संविधान की आत्मा का संदेश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
जाँनिसार अख़्तर जी का शेर है , शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहां , ना मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । अब यही हाल देश का है जब सरकार करोड़ों लोगों को मुफ़्त राशन देने की बात करती है जिस का अर्थ गरीबी भूख से 80 करोड़ जनता बदहाल है । अनुचित आपराधिक है जब उस समय एक एक नेता पर हर दिन करोड़ों खर्च नहीं बर्बाद किए जाते हैं ऐसे हज़ारों पद हैं देश की राजधानी में राष्ट्रपति से लेकर शहर शहर तक इक जाल फैला है ।
आपको किसी और से कुछ नहीं चाहिए आपको ख़ुद अपने आप को ठीक से पहचानना ज़रूरी है , मैं सिर्फ एक किताब या दस्तावेज़ नहीं हूं । सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मेरा अस्तित्व किसी की कलम कागज़ से नहीं है , संविधान बनाया गया उस से अधिक महत्वपूर्ण विषय है कि , आपने देश की जनता ने उसे अपनाया है । यही शुरुआत है हम भारत के लोग वी दी पीपल ऑफ़ इंडिया , अपने संविधान को अपनाते हैं लागू करते हैं । तो सबसे पहले इस को समझना आवश्यक है कि कोई भी व्यक्ति या कोई संगठन अथवा राजनीति करने वाला दल जनता को कुछ भी नहीं देता है और न ही कभी किसी राजनेता अथवा दल की कोई सरकार बनी और न ही कभी बन सकती है । सरकार देश की होती है और जनता द्वारा बनाई जाती है जब तक ये बुनियादी बात सभी नहीं समझते तब तक लोकतंत्र का वास्तविक शासन जो जनता का राज होना चाहिए नहीं कायम किया जा सकता है । जनता को कोई राजनेता या संगठन अथवा संस्था तो क्या न्यायपालिका प्रशासन कोई भी कुछ भी दे नहीं सकता है बल्कि उनको नियुक्त मनोनीत किया गया है निर्वाचित किया गया है जैसा देश का संविधान निर्देश देता है वो करना उनका दायित्व है और नहीं करना अनुचित और असंवैधानिक । आज़ादी के 76 साल बाद जब लगता है कि वास्तविक आज़ादी देश के सभी नागरिकों को हर प्रकार की समानता अभी लगता है इक ऐसा ख़्वाब है जिसे सच करने की कोशिश तो दूर की बात उस को लेकर सार्थक विमर्श तक कोई नहीं करता है । संविधान की अवधारणा है सभी लोग देश सेवा को समर्पित ईमानदार और निस्वार्थी प्रतिनिधि अपने बीच से चयन कर सदन में भेजें जो लोकसभा अथवा विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों में से काबिल और सभी पक्षों का आदर करने वाला कोई अपना नेता चुनकर संसद द्वारा जनता की कल्याणकारी सरकार का गठन करने का कर्तव्य निभाएं । संविधान में किसी दल या गठबंधन को लेकर कोई धारणा नहीं बताई गई है । लोकतंत्र में सत्तापक्ष प्रतिपक्ष परस्पर विरोधी नहीं बल्कि शासन और सरकार की बहती नदिया को अपनी सीमा में बनाए रखने वाले किनारे हैं , और बहाव को उचित राह पर नदी की गरिमा और लोकतंत्रिक मर्यादा में रखना अनिवार्य इक परंपरा रही है । सदन के नेता बनकर खुद को अन्य सभी से ताकतवर या बड़ा समझना संविधान की भावना और जनमत का निरादर होगा । अच्छा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सभी सदस्यों को आदर देकर सभी की राय को समझ कर इक तारतम्य कायम रखता है ।
अब जो होता है वो देश के संविधान , लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है , सदन का सदस्य चुनने से पहले कोई दल या गठबंधन किसी को पहले से प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री घोषित कर संवैधानिक नियम की मर्यादा को दरकिनार कर बाद में निर्वाचित सदस्यों का सदन का नेता चुनने का अधिकार छीन उसे इक औपचारिकता बना देता है । प्रधाममंत्री मुख्यमंत्री संविधान के अनुसार अन्य सदस्यों के समान ही होता है नेता होना अर्थात किसी समूह का मार्गदर्शक होना न कि अन्य को अपने आधीन समझना , कितनी अचरज की बात है कि सभी राजनीतिक दलों ने अलोकतांत्रिक ढंग से नियम बनाकर अपने अपने दल के सदस्यों को किसी बंधक की तरह विवश कर दिया है की उनकी बात से असहमत या विपरीत राय होने पर भी गुलाम की तरह चुपचाप किसी के पीछे चलना पड़ेगा । लोकतंत्र तो संसद विधानसभाओं के सदस्यों को जनता की बात कहने का अधिकार देता है मगर इस तरह से तो खुद निर्वाचित सदस्य का अपना अधिकार छिन जाता है । इधर अक्सर लोग सवाल करते हैं कि प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री कुछ ख़ास नामों से ही कोई हो सकता है जो अनुचित है , आपको याद नहीं जवाहरलाल नेहरू जी के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी को सदन का नेता चुना गया तो किसी को पहले से कुछ पता नहीं था बल्कि जब मंच से उनका नाम प्रस्तावित किया गया तब सभी ढूंढने लगे की शास्त्री जी कहां हैं । कोई भरोसा करेगा कि वो सभागार में आखिर में प्रवेश द्वार की सीढ़ियों पर नीचे बैठे थे इस निर्णय से अनभिज्ञ । तब उनको आगे लाया गया और कुर्सी पर बैठने को कहा गया । जिस संसद में जोड़ तोड़ और खरीद फ़रोख़्त होकर सरकार बनती है उसे संविधान और लोकतांत्रिक मर्यादा को तार तार करना कहते हैं ।
अगर लोकतंत्र है और किसी परिवार का सदस्य होना कोई महत्व नहीं रखना चाहिए तो किसी दल या संगठन का किसी व्यक्ति विशेष को शासक घोषित करना गुलामी की मानसिकता एवं कुछ लोगों का सत्ता को अपने इशारों पर चलाने का प्रयास जनहित और जनभावनाओं के ख़िलाफ़ है । कब किसने कैसे किया जो भी हो लेकिन संविधान को बहुमत के दम पर अपनी सुविधा से बदलना अनुचित था जिसे होने देना इक अपराध था जो किया जाता रहा है । किसी भी तरह शोहरत मिलना किसी को किसी पद के योग्य नहीं बनाता है वैसे भी आजकल शोहरत बदमाशी करने वालों को अधिक मिलती है शराफ़त से रहने वालों के बजाय । आपको जितने भी लोग खबरों में मिलते हैं अधिकांश ऐसे ही दिखाई देते हैं , शर्म आती है जब किसी बाहुबली अपराधी को कोई दल अपना उम्मीदवार बनाता है जीतने की संभावना को देख कर । धीरे धीरे देश की राजनीति की गंगा इतनी मैली हो गई है कि जनता के पास विकल्प ही गलत लोगों से किसी एक का चुनाव करने का बचा है । नोटा विकल्प भी व्यर्थ है जब उसे अधिक लोग दबाएं तब भी चुना उन्हीं से कोई जाएगा फिर ये विकल्प किस काम का है ।
संविधान की बात सभी करते हैं पढ़ता कोई नहीं ये कितना अजीब है , आपको संक्षेप में मौलिक अधिकारों एवं कर्तव्यों की बात बताने से पहले जो कड़वी बात कहना ज़रूरी है वो ये है कि हमको किसी राजनेता किसी राजनीतिक दल किसी विचारधारा से पहले देश और संविधान को रखना चाहिए और अपने अपने स्वार्थ को छोड़ समाज को महत्व देना होगा । परिवारवाद जितना अनुचित है व्यक्तिवाद उस से भी अधिक अनुचित है अत: हमको किसी से प्रभावित होने से पहले निष्पक्ष होकर उसकी मानसिकता पर विचार करना चाहिए । जिस भी शासक को चाटुकारिता अपना गुणगान पसंद हो वो न्याय और कानून की समानता पर कभी खरा साबित नहीं हो सकता है । खरी बात ये कहना चाहता हूं कि क्या एक सौ चालीस करोड़ लोगों से हम 542 अच्छे ईमानदार प्रतिनिधि नहीं खोज सकते , क्यों देश की संसद जो लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है वहां अपराधी और गुंडे बदमाश बैठे दिखाई देते हैं । कुछ लोक जो खुद को लोकतंत्र का स्तंभ घोषित करते हैं वास्तव में अपना कर्तव्य भुला कर खुद ही अपना गुणगान कर अभ्व्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मनमानी कर अपना उल्लू साधने में लगे हैं लेकिन खेद है कि हम टीवी सोशल मीडिया से परववित होकर निर्णय लेने लगे हैं । मैंने कुछ साल पहले इक आलेख लिखा था देश का सबसे बड़ा घोटाला , जो टीवी अख़बार को मिलने वाले सरकारी विज्ञापन हैं , जिस भी धन से जनता का कोई भला नहीं होता हो और केवल किसी को फायदा पहुंचाने को सरकारी खज़ाने का उपयोग किया जाता हो वो भ्रष्टाचार ही होता है । देश के खज़ाने की लूट में खुद मीडिया टीवी चैनल शामिल हैं ऐसे में इस गंभीर विषय पर ध्यान कौन दिलवाएगा , जिन का दावा है बड़ी तेज़ गति से दौड़ रहे हैं सरकारी विज्ञापन की बैसाखियों का सहारा नहीं मिले तो झट से नीचे गिर जाएं । बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । अभी भ्रामक विज्ञापन देने को लेकर किसी को सुप्रीम कोर्ट ने अपराधी माना है लेकिन जिन टीवी अखबार वालों ने विज्ञापन छाप कर दिखला कर कितना पैसा बनाया क्या वो जुर्म में शामिल नहीं समझे जाने चाहिएं क्योंकि उनको सब पता रहता है कोई भी बहाना काम नहीं आएगा , चोर चोर मौसेरे भाई हैं विज्ञापन देने वाले और प्रकाशित करने छापने दिखाने वाले ।
पचास साल पहले सरकार या विभाग इश्तिहार देते थे अपनी योजनाओं की जानकारी देने को और जन साधारण को जागरुक करने के मकसद से । अब हमने इतने साल शासन किया जैसे आयोजन और उनका प्रचार खुद का महिमामंडन अनुचित है । कोई राजनेता अगर भाषण में अथवा इश्तिहार में जनता को कुछ भी देने का गुणगान करता है तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी राजनेता या दल ने खुद अपनी निजी आय जायदाद से नहीं बल्कि देश में जनता से ही प्राप्त तमाम तरह से करों से एकत्र धन को खर्च कर अपना कर्तव्य निभाया होता है । इसको अनुकंपा नहीं कहलाया जा सकता है , वास्तविकता विपरीत है पहले सत्ता पर बैठे लोग सादगी से जीवन बिताते थे जबकि आजकल प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री तो क्या अधिकारी से सभी निर्वाचित प्रतिनिधि शानो-शौकत से मौज मस्ती कर देश की गरीबी की बातें करने का मज़ाक़ ही किया करते हैं । हमारे राजनेताओं का किरदार कभी ऊंचा होता था जिस से सभी को त्याग करने का प्रोत्साहन मिलता था जबकि अब मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी की मिसाल देख सभी सकते में हैं । आखिर में देश के संविधान में जिन अधिकारों और जिन कर्तव्यों का उल्लेख है उनकी बात से पहले इक ताज़ा ग़ज़ल मेरी पेश करता हूं ।
ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
इस क़दर किरदार बौना हो गया है
आस्मां , जैसे बिछौना हो गया है ।
घर बनाया था कभी शीशे का तुमने
किस तरह , टूटा खिलौना हो गया है ।
मथ रहे पानी मिले क्या छाछ मख़्खन
शख़्स , पानी में चलौना , हो गया है ।
है निराला , आज का , दस्तूर भाई
बिन बियाहे सब का गौना हो गया है ।
छान कर सब पीस कर कितना संवारा
फिर हुआ क्या सब इकौना हो गया है ।
पी गया कितने ही दरिया को वो सागर
था उछलता , और , पौना हो गया है ।
ख़ूबसूरत था जहां ' तनहा ' हमारा
हर नज़ारा अब , घिनौना हो गया है ।
संविधान , अधिकार और कर्तव्य :-
प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा :-
(ए) संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों और संस्थानों, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना।
(बी) हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों को संजोना और उनका पालन करना।
(सी) भारतीय राष्ट्र की एकता, संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना।
(डी) देश की रक्षा करना और जब भी ऐसा करने के लिए कहा जाए तो राष्ट्रीय सेवा प्रदान करना।
(ई)
धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताओं से परे भारत के सभी
लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना; महिलाओं की
गरिमा के प्रति अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करना।
(च) हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देना और संरक्षित करना।
(छ) वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना और जीवित प्राणियों के प्रति दया रखना।
(ज) वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करना।
(i) सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा का त्याग करना।
(जे)
व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की दिशा
में प्रयास करना ताकि राष्ट्र लगातार प्रयास और उपलब्धि के उच्च स्तर तक
पहुंच सके।
(के)
जो माता-पिता या अभिभावक है, वह छह से चौदह वर्ष की आयु के बीच के अपने
बच्चे या, जैसा भी मामला हो, प्रतिपाल्य को शिक्षा के अवसर प्रदान करेगा।
भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत छह मौलिक अधिकार हैं ।
वे इस प्रकार हैं :- समानता का अधिकार , स्वतंत्रता का अधिकार , शोषण के विरुद्ध अधिकार , धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार , सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार , संवैधानिक उपचारों का अधिकार
1 टिप्पणी:
वर्तमान परिस्थितियों पर बहुत सटीक लेख...👌👍
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