सितंबर 07, 2025

POST : 2010 अनकही बात ( नज़्म / कविता ) डॉ लोक सेतिया

        अनकही बात ( नज़्म / कविता ) डॉ लोक सेतिया  

वो उठ कर जाने लगे , तो ये ख़्याल आया कि 
रह गई हमारी हर बात , अभी आधी - अधूरी है  
 
दिल ही दिल उनको मान लिया हमराही मगर 
तय करनी अभी सफ़र की कितनी लंबी दूरी है 
 
फ़ासले चंद कदमों के नज़र आते लेकिन अभी
बीच में गहरी खाई जैसी कितनी इक मज़बूरी है
 
खेल तकदीर का है मिल कर बिछुड़ना होता है 
फिर मिलना है पर अभी जुदा होना भी ज़रूरी है । 
 
शायद किसी दूसरे जहां में मुलाक़ात होगी अपनी  
अनकही रह गई आधी जो अब करनी वहां पूरी है । 
 

    

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया नज़्म👍