अप्रैल 05, 2023

चाह इक मिस कॉल की ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    चाह इक मिस कॉल की  ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ मत सोचना किसी इश्क़ प्यार मुहब्बत की नहीं देश की राजनीति की बात है । सैर कर पार्क से निकला ही था कि किसी ने रोका नाम नहीं पूछा काम नहीं बताया न खुद का कोई परिचय देना ज़रूरी था । बस इक मिस कॉल इक नंबर पर करने को आग्रह किया , मैंने बताया मुझे किसी भी राजनैतिक दल से कोई लगाव नहीं है मैं कौन हूं आपको पता है चलो आप कौन हैं बताओ तो सही । साथ इक और खड़ा था मुझे छोड़ उस को मुख़ातिब हो कहने लगे उधर देखो कितने लोग गुज़र रहे हैं इनकी बात मुझे सुनने दो । फिर मुझे कहने लगे आप कौन हैं क्या है हमको सिर्फ अपने राजनैतिक दल की मैंबरशिप बढ़ानी है बस इक मिस कॉल इक नंबर पर ही तो करना है । मुझे कहा या अपने साथी को मालूम नहीं बस बोले की हमारा टार्गेट पूरा करना है । ये भाषा कुछ कंपनी के मैनेजर जैसी लगी अपने अधीन कार्य करने वाले को समझाते हुए । ये कैसा अजब तमाशा है राह चलते हर किसी से मिस कॉल की खैरात मांगना , जाने किसे धोखा दे रहे हैं खुद को या किसी और को जिस को झूठे बनावटी आंकड़े दिखला कर उनकी नज़रों में निष्ठावान कहलाना । मैंने देश की दशा पर थोड़ा बात की तो बगलें झांकने लगे उनको कल क्या हुआ था किस कारण हड़ताल थी उनको खबर नहीं थी और देश राज्य की समस्याओं को छोड़ इक राजनैतिक दल की मैंबरशिप की नकली बढ़ोतरी उनको सब से महत्वपूर्ण कार्य लग रही थी । इतना कहते ही उनको बहुत बुरा लगा कि देश व्यक्ति दल से पहले होना चाहिए । जाने क्यों हर कोई सीधी बात को उल्टा समझता है जैसे मैंने कोई आरोप लगाया हो उन पर शायद सच कड़वा लगता है । 
 
जनता से विचारधारा की देश की जनता की समस्याओं की उनके समाधान की चर्चा कर जागरूक करने और सार्थक ढंग से संगठन को बनाने की जगह इस तरह सिर्फ दिखाने को संख्या बढ़ाने की कोशिश क्या समझदारी हो सकती है । सोशल मीडिया पर अकॉउंट खोल देशभक्ति करने की बातें देश में कोई बदलाव नहीं ला सकती हैं और लगता है ये किसी को चाहिए भी नहीं । इक मिस कॉल की चाह का एक ही अर्थ है बस सत्ता की इक आसान सीढ़ी बल्कि कोई लिफ़्ट जो नीचे से सीधे सड़बे ऊपरी मंज़िल तक तुरंत पहुंचा दे । सत्ता आजकल समाजसेवा करने को नहीं खुद को सबसे महान कहलाने और धन दौलत सुख सुविधा हासिल करने का साधन बन गई है । अपना सब देश समाज को देने प्राण न्यौछावर करने वाली देशभक्ति किताबों में मिलती है , विडंबना देखिए की पढ़ लिख कर लोग नैतिकता ईमानदारी नहीं सीखते धन दौलत और सभी अधिकार चाहते हैं वो भी कर्तव्य की बात को दरकिनार करते हुए ।  आज किसी शायर की ग़ज़ल के दो शेर  याद आये हैं सटीक बैठते हैं मौजूदा परिपेक्ष्य में पेश करता हूं ।  
 

छोड़ो कल की बात हमारे साथ चलो  ,

हाथों में ले  हाथ हमारे साथ चलो ।

साज़िश में कुछ लोग लगे दिन रात यहां  , 

बदलेंगे हालात हमारे साथ चलो ।  



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