ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश हैइश्क़ की हर दास्तां खामोश है ।
बस तुम्हीं करते रहे रौशन जहां
तुम नहीं , सारा जहां खामोश है ।
क्या बताएं क्या हुआ सबको यहां
चुप ज़मीं है , आस्मां खामोश है ।
झूमता आता नज़र था रात दिन
आज पूरा कारवां , खामोश है ।
तू हमारे वक़्त की , आवाज़ है
किसलिए तूं जाने-जां खामोश है ।
दस साल पुरानी कही ग़ज़ल से शुरुआत की है , जाने क्यों आज एहसास हुआ कब से हमने बातचीत करना छोड़ दिया है । शोर फ़िल्म की बात याद आई है नायक जिस आवाज़ को सुनने को बेताब रहता है जब उस संतान की आवाज़ वापस आती है तो खुद फिर हादिसे में उसका सुनना चला जाता है । ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है , मगर हम सभी गूंगे बहरे नहीं हैं फिर क्या हुआ जो हमने बोलना छोड़ दिया है । अक़्सर सोचता रहता हूं किसी से मिलकर नहीं तो फोन पर ही बाहर रहते हुए भी बात करूं । स्मार्ट फोन पर हज़ार नाम हैं दुनिया भर से परिचय होने का झूठा प्रमाण है असल में शायद कोई हमको जानता है शायद ही किसी को हम जानते हैं । फिर भी कुछ लोग हैं जिनसे बात की जानी चाहिए कभी हुआ करती थी घंटो की बातचीत लैंडलाइन फोन पर , घर दुकान पर मिलना बात करना जीवन का हिस्सा था । कब कैसे ये हो गया कि हम भूल गए संवाद रखना कितना महत्वपूर्ण है , हुआ ऐसे कि लोग व्यस्त होने से अधिक व्यस्तता का प्रदर्शन करने लगे । शायद जिस ने फोन किया है उसे कोई विशेष बात बतानी हो , बिना सोचे फोन काटने लगे और संदेश भेजने लगे अभी ख़ाली नहीं बाद में फोन करता हूं । कभी ऐसा भी नहीं होता और कभी कोई फोन उठाते ही पूछता कुछ ख़ास बात है कोई कारण या काम है तो बताओ । ऐसा सिर्फ पहचान वाले नहीं बेहद करीबी समझे जाने वाले लोग भी कहने लगे । आदमी आदमी से बात नहीं करता हर शख्स अपने फोन पर जाने क्या क्या देखता ढूंढता फिरता है , जिस बेजान चीज़ में कोई अपनत्व नहीं इक वही अपना लगता है बाक़ी सब पराये लगते हैं , बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी ।
ऐसा कदापि नहीं कि किसी को फुर्सत नहीं होती थी , बल्कि अधिकांश अनावश्यक कार्यों में किसी ख़ास मकसद से समय बिता रहे होते थे बस उनकी प्राथमिकता कोई और होते थे । मोबाइल फोन ने जाने किस तरह हम सभी को मतलबी बना दिया था बात करने की कीमत मिनटों में पैसे से दिखाई देती थी खुद का नहीं फोन का टॉकटाइम कीमती लगता था , अब भले अनलिमिटेड कॉलिंग मुफ़्त मिलती है कुछ सौ रूपये का रिचार्ज करवाने से लेकिन घंटों सोशल मीडिया पर और रास्ते चलते भी बात करने लगे हैं तब भी संपर्क जिन से कुछ हासिल होता है उन्हीं से रखते हैं । शुभकानाएं हर दिन देते हैं व्हाट्सएप्प पर कोई कुशलक्षेम नहीं पूछते हैं । औपचारिकता निभाते हैं किसी से कोई हाल चाल सांझा नहीं करते हैं । आज भी चाहता था किसी से बात करूं पहले की तरह बिना किसी मतलब या ज़रूरत लेकिन किस से करनी है से भी पहले सोचना पड़ा बात क्या करनी है कुछ विशेष है नहीं बस दिल चाहता है । दिल चाहता है कभी न बीतें चमकीले दिन , दिल चाहता है हम न रहें कभी यारों के बिन । इक घबराहट सी होती है कि जिसे भी फोन मिलाया उधर से सवाल आया कैसे याद आई कुछ ख़ास बात है तो बताएं तब क्या जवाब देंगे ।
आपको याद है राजेश खन्ना की फ़िल्म थी आनंद जिस में आनंद किसी भी अनजान अजनबी व्यक्ति को हमेशा मुरारीलाल नाम से बुलाता और लोग हैरान होते । अमिताभ बच्चन कहते हैं पहले देख लिया करो तब राजेश खन्ना बताता है कि किसी मुरारीलाल नाम वाले को वो जानता ही नहीं , ये तो किसी से दोस्ती करने बात करने का इक तरीका है । लेकिन इक दिन कोई उसी तरह मिल जाता है और आनंद को जयचंद कहकर बुलाता है । जब राजेश खन्ना अमिताभ बच्चन को बताता है कि उसे मुरारीलाल मिल गया है तब जॉनी वॉकर कहते है कि उसका नाम भी मुरारीलाल नहीं , ईसाभाई सूरतवाला है जैसे राजेश खन्ना का आनंद है । कभी सोचा नहीं था किसी से अचानक यूं इक बार मुलाक़ात हो सकती है पहचान होने से कितनी लंबी बात हो सकती है लेकिन ऐसा वास्तव में हुआ कल ही ऐतबार करना कौन क्या ये फिर कभी कभी अगर मिलना हुआ तो । हां कोई नाम लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी , मुलाक़ात हुई क्या क्या बात हुआ आपको बताता हूं ।
कल अचानक कुछ अलग बात हो गई , जैसे कोई काल्पनिक कहानी हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी हो गई हो ।अपने नगर से बाहर आया हुआ हूं कुछ दिन पारिवारिक काम से । अजनबी शहर है कुछ जान पहचान वाले हैं भी तो बड़े शहर में मिलना जुलना कठिन लगता है साथ सभी की अपनी अपनी दिनचर्या होती है किसी से मुलाक़ात की बात नहीं हुई । कुछ दूर इक पार्क में सुबह सैर पर जाता हूं थोड़े अनजान चेहरे दिखाई देते हैं कुछ पहचान सी लगने लगी है । सड़क के उस छोर पर इक घर थोड़ा अलग लगता रहता जिस के बाहर इक नाम लिखा हुआ है कभी कोई रहने वाला नज़र नहीं आता था , कल सुबह बड़ा सा पुराने ढंग का लोहे का गेट दोनों तरफ खुला हुआ था और इक व्यक्ति खड़ा था । शायद उन्होंने ही पहल की और पूछा अभिवादन कर आप क्या यहीं रहते हैं , मैंने बताया जी नहीं मैं हरियाणा में रहता हूं यहां बेटा रहता है आना जाना रहता है । उन्होंने बताया वो भी किसी और शहर में रहते हैं यहां घर बनाया हुआ है कभी कभी आते हैं । कुछ सोच कर उन्होंने घर में भीतर बुलाया ये कहते हुए कि चाय पीते हैं मिल कर बैठते हैं , इनकार नहीं किया आग्रह को देख कर ।
बड़े से प्लॉट में आखिरी कोने में आवास बनाया हुआ था अधिकांश जगह हरियाली पेड़ पौधे और बड़ा सा फैला हुआ आंगन , बताने लगे उनको ऐसा ही पसंद है । मैंने भी बताया कि हमारा घर भी कुछ इसी तरह आसपास हरियाली है सार्वजनिक पार्क हैं सामने वास्तव में ऐसा माहौल शानदार लगता है । उन्होंने अपने इक सहायक को दूध लाने को कहा चाय बनाने को , पता चला उनकी चाय पीने की आदत ही नहीं है । मैंने कहा आप रहने दें अथवा चलें हमारे निवास चाय पीते हैं । चाय के लिए दूध आने चाय बनने में कितना समय लगा बिल्कुल पता ही नहीं चला , पहली बार की मुलाक़ात में कैसे खुलकर इतनी बातें हुईं मालूम नहीं । पुराने गाने सुनाने लगे जाने कितने गीत और वास्तव में मधुर आवाज़ में जबकि कहने लगे उनको संगीत की कोई जानकारी नहीं है । मैंने बताया कभी मैं हॉस्टल में दिन भर गाता - गुनगुनाता रहता था अब गला ख़राब हो गया है । लेकिन उन्होंने कोई गीत सुनाने को कहा तो मैंने बताया कुछ दोस्त कभी शाम को मिलकर ऐसे ही घंटों सुनते सुनाते थे । अजीब लगेगा लेकिन कोई डेढ़ घंटा हम बैठे ऐसे ही जाने कितनी बातें करते रहे सामाजिक से व्यक्तिगत साधारण बातें जिनका कोई ख़ास महत्व नहीं होता है अपनी पसंद जैसे उनका रोज़ शाम को फुटबॉल खेलना इत्यादि । शायद मेरे लिए इक खूबसूरत याद बन कर रहेगी उनसे मुलाक़ात ।
आखिर में इक ग़ज़ल से ही अपनी बात रखते हैं , ग़ज़ल जनाब महशर काज़िम हुसैन लखनवी जी की है ।