मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा । मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है । ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं । व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है । मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं । साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है । व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं ।
मई 31, 2025
POST : 1976 चल उड़ जा रे पंछी ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया
मई 30, 2025
POST : 1975 हमको मिलते हैं समाज से ( बात व्यंग्य की ) डॉ लोक सेतिया
हमको मिलते हैं समाज से ( बात व्यंग्य की ) डॉ लोक सेतिया

मई 29, 2025
POST : 1974 तमाशा भी खुद ही तमाशाई भी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
तमाशा भी खुद ही तमाशाई भी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

मई 27, 2025
POST : 1973 अच्छे लोग कहते हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
अच्छे लोग कहते हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
कवि नहीं मर सकता ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
चला रहे हो कविवरशब्दों के तुम तीर
आखिर कब समझोगे
श्रोताओं की पीर ।
कविता से अनजान थे लोग
बस कवि से परेशान थे लोग
क्या क्या कहता है जाने
सुन सुन कर हैरान थे लोग
कविता से बच न पाते
कुछ ऐसे नादान थे लोग ।
खुद ही बुला आए उसको
अब जिससे परेशान थे लोग ।
कविताओं से लगता डर
वो भी आखिर इंसान थे लोग
उनको भाता नहीं था कवि
पर कवि के दिलोजान थे लोग ।
कवि ने मरने का भी
कई बार इरादा किया
लेकिन हर बार फिर
जीने का वादा किया ।
कवि की हर कविता
फटा हुआ थी ढोल
खोलती थी रोज़ ही
किसी न किसी की पोल ।
कवि ने भाईचारे पर
कविता एक सुनाई
हो गई जिससे घर घर में
थी लड़ाई ।
बाढ़ में डूबे हुए थे
कितने तब घर
जब लिखी कवि ने
कविता सूखे पर
कविता बरसात से
बरसा ऐसा पानी
आ गई तब याद
हर किसी को नानी ।
धर्म निरपेक्षता समझा कर
लिया कवि ने पंगा
भड़क उठा उस दिन
साम्प्रदायिक दंगा ।
प्रेम रोग पर
कविता क्या सुनाई
कई नवयुवकों ने थी
कन्या कोई भगाई ।
झेल रहे थे सभी
जब सूखे की मार
शीर्षक तब था
कविता का बसंत बहार ।
सुन ख़ुशी के अवसर पर
उसकी कविता धांसू
निकलने लगे श्रोताओं के आंसू ।
इतनी लम्बी कविता
उसने इक दिन सुनाई
मुर्दा भी उठ बोला
बस भी करो भाई ।
श्रोताओं पर कवि ने
सितम बड़े ही ढाए
जिसके बदले में उसने
जूते चप्पल पाए ।
कहीं से इक दिन
लहर ख़ुशी की आई
कवि के मरने की
वो खबर जो पाई
कवि की मौत का
सब जश्न मना रहे थे
बड़े दिनों के बाद
सारे मुस्कुरा रहे थे
उसने फिर से आ
सब को डराया
जिन्दा जब वापस
कवि लौट आया ।
प्यार करते मुझसे
समझ लिया कवि ने
दुखी देखा जब
सबको वहां कवि ने ।
सब ने मिलकर कहा
करो इतना वादा
कविता तब सुनाना
जब हो मरने का इरादा
तेरे मरने की अच्छी खबर थी आई
इसी बात पर थी
ख़ुशी की लहर छाई ।
कवि ने समझाया बेकार हंसे
बेकार ही तुम सब हो रोये
कवि को मरा तभी मानिये
जिस दिन तेरहवां कवि का होय ।
बहुत हुआ बड़ा कठिन है अब सहना
नहीं मरने वाला कवि बोला सुनो भाई ।
कवि मरा ये जानकर खुश न होना कोय
कवि मरा तब मानिये जिस दिन तेहरवां होय ।

मई 25, 2025
POST : 1972 एक हम हैं इक ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
एक हम हैं इक ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
मई 24, 2025
POST : 1971 विरासत अब समझ में आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
विरासत अब समझ में आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
POST : 1970 किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
POST : 1969 रहो खामोश ये फ़रमान चुप रहना नहीं आसां ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
रहो खामोश ये फ़रमान चुप रहना नहीं आसां ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
मई 23, 2025
POST : 1968 भरोसा टूट जाता है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
भरोसा टूट जाता है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है :-
मई 17, 2025
POST : 1967 ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
रंग मौसम का हरा था पहले , पेड़ ये कितना घना था पहले ।
मैं ने तो ब'अद में तोड़ा था इसे , आईना मुझ पे हंसा था पहले ।
जो नया है वो पुराना होगा , जो पुराना है नया था पहले ।
ब'अद में मैंने बुलंदी को छुआ , अपनी नज़रों से गिरा था पहले ।

POST : 1966 सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया
सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया
मई 14, 2025
POST : 1965 मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया
मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया
मुझे लिखना है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।
टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।
धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।
छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।
बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।
ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।
हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।
सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।
जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।
मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की और विश्वास की ।
लिखनी है कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।
अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।
बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।
फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।
वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।
अपने आप से साक्षात्कार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
हम क्या हैंकौन हैं
कैसे हैं
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।
हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।
हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।
मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान
हम करने लगे
आपस में टकराव ।
इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।
खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने
मकसद तक अपना ।
आईना बनना था
हमको तो
सारे ही समाज का
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात ।

मई 12, 2025
POST : 1964 आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आयासन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।
हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।
मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।
हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।
हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।

मई 11, 2025
POST : 1963 हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया
हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोगआईने से यूँ परेशान हैं लोग ।
बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।
जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।
अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।
आदमीयत को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।
शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।
मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग ।

मई 10, 2025
POST : 1962 सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया
सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया
अस्वीकरण ( घोषणा )
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच काअब तो होने लगा कारोबार सच का ।
हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का ।
ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का ।
झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का ।
अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का ।
कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का ।
सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का ।
हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का ।
छोड़ जाओ शहर को चुपचाप ' तनहा '
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का ।
मई 08, 2025
POST : 1961 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

मई 04, 2025
POST : 1960 ऊपरवाला जान कर अनजान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
ऊपरवाला जान कर अनजान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
मई 03, 2025
POST : 1959 लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया
लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया
कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कब से जाने बंद हूंएक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।
रोक लेता है हर बार मुझे
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे
इक सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।
मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।
कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।
देखता रहता हूं
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने
खुद अपनी ही कैद से ।
