जून 26, 2025

POST : 1989 नादान हैं सच से अनजान हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      नादान हैं सच से अनजान हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

समझते हैं भगवान संविधान धरती आसमान कुछ भी नहीं जिस की समझ उनको नहीं है , पढ़ना जानते नहीं लिखना सीखा नहीं , सोशल मीडिया पर कचरा भी हीरा दिखाई देता है उसकी चमक से उनकी आंखें चुंधिया जाती हैं । व्हाट्सएप्प पर संदेश देखते हैं गीता उपदेश रामायण की बात होने का तमगा लगा हुआ उनको लगता है यही अटल सत्य है परखने की आवश्यकता नहीं है धार्मिक ग्रंथ में क्या लिखा क्या नहीं , क्या करना समझना बस इतना बहुत है धार्मिकता के नाम पर कुछ भी स्वीकार है । देश की राजनीति का बस यही आधार है हारना ही जीत है जीतना ही हार है , सत्ता की लूट पर उनका ही अधिकार है जिनको सरकार की कही हर बात मंज़ूर है आदमी आदमी कहां है बन गया इश्तिहार है । कौन लड़ता आजकल सच की है लड़ाई है झूठ की कीमत बड़ी है बाज़ार में ग़ज़ब महंगाई है आईनों की झूठों के दरबार  में । कौन दोस्त कौन दुश्मन अपना पराया कौन है जो भी कुर्सी पर है आसीन बस वही दाता है भीख की महिमा जिसने सुनाई समझाई है । हमने पढ़ी थी रचना लेखक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई , आवारा भीड़ के ख़तरे , बात देर से समझ आई । 
 
सोशल मिडिया ने जानकारी आसान कर दी है किसी स्कूल कॉलेज की ज़रूरत नहीं , शिक्षक की आवश्यकता नहीं और चिंतन व्यर्थ प्रतीत होता है । अजीब नशा है खुद को सभी से समझदार समझने में आनंद की अनुभूति होती है , सामने वास्तविकता खड़ी दिखाई दे भी तो अनदेखा करना जानते हैं । चाटुकारिता की महिमा अपार है जो उस पार डूबा पहुंचा इस पार जिधर आजकल की सरकार है । कथा संक्षिप्त है व्यथा की बात करना बेकार है कुछ नहीं करना सीखनी जय जयकार की हुंकार है । खोना है अपने अस्तित्व को खुद अपनी ही आत्मा को छलना है अपनी बेचैनी बदहाली को खूबसूरत जहां बताना है । सबको आता नया तराना है राग दरबारी गाकर ख़ुशी से मस्ती में सत्ता को रिझाना है सब खोना है कुछ पाने का बहाना है । ये अफसाना पुराना है उनका यारों से गहरा याराना है कुछ नहीं करना अपनों को सब बेचना खुद मौज उड़ाना है । दुनिया को छोटा खुद को महान बताते हैं सितम ढाते हैं बौने पहाड़ चढ़ इतराते हैं । 
 
हर दिन कोई जश्न मनाते हैं हादिसों को भी कोई अवसर समझ कर सभाओं में सड़कों पर भीड़ बनकर लोग कदम से कदम मिलाकर सुर ताल में शोकगीत पर झूमते हैं क़ातिल को मसीहा बताते हैं । वर्तमान भविष्य को देखना ही नहीं किसी पुरातन युग में जीते हैं ख्वाबों की दुनिया बसाते हैं । सभी पतित हैं दलदल में धंसते जा रहे हैं उनको बाहर निकालना कठिन है खुद भी उनकी तरह कीचड़ में नहाने का सुःख संतोष उठाते हैं । आधुनिकता की चाह में युवक कुछ महत्वांकाक्षी ख़तरनाक विचारधारा वाले के हाथ की कठपुतलियां बन कर बदले में ज़हर मुफ़्त में ख़ाकर कुछ भी नहीं करने को महान कार्य बतलाते हैं । ऐसी भीड़ विध्वंसक होकर समाज को भयभीत करने लगी है सभी आदर्शों नैतिक मूल्यों लोकतंत्र का विनाश करने को महान कह रही है ।भटके हुए दिशाहीन हताश नवयुवक ख़लनायक बनने को व्याकुल हैं क्योंकि जानते हैं कि सत्ता और धन दौलत शोहरत की सीढ़ी अपराध जगत से राजनीति के शिखर तक पहुंचाती है । जिधर देखो निकलती कोई बरात है दुल्हन कौन कोई नहीं जानता , हर कोई खुद को दूल्हा समझता है दोधारी तलवार सभी के पास है मत पूछो क्या हालात है दिन भी काली अंधियारी रात है ।  
 
 राजा बोला रात है राणी बोली रात है मंत्री बोला रात है संत्री बोला रात है यह  सुबह सुबह कि बात है -गोरख पांडे
 
 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

.....अपराध जगत से राजनीति के शिखर तक पहुंचाती है👌👍