नवंबर 19, 2016

POST : 562 ईमानदारी का पाठ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      ईमानदारी  का पाठ  (  व्यंग्य  ) डॉ लोक  सेतिया

 सबक पढ़ाने का अपना ही मज़ा है , पढ़ाने वाले को उस पर अमल करना कभी ज़रूरी नहीं होता। सरकारी स्कूलों में अक्सर ऐसा भी होता है कि जिस विषय का अध्यापक को बिल्कुल ज्ञान नहीं हो उसको वो भी छात्रों को पढ़ाना पड़ता है। किसी अध्यापक के छुट्टी पर होने पर मुख्य अध्यापक की मज़बूरी होती है जो खाली उपलब्ध हो उसी को आदेश देना छात्रों को पढ़ाने का। साधु संत महात्मा प्रवचक भी लोभ लालच का त्याग करने का उपदेश देने के बाद खुद अधिक चढ़ावे और आलीशान आश्रम व सभी आधुनिक सुख सुविधाओं की चाह रखते ही हैं। सरकार किसी की भी हो जनता से हर नियम कायदा कानून ईमानदारी से मानने की उम्मीद रखते हैं और भाषण देते हैं मंत्री बनकर कि उनके आदेशों का पालन किया जाना चाहिए। ऐसे में खुद कितने ईमानदार हैं कहां सोचते हैं। क्या उन्होंने चुनाव आयोग की बताई सीमा में खर्च किया था चुनाव लड़ते समय। क्या जीतने को तमाम अनैतिक हथकंडे नहीं अपनाये थे , दो नंबर का धन नहीं लिया था चंदे में , क्या जाति धर्म के नाम पर जनता को गुमराह नहीं किया था। क्या तब जनता से सब कुछ सच सच बोला था , जो कभी नहीं निभाने वो वादे नहीं किये थे। क्या जैसा वो कहते हैं कि हम तो जनता के सेवक हैं और हमें खुद अपने लिये कुछ नहीं चाहिए उसी तरह बनना चाहते हैं। क्या जनप्रतिनिधि बनते ही उनको मलाईदार पद पाने की इच्छा नहीं थी , मंत्री बनते ही क्या हर निर्णय ईमानदारी से करने लगे हैं। अपने ख़ास लोगों को कोई फायदा नहीं देते हैं , प्रशासन के कामों में अनावश्यक दखल नहीं रखते। किसी की सिफारिश न तो करते हैं न कभी मानते हैं। क्या ये सारी बातें उनकी ईमानदारी की परिभाषा में आती हैं।

                          क्या उनकी सरकार का हर विभाग अपना काम नियमानुसार करता है , उचित कार्य के लिए जनता को कोई कठिनाई नहीं होती है। क्या ईमानदारी सरकार और प्रशासन से ही शुरू नहीं होनी चाहिए ताकि जनता को किसी नेता की सिफारिश की ज़रूरत ही नहीं हो। क्या पुलिस और न्याय प्रणाली सभी के साथ एक जैसा बर्ताव करते हैं , क्या नेता उनका दुरूपयोग नहीं कर पा रहे। क्या ये सभी मंत्री नेता और उच्च अधिकारियों को खुश करने में नहीं लगे हुए , क्या उनकी तरक्की या तबादला निष्पक्षता से किया जाता है। क्या सरकार की प्राथमिकता अधिक कर वसूलना नहीं है , क्या नेता और अफ्सर देश पर इक बोझ नहीं हैं सफेद हाथी की तरह। क्या आपकी विकास की परिभाषा पूरी तरह गलत नहीं है , विकास किसका , लोगों का या इमारतों और सड़कों का , जनता की भलाई वाला विकास आपको कभी समझ आया है क्या। आपको केवल वही विकास पसंद है जिस से आपको खुद खाने को मिलता रहे। लोकतंत्र , लोकतंत्र , लोकतंत्र। कैसा लोकतंत्र , देश की जनता को शिक्षा देना आपकी प्राथमिकता नहीं उस निजि स्कूलों के भरोसे छोड़ दिया , ऐसे स्कूलों के हवाले जिनकी फीस केवल अमीर ही चुका सकते हैं। यही हालत स्वास्थ्य सेवाओं की है , प्राइवेट नर्सिंग होम जितनी मर्ज़ी कीमत वसूल करें बीमार लोगों से ईलाज की , उन पर कोई रोक नहीं कोई सीमा नहीं। क्या हॉस्पिटल में रोगी के उपचार को कमरे होते हैं या होटल की तरह महंगे अमीरों की सुविधाओं के लिए बनाये जाते हैं। शिक्षा स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी ज़रूरतों में इतना भेदभाव होना क्या गरीबों के साथ अन्याय नहीं है। मगर इस से अधिक गलत बात ये है कि आज तक सरकार ने कोई नियम ही नहीं बना रखा इन के लिये कि क्या क्या सुविधा क्या क्या मापदंड होने चाहियें अस्पताल या नर्सिंग होम के। कोई हद किसी उपचार पर कितना पैसा लिया जाना सही है , जानते हुए भी कि इस मानवीय सेवा के कार्य में हर चीज़ में कमीशन का गंदा खेल जारी है आप आंखें बंद किये हैं क्योंकि आपको जब ज़रूरत हो हर सुविधा मिल ही जाती है। क्या इस को जनता की सेवा कहते हैं और जनता की बेबसी को नहीं समझ इक फरेब करते हैं जनता को देश की मालिक बताकर।

                   देश को आज़ाद हुए सत्तर साल होने को हैं और देश की आधी आबादी बदहाली में जीती है , तब भी आपकी सुख सुविधाओं पर ही नहीं , आपके झूठे प्रचार पर भी व्यर्थ धन बर्बाद किया जाता है। कितने आडंबर प्रतिदिन करते हैं आप लोग शाही शान के साथ , गरीबों का उपहास करने जैसा। रोज़ आपकी बेकार की सभायें सिर्फ धन की बर्बादी ही नहीं होती उन में , सरकारी तंत्र भी हमेशा उसी में व्यस्त रहता है। आपने देश और जनता को न्याय देने की शपथ ली थी क्या याद आया कभी। अपनी शपथ को और देश के प्रति अपने कर्तव्य को कितनी ईमानदारी से निभाया है आज तक सभी नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने। क्या ईमानदारी का पाठ पढ़ाने की सब से ज़्यादा ज़रूरत आप ही को नहीं है। खुद को आईने में देखना ज़रूरी है जब औरों को नसीहत दो तो सोचो आपको हक है भी ऐसी शिक्षा देने का जिसको आपने कभी जाना नहीं समझा नहीं , अपनाया ही नहीं। सच तो ये है कि अभी तक आप सभी दलों की सरकारों ने जनता को सिर्फ झूठे वादों से बहलाया ही है सत्ता की खातिर। आज तक किसी भी दल के नेता को कितने बड़े घोटाले करने पर भी कोई सज़ा नहीं मिल सकी है। आपकी सभी योजनायें इक धोखा साबित हुई हैं जनता के विश्वास के प्रति। आपके दल में कितने अपराधी हैं जो सांसद या विधायक बने हुए हैं ताकि आपका शासन कायम रहे। हर थोड़े दिन बाद आप इक नया तमाशा जनता के सामने दिखलाते हैं और जो पिछला था उसको छोड़ देते हैं। कुछ भी वास्तव में करना या बदलना जनता की खातिर आपको कभी ज़रूरी लगता ही नहीं। आप कब क्या रंग बदल लें ये गिरगिट भी नहीं समझ पाता , जिस को कहते हैं राजनेताओं का प्रेरणास्रोत है।
इक मतला और इक शेर मेरी ग़ज़ल का पेश है : -

                                            " लोग कितना मचाये हुए शोर हैं ,

                                              एक बस हम खरे और सब चोर हैं । "

                                            

                                                " हाथ जोड़े हुए मांगते वोट थे ,

                                             मिल गई कुर्सियां और मुंहज़ोर हैं ।  "

                                            

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