जून 11, 2024

POST 1841 कोई नई सोच नहीं नया इरादा नहीं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

     कोई नई सोच नहीं नया इरादा नहीं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

ज़रा सोचें कि दुनिया कितनी तबदील होती जाती है हम जैसे भी होते हैं , पुराने नहीं रहते , आधुनिक बनते हैं आधुनिकता को अपनाते हैं । इंसान ने कितने प्रयास कर जोख़िम उठा कर शोध कर दुनिया को कितना बदल दिया है । भगवान है कि नहीं इस को एक तरफ रख कर विचार विमर्श करते हैं तो समझ आता है भगवान भी हैरान होगा जिस की कल्पना तक नहीं की थी उस ने , आदमी ने उस का आविष्कार कर कीर्तिमान स्थापित कर क्या कमाल किया है । अब कुछ लोग खुश हैं जश्न मना रहे हैं कि किसी को तीसरी बार शासन करने का अवसर मिला है  , शायद किसी ने आंकलन करना ही नहीं चाहा कि पहले दो बार शासन कर उस ने कितना शानदार कार्य किया है या कैसा किया है । जीवन में अवसर सभी को नहीं मिलते हैं लेकिन कुछ ही लोग अवसर मिले तो कुछ अलग कुछ नया और अच्छा कर दिखाते हैं । सिर्फ दिखावे की अंधी दौड़ में तो हर कोई शामिल है सभी ने अपना मकसद बना रखा है धन दौलत पद प्रतिष्ठा साधन सुविधाओं को अन्य सभी को पीछे छोड़ना एवं उनसे बढ़कर हासिल करना । कोल्हू का बैल उसी दायरे में चलता रहता है क्योंकि उस से काम लेने को किसी ने उसकी आंखों पर पट्टी बांधने को खोपरे चढ़ाए जाते हैं जिस से उसे दिखाई नहीं देता कोई हांकने वाला है चाहे नहीं और उसे घूमना है उसी परिधि में इक रस्सी से बंधे जो इधर उधर जाने ही नहीं देती है । विरले लोग होते हैं जो पुरानी राहों पर नहीं चलते बल्कि अपनी कोई नई राह बनाते हैं जिस से बाद में लोग आते जाते हैं , महान लोग रास्तों से कांटे हटाते हैं फूल खिलाते हैं ज़माना कोई रेगिस्तान जैसा है कुछ लोग वहां नदी को लाते हैं नहीं आए तो कोई तालाब बनाते हैं । मतलबी लोग सिर्फ अपनी सोचते हैं मगर अच्छे लोग सभी की प्यास बुझाते हैं दिखावा नहीं करते अपना मानवधर्म निभाते हैं । 

अधिकांश कुछ कर दिखाने को जो भी पुराना उनको अच्छा नहीं लगता उसको ढाकर फिर से कोई ईमारत बनाते हैं हासिल कुछ हो नहीं हो अपने आंकड़े बढ़ाते हैं । शासक हमेशा से आते हैं चले जाते हैं बस कुछ होते हैं जो हमेशा याद आते हैं अधिकतर को लोग भूल जाते हैं कभी कभी समाधिस्थल पर औपचारिकता निभाने को फूल चढ़ाते हैं श्रद्धा जताते हैं । वास्तविक नायक सत्ता शोहरत की भूख नहीं रखते उनके आचरण से सभी उनको विशेष अलग अनोखा बताते हैं । आज़ादी के इतने साल बाद क्यों लोग बेघर हैं शोषित हैं बेबस हैं क्यों सभी को समानता की तलाश है ज़िंदगी सूनी है दिल निराश है , रात अंधेरी है सुबह उदास है । रहनुमाओं को फ़िक्र है सिर्फ खुद अपनी ही , कवि कहता है घोड़े को मिलती नहीं घास है गधा खा रहा च्ववनप्राश है । इधर कुछ लोग भवष्य में नहीं अतीत में जाना चाहते हैं , वर्तमान को स्वीकार नहीं करते है न ही मानते है कि कुछ भी कर के कोई बीते कल को वापस नहीं ला सकता है । जहां तक भविष्य की बात है कोई नहीं जानता क्या होगा लेकिन कोशिश करना कि आज से बेहतर बनाने की ज़रूरी है साथ ही सकारात्मक दृष्टिकोण का होना अनिवार्य है । संक्षेप में इक सार्थक बात है जो मुझे भी पचास साल पहले इक पत्रिका के कॉलम से समझ आई थी , सरिता पत्रिका के हर पाक्षिक अंक में विश्वनाथ जी लिखते थे जो बात दोहराता हूं । 
 
बड़े हुए शिक्षा हासिल की नौकरी कारोबार करने लगे विवाह किया संतान का पालन पोषण किया कोई घर बनाया कुछ सुःख सुविधा के साधन जुटाए , ये सब अनपढ़ भी कर ही लेते हैं , पशु पक्षी जानवर भी कोई घोंसला कोई ठिकाना बना लेते हैं । आप शिक्षित हैं विवेकशील हैं तो आपको अपने देश और समाज को बेहतर बनाने को कुछ अवश्य करना चाहिए , ये आपका कर्तव्य है क्योंकि आपको जितना मिला है अधिक योगदान सामाजिक व्यवस्था का है अन्यथा कोई कितना काबिल हो कितने धनवान पिता माता की संतान हो सब नहीं संभव होता । अजीब विडंबना है माटी का क़र्ज़ या देश के प्रति प्यार की भावना दिखाई देती है शब्दों में ही आचरण में उस की कीमत चुकाना कोई नहीं चाहता है । बचपन की कहानियां नैतिक मूल्यों की और ऊंचे आदर्श सादगी भरा जीवन का सबक कोई आजकल पढ़ाता नहीं समझाता नहीं । शिक्षा से नौकरी कारोबार में पर्तिस्पर्धा का इक पागलपन है जो सिर्फ मृगतृष्णा ही है , आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए बस दो ग़ज़ ज़मीन इक अंग्रेजी कहानी है , हाउ मच लैंड ए मैन नीड । यही होने लगा है अधिक की चाहत में जीवन का अंत आ जाता है मंज़िल वही है ख़ाक में मिल जाना ।     

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1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

सार्थक आलेख...👌