नहीं उदास नहीं ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया
कुछ उथल-पुथल सी है मन में , बस जाने क्यूं लिखना चाहता हूं या फिर शायद समझना , जीवन के सफ़र को लेकर सोचना चाहता हूं किधर से चलते चलते कहां आ गया हूं और किस तरफ जाना है । ज़िंदगी के मोड़ आते रहते हैं और रास्ते ढूंढते ढूंढते बढ़ते रहते हैं सवाल उम्र की गिनती का नहीं खोया क्या पाया क्या का भी नहीं थोड़ा ठहर कर आंकलन करने का होता है । लगता है मिला बहुत है शायद नसीब से बढ़कर और मेरी काबलियत कोशिश मेहनत से भी ज़्यादा ही इसलिए किसी से भी कोई गिला शिकवा नहीं ऊपरवाले से भी शिकायत का अधिकार नहीं । फिर भी इक ख़ालीपन-सा अथवा कुछ अधूरापन का एहसास-सा है जिस का कारण मुझमें कुछ कमियां हमेशा रहीं हैं चाहता हूं कुछ , और हालात कुछ और करने को विवश करते हैं । सब पास है फिर भी इक प्यास है चाहत की प्यार दोस्ती मुहब्बत की जो हासिल होता भी है लेकिन जहां से चाहते हैं वहीं से क्यों नहीं होता । मुझे नहीं शिकायत किसी से भी बस अफ़सोस है हर शख़्स को मुझसे शिकायत क्यों है लाख कोशिश कर के भी उम्र भर किसी को भी उतना नहीं दे पाया जितना सबको उम्मीद रही है मुझसे मिलने को । मुझे जिस की चाहत या ज़रूरत रही है वो खूबसूरत जहां कल्पना हो सकता है वास्तविकता में कहीं मिलना संभव ही नहीं , बस अपनी वही दुनिया बनाने तलाश करने में ज़िंदगी बिताई है तभी शायद असली दुनिया का सब छूट गया है । वास्तविक दुनिया ज़माने से नाता ठीक से बना ही नहीं बनते बनते टूटता रहा है ।
अजब दुनिया है निराले दस्तूर हैं हर किसी को शर्तों पर ज़िंदगी मिलती है समाज देश दुनिया किसी को उसकी मर्ज़ी से जीने की आज़ादी नहीं देते हैं । बिना अपराध सभी गुनहगार बनकर खड़े रहते हैं जनाब कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल सच कहती है ' ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं , और क्या जुर्म है पता ही नहीं '। मैंने चाहा ऐसी दुनिया बनाना जिस में कोई किसी को बड़ा छोटा ऊंचा नीचा ख़ास आम कुछ भी भेदभाव नहीं करता हो किसी को किसी से बिल्कुल भी नफ़रत नहीं हो हर इंसान जैसा है उसको उसी तरह से अपनाया जाए अपनों को ही नहीं बेगानों को भी अपनाया जाए । जीवन की यादें बहुत हैं कुछ खट्टे मीठे अनुभव भी सब को होते हैं परेशानी यही है क्यों लोग बाक़ी लोगों से चाहते हैं कि जैसा उनको पसंद है उसी तरह से जिएं । ऐसा मुमकिन ही नहीं कि कोई भी सबकी पसंद पर खरा साबित हो सके जितने संगी साथी जितने दोस्त जितने रिश्ते सबकी ख़्वाहिश को देख जीने लगते हैं तो खुद अपनी ख़्वाहिशों को दफ़्न करना पड़ता है । समझौतों पर ज़िंदगी जीना ऐसा लगता है जैसे हर सांस की कीमत चुकानी पड़ती है ।
72 साल की उम्र बहुत होती है लेकिन इतने बरसों में ज़िंदगी को जिया है या उम्र गुज़ारी है ये समझ नहीं आता बड़ा कठिन सवाल है । दिल चाहता है सब को सब कुछ जो भी ज़रूरी है देना , मगर क्या सब अपने बस में है शायद नहीं , हां कोशिश है चाहता हूं पर होगा कितना कितना नहीं संभव होगा नहीं जानता । हमेशा दिल में इक बात रहती है कि सभी से इस बात की क्षमा मांगना कि जो भी उनकी आपेक्षा रही नहीं कर पाया या जिस भी कारण से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची उस की माफ़ी चाहता हूं , पर कभी कभी ये भी होता है कि अकारण खफ़ा हुए लोग इस को गलती स्वीकार करना और बिना अपराध किए दोषी साबित होने का प्रमाण मान कर और भी सितम ढाते हैं । अधिक सफाई देना भी खुद को गुनहगार बनाने जैसा लगता है लोग शराफ़त को शराफ़त समझते नहीं और सोचते हैं उनको अधिकार है किसी को नीचा दिखला कर खुद को ऊंचा दिखाने का । निभाना अच्छी बात है पर हम ही रिश्ते नाते दोस्ती से सभ्य ढंग और शिष्टाचार निभाते रहें और लोग हमसे अनुचित और अशोभनीय व्यवहार करते रहे ऐसा कब तक सहना मुमकिन है । इक सीमा से अधिक किसी के गलत आचरण को अनदेखा करना खुद अपने स्वाभिमान को क्षति पहुंचाता है । अब लगता है सबको लेकर बहुत सोचा और अपनी मर्ज़ी को अनदेखा कर दुनिया की समझाई राहों पर चलते चलते वहां पहुंच गए जहां सामने कोई मोड़ तो क्या सभी रस्ते बंद दिखाई देते हैं । शायद अपनी कविता की डायरी की शुरूआती कविता फिर से पढ़ने की ज़रूरत है ताकि ज़िंदगी की किताब या डायरी के बाक़ी बचे खाली पन्नों पर जो लिखना है मुझे वो लिखना भी है और उसी दिशा को ज़िंदगी को अपनी नई राह बनाकर आगे बढ़ाना भी है । ज़िंदगी जीने की शुरुआत अभी भी संभव है सोचता हूं आज 72 साल का होने पर ।
मुझे लिखना है ( कविता )
कोई नहीं पास तो क्याबाकी नहीं आस तो क्या ।
टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।
धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।
छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।
बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।
ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।
हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।
सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।
जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।
मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की और विश्वास की ।
लिखनी है कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।
अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहां ।
बस खुशियां ही खुशियां हों
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।
फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।
वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।
5 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-04-2023) को "आम हो गये खास" (चर्चा अंक 4660) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ज़िंदगी की कशमकश को बयां करता लेख...अनुभव को शब्द देता...👌👍
72 साल के अनुभव को कुछ पन्नों में बयां करती बहुत उम्दा लेख।
सकारात्मक सोच की तरफ बढ़ते कदम , सारगर्भित चिंतन, सुंदर काव्य सृजन।
बहुत अच्छी प्रस्तुति
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