सितंबर 18, 2025

POST : 2022 लिखना सीखा नहीं , मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      लिखना सीखा नहीं ,  मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

इतिहास रचना कठिन होता है लेकिन इतिहास को बदलना कभी भी संभव हो नहीं सकता है , जिनको कुछ भी अच्छा नहीं लगता जो उनको आईना दिखाए उनको सच को झूठ साबित करने में पसीना छूट जाता है ।  कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है आजकल फिर कोशिश की जा रही है सामाजिक सच्चाई को उजागर करने वाली सामिग्री को आदेश देकर मिटवाने की लेकिन क्या मिटा देने से दुनिया भूल जाएगी जो भी हक़ीक़त रहा है । बात पचास साल पुरानी है तब किसी ने विदेश से सवाल किया था कि शायर दुष्यंत कुमार किस बूढ़े आदमी की बात ग़ज़ल में कह रहा है कौन है जो इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है । लेकिन तब किसी ने ऐसा नहीं किया कि साये में धूप ग़ज़ल संग्रह को ही प्रतिंबधित कर देता , जैसे कवि शिव कुमार बटालवी को मिटाने को हर निशानी मिटाने के बावजूद भी हो नहीं सका कोई कवि अपनी राख से चिंगारी की तरह वापस आ गया , निशान बाक़ी रहते हैं जिस पगडंडी से ऐसे अकेले लोग गुज़रते हैं । क्या इसको आत्मविश्वास की कमी कहा जाये अथवा मन के भीतर छुपे डरे हुए इंसान की घबराहट जो दुनिया भर में करोड़ों करोड़ रूपये खुद को महान साबित करने पर खर्च करने और हर तरफ शोर ही शोर मचाने के बाद भी जिनकी वाणी सुनाई मुश्किल से देती है सत्य की उसको दबाकर खामोश करने की आवश्यकता महसूस होने लगी है ।  कहते हैं कि अगर आप चाहते हैं कि आपके बाद भी लोग आपको याद रखें तो या कुछ ऐसा कर जाओ जिस पर कोई लिख कर आपको अमर कर दे या फिर कुछ ऐसा लिख जाओ जिसे दुनिया पढ़कर आपको याद करे कि कभी उस घने अंधकार में भी कोई छोटा सा दीपक जलाता रहा था । 
 
जिन्होंने खुद लिखना सीखा ही नहीं और कुछ अच्छा नवीन सार्थक करना जानते भी नहीं उनको लगता था कि पुराने इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसका नाम निशान मिटाकर अपना कीर्तिमान स्थापित किया जाये तभी उनकी  रेखा बड़ी उनका कद ऊंचा साबित हो सकता है । हुआ क्या जिसको मिटाना चाहा वो और भी उभर कर सामने दिखाई देने लगा , आमने सामने होने पर हालत ऐसी हुई जैसे किसी कवि ने लिखा था कि बौने कद वालों को पहाड़ पर चढ़ने का शौक होता है और उनको लगता है पहाड़ पर खड़े होकर उनकी ऊंचाई बढ़ जाती है , जबकि पहाड़ पर खड़े होकर बौने और भी छोटे दिखाई देते हैं । आप पैसे प्रचार से तरह तरह से तमाशों से दुनिया को आडंबर से प्रभावित कर सकते हैं लेकिन खुद अपने आप से नज़रें मिलाना आसान नहीं है , खोखलापन बाहर नहीं भीतर है । आज के हालात पर मेरे मित्र विपिन सुनेजा ' शायक ' जी की इक ग़ज़ल सटीक लगती है उनकी अनुमति से प्रस्तुत कर रहा हूं नीचे उनकी तस्वीर भी यादगार रखने को उपयोगी हो सकती है ।   
 
 

    ग़ज़ल    :  विपिन सुनेजा ‘ शायक़ ’

दिल धड़कते हैं अभी पर भावनाएँ मर गयीं
वेदनाएँ   बढ़   गयीं,   संवेदनाएँ   मर गयीं

देह की चादर को ताने  सो  रही हर आत्मा
ज्ञान  बेसुध सा  पड़ा है ,चेतनाएँ  मर गयीं

एक भी नायक नज़र आता नहीं इस भीड़ में
क्रान्ति  होने की  सभी  संभावनाएँ  मर गयीं

जंगलों पर दिन-दहाड़े  चल रहीं कुल्हाड़ियाँ
सिंह  बैठे  हैं  दुबक  कर, गर्जनाएँ  मर गयीं

कामना  उनको ही पाने  की न जब  पूरी हुई
अब नहीं कुछ माँगना,सब कामनाएँ मर गयीं 

 


 


1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया आलेख आज के चलन पर पुराने को बदलने के चलन पर, पर ऐसे कुछ नही बदला जा सकता