राजनेता ( व्यंग्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया
दफ़्न रूह की आवाज़ कर गया
जी रहा मगर इक शख़्स मर गया ।
ऐतबार उसका , क्या करें भला
और कुछ कहा , कुछ और कर गया ।
मांगता सदा , ख़ैरात वोट की
जीत कर न जाने फिर किधर गया ।
रहनुमा बनाकर भूल हमने की
देश लूटकर घर बार भर गया ।
क्या नशा चढ़ा सत्ता जो मिल गई
ज़ुल्म की हदों से , है गुज़र गया ।
बेचने लगा अपना इमान तक
देख कर उसे शैतान डर गया ।
मैं ग़ुलाम हूं , सरकार आप हैं
कह के बात ' तनहा ' ख़ुद मुकर गया ।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब व्यंग्यपूर्ण 👍👌
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