नवंबर 15, 2016

जनता बेचारी , लोकतंत्र की मारी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     जनता बेचारी , लोकतंत्र की मारी (  तरकश ) डॉ लोक सेतिया

          जनता गरीब की बेटी की तरह है , जिसको ऐसे योग्य वर की चाहत है जो उसका आदर करे , उसके सुख दुख का साथी हो , उसके भरोसे को कभी तोड़े नहीं , उसको दिये वचन या किये वादे याद ही नहीं रखे उनपर खरा भी उतरे , उसको अपने से छोटा नहीं समझे , उसके साथ कभी छल कपट नहीं करे। कोई बड़ी चाहत नहीं है उसकी , फिर भी सत्ता के दलाल बन नेता उसकी बेबसी का फायदा उठाना चाहते हैं। उस पर बुरी नज़र रखने वाले हैं , उसका शोषण करने को हमेशा तैयार रहते हैं , उसकी आबरू बचाने वाला कोई भी नहीं। सालों से अपना सम्मान अपनी आज़ादी को बचाने को वह संघर्ष कर रही है। आप यकीन करें ये कोई प्रेम कथा नहीं है , ये वास्तविकता है देश की राजनीति और लोकतंत्र की।

        कुछ साल पहले इक नेता आया था उसके पास , हाथ जोड़ कर विनती करने लगा इस बार मुझे अपनी सेवा का अवसर दे दो। मैं तुम्हारा दर्द तुम्हारी परेशानियां देख कर बहुत दुखी हूं , तुम्हारे सभी कष्टों का निवारण करना चाहता हूं। मैं सच्चे मन से तुम्हें चाहता हूं , हर ख़ुशी हर अधिकार लेकर तुम्हारे कदमों में डालना चाहता हूं , जनता का शासन कायम करना मेरा एक मात्र उदेश्य है। तुम ही देश की असली मालिक हो , सभी नेता सत्ताधारी मंत्री और देश का प्रशासन तुम्हारी सेवा के लिये ही होते हैं। तुमने पिछली बार सही नेता का चुनाव नहीं किया था , कुर्सी मिलते ही तुम्हारा भरोसा तोड़ कर उल्टा तुम पर अत्याचार करने लगा। अपना कर्तव्य निभाना भूल गया है , मैं तुम्हें उस के कुशासन से छुटकारा दिलाना चाहता हूं। जनता का कल्याण ही मेरा धर्म है। जनता उसकी मीठी मीठी बातों में आ गई थी और उस पर विश्वास कर जीत की माला उस को पहना दी थी। सुनहरे सपने दिखाने वाले नेता ने सत्ता मिलते ही रंग बदल लिया था और मनमानी करने लगा था। जनता खामोश उसके सितम सहती रही , कोई नहीं था जिसके सामने अपनी फरियाद करती। नेता उसको अपनी सेवक और गुलाम समझता और ऐसा करने को अपना उचित अधिकार बताता।

         बेचारी अवसर की तलाश करती रही खुद को मुक्त करने को , चुनाव का समय आ ही गया था। सत्ताधारी नेता की महिमा और उसके किये विकास कार्यों का लगातार प्रचार किया जाता रहा था। सत्ताधारी नेता को यकीन था उसके करोड़ों रुपये के विज्ञापन उसको फिर से बहुमत दिल देंगे , जनता के पास उस से बेहतर कोई विकल्प ही नहीं है। शासनतंत्र का दुरूपयोग कर देश भर में भीड़ जमा कर सफल जनसभायें आयोजित करने के बावजूद भी जनता ने उसको बुरी तरह हरा दिया था। ये देख कर वह बौखला गया था और जनता को गुमराह होने की बात कहने लगा , उसको नासमझ और बेवफा तक कह दिया था। हारने के बाद भी उसका अहंकार खत्म नहीं हुआ था। मीडिया और नवनिर्वाचित नेता उसके बयानों की निंदा करने लगे और इसको अलोकतांत्रिक करार देने लगे। तभी उसके चाटुकार सामने आकर उसका बचाव करने लगे और कहने लगे उनके नेता के बयानों को सही नहीं समझा गया उनका अभिप्राय ऐसा कदापि नहीं था। नेता जी तो जनता का बेहद आदर करते हैं और उसके निर्णय को सर झुका मानते हैं। जनता फिर से उनको चुनेगी अगली बार , लोकतंत्र में जीत हार होना कोई बड़ी बात नहीं है। हारे नेता जी सोचते हैं काश उनको इसका आभास पहले हो जाता तो चुनाव की नौबत ही नहीं आती , मगर तब भी उनको लोकतंत्र पसंद है क्योंकि उसी से उनको सत्ता वापस मिल सकती है। उनके दरबारी अभी भी उनको सच्चा जनसेवक बताकर उनकी जय जयकार करते हैं।

                      जनता की दशा द्रोपदी जैसी है , जिस के पांच पति हैं तब भी उनके सामने ही उसका चीरहरण किया जा रहा है। सभी खुद को उसका मालिक समझ दांव पर लगा सकते हैं मगर उसके सम्मान की परवाह किसी को नहीं है।  उनका झगड़ा द्रोपदी की लाज के लिये कभी नहीं होता , होता है केवल शासन पाने को। जनता का रक्षक कोई भी नहीं है , पहले की ही तरह बेचारी जनता आज भी खामोश है। बोलना चाहती है शायद पर बोलने की अनुमति नहीं है , इजाज़त है बस ताली बजाने की भाषण सुन कर।  सवाल करने का अधिकार अभी नहीं है , जब दोबारा चुनाव होंगे तब भी चुप चाप अपना फैसला देना होगा। जनता क्या चाहती है कोई नहीं पूछना चाहता , सब जनता के मत की व्याख्या अपनी ज़रूरत और मर्ज़ी से कर लेते हैं। सच तो ये है कि जनता को इन में से कोई भी पसंद नहीं है , जनता ने कभी किसी से चाहत का इज़हार नहीं किया है। कोई भी उसके काबिल नहीं है , आज तक किसी को भी पचास प्रतिशत भी वोट मिले नहीं हैं।  लोकतंत्र का अर्थ बहुमत होता है तो वोट डालने वालों का बहुमत सदा सत्ता पाने वाले के विरुद्ध ही जाता रहा है। कभी इस ने कभी उस ने छला है बेचारी को , उसकी दशा कभी बदली नहीं , कोई सुधारना भी नहीं चाहता। जनता बेचारी , लोकतंत्र की मारी , कल भी बेबस थी , आज भी बेबस ही है।

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