गर्व से कहो हम सभी भिखारी हैं ( खरी-खोटी ) डॉ लोक सेतिया
शुरुआत करते हैं जनाब जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल से , उनका परिचय क्या बताएं मुझे समझ नहीं आता है , उनकी शायरी की किताब शायर निदा फ़ाज़ली जी ने सम्पादित की ' जाँनिसार अख़्तर - एक जवान मौत ' । जन्म ग्वालियर में 18 फरवरी 1914 और मृत्यु 19 अगस्त 1976 को मुंबई में हुई ।
साहिर लुधियानवी से कौन परिचित नहीं जाँनिसार अख़्तर उनके साथी और उनकी महफ़िल का इक ख़ामोश कोना थे जो बुलंदी पर नहीं पहुंच सका क्योंकि मुंबई नगरी के तौर तरीके उनको कभी नहीं आये । लेकिन 1973 में हिंदुस्तानी बुक ट्रस्ट मुंबई से प्रकाशित ' हिन्दोस्तां हमारा ' राजकमल प्रकाशन ' से 75 साल प्रकाशन के पूर्ण होने पर दो भाग में 2023 में फिर से पेपरबैक में छापा गया जिस को पढ़ कर कोई भी हमारे हिंदोस्तां को वास्तव में समझ सकता है । उनकी ग़ज़ल पेश है और आख़िरी शेर मुंबई नगरी पर कहा गया था बस अब उस को देश पर कहें तो कुछ भी गलत नहीं होगा ।
ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तेरा क़र्ज़ उतारा ही न हो ।
कूए - क़ातिल की बड़ी धूम है चल कर देखें
क्या खबर कूच - ए - दिलबर से प्यारा ही न हो ।
दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूं कहीं तूने पुकारा ही न हो ।
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूं तेरे अंचल का किनारा ही न हो ।
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो ।
राजनीति का खेल तमाशा अजब ग़ज़ब होता है , सबसे बड़ा मदारी कहते हैं ऊपरवाला है जो दिखाई नहीं देता दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाता है , लेकिन उसका किसी को पता नहीं पर सत्ता पर आसीन राजनेता कमाल करता है । आपको सुनहरे सपने दिखलाता है और खुद अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करने में कोई कसर नहीं रहने देता कभी । वोटों की भीख मांग कर खुद शासक बनकर सिंघासन पर बैठ मौज मस्ती करता हुआ जनता को उसी के अधिकार अधिकार नहीं भीख की तरह दे कर समझाता है कि वही इक दाता है भिखारी सारी दुनिया । भीख की महिमा , भिखारी सारी दुनिया ,
मोबाइल वाले भिखारी , भिक्षा सरचार्ज , ये सभी मेरी 2003 में लिखी और छप
चुकी रचनाएं हैं । आज की रचना उसी विषय पर है मगर नई लिख रहा हूं पुरानी याद
आ रही हैं ।
इक विज्ञापन है कुछ नहीं कर के बड़ा अच्छा किया क्योंकि उन्होंने जो करना था किया होता तो अनहोनी होने का अंदेशा था लेकिन फाइव स्टार चॉकलेट खाने वाले यही करते हैं । पहले उन्होंने 35 साल तक भीख मांग कर गुज़ारा किया मोदी जी ने बताया था 2014 को इक साक्षात्कार में उस के बाद उन्होंने शायद साक्षात्कार देना ही छोड़ दिया है । अब सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 80 करोड़ जनता को मुफ़्त में अनाज और ज़रूरत की अन्य वस्तुएं मिल रही हैं अर्थात दो तिहाई लोग बेबस हैं जीने को खैरात पर निर्भर हैं , मगर देश आत्मनिर्भर बन रहा है और जाने कितने अरब खरब की अर्थव्यस्था बनने की राह पर अग्रसर है । हमने इक कहानी सुनी थी इक भिखारन को रानी बना दिया गया तब भी उसको भीख मांगना ख़ुशी देता था उसकी आदत थी बंद कमरे में दीवार के सामने हाथ फैला भीख मांगती थी । क्या अपने ऐसी खबरें नहीं पढ़ीं किसी भिखारी के पास करोड़ों रूपये मिले । आपको हैरानी हो सकती है जबकि यही सच है भीख मांगना आजकल बहुत बड़ा धंधा है फर्क सिर्फ इतना है कि भीख मांगते नहीं किसी और नाम से हासिल करते हैं अगर नहीं मिलती तो छीन लेने में संकोच नहीं करते हैं । मैंने कई साल पहले इक रचना लिखी थी सबसे बड़ा घोटाला जो इक पत्रिका को छोड़ किसी भी अख़बार पत्रिका ने नहीं छापी थी । अभी भी देश में उस से बड़ा घोटाला शायद ही हुआ होगा , सरकारी विज्ञापन जनता के धन की अथवा सरकारी खज़ाने की इक लूट है जिस से देश समाज को कुछ नहीं मिलता बस कुछ लोगों की तिजोरी भरती रहती हैं और बदले में सरकार अधिकारी राजनेताओं की वास्तविकता को सामने नहीं लाने और उनका गुणगान करने का कार्य कर पत्रकार विशेषाधिकार हासिल कर अपने को छोड़ सभी को कटघरे में खड़ा करने लगे हैं । इक शेर मेरा भी है पढ़ सकते हैं ।
' बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । '
भीख में क्या क्या नहीं मिलता बल्कि सब कुछ मिलता है , धार्मिक उपदेशक पुराने साधु संतों की तरह घर घर गली गली भिक्षा मांगने नहीं जाते उनका सारा विस्तार किसी कंपनी की तरह कारोबारी तौर तरीके से दिन दुगनी रात चौगनी रफ़्तार से चलता है । लोभ लालच संचय नहीं करने का उपदेश अनुयायियों को देते हैं खुद उनकी महत्वांकाक्षा आसमान से ऊंची उड़ान भरना होता है । लोकतंत्र का खेल जिस चंदे से खेला जाता है वो इस हाथ ले उस हाथ दे की नीति पर निर्भर है सत्ता मिलते कई गुणा मुनाफ़ा की शर्त होती है । अधिकारी राजनेता से मधुर संबंध किसी प्यार की भावना या आदर स्नेह से नहीं मतलब से रखते हैं सभी ख़ास लोग । अपना ज़मीर गिरवी रख कर अमीर बनना ज़रा भी मुश्किल नहीं है और सच्चाई ईमानदारी आपको कब बदहाली की चौखट तक पहुंचती है आपको खबर नहीं होती है । साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं अन्य संगठनों के पदों की सौगात उन्हीं को मिलती है जो सत्ता की चौखट पर माथा टेक झूठ की जयजयकार करते हैं । बन गए चोरों और ठगों के , सत्ता के गलियारे दास । मेरी पहली नज़्म बेचैनी चालीस साल बाद भी कम नहीं हुई बढ़ती ही जा रही है ।
बेचैनी ( नज़्म )
पढ़ कर रोज़ खबर कोईमन फिर हो जाता है उदास ।
कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।
कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।
कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।
चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।
सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।
जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।
बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।
कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
अब भीख मांगना गरीबी की मज़बूरी नहीं होकर अमीर बनने का तरीका हो गया है और सभी बिना किसी मेहनत के धनवान होना चाहते हैं सिर्फ कौन बनेगा करोड़पति शो ही नहीं जाने कितने लोग दुनिया को नाम शोहरत दौलत हासिल करने को संसद विधानसभाओं की सदस्यता से ठेकेदारी और तमाम अच्छे बुरे धंधे करने की राह दिखलाते हैं । अपराध राजनीति और टीवी मीडिया सिनेमा का गठजोड़ देश को अपने स्वार्थ की खातिर इक ख़तरनाक खाई में धकेलने का कार्य कर रहे हैं और ये सभी दानवीर कहलाने वाले वास्तव में किसी न किसी तरह से भीख पाकर ऊंचाई पर खड़े हैं तब भी आपको झूठे प्रलोभन भ्रामक विज्ञापन से इक जाल में फंसवा पैसा बनाते हैं । आजकल आपको भिक्षा जेब से हाथ से सिक्के निकाल नहीं देनी पड़ती बल्कि आपको कब कैसे किस ने चपत लगाई आपको पता ही नहीं चलता है । भीख खैरात शब्द अपमानजनक लगते थे आजकल ऐसा करने को समाजसेवा जैसा कोई ख़ूबसूरत नाम दे देते हैं रईस लोग हाथ फैलाकर नहीं लेते लोग खुद विवश होकर उनको देते हैं बदले में अपना नाम किसी सूचि में शामिल करवा खुश हो जाते हैं । भीख की महिमा अपरंपार है देने वाला इक वही मांगता सारा संसार है । हम गरीब देश भी किसी को भीख देते हैं किसी से भीख लेते हैं यहां हर कोई किसी न किसी से मांगता उधार है क़र्ज़ लेकर घी पीने का हमारा चलन कितना शानदार है । इस सब के बावजूद किसी भूखे को डांटना सब जानते हैं ऐसा कहते हैं भले चंगे हो मांग कर खाने से शर्म नहीं आती जबकि कौन है जिसे मांगते हुए लज्जा आती है राजनेता और अमीर तो क्या सरकार से बैंक तक सभी की झोली फैली हुई है । मीना कुमारी ने कहा है जिसका जितना अंचल था उतनी ही सौगात मिली । अंत में मेरे गुरूजी राम प्रसाद शर्मा महरिष जी की इक ग़ज़ल प्रस्तुत है ।
बने न बोझ सफ़र इक थके हुए के लिए
हो कोई साथ उसे मिलके बांटने के लिए ।
हज़ार देखा किया जाने वाला मुड़ मुड़ कर
मगर न आया कोई उसको रोकने के लिए ।
ये हादिसा भी हुआ एक फ़ाक़ाकश के साथ
लताड़ उसको मिली भीख़ मांगने के लिए ।
तू आके सामने मालिक के अपनी दुम तो हिला
है उसके हाथ में पट्टा तेरे गले के लिए ।
ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आख़िर
नमक ही ठीख रहेगा जले-कटे के लिए ।
बहानेबाज तो महफ़िल सजा रहा था कहीं
घर उसके हम जो गए हाल पूछने के लिए ।
फ़क़ीर वक़्त के पाबंद हैं बड़े " महरिष "
अब उनके हाथ में घड़ियाँ हैं बांधने के लिए ।
1 टिप्पणी:
आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही शानदार लेख 👍👌
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