अप्रैल 19, 2024

POST : 1802 हम कर्ज़दार हैं दौलतमंद नहीं हैं ( सच का दर्पण ) डॉ लोक सेतिया

 हम कर्ज़दार हैं दौलतमंद नहीं हैं ( सच का दर्पण ) डॉ लोक सेतिया 

मैं लिखता हूं और मुझे लिखना है , ये क्या मेरी मज़बूरी है आदत है शौक है या फिर सनक है पाठक क्या सोचते हैं समझते हैं दो दिन पहले इक पोस्ट लिखी थी सोशल मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप्प पर साथ कुछ पत्र पत्रिकाओं को ईमेल से भी भेजा था । ब्लॉग का एक भाग कुछ पेज हैं जिन पर लिखना मिटाना चलता रहता है कुछ पब्लिश हैं कुछ ड्राफ्ट ही रहते हैं और ये पेज पाठक को पढ़ने को शेयर नहीं करता , मुझे इनको छिपाना नहीं लेकिन काफी हद तक अपने तक सिमित रखना चाहता हूं लेकिन कभी कभी कोई किसी तरह उनको ढूंढ लिया करता है । कल अचानक किसी सार्वजनिक आयोजन में किसी ने कहा क्या आपने लिखना छोड़ दिया है , मैंने संक्षेप में जवाब दिया जी नहीं मैं नियमित निरंतर लिखता रहता हूं । जैसे फेसबुक पर पोस्ट में कहा था मेरा अनुभव पाठकों से जो समझा वही बात है लोग जिस जगह पढ़ते हैं मैं केवल उस जगह नहीं लिख कर भेजता इसलिए तमाम लोग जिनको चाहत होती है मुझे गूगल सर्च से या सोशल मीडिया पर ढूंढ लिया करते हैं । मिल कर याद आया पढ़ते थे पसंद करते थे लेकिन ये भी समझ आया उनको चाहत होती तो तलाश कर सकते थे । आज की पोस्ट पाठक को लेकर नहीं बल्कि अधिक महत्वपूर्ण है और सभी के लिए इक संदेश है । 
1974 की बात है सरिता पत्रिका में संपादक विश्वनाथ जी हर अंक में जो पंद्रह दिन बाद आता था कॉलम लिखा करते थे , आप पढ़े लिखे हैं कारोबार नौकरी करते हैं जो भी आपने घर बना लिया परिवार बना कर संतान को काबिल बना लिया जितना भी धन संचय कर लिया तब भी आपने अगर अपने देश समाज अपनी माटी का क़र्ज़ नहीं उतारा तो आपने कुछ भी नहीं किया है । मेरा लिखना उसी मकसद की एक शृंखला है और मैं जब भी कोई मेरे उद्देश्य की बात पूछता है तब उस से वही सवाल किया करता हूं और मुझे बड़ी हैरानी और अफ़सोस होता है जब कोई भी ये सोचता समझता ही नहीं कि उस ने अपने देश समाज को क्या कुछ लौटाया है पाया बहुत है शायद सोचा ही नहीं है । आओ विचार करते हैं हमको समाज से कितना कुछ मिला है जो अगर नहीं होता तो हम जो भी करते हैं बन पाए हैं कभी नहीं बन पाते , ये शिक्षा स्कूल अध्यापक ही नहीं समाज की बनाई गई अनगिनत राहें हैं जिन से हमको क्या करना किधर जाना क्या हासिल करना है तो किस तरह से संभव हो सकता है ये तमाम संस्थाएं और नौकरी व्यवसाय करने को बुनियादी ढांचा हमारे पुरखों ने आसानी से नहीं निर्मित किया होगा । सोचना अगर किताबें और देश की व्यवस्था सामाजिक ढांचा ही नहीं होता तो हम शायद सही इंसान भी नहीं बन पाते । 
 
मुझे आपको सभी को जन्म लेते ही ये सब बेहद मूलयवान अपने आप मिल ही नहीं गया बल्कि हमको इन सभी पर अपना अधिकार भी हासिल हुआ जिस का मोल कोई चुका नहीं सकता है । अपने महान लोगों की बातें पढ़ी सुनी होंगी क्या क्या नहीं किया उन्होंने कितनी मेहनत और प्रयास से देश को समाज को जैसा उनको मिला उस से अच्छा और बेहतर जीवन जीने को बनाया अपनी खातिर नहीं सभी की खातिर । मैंने देखा है अधिकांश लोग गौरान्वित महसूस करते हैं निचले पायदान से ऊपर पहुंचने पर और अपनी रईसी शान ओ शौकत पर इतराते भी हैं लेकिन शायद उन्होंने कभी सोचा तक नहीं कि उनको अपनी धरती अपनी माटी अपने देश समाज को कुछ लौटाना भी था जिस पर उनका ध्यान ही नहीं । धर्म ईश्वर वाले पाप पुण्य जैसे लेखे जोखे की बात नहीं ये मानवीय मूल्यों प्रकृति और पर्यावरण की तरह अपने गांव शहर देश को प्रयास कर भविष्य की आने वाली पीढ़ी को सुंदर सुरक्षित बना कर सौंपने का फ़र्ज़ निभाने की बात है । इस विषय को जितना चाहें विस्तार दे सकते हैं लेकिन समझने को संक्षेप में पते की बात कही है । सभी संकल्प लें की हम अपना ये क़र्ज़ पूरी तरह से नहीं उतार सकतें हैं जानते हैं लेकिन जितना भी संभव हो कुछ कम अवश्य कर सकते हैं । अन्यथा हम इक एहसानफरमोश समाज की तरफ बढ़ रहे हैं जिसे पाना ही आता है चुकाना नहीं आता या किसी ने ये ज़रूरी पाठ पढ़ाया ही नहीं जो कभी शिक्षा का पहला सबक हुआ करता था ।  कुछ भी साथ नहीं ले जा सकते दुनिया से जाते हुए हां कुछ बांट कर जाना कुछ कर जाना किया जा सकता है । अच्छा है कुछ ले जाने से दे कर ही कुछ जाना  , चल उड़ जा रे पंछी । 
 
चल उड़ जा रे पंछी
कि अब ये देश हुआ बेगाना
चल उड़ जा रे पंछी...

खत्म हुए दिन उस डाली के
जिस पर तेरा बसेरा था
आज यहाँ और कल हो वहाँ
ये जोगी वाला फेरा था
सदा रहा है इस दुनिया में
किसका आबो-दाना
चल उड़ जा रे पंछी...

तूने तिनका-तिनका चुन कर
नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी काया
धूप में गर्मी छाई
ग़म ना कर जो तेरी मेहनत
तेरे काम ना आई
अच्छा है कुछ ले जाने से
देकर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी...

भूल जा अब वो मस्त हवा
वो उड़ना डाली-डाली
जब आँख की काँटा बन गई
चाल तेरी मतवाली
कौन भला उस बाग को पूछे
हो ना जिसका माली
तेरी क़िस्मत में लिखा है
जीते जी मर जाना
चल उड़ जा रे पंछी...

रोते हैं वो पँख-पखेरू
साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाये तूने
अरमानों के मेले
भीगी आँखों से ही उनकी
आज दुआयें ले ले
किसको पता अब इस नगरी में
कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी..
 
 
 

                  किसी शायर ने कहा है :-

 ' माना चमन को हम न गुलज़ार कर सके , कुछ खार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम '। 



 
 


  

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Bahut sarthak lekh...
(Main kyon likhta hu- अज्ञेय...) याद आ गए