सर कहीं पर झुकाना न आया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
सर कहीं पर झुकाना न आया
उस खुदा को मनाना न आया।लोग नाराज़ हों चाहे कितने
झूठ को सच बताना न आया।
हर किसी को भरोसा था सब पर
फिर वो गुज़रा ज़माना न आया।
हमको सबने भुलाया है अब तक
पर हमें भूल जाना न आया।
ज़ख्म अपने छुपाये हैं हमने
चारागर को दिखाना न आया।
दोस्त कोई न कोई है दुश्मन
कुछ भी हमको बनाना न आया।
जां उसी की अमानत है "तनहा"
हर किसी पर लुटाना न आया।
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