अप्रैल 22, 2024

आईने का सामना कौन करे ( भली लगे कि बुरी लगे ) डॉ लोक सेतिया

 आईने का सामना कौन करे ( भली लगे कि बुरी लगे ) डॉ लोक सेतिया 

ऐसा अक़्सर होता है सुबह उठते ही मन में कोई उथल-पुथल होती है तो सोचता हूं की सैर पर जाना छोड़ पहले लिख लूं बाद में शायद विषय का ध्यान ही नहीं रहे । और अगर सुबह जल्दी उठ गया होता हूं तो लिखने बैठ जाता हूं अन्यथा पार्क जाना भी सैर करने के लिए नहीं और भी बहुत देखने समझने तथा सोचने को काम आता है । ज़िंदगी में संतुलन बनाना भी अपने आप में छोटी बात नहीं है । तो आज सुबह जो विचार आया था वो था आज़ादी का अर्थ महत्व समझने का और अपनी नहीं सभी की आज़ादी को लेकर सही मायने में स्वतंत्रता का पक्षधर होने का । पार्क पहुंचते ही बाहर से जो नज़ारा दिखाई दिया उस ने सावधान रहने का ख़्याल ज़हन में ला दिया । सरकारी वाहन पुलिस और सुरक्षाकर्मी वातावरण को सामान्य नहीं रहने देते हैं लेकिन खैर कोई घबराने की चिंता की बात नहीं थी चुनाव हैं कोई सत्ताधारी नेता वोट मांगने आया हुआ था ।आमना सामना हुआ परिचय हुआ डॉक्टर कौन से डॉक्टर लेखक क्या पीएचडी वाले नहीं डॉक्टर और इक लेखक । इतनी जल्दी होती हैं उनको संक्षेप में ही बात औपचरिक होना संभव होता है , घर घर जाकर वोट मांगना अब कोई नहीं करता बल्कि अधिकांश सोशल मीडिया पर इकतरफ़ा संवाद करते हैं । नेता जी ने शायद यूं ही कह दिया लिखते रहना और कोई काम हो तो बताना , दिल में बहुत कुछ आया और सोचा भी कि उनसे जाकर पूछ कर देश की जनता का छोटा सा सवाल किया जाये भले उनके पास जवाब नहीं भी हो कम से कम इतना तो उनको समझना ही चाहिए । कोई तीस साल पहले की लिखी अपनी कविता मैं उनको सुनाना चाहता था लेकिन जानता था ये अधिकांश लोगों को पसंद नहीं आएगा क्योंकि उनको अपनी बात कहनी होती है जनता की समझनी ही नहीं होती , आगे लिखने से पहले वही कविता पढ़वाता हूं । 
 

बेचैनी ( नज़्म )  डॉ  लोक सेतिया 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
 
अधिकांश लोग खुद को लेकर खुशफ़हमी या गलतफ़हमी में रहते हैं उनको लगता है की हम जो भी करते हैं कोई और नहीं करता हम बड़े ख़ास महान हैं । जबकि उन सभी का सच कुछ और होता है कोई योग और आयुर्वेद के नाम पर अपना धंधा बढ़ाता है तो कोई तथाकथित देश समाज जनता की भलाई की बात कह कर शासक बन कर राज सुःख भोगना चाहता है । किसी को धर्म उपदेश देकर अपने लिए आश्रम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा बनवा कर अपना अधिपत्य वर्चस्व स्थापित करना है , सबको लोभ मोह से बचने की राह दिखलाने वाले खुद संचय करते करते भवसागर में डूब जाते हैं । हमको डुबोया है उन्होंने ही जो हमारी नैया पार लगाने को खिवैया बन कर ठगते रहे उम्र भर । हमने पिछले 76 सालों में अपनी खुद की देश की समाज की पुरानी वास्तविक पहचान को ही खो दिया है । जाने क्या क्यों कैसे हुआ जो हम धीरे धीरे बेहद स्वार्थी और काफी हद तक विवेकहीन बनते गए हैं , कथनी और करनी बिल्कुल मेल नहीं खाती और हर कोई मनमानी कर समाज से छल कपट कर भी चाहता है नायक समझा जाए उसको । आजकल नायक असली नहीं झूठे और नकली अधिक दिखाई देते हैं । लगता है कोई सच का दर्पण देखता ही नहीं अन्यथा हमारा मन जानता है कि जैसा हम चाहते हैं लोग हमारे बारे सोचना हम वैसे कभी हो ही नहीं सकते , दूसरे शब्दों में खुद अपनी ही नज़र में लोग दोगले हैं । 
 
क्या हम आज़ादी का अर्थ समझते हैं , अगर पिता अपने बेटे से चाहता हो कि जो भी वो चाहता है बेटे को बिना कुछ सोचे स्वीकार करना चाहिए तो बेटे की उचित अनुचित को परखने की आज़ादी को बंधन में जकड़ कर छीन लेना चाहता है । किसी का अधिकार किसी और का हक़ छीन कर अपने आधीन रखना नहीं होना चाहिए और ऐसा पति पत्नी या बड़ा छोटा भाई बहन अथवा कोई नाता करने को संस्कार या कोई नियम नहीं बता सकता है । शायद हमारा समाज अपनी कायरता को ढकने को ऐसे कुछ तर्क घड़ लेता है और इतना ही नहीं उस पर कोई चर्चा कोई वार्तालाप करने को तैयार नहीं होता है । जब तक हम अपनी गलत बातों को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हम अपनी झूठी अनुचित परम्पराओं को बदल कैसे सकते हैं । परिवार की ही तरह सरकार प्रशासन में अपनी असफलताओं और समाज विरोधी आचरण को राजनेता अपनी शान एवं विशेषाधिकार मानते हुए भ्र्ष्टाचार से लेकर अहंकारी व्यवहार तक  उस पर शर्मिंदा नहीं होते अपितु गर्व करते हैं जो सबसे विचित्र विडंबना है । अधिकांश लोग भी ऐसे नेताओं अधिकारियों के सामने सर झुकाए खड़े मिलते हैं उनको खरी बात कहने का जोख़िम उठाना ज़रूरी नहीं समझते ये सोच कर कि कहीं कभी उन के साथ भी अन्याय अत्याचार नहीं हो जाए । जब तक अपना घर नहीं चपेट में आता हम आग लगाने वालों को बस्तियां जलाते देखते रहते हैं चुपचाप तमाशाई बन कर । क्या इसे आज़ादी कहते हैं क्या हम वास्तव में गुलामी और तानाशाही को स्वीकार कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने की मूर्खता नहीं करते हैं । 



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

👍👌 bahut bdhiya likha h sir ....unhe sirf apni sunani hoti h in dino khaskar...log khushfahmi me hi rhte hn...