जून 01, 2025

POST : 1978 ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है
इश्क़ की हर दास्तां खामोश है ।

बस तुम्हीं करते रहे रौशन जहां
तुम नहीं , सारा जहां खामोश है ।

क्या बताएं क्या हुआ सबको यहां
चुप ज़मीं है , आस्मां खामोश है ।

झूमता आता नज़र था रात दिन
आज पूरा कारवां , खामोश है ।

तू हमारे वक़्त की , आवाज़ है
किसलिए तूं जाने-जां खामोश है । 
 
दस साल पुरानी कही ग़ज़ल से शुरुआत की है , जाने क्यों आज एहसास हुआ कब से हमने बातचीत करना छोड़ दिया है । शोर फ़िल्म की बात याद आई है नायक जिस आवाज़ को सुनने को बेताब रहता है जब उस संतान की आवाज़ वापस आती है तो खुद फिर हादिसे में उसका सुनना चला जाता है । ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है , मगर हम सभी गूंगे बहरे नहीं हैं फिर क्या हुआ जो हमने बोलना छोड़ दिया है । अक़्सर सोचता रहता हूं किसी से मिलकर नहीं तो फोन पर ही बाहर रहते हुए भी बात करूं । स्मार्ट फोन पर हज़ार नाम हैं दुनिया भर से परिचय होने का झूठा प्रमाण है असल में शायद कोई हमको जानता है शायद ही किसी को हम जानते हैं । फिर भी कुछ लोग हैं जिनसे बात की जानी चाहिए कभी हुआ करती थी घंटो की बातचीत लैंडलाइन फोन पर , घर दुकान पर मिलना बात करना जीवन का हिस्सा था । कब कैसे ये हो गया कि हम भूल गए संवाद रखना कितना महत्वपूर्ण है , हुआ ऐसे कि लोग व्यस्त होने से अधिक व्यस्तता का प्रदर्शन करने लगे । शायद जिस ने फोन किया है उसे कोई विशेष बात बतानी हो , बिना सोचे फोन काटने लगे और संदेश भेजने लगे अभी ख़ाली नहीं बाद में फोन करता हूं । कभी ऐसा भी नहीं होता और कभी कोई फोन उठाते ही पूछता कुछ ख़ास बात है कोई कारण या काम है तो बताओ । ऐसा सिर्फ पहचान वाले नहीं बेहद करीबी समझे जाने वाले लोग भी कहने लगे । आदमी आदमी से बात नहीं करता हर शख्स अपने फोन पर जाने क्या क्या देखता ढूंढता फिरता है , जिस बेजान चीज़ में कोई अपनत्व नहीं इक वही अपना लगता है बाक़ी सब पराये लगते हैं , बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी । 
 
ऐसा कदापि नहीं कि किसी को फुर्सत नहीं होती थी , बल्कि अधिकांश अनावश्यक कार्यों में किसी ख़ास मकसद से समय बिता रहे होते थे बस उनकी प्राथमिकता कोई और होते थे । मोबाइल फोन ने जाने किस तरह हम सभी को मतलबी बना दिया था बात करने की कीमत मिनटों में पैसे से दिखाई देती थी खुद का नहीं फोन का टॉकटाइम कीमती लगता था , अब भले अनलिमिटेड कॉलिंग मुफ़्त मिलती है कुछ सौ रूपये का रिचार्ज करवाने से लेकिन घंटों सोशल मीडिया पर और रास्ते चलते भी बात करने लगे हैं तब भी संपर्क जिन से कुछ हासिल होता है उन्हीं से रखते हैं । शुभकानाएं हर दिन देते हैं व्हाट्सएप्प पर कोई कुशलक्षेम नहीं पूछते हैं । औपचारिकता निभाते हैं किसी से कोई हाल चाल सांझा नहीं करते हैं । आज भी चाहता था किसी से बात करूं पहले की तरह बिना किसी मतलब या ज़रूरत लेकिन किस से करनी है से भी पहले सोचना पड़ा बात क्या करनी है कुछ विशेष है नहीं बस दिल चाहता है । दिल चाहता है कभी न बीतें चमकीले दिन , दिल चाहता है हम न रहें कभी यारों के बिन । इक घबराहट सी होती है कि जिसे भी फोन मिलाया उधर से सवाल आया कैसे याद आई कुछ ख़ास बात है तो बताएं तब क्या जवाब देंगे । 
 
आपको याद है राजेश खन्ना की फ़िल्म थी आनंद जिस में आनंद किसी भी अनजान अजनबी व्यक्ति को हमेशा मुरारीलाल नाम से बुलाता और लोग हैरान होते । अमिताभ बच्चन कहते हैं पहले देख लिया करो तब राजेश खन्ना बताता है कि किसी मुरारीलाल नाम वाले को वो जानता ही नहीं , ये तो किसी से दोस्ती करने बात करने का इक तरीका है । लेकिन इक दिन कोई उसी तरह मिल जाता है और आनंद को जयचंद कहकर बुलाता है । जब राजेश खन्ना अमिताभ बच्चन को बताता है कि उसे मुरारीलाल मिल गया है तब जॉनी वॉकर कहते है कि उसका नाम भी मुरारीलाल नहीं , ईसाभाई सूरतवाला है जैसे राजेश खन्ना का आनंद है । कभी सोचा नहीं था किसी से अचानक यूं इक बार मुलाक़ात हो सकती है पहचान होने से कितनी लंबी बात हो सकती है लेकिन ऐसा वास्तव में हुआ कल ही ऐतबार करना कौन क्या ये फिर कभी कभी अगर मिलना हुआ तो । हां कोई नाम लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी , मुलाक़ात हुई क्या क्या बात हुआ आपको बताता हूं ।    
 
कल अचानक कुछ अलग बात हो गई , जैसे कोई काल्पनिक कहानी हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी हो गई हो ।अपने नगर से बाहर आया हुआ हूं कुछ दिन पारिवारिक काम से । अजनबी शहर है कुछ जान पहचान वाले हैं भी तो बड़े शहर में मिलना जुलना कठिन लगता है साथ सभी की अपनी अपनी दिनचर्या होती है किसी से मुलाक़ात की बात नहीं हुई । कुछ दूर इक पार्क में सुबह सैर पर जाता हूं थोड़े अनजान चेहरे दिखाई देते हैं कुछ पहचान सी लगने लगी है । सड़क के उस छोर पर इक घर थोड़ा अलग लगता रहता जिस के बाहर इक नाम लिखा हुआ है कभी कोई रहने वाला नज़र नहीं आता था , कल सुबह बड़ा सा पुराने ढंग का लोहे का गेट दोनों तरफ खुला हुआ था और इक व्यक्ति खड़ा था । शायद उन्होंने ही पहल की और पूछा अभिवादन कर आप क्या यहीं रहते हैं , मैंने बताया जी नहीं मैं हरियाणा में रहता हूं यहां बेटा रहता है आना जाना रहता है । उन्होंने बताया वो भी किसी और शहर में रहते हैं यहां घर बनाया हुआ है कभी कभी आते हैं । कुछ सोच कर उन्होंने घर में भीतर बुलाया ये कहते हुए कि चाय पीते हैं मिल कर बैठते हैं , इनकार नहीं किया आग्रह को देख कर । 
 
  बड़े से प्लॉट में आखिरी कोने में आवास बनाया हुआ था अधिकांश जगह हरियाली पेड़ पौधे और बड़ा सा फैला हुआ आंगन , बताने लगे उनको ऐसा ही पसंद है । मैंने भी बताया कि हमारा घर भी कुछ इसी तरह आसपास हरियाली है सार्वजनिक पार्क हैं सामने वास्तव में ऐसा माहौल शानदार लगता है । उन्होंने अपने इक सहायक को दूध लाने को कहा चाय बनाने को , पता चला उनकी चाय पीने की आदत ही नहीं है । मैंने कहा आप रहने दें अथवा चलें हमारे निवास चाय पीते हैं । चाय के लिए दूध आने चाय बनने में कितना समय लगा बिल्कुल पता ही नहीं चला , पहली बार की मुलाक़ात में कैसे खुलकर इतनी बातें हुईं मालूम नहीं । पुराने गाने सुनाने लगे जाने कितने गीत और वास्तव में मधुर आवाज़ में जबकि कहने लगे उनको संगीत की कोई जानकारी नहीं है । मैंने बताया कभी मैं हॉस्टल में दिन भर गाता - गुनगुनाता रहता था अब गला ख़राब हो गया है । लेकिन उन्होंने कोई गीत सुनाने को कहा तो मैंने बताया कुछ दोस्त कभी शाम को मिलकर ऐसे ही घंटों सुनते सुनाते थे । अजीब लगेगा लेकिन कोई डेढ़ घंटा हम बैठे ऐसे ही जाने कितनी बातें करते रहे सामाजिक से व्यक्तिगत साधारण बातें जिनका कोई ख़ास महत्व नहीं होता है अपनी पसंद जैसे उनका रोज़ शाम को फुटबॉल खेलना इत्यादि । शायद मेरे लिए इक खूबसूरत याद बन कर रहेगी उनसे मुलाक़ात । 
आखिर में इक ग़ज़ल से ही अपनी बात रखते हैं , ग़ज़ल जनाब महशर काज़िम हुसैन लखनवी जी की है ।
 

मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते , कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते ।   

 

जल गया ख़ुश्क हो के दामन- ए - दिल , अश्क़ आंखों से और क्या बहते ।

 

बात की और मुंह को आया जिगर , इस से बेहतर यही था चुप रहते । 

 

हम को जल्दी ने मौत की मारा , और जीते तो और ग़म सहते । 

 

सब ही सुनते तुम्हारी ऐ ' महशर ' , कोई कहने की बात अगर कहते ।  

 
 
 खामोश अल्फ़ाज़
  

POST : 1977 कहां है सीमा उलझन आन पड़ी ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया

  कहां है सीमा उलझन आन पड़ी  ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया 

हद के भीतर रहना ज़रूरी है , माना बात कहना मज़बूरी है लेकिन आपसी तालमेल रखना है दिल से दिल मिलते नहीं हमेशा ख़त्म नहीं होती बीच की दूरी है । किस सीमा तक संयम रखना है कब कहां धैर्य और साहस की बीच की इक रेखा है हमने क्या समझा है कितना देखा है । दोस्ती हमको निभानी है अपनी अहमियत बचानी है आपका दर्द समझना है हमसे भी खफ़ा खफ़ा ज़िंदगानी है । अभी तलक हमने यही नहीं जाना है ज़ुल्म सहना है हर किसी का बस किसी तरह नाता बचाना है ये कैसा याराना है हमको खोना है उनको पाना है । आज सच को सच कहना है झूठ से आज टकराना है , छोड़ना हर इक बहाना है । हमने प्यार मुहब्बत में दरिया समंदर पार किए कितने भंवर कितने तूफ़ान रास्ते में खड़े थे टकराये भी कभी डूबे भी दुनिया ने भी अपनी नफरतों की इंतिहा कर दी हमको इक कश्ती बादबानी दी और हवाओं को छीन लिया । 
 
हद के अंदर हो नज़ाक़त तो अदा होती है , हद से बढ़ जाये तो आप अपनी सज़ा होती है , इतनी नाज़ुक ना  बनो , हाय इतनी नाज़ुक ना बनो । जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे , ज़िंदगानी का कड़ा बोझ सहोगी कैसे । तुम जो हलकी सी हवाओं में लचक जाती हो , तेज़ झौंकों के थपेड़ों में रहोगी कैसे । ये ना समझो कि हर इक राह में कलियां होंगी , राह चलनी है तो कांटों पे भी चलना होगा । ये नया दौर है इस दौर में जीने के लिये , हुस्न को हुस्न का अंदाज़ बदलना होगा । कोई रुकता नहीं ठहरे हुए रही के लिए , जो भी देखेगा वोह कतरा के गुज़र जायेगा । हम अगर वक़्त के हमराह ना चलने पाये , वक़्त हम दोनों को ठुकरा के गुज़र जायेगा । फिल्म वासना , साहिर लुधियानवी का गीत याद आया है , खुद को वक़्त के अनुसार बदलना है वक़्त कभी किसी की खातिर नहीं बदलता है । दर्द जब हद से बढ़ जाता है कहते हैं दवा बन जाता है मगर ऐसा अभी हुआ तो नहीं दर्द की हद क्या है उम्र भर कौन कैसे इंतज़ार करे । भरी दुनिया में क्या कोई नहीं जो हमको समझे और प्यार करे । तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम । बस और नहीं ।  
 
शराफ़त की हद होती है , सियासत ने सभी सीमाओं का उलंघन किया है लोकतंत्र को छलनी कर जनता को देश समाज को बर्बाद कर संविधान न्याय को बदहाल किया है । शासकों प्रशासकों के गुनाहों का कौन हिसाब करेगा क्या भगवान सभी ज़ालिमों को माफ़ करेगा अगर ऐसा हुआ तो किस दुनिया में कोई इंसाफ़ करेगा । सरकारों धनवानों और प्रशासनिक अधिकारियों कर्मचारियों की मनमानी और अपना कर्तव्य नहीं निभाने की शैली पर रोक नहीं है जैसा चाहा था हमारा देश वैसा लोक नहीं है । दोस्ती प्यार रिश्ते संबंध से सामाजिक आचरण तक सभी से हर शख़्स परेशान निराश है क्योंकि सभी ने मर्यादाओं नैतिक मूल्यों का परित्याग कर ख़ुदग़र्ज़ी का दामन थाम लिया है किसी को डुबोकर खुद अपनी नैया पार लगाने का दौर है । आखिर इक ग़ज़ल सुनाता हूं ।  
 
 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं ( ग़ज़ल )  

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं
पौंछकर आंसू सभी , अब मुस्कुराना चाहता हूं ।

ज़िंदगी भर आपने समझा मुझे अपना नहीं पर
गैर होकर आपको अपना बनाना चाहता हूं ।

दोस्तों की बेवफ़ाई भूल कर फिर आ गया हूं
बेरहम दुनिया को फिर से आज़माना चाहता हूं ।

किस तरफ जाना तुझे ,अब रास्ते तक पूछते हैं
बस यही कहता हूं उनको इक ठिकाना चाहता हूं ।

आप मत देना सहारा ,जब कभी गिरने लगूं मैं
टूट जाऊं ,बोझ खुद इतना उठाना चाहता हूं ।

आपसे कैसा छिपाना ,जानता सारा ज़माना
सोचता हूं आज लेकिन क्यों दिखाना चाहता हूं ।

नाचते सब लोग "तनहा" तान मेरी पर यहां हैं
आज कठपुतली बना तुमको नचाना चाहता हूं । 
 
 तु प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम - Tu Pyar Ka Sagar Hai Teri  Ek Boond Ke Pyaase Hum - YouTube