सितंबर 16, 2025

POST : 2019 जीवन के किसी मोड़ से ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया

       जीवन के किसी मोड़ से ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया 

जैसे कोई गहरी नींद से जगा दे , कल इक कॉलेज के सहपाठी का फोन आया ये बताने को कि हम सभी को बुलावा आया है जिस कॉलेज में 1968 में हमने दाखिला लिया और पांच साल बाद 1973 में स्नातक की डिग्री जी ए एम एस की हासिल कर खुद को डॉक्टर कहलाने का गैरवशाली अधिकार प्राप्त किया था । कितनी खट्टी मीठी कुछ कड़वी भी यादें उभर आई हैं सोचा उस शानदार ज़िंदगी जो बेहद कठिन हालात में भी दिल के किसी कोने में पांच साल के बिताए सुनहरे पलों की गठरी संभाली हुई है 57 साल बाद भी खोलते हैं खुद उसी तरह जैसे कोई पुरनी अलबम में वापस किसी दुनिया में विचरण करने में आनंद का अनुभव करता है । ये अजीब मगर सच्ची बात है कि बचपन या कॉलेज का समय भले कैसा भी मुश्किलों भरा गुज़रा हो बाद में लगता है शायद वही सबसे सुंदर दिन थे मगर हम ही शायद उसको सलीके से बिताना नहीं जानते थे । कभी कभी चाहते हैं लौटना उन पलों को वास्तव में ख़ूबसूरत ढंग से दोबारा बिताना जबकि ये कल्पना कभी सच हो नहीं सकती है । स्कूल से शिक्षा पूरी कर हम तब नहीं जानते थे कितने रास्ते हैं भविष्य का निर्माण करने के क्योंकि पारिवारिक वातावरण गांव खेती और शिक्षा के महत्व से अनजान था । बस किसी से जैसा पता चला हम भाई बहन उसी तरफ बढ़ते रहे , कुछ तो आधे रास्ते से लौट आए कुछ हौसला कर टिके रहे । मुझे इक बड़े भाई ने बताया कि उसके किसी दोस्त ने आयुर्वेदिक कॉलेज की शिक्षा की जानकारी दी है , वो भुआजी जी का बेटा हम सभी छह भाई चचेरे मिलकर रहते थे । उस ने कॉमर्स की पढ़ाई की शुरुआत की थी एक साल पहले ही सोनीपत के कॉलेज में दाखिला लिया था इक और भाई ने आर्ट्स में पढ़ाई की शुरुआत की थी । मेरे दो साथी स्कूल के एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था , मैं कुछ भी नहीं समझता था क्या मेरे लिए अच्छा है । भाई ने सोनीपत जाना था और रोहतक से गुज़र कर जाना होता था , उसने कहा कि हम दोनों साथ चलते हैं वहां  जाकर देखते समझते हैं । 
 
रोहतक बस अड्डे से मालूम हुआ कि अस्थल बोहर गांव चार किलोमीटर शहर से बाहर है जहां जाने को इक जगह भिवानी स्टैंड से तांगा मिलता है चार आना लगता है और हम बस अड्डे से पैदल उधर चले गए थे । शायद तांगे की पहली बार सवारी की थी , आधा पौना घंटा देखते रहे शहर की रौनक को । कितना आसान था कॉलेज पहुंचते ही सीधे प्रिंसिपल के सामने बैठे पूछ ताछ कर रहे थे । प्रिंसिपल जी ने जानकारी दी और बिना औपचारिक तौर के ही साक्षात्कार लिया प्रमाणपत्र देखे और सवाल किया कि आपको जीवन किस तरह बिताना पसंद है । डॉक्टर बनना किसी तपस्या जैसा है अपनी छोड़ रोगियों की भलाई दिन रात पूरी ईमानदारी से ख़ुशी से करनी होती है । जाने कैसे इक चमक मेरे चेहरे पर आई तो झट भाई ने बताया श्रीमान यही मेरे छोटे भाई की चाहत हो सकती है , मैंने भी कहा ये तो सबसे बढ़िया है । हमको कुछ देर बाहर जाकर बैठने को कहा गया और कुछ ही देर बाद भीतर बुलाया गया , बताया गया कि अगर चाहते हैं तो अभी फीस जमा करवा दाखिला ले सकते हैं । प्रिंसिपल ने इक पत्र अपने लेटर पैड पर लिखा हस्ताक्षर किए और दे दिया जिस में कुछ दिन की मोहलत थी दाखिल होने कि , भाई ने कहा क्या विचार है घर जाकर सलाह करनी है या अभी दाखिल होना है । हम दोनों मुख्य लिपिक से मिले और पूछा तो पता चला कि कुल 485 रूपये जमा करवाने हैं जिस में साल की हॉस्टल की फीस और छह महीने की कॉलेज की फीस शामिल है । भाई ने सोचा कि दाखिला ले लिया जाना उचित है अन्यथा कोई रुकावट बाद में आ सकती है । ऐसा लगता है जैसे नियति ने निर्धारित किया हुआ था मुझे यही करना है ।  
 
कुछ समय बाद कॉलेज की शिक्षा शुरू हुई और मैं अकेला पहली बार इक अनजान जगह अजनबी शहर में चला आया ताया जी ने अपने किसी दोस्त का नाम पता दिया था कभी ज़रूरत हो तो मिलने के लिए । पहला दिन कभी भूल नहीं सकता है , हॉस्टल में प्रवेश करते ही कमरा आबंटित करवाने से पहले ही किसी ने आदेश दिया ऊपरी मंज़िल पर कमरा नंबर अमुक में जाना है । रैगिंग क्या बला है हम नहीं जानते थे लेकिन तभी अपने ही शहर से इक स्कूल का सहपाठी मिल गया और हमने साथ साथ रैगिंग करवाने के बाद बाहर कॉलेज लॉन में जान पहचान की जो हमेशा इक याद बनी रही , कुछ पलों में कोई इतना करीब कैसे आता है ये फिर कभी नहीं देखा हमने जीवन में । खैर कुछ दिन महीना दो महीना तक घबराहट रही फिर कुछ कुछ मज़ा आने लगा हालांकि वातावरण कॉलेज जैसा नहीं किसी जंगल में गुरुशाला की तरह था । खाना पीना रहना सभी जैसा हमने देखा हुआ था उस के विपरीत ही लगा फिर भी तालमेल बिठाना कठिन नहीं था । शायद वो पांच साल बेहद कीमती थे मगर हमने ही कभी दोस्ती की बातों कभी अनावश्यक चीज़ों को महत्व देने में सही उपयोग नहीं किया नासमझी में अन्यथा बड़ी सादगी में भी ख़ुशी से आनंद लिया जा सकता था ।  
 
पचास की कक्षा में दो लड़कियां थी और बाकी अलग अलग राज्यों से आये हुए छात्र कुछ खामोश कुछ शैतान कुछ मनमौजी स्वभाव वाले । कैंटीन में भोजन की रसोई मेस में सभी से मिलना जुलना होता रहता था , कुछ कारणों से मैं बचपन से एकाकीपन का आदी था । भीड़ से बचना कुछ दो चार संग रहना मुझे आसान लगता था बस यही समस्या थी दोस्त करीब भी थे लेकिन सभी कुछ न कुछ गुटबाज़ी में रहने को सुरक्षित समझते थे । बहुत लोग बैठे बातचीत करते तो हमेशा भाषा की सीमाओं का उलंघन होता जो शायद ऐसी उम्र में सामान्य ही होता है बस मुझे आज भी असयंमित शब्द सहन नहीं होते हैं । अधिकांश लोग मुझे समझते कि हमेशा ग़मगीन गीत गाने वाला व्यक्ति है , मगर कभी कभी कुछ दोस्त खुद आते या मुझे बुलाते कोई गीत सुनाने को अपनी पसंद का । एक बार हॉस्टल के वार्डन ने बुलाया तो घबराहट हुई मगर उनको भी गीत सुनना पसंद था और कई देर तक सुनते रहे । पांच साल में दोस्तों से कितने ही अनुभव प्राप्त हुए भले कुछ को छोड़ बाकी से फिर संपर्क रहा ही नहीं कभी कुछ चेहरे याद आते रहे नाम भूल गए । रोहतक से होकर कितनी बार जाना आना होता रहा मगर कभी भी कॉलेज में जाने का मौका नहीं बन पाया , दिल चाहता भी तो सोचता कौन होगा कितने अरसे बाद किस से क्या बात होगी , कोई संकोच रोकता रहता चाहता हमेशा काश कभी किसी तरह उसी हॉस्टल में जाकर रहने का अवसर मिल जाए । डिग्री भी हमको जाकर लेनी पड़ी थी कोई आयोजन नहीं हुआ था कुछ साल पहले इक शानदार आयोजन किया गया तो मुझे जानकारी नहीं मिली थी । अब अगले महीने 4 अक्टूबर को पूर्व छात्रों की मीटिंग का बुलावा जानकर उत्सुक हूं जाने पर जैसा अनुभव होगा सभी से सांझा करना चाहूंगा । 
 
 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Wah बढ़िया संस्मरणात्मक आलेख...वाक़ई स्कूल कॉलेज के दिनों की यादें अनमोल खज़ाना होती हैं👍👌