विदेशी कर हवन , स्वदेशी पर प्रवचन ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया
कथनी करनी एक समान होनी चाहिए , अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने को गांधी जी ने स्वदेशी आंदोलन चलाया था 1921 में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई थी । ऐसा समाचार ज्ञात हुआ है कि कुछ लोग जनता को इस पर जागरूक करने का प्रयास प्रेस वार्ता से करने वाले हैं ताकि लोग स्वदेशी को अपनाएं विदेशी को छोड़कर । उन सभी से करबद्ध अनुरोध है कि उनके पास जितना भी कुछ विदेशी है जनता को समझाने को उन सभी की होली जलानी उचित होगी । शपथ उठानी होगी सभी ऐसे प्रयास का समर्थन करने वालों को कि उनके पास जितना विदेशी सामान है उसका त्याग कर भविष्य में कभी विदेशी सामान नहीं खरीदेंगे । मगर विडंबना ये है कि साधरण जनता को जो कहना हैं खुद आपके आचरण में शामिल नहीं हो तब गंभीर विषय भी उपहास बन जाती है । कल ही खबर पढ़ी थी कि हिंदी चैनल वालों को उर्दू भाषा का उपयोग करने पर ऐतराज़ जताया गया है , जबकि कोई भी चैनल अख़बार नहीं है कोई अधिकारी मंत्री शासक नहीं है जो अंग्रेजी भाषा का उपयोग किये बगैर अपनी बात रख सकता हो । हिंदी और उर्दू तो दो बहनों जैसी हैं कोई लाख कोशिश कर के भी उनको अलग नहीं कर सकता है जैसे गंगा जमुना नदियां हैं । संकुचित मानसिकता ने लोगों को बांटने का प्रयास किया है जब कि उर्दू भाषा प्यार की भाषा है देश में आज़ादी के बाद तक भी सरकारी कार्यालय की भाषा रही है उर्दू । अंग्रेजी विदेशी भाषा है लेकिन आधुनिक काल में किसी भाषा को आप चाह कर छोड़ नहीं सकते अन्यथा आपको अपने देश की सीमाओं से बाहर निकलना तो दूर कितने राज्यों में भी संवाद करने में कठिनाई होगी ।
पिछले सालों में बुलेट ट्रैन से तमाम अन्य परियोजनाओं में विदेशी सामान का उपयोग किया गया है बहुत लोग गाड़ी से कपड़े जूते पेन अर्थात सर से पांव तक विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल कर स्वदेशी पर व्याख्यान देते हैं तो लगता है जैसे गुड़ खाना गुलगुलों से परहेज़ की कहावत सच करते हैं । हमारे समाज में मूल्यों का पतन निरंतर होने का कारण ये भी है कि हमने साहित्य की किताबों से नाता तोड़ लिया है और भौतिकतावादी संस्कृति का शिकार हो गए हैं । देशभक्ति को हमने सिर्फ नारा समझ लिया है देश की खातिर कुछ भी त्याग करना नहीं चाहते हैं । वास्तव में हमने अपनी भारतीयता की पहचान को गंवा दिया है और हम पश्चिमी चमक दमक में खोये हुए चेहरे और मुखौटे का भेद नहीं समझते हैं । हर शख़्स बाहर कुछ और दिखावा करता है मगर अपने घर दफ़्तर में असलियत कुछ अलग नज़र आती है । विकास के नाम पर विनाश की राह दौड़ते डेडते हम निकल आये हैं किसी अजनबी दुनिया में भटके मुसाफिर बनकर , ऐसे में कोई रास्ता बताने वाला नहीं है सभी ख़ुदपरस्ती का शिकार हैं । आखिर में अपनी इक बहुत पुरानी ग़ज़ल से कुछ चुनिंदा शेर पेश हैं , हमको ले डूबे ज़माने वाले , नाखुदा खुद को बताने वाले , नाखुदा कहते हैं मांझी को कश्ती के खेवनहार को , माझी जब नाव डुबोये उसे कौन बचाये , गीत सुना होगा । आई लव माय इंडिया मेड इन इंडिया जैसे शब्द प्रभावशाली नहीं लगते आजकल आडंबर प्रतीत होते हैं देश प्रेम देशभक्ति देशसेवा आपके आचरण में शामिल हो तो बताने की आवश्यकता नहीं होती है ।
1 टिप्पणी:
सार्थक सशक्त आलेख...ख़ुद जो नही कर सकते दूसरे लोगो से कराने की सोच रहे हैं।
नाख़ुदा खुद को बताने वाले👌👍
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