असर देखिये क्या हो ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
बदलना था जिनको हालात को , बदलने लगे हैं बात को । ज़माने को बदलने वाले खुद बदल गए हैं , दिन कहने लगे हैं काली अंधियारी रात को । अल्फ़ाज़ समझते नहीं मेरे मेहरबां , समझे नहीं हैं लोग भी क़ातिलाना से उनके अंदाज़ को । क्या क्या नहीं बदला दरो - दीवार से लेकर घर की बुनियाद तक हिला दी है , सोज़ की समझ नहीं , समझेंगे क्या भला साज़ को । घनघोर घटाओं ने प्यास नहीं बुझाई , रहने भी दो अब शोले भड़काती इस बरसात को , ये कैसी शमां उजाला नहीं करती दामन कितने जलाए हैं बिरहा की इक रात को । हाथ से मिलाया हाथ हथकड़ी बन गई अब जा के लोग समझे रहनुमाओं की सौग़ात को । तकदीर गरीबों की भला संवारते हैं कभी सरकार , दुनिया की सभी ताकतें शतरंजी बिसात पर जनता को बना मोहरे लुत्फ़ लेते हैं कभी शह कभी मात को । इतिहास के पन्नों को पलटने से क्या होगा हर हर्फ़ भीगा हुआ अश्क़ों की बारिश से , कुछ मिट गए कुछ फाड़ दिए शरारती लोगों ने अपनी आसानी को , इक किस्सा रहा बाक़ी सुनाएगी , सुनोगे चोरों की नानी को । लिबास बदलने से किरदार नहीं बदलते हैं , झूठ सौ बार बोल देने से सच पराजित नहीं होता है , आग़ाज़ ही सही नहीं हो तो अंजाम कैसे सही होगा , चाहा था सभी ने हिसाब सही होगा कब सोचा था किसी ने कोई खाता न बही जो उनके मन भाये बस हर बार वही सही होगा । झूठ बैठा है सूरज बन कर सिंहासन पर सच को सूली चढ़ाया जाएगा । कलम थक गई है लिखने से क्या हासिल पढ़ने से पहले मिटाने का अंदेशा है खुद ही मिटा दिया खुद ही लिखा जा क्या क्या , कूड़ेदान में ढूंढना शायद बचा हो जो इतिहास मिटाया गया जाने किस किस की ज़रूरत से किसी की चाहत से आधी अधूरी रही हसरत से । ख़त्म इक दिन झूठा बनावटी अफ़साना होगा , ज़िंदगी का फिर से वही गीत सुहाना होगा , आएगी इक सुबह उजाला लिए सब घरों बस्तियों से अंधकार मिटाना होगा । जो आज है कल बीता पुराना ज़माना होगा । मौसम अभी ठीक नहीं है फ़िज़ाओं का मिजाज़ अच्छा नहीं पर देखेंगे हम सभी फिर वही मौसम आशिकाना होगा । हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ , जब भी मिलेंगे अंदाज़ पुराना होगा । मज़बूर फिल्म की ग़ज़ल से बात को विराम देते हैं ।
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