ख़्वाबों ख़्यालों की दुनिया ( फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया
बड़ा खूबसूरत लगता है ये नामुराद रोग है , फिल्मों का असर ही नहीं फ़िल्मी कहानियों की मेहरबानी है । इक फिल्म आई थी सपनों का सौदागर उसकी कहानी का नायक पीड़ित दुःखी लोगों को सुंदर सपने दिखलाता है ताकि वो अपनी बदहाली और बुरे हालात को भूलकर ख़्वाबों ख़्यालों की दुनिया में कुछ पल इक काल्पनिक सुःख का अनुभव कर सकें । जिस अभिनेता ने वो किरदार निभाया था बॉलीवुड का सबसे बड़ा शोमैन माना जाता था मगर उसने बताया था कि उसे ये किरदार पसंद नहीं था और सिर्फ पैसे की खातिर उस ने अभिनय किया था । फ़िल्मी लोग अधिकतर ऐसा खरा सच बोलने से बचते हैं लेकिन 1977 में उन्होंने इक पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए बताया था कि उनको कुछ बुरी फ़िल्में भी करनी पड़ीं थीं । ज़िंदगी का सभी का अपना तौर तरीका होता है लेकिन कोई भी किसी को परेशानियों से जूझने की बजाय उनसे नज़रें चुराने का सबक नहीं पढ़ा सकता है । ये अलग बात है कि मनोरंजन की दुनिया हमको कुछ घंटे आनंद का अनुभव करवाती है लेकिन नाटक संगीत या फ़िल्म से आपका पेट नहीं भर सकता है इसलिए दर्शक को झूठी तस्सली से बहलाना सही कार्य नहीं है । ज़माने के दुःख दर्द को अपने फायदे के लिए बाज़ार में बेचना किसी कथाकार या किसी कलाकार का सही काम नहीं हो सकता है । सुनहरे भविष्य के सपने संजोना और उनको हक़ीक़त में बदलने का प्रयास करना अच्छा होता है और अक्सर सभी ऐसा करते हैं कुछ लोककथाओं में भी कुछ गीतों में भी निराशा को छोड़ आशावादी दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित किया जाता है लेकिन ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं किसी की निराशा को भगाना या किसी की बर्बादी का तमाशा देख उसे अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना ।आजकल ये भी कोई व्यवसाय की तरह किया जाने लगा है , राजनेता जनता को अपने जाल में फंसाने को क्या क्या नहीं करते हैं , कुछ लोग योग से आयुर्वेद तक को अपना कारोबार बनाकर मालामाल हो गए हैं । तथाकथित बड़े बड़े नाम वाले लोग अभिनेता खिलाड़ी कहने को समाज सेवा करने को कोई संस्था बना शोहरत हासिल करते हैं जबकि पर्दे के पीछे उनका मकसद कुछ और ही होता है । राजनैतिक दल भी कभी अपने प्रचार के लिए तो कभी उनसे करोड़ों रूपये चंदा ले कर उनको राज्य सभा का सदस्य चुनवाते या मनोनीत करते हैं । लोग जिस किरादर को देख अभिनेता के कायल हुए होते हैं ये लोग वास्तविक जीवन में उसके विपरीत आचरण करते हैं कौन समझता है ।
हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि सत्ता धन दौलत नाम शोहरत सब हासिल कर के भी कुछ लोग वास्तविक जीवन में इंसानियत और ईमानदारी से कोसों दूर होते हैं पैसा ही उनका भगवान बन जाता है । लेकिन हमने उनकी चमकती हुई नकली दुनिया को असली ही नहीं समझ लिया बल्कि उनकी चकाचौंध में हमने खुद अपना अस्तित्व तक भुला दिया है । आज़ादी भी हमने अनगिनत कुर्बानियां दे कर पाई थी और देश में इक ऐसा संविधान बनाया गया था जिस में सभी नागरिकों को बराबरी से जीने का ही नहीं न्याय और अन्य तमाम अधिकार पाने से लेकर अपनी बात कहने विचार अभिव्यक्त करने से लेकर तमाम मौलिक अधिकार शामिल हैं । लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हुआ है बिल्कुल भी नहीं बल्कि जिनको शासन का अवसर मिला उन लोगों ने सत्ता पर बैठ प्रशासनिक पदों को पाकर न्याय-व्यवस्था का भाग बनकर संविधान की अवधारणा को अनदेखा कर खुद कर्तव्य निभाना भूल कर विदेशी शासकों से अधिक अत्याचारी निरंकुश शासक बनते गए । अदालत संवैधानिक संघठन और उच्च पदों पर आसीन लोग राजनैतिक सत्ता पाने वालों की हाथ की कठपुतलियां बन कर रह गए हैं । शायद एक तिहाई लोग देश का सभी कुछ हथियाए बैठे हैं चाहे किसी भी तरह से कोई सभी को समानता की बात सोचता ही नहीं है जिस से ये देश उनकी आज़ादी और बाकि अधिकांश की गुलामी की मिसाल बन चुका है । 80 करोड़ जनता को सस्ते या मुफ्त राशन का अर्थ कोई गर्व या शान की नहीं शर्म की बात है जब कुछ लोग जनता की कमाई से अपने पर करोड़ों खर्च कर देश को लूट कर बर्बाद कर रहे हैं । जनता को झूठे सपनों से आखिर कब तक ठगते रहोगे कभी तो अर्थशास्त्र का पहला नियम सभी को समझाना ही होगा कि आप करोड़ों लोग इसलिए भूखे नंगे गरीब और बेबस बदहाल हैं क्योंकि कुछ लोग ज़रूरत से कहीं ज़्यादा धनवान हैं फिर भी उनकी अधिक पाने की हवस मिटती नहीं हैं । आपको अगर धर्म अधर्म की बात समझनी है तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ को उठा कर पढ़ना सभी यही बताते हैं कि सबसे दरिद्र वो लोग होते हैं जिन के पास सभी कुछ होता है तब भी उनकी और हासिल करने की हवस मिटती नहीं है । मैंने भी सपने ही नहीं देखे बल्कि सपनों में ज़िंदगी गुज़ारी है इक कविता ब्लॉग पर 2012 में लिखी याद आई है शायद कोई समझेगा ।
सपनों में जीना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
अक्तूबर 24, 2012
देखता रहा
जीवन के सपने
जीने के लिये ,
शीतल हवाओं के
सपने देखे
तपती झुलसाती लू में ।
फूलों और बहारों के
सपने देखे ,
कांटों से छलनी था
जब बदन
मुस्कुराता रहा
सपनों में ,
रुलाती रही ज़िंदगी ।
भूख से तड़पते हुए
सपने देखे ,
जी भर खाने के
प्यार सम्मान के
सपने देखे ,
जब मिला
तिरस्कार और ठोकरें ।
महल बनाया सपनों में ,
जब नहीं रहा बाकी
झोपड़ी का भी निशां
राम राज्य का देखा सपना ,
जब आये नज़र
हर तरफ ही रावण ।
आतंक और दहशत में रह के
देखे प्यार इंसानियत
भाई चारे के ख़्वाब ,
लगा कर पंख उड़ा गगन में
जब नहीं चल पा रहा था
पांव के छालों से ।
भेदभाव की ऊंची दीवारों में ,
देखे सदभाव समानता के सपने
आशा के सपने ,
संजोए निराशा में
अमृत समझ पीता रहा विष ,
मुझे है इंतज़ार बसंत का
समाप्त नहीं हो रहा
पतझड़ का मौसम।
मुझे समझाने लगे हैं सभी
छोड़ सपने देखा करूं वास्तविकता ,
सब की तरह कर लूं स्वीकार
जो भी जैसा भी है ये समाज ,
कहते हैं सब लोग
नहीं बदलेगा कुछ भी
मेरे चाहने से ।
बढ़ता ही रहेगा अंतर ,
बड़े छोटे ,
अमीर गरीब के बीच ,
और बढ़ती जाएंगी ,
दिवारें नफरत की ,
दूभर हो जाएगा जीना भी ,
नहीं बचा सकता कोई भी ,
जब सब क़त्ल ,
कर रहे इंसानियत का ।
मगर मैं नहीं समझना चाहता ,
यथार्थ की सारी ये बातें ,
चाहता हूं देखता रहूं ,
सदा प्यार भरी ,
मधुर कल्पनाओं के सपने ,
क्योंकि यही है मेरे लिये ,
जीने का सहारा और विश्वास ।
1 टिप्पणी:
बढ़िया आलेख... सुंदर कविता सहित...राजकपूर के की फ़िल्म की तरह ही आज कल स्क्रिप्ट चल रही है। ख्वाब दिखाओ बस पूरे मत करो👌👍
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