अप्रैल 05, 2024

जीने का अंदाज़ नहीं मालूम ( फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया

    जीने का अंदाज़ नहीं मालूम ( फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया  

है सभी कुछ फिर भी लगता है कमी है , इंसान को ज़िंदा ही नहीं रहना चाहिए बल्कि ज़िंदगी को भरपूर तरह से जीना भी चाहिए । शायद यही इक सबक है जो कोई किसी को सिखला नहीं सकता बल्कि हर किसी को खुद समझना सीखना पड़ता है । जैसे बदन को सवस्थ रहने को केवल भोजन ही नहीं खाना चाहिए अपितु संतुलित भोजन अच्छा खाना पीना ज़रूरी है । हम कभी अधिक खाते हैं कभी जो नहीं खाना चाहिए वो खाते हैं कभी कुछ लोग भर पेट नहीं खा पाते क्योंकि उनके भाग्य का हिस्से का कुछ और लोग खाते ही नहीं बल्कि बर्बाद भी करते हैं । आदमी जब इंसान नहीं रहता तभी अपनी आवश्यकता से अधिक संचय करता है जबकि सभी जानते हैं ज़िंदगी को बहुत थोड़ा चाहिए और ज़िंदगी के बाद संचय किया व्यर्थ जाता है मौत कुछ भी दुनिया से जाते ले जाने नहीं देती न ही कोई जन्म लेते कुछ भी साथ लाया ही होता है । कुदरत ने सभी कुछ सबकी खातिर बनाया है ये हमने अपनी भूख और हवस में अंधे होकर इक पागलपन किया है छीन कर लूट कर किसी भी तरह अधिक हासिल करने का कार्य कर के । घर भी कितना बड़ा महल बनाओ रहना है उसी अपने शरीर के आकार जितनी जगह चाहें भी तो तथाकथित हैवान की तरह अपना विस्तार नहीं कर सकते हैं । सोचना होगा कितनी जगह कितना भोजन कितना सामान वास्तव में चाहिए हमको ज़िंदा रहने को मगर हम ज़िंदा नहीं रहते बल्कि मरते हैं भागते रहते हैं इतना पाने की चाहत में जितना उपयोग करना संभव ही नहीं होता है । 
 
आदमी शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ होना चाहिए , शायद हम जानते ही नहीं कि मस्तिष्क को स्वस्थ कैसे रखना है । सामाजिक वातावरण कितना अच्छा है कितना खराब इस पर विचार नहीं किया जाता और अगर ये समाज सुरक्षित नहीं है अथवा बीमार है तो इस को सुधारना कुछ अच्छा बनाना किसी और का नहीं हमारा ही काम है । सिर्फ हवा पानी और पर्यावरण ही प्रदूषित नहीं है बल्कि हमारी सोच हमारे अचार विचार व्यवहार सभी समाज को नुक्सान पहुंचाते हैं लेकिन हम अपने स्वार्थ में अंधे इस पर ध्यान ही नहीं देते । सामाजिक मूल्यों के विपरीत कार्य करने से आपका कोई फ़ायदा होता है तो कितनों का नुक्सान होता है और ऐसा करने से जो अनुचित कार्य नहीं करते उनको परेशानी ही नहीं उनका जीवन कठिन हो जाता है । धनवान शासक वर्ग अधिकारी कर्मचारी जब अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाते तो सामन्य नागरिक को कठिनाइयां होती हैं , राजनेताओं ने जनता के साथ सबसे बड़ा अन्याय किया है सत्ता पाकर देश समाज की भलाई करना छोड़ अन्य सभी कार्य करना । देश में असामनता और भेद भाव बढ़ाने का कार्य और समाज और संविधान न्याय की उपेक्षा कर बहुत बड़ा अपराध किया है । जैसा शासक वैसी प्रजा की बात कही जाती है तभी देश की राजनीति के होते रहे पतन का असर बाक़ी समाज पर पड़ा है और आज ऐसा समाज बन गया है जिस में सभी ख़ुदगर्ज़ होते गए हैं । 
 
घर परिवार रिश्तों में दोस्ती में अपनापन और सुःख दुःख में साथ निभाने की बात छोड़ सभी दिखावा करने एवं इक पर्तिस्पर्धा करने जिस में ख़ुद आगे बढ़ने की ख़ातिर अपनों को ही पीछे धकेलने से गिराने तक सब करते हैं । सिर्फ आडंबर की ऊंचाई हासिल करने को खुद नैतिक रूप से बेहद निचले स्तर तक चले जाते हैं । भाई भाई का अधिकार छीन कर समझता है चतुराई की है जबकि वास्तव में धोखा फरेब ठगी कर चाहे जितना भी धन दौलत हासिल कर लिया हो अपनी आत्मा अपना ईमान और ज़मीर को दफ़्न कर जितना खोया है कोई हिसाब नहीं लगा सकते है । आपने देखा होगा हमने भी देखा है कुछ ही सालों में लोग कितने धनवान और साधनसम्पन्न बन गए हैं , लेकिन खुश नहीं होते क्योंकि खुशियां प्यार से आपसी मेलजोल से साथ रहने से हासिल होती हैं । पैसे से प्यार भरोसा और हमदर्दी खरीदी नहीं जा सकती है और दिखावे की ख़ुशी में शामिल सभी आपको वास्तविक एहसास नहीं करवा सकते हैं जैसे कभी छोटी छोटी ख़ुशी इक खिलौना मिलने की भी लगती थी । आकांक्षाओं का मेला है दुनिया में हर शख़्स अकेला है , इक और ऊंची सी दीवार खड़ी है सोशल मीडिया की पहचान हज़ारों से समझता कोई किसी को नहीं है , आना जाना मिलना जुलना कब का छूट गया । लैंडलाइन फ़ोन से भी बात किया करते थे कभी आजकल शुभकामना संदेश से सिर्फ औपचारिकता निभाते हैं , निमंत्रण पत्र से शोक संदेश तक व्याट्सएप्प पर रस्म निभाते हैं । हर अवसर लगता है भीड़ का शोर है लेकिन शोर में किसी को किसी की बात समझ आना तो क्या सुनाई ही कम देती है । इक शेर याद आता रहता है मित्र जवाहर लाल ठक्कर जी का :- 
 

    दिन भर तरसता ही रहा कोई बात तो करे , मुझ को कहां खबर थी इशारों का शहर है ।   

 


 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

आदमी जब इंसान नही रहता....संचय करता है👌👍...उत्तम सार्थक आलेख 👌 सर