेताओं की तरह खारी हो जाती है और विशाल भी। विश्व में सभी देश समंदर की मछलियों की तरह आचरण करते हैं उनको बहुत विस्तार मिलता है फिर भी इधर उधर दायरा बढ़ाने की लालसा होती है। बड़ी मछली छोटी को हज़्म कर जाती है मगरमच्छ से सबकी दोस्ती होती है। कौन मगरमच्छ है कौन मछुआरा ये खेल विश्व की राजनीति में खेलते रहते हैं। शह - मात का खेल जारी है ये शतरंज की बाज़ी है मियां बीबी राज़ी है फिर भी हर कोई बनता क़ाज़ी है।                     

      मुलतानी कहावत का हिंदी अनुवाद है। जब भी सांड आपस में भिड़ते हैं उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है कुछ देर में थक कर लड़ाई ख़त्म हो जाती है कोई न हारता है न कोई जीतता ही है। मगर जिस खेत में उनकी लड़ाई होती है उस में उगे हुए बूटे बर्बाद हो जाते हैं। आप चाहें तो इस को अपने देश में सरकारों नेताओं की जंग जो ज़ुबानी होती है टीवी बहस या मीडिया अख़बार में भाषण में या चाहो तो अमेरिका चाईना से किसी भी शासक की धमकी और देख लेने नतीजा भुगतने जैसे ब्यानबाज़ी से जोड़ सकते हैं। काठ की तलवारें हैं असली हथियार ताकत दिखलाने को रखी हैं कायरता होती है ऐसे बयान देना। शूरवीर या तो वार करते हैं या खामोश रहते हैं इनको कोई शांति की चिंता नहीं है इनका अपना गणित होता है। फायदा किस बात में है वास्तविक जंग का हौसला नहीं करते क्योंकि तब मामला आर या पार जीत या हार का होने के साथ दोनों पक्षों की आर्थिक बर्बादी का हो जाता है। तभी कितने सालों से दुश्मनी दोस्ती का खेल चलता रहता है। आम नागरिक जिसे समझते हैं देश की आबरू का सवाल है वास्तव में सत्ताधारी शासकों की अपनी रणनीति होती है। चुनाव करीब होते हैं तो तेवर कड़े रखने पड़ते हैं अन्यथा हज़ार साल तक जंग लड़ने वाले भी भूल जाते हैं। आपको लगता है अब पड़ोसी देश की खैर नहीं मगर सत्ताधारी लोग उधर इधर खूब समझते हैं मतलब क्या है।

   कोई कोरोना अचानक चला आया तो हंगामा हो गया। उस के सामने सभी की बोलती बंद हो गई। लगा अब आपसी झगड़े छोड़ पहले कोरोना को हराना है यही ऐलान किया गया हम साथ साथ हैं। मगर बीच में कोई दवा मांगने को लेकर धमकी देता कोई किसी को चेतवनी देता कोरोना का सच नहीं बताया तो देख लेना। अंजाम देखने वाले अपना अंजाम भी जानते हैं , किसी शायर की नज़र में सबको मालूम है अपना अंजाम फिर भी , अपनी नज़रों में हर इक शख़्स सिकंदर क्यों है। ये सभी खुद को सिकंदर मानते हैं इनको कोई कलंदर मिलेगा तो खुद को बेहद बौना पाएंगे। कलंदर वही होता है जिसके पास कुछ भी नहीं हो तब भी खुश रहता है भिखारी नहीं बनता मगर ये सभी कितने अमीर ताकतवर हों इनकी भूख मिटती ही नहीं। ये कोरोना को छोड़ आपस में लड़ने लगे हैं कोरोना की जीत इसी में है मगर ये हारने के बाद भी अपनी हार को मानते नहीं हैं। कोरोना नहीं जीत सकता था ये सत्ता के गुलाम हार गए हैं क्योंकि इनको ज़िंदगी और मौत की वास्तविक जंग लड़ना नहीं आता है ये दफ्तर में बैठकर फाईलों की कागज़ी लड़ाई लड़ना सीखे हैं। जैसे आधुनिक युग के बच्चे खेल के मैदान में नहीं खेलते अपने स्मार्ट फोन पर वीडियो गेम या कंप्यूटर पर कार्टून फिल्म अथवा काल्पनिक दुनिया की कहानियों को देख सच समझने लगते हैं। बहरी असली दुनिया से अजनबी अनजान रहते हैं। टीवी चैनल वाले खूब लड़वाते हैं आमने सामने सत्ता पक्ष विपक्ष को मगर मनोरंजन मकसद होता है सच झूठ का निर्णय नहीं भाईचारा अपनी जगह धंधे की बात पहले ये उनका कारोबार है। आप घर बैठे जब उनकी आपसी जंग देख रहे होते हैं तब वो अपने भीतर से चोर चोर मौसेरे भाई का रिश्ता बखूबी निभा रहे होते हैं , बहस ख़त्म होते ही गले मिलकर खेद जताते हैं भाई गलत मत समझना।

                           

मई 23, 2020

चलो महफ़िल सजाओ शमां जलाओ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 चलो महफ़िल सजाओ शमां जलाओ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

   नहीं ये सन्नाटा जाने कब से पसरा हुआ है। कहने को हम भीड़ में रहते थे मगर साथ कोई नहीं होता था। कोई सफर कोई मंज़िल थी कुछ मकसद हुआ करता था रास्ता तय किया बिछुड़ गए तो इस तरह जैसे किसी का कोई वजूद ही नहीं था। समझा ही नहीं जीना किसको कहते हैं , सोचता तो हमेशा हमेशा से था कल इक दोस्त ने वीडियो भेजा तो अपनी ही भूली कहानी लगी। ज़िंदगी गुज़रती रही और हम सोचते ही रह गए अभी जीना शुरू करना है। कहीं आपको वो माहौल नहीं मिलेगा जिस में आप खुलकर जीना चाहते हैं जिस दिन अपने सोच लिया अपनी महफ़िल खुद सजा लोगे। मस्ती में कुछ पल जी लोगे बिता लोगे ज़िंदगी का असली मज़ा लोगे। मुझे कहनी है इक ग़ज़ल साथ साथ गुनगुना लोगे। 

         फिर कोई कारवां बनायें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फिर कोई कारवां बनायें हम
या कोई बज़्म ही सजायें हम।

छेड़ने को नई सी धुन कोई
साज़ पर उंगलियां चलायें हम।

आमदो रफ्त होगी लोगों की
आओ इक रास्ता बनायें हम।

ये जो पत्थर बरस गये  इतने
क्यों न मिल कर इन्हें हटायें हम।

है अगर मोतिओं की हमको तलाश
गहरे सागर में डूब जायें  हम।

दर बदर करके दिल से शैतां को
इस मकां में खुदा बसायें  हम।

हुस्न में कम नहीं हैं कांटे भी
कैक्टस सहन में सजायें  हम।

हम जहाँ से चले वहीँ पहुंचे
अपनी मंजिल यहीं बनायें हम।

आप भी हम भी जाने दुनिया भर में कितने लोगों से मिलते रहे जान पहचान हुई मगर शायद कभी ही ऐसा हुआ होगा जब किसी से मिलकर लगा हो कि काश ये जो भी शख़्स है रोज़ मिलता साथ साथ बात करते वक़्त ऐसे गुज़र जाता जैसे घंटों बाद भी महसूस हो यार अभी नहीं अभी तो कुछ कहा सुना नहीं। मगर अक्सर हमने ऐसे लोगों को खो दिया है उनकी मीठी यादें रहती हैं दिल की गहराई में। वो बचपन वो स्कूल कॉलेज के दिन कोई मकसद नहीं हुआ करता था कोई मिला साथ चलने को कहा चल पड़े फिर राह में और लोग मिलते गए और हम मिलकर बिना कोई तय किये बस ख़ुशी मस्ती से कुछ पल साथ रहे। अब तो जब मिलते हैं लोग देखते हैं आपको आपका लिबास आपका रुतबा आपका महत्व कोई मतलब हासिल होगा या नहीं जाने कितने सवाल दिल में होते हैं दिल से दिल की बात होती नहीं कभी मतलब की बात करते हैं। कोई किसी का अपना नहीं होता है बस दिखावे को नाते रिश्ते कोई हिसाब नहीं। जब कोई दुःख परेशानी कोई नज़र नहीं आता और ख़ुशी हो तो कोई नहीं जिसको बताएं और जो ख़ुशी से खुश होकर ख़ुशी को और भी बढ़ा सकता हो।

कितनी भीड़ होती है घर से बाहर बाज़ार में पीवीआर में होटल में पार्क में कभी किसी शानदार जगह जाते हैं शाम को बिताने को भी। मगर रौनक रौशनियों में भी भीतर इक अंधकार इक खालीपन इक वीराना इक अकेले होने का एहसास सभी चेहरे अनजाने अजनबी लगते हैं। घंटा दो नकली दिखावे की ख़ुशी के बाद वापस लौट आते हैं भीतर वही सूनापन लेकर। सोचते हैं भला अब गांव शहर छोड़ यहां कौन मिलेगा कोई आपस में खुलकर बात नहीं करता लगता है हर निगाह में इक शक का पर्दा है। मैंने कितनी बार राह चलते किसी से जान पहचान की और बातें हुई तो कभी लगता है लोग सोचते हैं कोई छिपा मकसद तो नहीं क्यों अपनी बात बताता है हमसे पूछता है। आदत बना ली है भरोसा नहीं करते आसानी से , इक दोस्त की बात याद आई है आहूजा नाम है आजकल नहीं मिले कोई बात नहीं हुई। साथ साथ हॉस्टल में रहे कुछ खट्टे मीठे अनुभव हुए , बिल्कुल अलग अलग सवभाव सोच थी हम दोनों की। मैंने उसको कभी कुछ भी समझाने की कोशिश नहीं की ठीक है जैसा भी है। उसका कहना होता था सेतिया तुम हर किसी को अच्छा समझते हो तभी जब कोई खराब साबित होता है तुम निराश हो जाते हो , मगर मुझे देखो मैं किसी पर भी भरोसा नहीं करता और कोई मुझे धोखा नहीं दे सकता है। उसका कहना था सबको खराब समझो जब तक साबित नहीं हो जाये कि वो अच्छा है लेकिन मेरी आदत अभी भी वही है सभी को अच्छा समझता हूं जब तक लोग खुद अपने को खराब नहीं साबित करते , और संबंध नहीं रहने पर भी ये याद रखता हूं कभी हम दोस्त थे कुछ तो अच्छाई मिली थी उस में भी।

मैंने दोस्त बनाना महफ़िल सजाना कभी नहीं छोड़ा अभी भी कोई महफ़िल नहीं है तब भी इक महफ़िल होती है मन में ख्यालों में बनानी है। हां जाने क्यों मुझे भीड़ से घबराहट होती है महफ़िल हो दो चार दस लोग जो मिल बैठें बिना कोई मतलब लिए। चर्चा हो कुछ भी जो भी कोई कहना चाहे मगर अब लोग लिखते हैं सोशल मिडिया पर खुद ही पढ़ते हैं न किसी को समझना न किसी को समझाना। नहीं किसी काम की नहीं ऐसी भीड़ भरी महफ़िल इस से अच्छा है खुद अपने साथ रहना अकेले भी मगर तन्हा नहीं अपने ही संग। खुद से अपनी बात कहना खुद को समझना और ज़िंदगी को जीना कैसे है विचार करना। दुनिया में लोग हैं अच्छे सच्चे भले भी तमाम तरह के मगर आपको ढूंढना होगा मेरी तरह कोई तो होगा इक दोस्त ही सही बहुत होता है ज़िंदगी की खुशियों को मिलकर बांटने दुःख दर्द परेशानियां दूर करने को। कभी चाहो तो मेरे पास आओ निराश नहीं होने दूंगा किसी को। इंतज़ार है राह देखता रहता हूं और घर का दरवाज़ा खुला रहता है। कोई है जो कह रहा है बुला रहे हो खुद चले आओ , आप कहेंगे तो बंदा हाज़िर है। 

 

मई 22, 2020

आपने जो नहीं सोचा था ( दास्तां ए कोरोना ) डॉ लोक सेतिया

 आपने जो नहीं सोचा था ( दास्तां ए कोरोना ) डॉ लोक सेतिया 

क्या क्यों कैसे की बात नहीं है बात इतनी सी है इंसान अपने आप को खुदा नहीं खुदा से भी बढ़कर समझने लगा था। थोड़ा शिक्षा जानकारी और साधन क्या बना लिए समझने लगा कि जब चाहेगा कोई दुनिया भी बना लेगा। कभी चांद पर जाने की बात कभी विनाश के हथियार अणु बंब से क्या क्या जंग का साज़ो-सामान बनाने पर धन बर्बाद किया जबकि वास्तव में समाज को बनाने में इतने साधन धन दौलत का सही इस्तेमाल किया जाता तो अच्छा था। कुदरत का खेल है या खुद इंसान की किसी नासमझी और आग के साथ खेलने का नतीजा जो खुद अपने ही बनाये इक जीवाणु पर अपना बस नहीं रहा। किसी और को दोष देना आसान है मगर उस से होगा क्या , अभी भी लड़ाई झगड़े और देखने दिखाने की अहंकार की बातें। नहीं समझ आया कोई हैसियत नहीं है इंसान की पानी करा बुलबुला , अस मानव की जात , एक दिना छुप जाएगा , ज्यों तारा परभात। पल भर की हस्ती है मालूम नहीं अगला पल आखिरी होगा या अभी और कितने पल हैं पास फिर भी क्या क्या नहीं करते नफरत लूट अहंकार और नाम शोहरत ताकत पाकर ऊंचे आसमान पर ख्वाब में ऊंची उड़ानें भरते नहीं जानते कब नीचे गिरेंगे और नाम निशान नहीं बचेगा। क्या रोज़ होता नहीं है आज ही क्या पाकिस्तान में कराची में हुआ विमान हादिसा इक मिंट में सब घट गया कोई नहीं समझ सका क्या क्यों कैसे। मगर हम फिर भी अपनी ताकत और आधुनिक तरक्की को लेकर पागल हैं और जल्दी भागना है अभी बुलेट ट्रैन की बात होती है। कुदरत जिनको पंख देती है उनकी परवाज़ अकारण नहीं नाकाम होती हम इंसान ही किसी पंछी को निशाना बनाते हैं अन्यथा लाखों पंछी साथ साथ उड़ते हैं कोई दिशा निर्देश नहीं देता फिर भी उन में कोई टकराव नहीं होता है। हम आपस में देश देश से समाज आपसी मतभेद से तनाव और तकरार झगड़े टकराव के आदी बन गए हैं। 

कितनी अचरज की बात है कि आज भी लोग आपस में भिड़ते हैं राजनेता लाशों पर सत्ता की रोटियां सेंकते हैं। खुद को बड़ा अच्छा किसी को छोटा खराब साबित करने के मशगूल हैं रत्ती भर लाज शर्म नहीं है। कितनी अजीब बात है आज भी मंदिर बनाने में खुदाई से क्या मिला इसको लेकर चर्चा करते हैं। आज जो खुद बना रहे हैं विनाश का कितना सामान कल इक परमाणु बंब दुनिया को मलबे में बदल सकता है आपको धर्म क्या ये नहीं सिखाता है कि ऐसा होने से रोकना ज़रूरी है। परमाणु विस्फोट होने पर ख़ुशी जताते हैं क्या इनसे लोगों को रोटी मिलेगी स्वास्थ्य शिक्षा मिलेगी कदापि नहीं। ये सब आधुनिक विनाश का सामान बड़ी महंगी कीमत देकर मिलता है इतने सालों में यही धन देश को विकसित और गरीबी मिटाने को उपयोग किया जाना चाहिए था। पागलपन है जो हर कोई चाहता है उसके पास महल हों ढेर सारा धन हो और ताकत नाम शोहरत हो। मगर कुदरत ने ऐसा नहीं किया था उसने सबको हवा पानी धरती हरियाली बरसात से लेकर बदन में देखने को आंखें हाथ पांव सब इक समान दिए हैं ये कुछ लोगों ने औरों का हक छीना है कई तरह से तभी उनके पास ज़रूरत से अधिक है जबकि अधिकांश के पास ज़रूरत का भी नहीं। कैसा धर्म कैसी मानवता जब आप के पास इतना है कि किसी उपयोग का नहीं और आपके समाज में आपके ही देशवासी भूखे नंगे हैं। क्यों राजनेताओं को अपने खुद पर लाखों करोड़ों खर्च करते अपराधबोध नहीं होता है। जनता की सेवा का दम भरने वाले राजसी शान से ठाठ बाठ से जीते हैं। ये कोई राज धर्म नहीं है और आप राजा भी नहीं हैं सत्ता मिलने का अर्थ क्या यही है और सरकारी अधिकारी कर्मचारी दावे जो भी करते हैं वास्तव में कोई अपना काम ईमानदारी से नहीं करना चाहता लोग परेशान होकर शिकायत करते हैं तब भी कोई असर नहीं होता है। मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे जाने से कुछ हासिल नहीं होगा असली धर्म अपना कर्तव्य निभाना है। 

क्या आज भी जब कोरोना की दहशत है ये सभी बदले हैं नहीं ये आज भी अपने स्वार्थ और अभिमान से जो मर्ज़ी करते हैं जो करना चाहिए नहीं करते कोई कितना परेशान होता है। कोरोना से अधिक खतरा आप जैसे लोग हैं जो आम नागरिक की बुनियादी ज़रूरत को समस्या को जानबूझकर पूरा नहीं करते हैं। शायद विधाता बेबस है मगर उसकी लाठी बेआवाज़ होती है। अब भी सुधर जाओगे तो कोरोना से ही सही कोई सही मार्ग तो मिलेगा अपनी गलतियों को सही करने को अवसर है। हद है सरकार को ये अवसर भी लगा तो अपनी कमाई बढ़ाने का अच्छाई की राह चलने का भी समझ सकते थे। जीना है इंसान की तरह जियो मगर मौत फिर भी आनी है इक दिन हम सभी को अब मौत से घबराने से अच्छा है जब तक ज़िंदा हैं कुछ अच्छा ईमानदारी का फ़र्ज़ निभाने सबकी समस्याओं का समाधान करने सभी को उनके अधिकार देने का संकल्प लें तो मौत से दहशत नहीं होगी। हमारी अच्छाई हमेशा रहती है जीवन भर भी और मौत के बाद भी। 
 

 

मई 21, 2020

सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो ( ख्यालों में ) डॉ लोक सेतिया

   सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो ( ख्यालों में ) डॉ लोक सेतिया 

धार्मिक कथाओं की तरह किसी ने तपस्या की और दर्शन देने पर खुश होक वरदान मांगने को कहा गया। उसने मांगा मुझे कोई दवा दे दो जो कोरोना को ठीक कर दे और कोरोना से बचाव भी करती हो। तथास्तु वरदान मिला मगर किसी को ये राज़ नहीं बताना किस ने वरदान दिया हर किसी को नहीं मिलते वरदान। आपको लगा होगा वाह फिर क्या समस्या है क्या परेशानी है मगर सच इस से आगे उलझन ही उलझन है। अब या तो वह आदमी अपने पास दवा होने की बात इश्तिहार में सबको बता कर मनमानी कीमत वसूल करना शुरू करे और हज़ारों करोड़ की कमाई करे या फिर वास्तविक भलाई करने को सबको मुफ्त या लागत मूल्य पर दवा देने की घोषणा कर दे। लेकिन अकेले करोड़ों लोगों तक कैसे बेच सकता है और बेचने में भी हज़ार झंझट हैं। सरकारी विभाग पता चलते ही पूछताछ को आपको नोटिस थमा देगा किस शोध किस आधार पर आप ऐसा दावा करते हैं। आप न तो किसी देश के शासक हैं जो कुछ भी कहते रहें कोई रोकता टोकता नहीं और न ही आपका करोड़ों का दवाओं का कारोबार है जो अपनी किसी दवा टॉनिक को गोलमोल ढंग से बेचने को वज्ञापन करें ये फायदा दे सकता है फायदा किसी को हो न हो उसका फायदा होना तय है। 

   मगर ऐसे लोग नासमझ ही नहीं अव्वल दर्जे के मूर्ख होते हैं , उसने सोचा क्यों नहीं देश की सरकार को ही बता दे और उसे बिना पैसा लिए दवा देकर सबको बांटने का वचन लेने की बात कहे। और उस ने यही किया तो क्या होगा , सरकार चाहेगी ये मनवाना कि दवा का शोध सरकारी खर्च से किया गया है क्योंकि सरकार को ये कोरोना भी इक अवसर लगता है। खुद सरकार घोषणा कर चुकी है उसको कोई ईनाम पुरुस्कार या कोई संसद की मेंबरशिप जो मर्ज़ी मिल सकता है मगर सरकार जो चाहती है वही सच मानना होगा। अब कैसे समझाए ये क्या राज़ है अगर ऐसे झूठ बोलकर दवा दी तो कोई असर नहीं होगा वरदान देते समय शर्त साथ है किसी और को शामिल नहीं करना ये क्या है किस ने दी है। लेकिन उसने ऐसा कोई स्वार्थ नहीं हासिल करना और इस तरह दवा देनी है कि देश की जनता की भलाई हो और कोई गोलमाल नहीं हो सके। 

अब उसने इक योजना बनाकर सरकार को भेजी , कोरोना की रामबाण दवा आपको निशुल्क मिल सकती है मगर कुछ शर्तों को मानना होगा। आपको सबसे पहले देश के तीस प्रतिशत गरीबों को खिलानी होगी मुफ्त में , उसके बाद मध्यम वर्ग को उचित दाम पर जितना वो आसानी से दे सकते हैं उपलब्ध करवानी होगी। मगर उन अमीर लोगों राजनेताओं को अधिकारी कर्मचारी जिन्होंने जनता के धन से करोड़ों रूपये किसी भी तरह वास्तविक वेतन से बढ़कर जमा किए हैं उनको दवा मिलनी चाहिए पहले उनकी हराम की जमा की कमाई को गरीबों को बांटकर ,ताकि सबको दवा भी मिल जाये और देश की गरीबी भी हमेशा को मिट जाये। क्या आपको लगता है सरकार तैयार हो जाएगी कदापि नहीं , अपनी एजंसी को उस को हिरासत में लेने एफआईआर दर्ज करने से धोखाधड़ी से लेकर तमाम धाराओं में जकड़ने का काम किया जाएगा। क्यों होगा नहीं समझे क्योंकि सरकार योजना बना चुकी होगी उस दवा को विदेश की सरकारों को ऊंचे दाम पर बेच कर खज़ाना भरने को। अब उसके लिए साबित करना नामुमकिन होगा कि अगर ऐसा किया तो दवा का कोई असर नहीं होगा। नतीजा उसको ठग घोषित कर जेल भेज दिया जाएगा। मैंने उसको यही राय दी है ये दवा किसी काम नहीं आनी है तुम कहोगे कोई मानेगा नहीं और धोखेबाज़ लोगों में तुम्हें भी शामिल कर लेंगे समझदार लोग। नकली सामान फिर भी बिक सकता है असली का कोई खरीदार नहीं है। कब से उसे तलाश कर रहा हूं वो मिल नहीं रहा कहां है कोई नहीं जानता कहीं ..............  नहीं नहीं।

मई 18, 2020

यहां गंदे नाले में बहा सब कुछ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   यहां गंदे नाले में बहा सब कुछ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   शराब कितनी भी महंगी हो उसकी सही जगह यही है , और आप चिंता कर रहे हैं गंदे नाले में बहा दी। हां ये जिन्होंने गंदे नाले में बहाई है खुद को कानून से बचाने को वो तो खुद जाने कब से किसी गटर में पड़े हुए हैं। देश की राजनीति शायद वो सबसे बड़ा गंदगी का गंदा नाला है जो लगता ही नहीं बह रहा है और ये भी समझ नहीं आता किधर से किधर को जा रहा है। यहां कोई स्वच्छता अभियान नहीं चलाता है यही वो सत्ता की अविरल धारा है जिसमे हर कोई नहाता है जो भी शासक बन जाता है इस में मिलकर सब कुछ इक जैसा हो जाता है। किस गंदे नाले में ईमानदारी शराफ़त और नैतिकता को कितने लोगों ने फैंका तब जाकर उनको धन दौलत शोहरत नाम रुतबा सब हासिल हुआ। आपको जो लोग बड़े साफ सुथरे सजे धजे बन संवर का खुशबू लगाकर अच्छी अच्छी बातें करते लुभाते हैं उनके भीतर इस गंदे नाले से बढ़कर गंदगी भरी हुई है। अपने मन का मैल धोते नहीं छिपाते हैं। सत्ता का गटर बहुत फैला हुआ है आपको शहर शहर गांव गांव बस्ती बस्ती गली गली नज़र आएगा जब आपको वास्तव में गंदे नाले और साफ पानी की पहचान समझ आएगी।

   जाने कितने नगर हैं जिनके बीच इक गंदा नाला बहता है सरकार ने कितनी गहरी सीवर की लाइनें बिछाई हों इन गंदे नालों को ढकने की कोशिश भी काम नहीं आई है। ये किसी विरासत की तरह संभाली हुई जैसी हैं उसी तरह रहने दिया गया है। लोग हमेशा गंदे नाले से हटकर दूर से निकलते हैं मगर कुछ ऐसी जगह हैं जहां जाने का रास्ता ही गंदे नाले को पार कर गुज़रता है हैरानी होती है ऐसी बड़े बड़ी संस्थाओं संगठनों में हर तरह हरियाली फूल और बेहद खूबसूरत दुनिया बसाई होती है। सब जानते हैं यहां गंदा नाला भी है मगर देख कर भी नहीं देखते हैं आपने भी जाने कितनी ऐसी जगहों को जाकर देखा होगा और सोचा होगा क्या बात है यही तो स्वर्ग की तरह है शायद उस से बढ़कर सुंदर भी। गंदे नाले पहचान नहीं हैं ये कुछ उसी तरह की बात है जैसे किसी सड़क पर कोई निशान बना होता है। सावधान ये मार्ग सुरक्षित नहीं है , आगे खतरा है बचाव में ही बचाव है। शराब पीकर वाहन मत चलाएं कोई घर पर आपका इंतज़ार कर रहा है। ये रास्ता बंद है ये सड़क आम नहीं है खास लोगों के लिए है। कितनी तरह की चेतावनी मिलती रहती है हम ध्यान ही नहीं देते पढ़कर परवाह नहीं करते सुनकर अनसुना कर देते हैं।

    बचपन से समझाया गया था अच्छे लोगों का साथ रखना और बुरे लोगों से हमेशा बचना। मगर हमने अच्छे लोगों को पास नहीं फटकने दिया और खराब लोग गंदी आदतों को अपनी चाहत बना लिया। बेटा ये राजनेता बड़े मतलबी होते हैं अव्वल दर्जे के कपटी झूठे होते हैं इनकी कसम इनके वादे कभी ऐतबार मत करना। हमने याद रखी बात नहीं कभी भी हमने तो कोशिश की उन्हीं में शामिल होने उनसे भी बढ़कर बुराई की मिसाल बनने की। मैं ऐसे बहुत लोगों को करीब से जनता पहचानता हूं जो किसी विचारधारा की अच्छी बातों के उपदेश देकर सबको समझाते हैं कि पैसा कुछ भी नहीं है दौलत के पीछे मत दौड़ो। ये रेगिस्तान की चमकती रेत है पानी नहीं इस से प्यास नहीं बुझेगी और भागते भागते मर जाओगे। लेकिन वास्तविक ज़िंदगी में वही पैसा कमाने को उचित अनुचित सब तरीके अपनाते हैं। सतसंग को ज़रूर जाते हैं और गुरूजी गुरूजी के नाम की माला जपते हैं भजन गाते हैं। गुरूजी दीवार पर टंगी तस्वीर हैं जो लिविंगरूम की शोभा बढ़ाते हैं गुरूजी के चेले मिलकर खाते खिलाते हैं झूठ को सच बताते हैं सच को कभी नहीं अपनाते हैं। गंगा यमुना में कितने गंदे नाले मिलते जाते हैं मगर उसके बाद वो सभी बहती नदिया कहलाते हैं गंगा सफाई पर भी ऐसे लोग समझाते हैं जब आपस में मिल जाते हैं तो और बढ़ते जाते हैं। अब हालत ऐसी है कि कोई नदी बहते बहते किसी महानगर तक इतनी खराब हो जाती है कि उसका जल पीने की बात क्या सिंचाई के भी काबिल नहीं रहता है। आजकल लोग आरओ का पानी पीते हैं कौन जानता है जो पानी आपके घर तक नल में पहुंचा उस में नहर नदी का जल कितना बचा था और कितना गंदे नाले की मिलावट वाला पानी उसमें शामिल है। 

  इक चुटकुला बहुत पुराना है। इक सरदार जी अपनी सरदारनी को लेकर सिनेमा देखने जाने को तैयार हो रहे थे। सरदार जी ने कुरता पायजामा और सरदारनी ने नया सूट सलवार कमीज़ पहना हुआ था। जब सरदारनी ने अपनी सलवार में पुरानी सलवार से निकाल कर नाड़ा डाला तो सरदार जी बोले ये गंदा है दूसरा बदल लो। सरदारनी ने कहा अब देर हो जाएगी कौन सा नाड़ा बाहर नज़र आता है। डीटीसी की बस में अभी कुछ सफर किया कि बस कंडक्टर ने आवाज़ दी गंदे नाले वाले सीट से खड़े हो जाएं। सरदार जी ने सरदारनी को कहा अब देख लो क्या नतीजा हुआ। बस रुकी और कंडक्टर ने कहा जो भी सवारी गंदे नाले की है नीचे उतर जाए। सरदार जी सरदारनी को लेकर बस से उतर गए। वास्तव में उस बस स्टॉप का नाम ही यही था क्योंकि वहां गंदा नाला बहता था।

   गंदा नाला भी देश की अर्थव्यवस्था में शामिल है। शहर से सीवर का गंदा पानी और गंदगी बाहर निकलते ही नाले में मिल कर नगरपरिषद के लिए आमदनी का साधन बन जाती है। शहर के नज़दीक सब्ज़ी उगाने को इस पानी का उपयोग किया जाता है और समझा जाता है कि ऐसे पानी मिलने से खाद की भी ज़रूरत पूरी हो जाती है। शराब को नाली में बहाना ज़माने से होता रहा है उसकी बात फिर कभी विस्तार से।