विरासत बोझ बनती जा रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
विरासत बोझ बनती जा रही है
सियासत बस यही समझा रही है ।
करेंगे ज़ुल्म दहशतगर सभी पर
वो चुप रहने के गुर सिखला रही है ।
सभी भूखे मनाओ मिल के खुशियां
हां सबको याद नानी आ रही है ।
नचाती सबको तिगनी नाच सत्ता
वीभस्त राग सुर में गा रही है ।
हुक्मरानों की बातें राज़ हैं सब
बुढ़ापों पर जवानी छा रही है ।
थी जनता आ गई झांसों में उनके
उन्हें दे वोट खुद पछता रही है ।
करो मत बात आदर्शों की ' तनहा '
रसातल तक पहुंचती जा रही है ।
2 टिप्पणियां:
यूँ कहें तो...
सियासत बोझ बनती जा रही है।
अभी तक तो यही समझा रही है
हुक्मरानों....की ...बुधापों पर जवानी...👌👍
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