नवंबर 18, 2016

देश की राजनीति और हास्य रस ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  देश की राजनीति और हास्य रस ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   हंसना भी जीवन का एक अंग है , मगर हंसने हंसने में अंतर भी बहुत होता है। कभी अधिकतर चुटकुले सरदार जी को लेकर हुआ करते थे। आजकल पत्नी को लेकर पुरुष ही नहीं महिलायें भी चुटकुले सुनाती हैं। विशेष बात ये है की इधर हास्य रस में इक क्रांति सी आ गई है। अब चुटकुले शब्दों से अधिक कार्टूनों या तस्वीरों में दिखाई देते हैं। टीवी और सिनेमा में हास्य रस की दशा इतनी बिगड़ चुकी है कि फूहड़ता की सीमा लांघ लिया है। मज़ाक करने में और किसी का उपहास करने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। पुरानी फिल्मों में कुछ महान कलाकार हुए हैं जिन्होंने दर्शकों को हंसाने को कमाल के चरित्र दिखाये बनाये और निभाये हैं। आज उनकी कमी खलती है फिल्मों में , मगर कुछ सालों से नायक ही हास्य कलाकार का भी किरदार निभाने लगे हैं , शायद इसी से फिल्मों के नायक अब केवल मनोरंजन ही करते हैं , लोगों को सही राह बताने का आदर्श स्थापित नहीं करते। ये बदलाव अच्छा है या बुरा ये दूसरी बात है , मगर ऐसा हो चुका है और हमने भी स्वीकार कर लिया है। कॉमेडी शो में हास्य-रस को इस कदर घायल किया जाता है कि देखने वाले सोचते हैं हंसा जाये या रोया जाये। मैं इक व्यंग्यकार हूं और हास्य रस मेरा प्रिय रस है साहित्य में। मेरी आधी रचनाएं व्यंग्य ही नहीं हैं बल्कि मेरी ग़ज़ल कविता क्या कहानी तक में व्यंग्य शामिल रहता है। मुझे याद है महान व्यंग्य लेखक स्वर्गीय के पी सक्सेना जी ने मुझे खुद उन्हीं पर मेरे द्वारा लिखी व्यंग्य रचना पर इक पत्र भेजा था तारीफ का। जिस में उनहोंने लिखा था सभ्य व्यंग्य लिखने वालों की बिरादरी बहुत छोटी है और मुझे उस को ऐसे ही बनाये और बचाये रखना है। हरी सिहायी में लिखा वो खत मेरे पास आज भी रखा है इक कीमती पारितोषिक की तरह।

                                   राजनीति में हास्य रस होना अच्छी बात है , मगर राजनेताओं को आपस में या राजनीति पर हंसी मज़ाक करना चाहिये , जनता के साथ मज़ाक नहीं किया जाना चाहिये। मगर इन दिनों ऐसा किया जा रहा है , नेता लोग जनता की समस्या और परेशानी की गंभीर बात को टाल देते हैं , यूं ही कुछ भी बोलकर। जब कोई मुख्यमंत्री कहता है कि मुझे किसी ऑटो चालक ने बताया है कि अब वो मीटर से ही पैसे लेने लगा है क्योंकि पुलिस वाला रिश्वत नहीं मांगता , या किसी चाय वाले ने बताया है कि अब उस ने चाय सस्ती कर दी है क्योंकि घूस नहीं देनी पड़ती , तब आपको क्या लगता उनकी बात सही है यकीन किया जाना चाहिये या ये इक उपहास ही है। इसी तरह जब कोई देश का प्रधानमंत्री कहता है मुझे किसी बज़ुर्ग महिला ने कहा है कि नोट बंद होने से मेरे बेटे ने मेरे खाते में ढाई लाख जमा करा दिये हैं और वो मुझे आशिर्वाद देती है , तब भी क्या इसको सच माना जाये या जनता ही नहीं काला धन की बात के साथ भी इक उपहास कहा जाये। मगर खेद की बात है नेताओं को जनता की समस्याएं शायद मज़ाक ही लगती हैं जिनको वो उपयोग करते हैं वोट हासिल कर सत्ता पाने को। इन लोगों को कभी खुद अपने दिये भाषण की रिकॉर्डिंग सुननी चाहिये , ऐसा करते अगर थोड़ी शर्म भी महसूस हो तो कोई बुराई नहीं है , समझना अभी उनमें संवेदना बाकी है , पूरी तरह मरी नहीं।

                             जिनको पुराने युग के नेताओं की याद है उनको पता होगा देश की संसद में भी नेता सत्ता पक्ष या विपक्ष का मतभेद भुला हंसी मज़ाक आपस में किया करते थे।  भाषण तक में चुटकी लिया करते थे नेता नेता की बात पर। अटल बिहारी वाजपेयी जी भी ऐसा किया करते थे और भाषण देने की उनमें लाजवाब कला थी , मुझे आज भी याद है जब उनको बहुमत साबित करना था तब बहस के जवाब में उन्होंने ये कह कर चुटकी ली थी विपक्षी नेताओं से , " आप कहते हैं वाजपेयी जी अच्छे हैं पर गलत दल में हैं , तो आज आप उस अच्छे आदमी से क्या करने वाले हैं "। अपनी बात का अंत उन्होंने ये बोलकर किया था कि मैं इस्तीफा देने राष्ट्रपति जी के पास जा रहा हूं , शायद ऐसा करने से उनको खुद हार से ही नहीं बचाया था , साथ में उन नेताओं को दुविधा से बाहर निकाल दिया था जो उनको अच्छा भी बता रहे थे और हटाना भी चाहते थे। इक और नेता हेमवती नंदन बहुगुणा जी का भाषण भी याद है , इंदिरा गांधी की बात कि मैं बेटी हूं यहां की पर , कहा था ठीक है बेटी हो मानते हैं शगुन देंगे आदर प्यार भी मिलेगा लेकिन वोट नहीं देंगे। आज कल के नेता सत्ता मिलते ही सभ्यता की सीमा को भूल जाते हैं और हास्य नहीं क्रूर मज़ाक करने लगते हैं।

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