अप्रैल 20, 2024

POST : 1803 बहुत चिराग़ जलाओगे ( कथा-कहानी ) डॉ लोक सेतिया

        बहुत चिराग़ जलाओगे ( कथा-कहानी ) डॉ लोक सेतिया

 कभी कभी किसी ख़बर को सुन कर हम सकते में आ जाते हैं , क्या महसूस होता है कहने को शब्द नहीं मिलते हैं । कई साल पहले किसी शहर से इक पति - पत्नी जोड़े की ख़ुदकुशी की ख़बर पढ़ कर इक अर्से तक मन में उथल पुथल रही जिस का नतीजा इक ग़ज़ल कही थी , ख़ुदकुशी आज कर गया कोई । इस विषय पर मैंने अलग अलग ढंग से रचनाओं में अपनी भावनाएं संवेदनाएं प्रकट की हैं जबकि देखता हूं हर ऐसी घटना कुछ दिन बाद भुला देते हैं अधिकांश लोग । शायद ये वास्तविक बात इंगलैंड की है अभी भी उस संस्था की शाखाएं देश विदेश में हैं भारत में संजीवनी नाम से इक संस्था से संपर्क रहा था जब दिल्ली रहता था । इक मनोचिकित्सक ने प्रचारित कर रखा था कि जो भी जीवन से निराश हो कर ख़ुदक़ुशी करने का सोचता हो इक बार आकर मुझ से अवश्य मिले और कहते हैं वो हमेशा सभी को जीने का मकसद समझा कर ख़ुदक़ुशी नहीं करने पर सहमत करवा लिया करता था । मगर इक दिन इक व्यक्ति की वास्तविकता और ज़िंदगी की कुछ परेशानियों को सुनकर वह मनोचिकित्सक भी नहीं समझ पाया कि उसे जीने को कैसे मनवा सकता है । वो व्यक्ति ये देख कर समझ गया कि अब जीना नहीं मर जाना ही उस के लिए एकमात्र विकल्प है । लेकिन उस डॉक्टर की सहायक बाहर बैठी उनकी बात सुन रही थी , जैसे ही वो निराश व्यक्ति बाहर निकला उस महिला ने पूछा अब आपको क्या करना है । उस ने कहा बस आखिरी उम्मीद थी शायद ये कोई रास्ता बताते मगर अब निर्णय कर लिया है जीना नहीं है किसी भी तरह मौत को गले लगाना है । 
 
उस महिला ने कहा आप जो समझें कर सकते हैं लेकिन क्या उस से पहले मेरे साथ एक एक कप कॉफ़ी पीना चाहेंगे मुझे बहुत पसंद है कोई साथ हो अकेले नहीं पीना चाहती । ठीक है और दोनों पर इक कॉफी शॉप पर चले आये , कॉफी पीते पीते महिला ने उसे अपना दोस्त बना लिया ये कह कर कि उसको जैसा दोस्त चाहिए था कोई कभी नहीं मिला । जुदा होने की घड़ी थी उस महिला ने कहा धन्यवाद आपने मेरी बात मान कर मुझे थोड़ी देर को ही सही अपनी दोस्त माना जो मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है । उस व्यक्ति ने कहा काश कि मैं आपको हमेशा ख़ुशी दे सकता , महिला ने कहा मुश्किल क्या है आप भी मुझे अपनी तरफ से कॉफी का निमंत्रण दे सकते हैं । आपको ख़ुदकुशी करनी है तो मैं रोकूंगी नहीं लेकिन इतना तो आप अपनी दोस्त की खातिर कर सकते हैं हां जितने भी समय आप ज़िंदा हैं हमारी दोस्ती रहेगी और हम एक दूसरे का हर दुःख दर्द आपस में सांझा कर सकते हैं , जब नहीं होंगे तब अकेले होने से जो होगा देखा जाएगा । और इस तरह उस मनोचिकित्सक की सहायक ने उस व्यक्ति को ख़ुदक़ुशी नहीं करने पर मनवा लिया । जब वापस जाकर अपने बॉस को ये बताया तो उस ने अपनी संस्था का नाम बदल कर उसी महिला के नाम पर रख दिया था । 
 
फिल्मों में ऐसा कई बार दर्शाया जाता रहा है , पुराने काफ़ी गीत भी हैं जो आपको निराशा से निकलने और आशा का दामन थामने की राह समझाते हैं । आजकल हम सभी अपने अपने संकुचित दायरे में खुद ही कैद रहते हैं अपनी उलझनों परेशानियों से बाहर दुनिया अन्य समाज की तरफ देखते ही नहीं हैं । मानवीय संवेदनाओं से रिश्ता तोड़ कर मतलबी और आत्मकेंद्रित हो गए हैं , आस पास किसी को असफल या निराश देखते हैं तो उस को साहस बढ़ाने नहीं बल्कि कभी कभी किसी के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का कार्य करते हैं । कोई फ़िसलता है तो गिरे को हाथ देकर उठाने नहीं उस पर कटाक्ष करते हैं जिस का अर्थ है कि हम निर्दयी बनते जा रहे हैं । काश हम हर किसी से इंसानियत का नाता निभाते तो कोई भी इतना अकेला और निराश नहीं होता कि घबरा कर अपनी जीवन लीला ही ख़त्म करने को विवश हो जाता । अंत में दो ग़ज़ल इक मेरी जो किसी की ख़ुदक़ुशी की बात सुन कर अनुभव करता हूं उस की मनोदशा को सोच कर और इक ग़ज़ल जिसे मैंने कॉलेज के ज़माने से अक्सर गुनगुनाया है , शायर  -  मख़मूर देहलवी जी की है ।
 

          
 
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिये
पयाम-ए-मौत भी मुज़दा है ज़िंदगी के लिये ।

(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा), 
(पयाम-ए-मौत = मृत्यु का सन्देश), 
(मुजदा = अच्छी ख़बर, शुभ संवाद)

मैं सोचता हूँ के दुनिया को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिये ।

चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
बहार आती है लेकिन किसी किसी के लिये ।

हमारे बाद अँधेरा रहेगा महफ़िल में
बहुत चराग़ जलाओगे रोशनी के लिये ।

हमारी ख़ाक को दामन से झाड़ने वाले
सब इस मक़ाम से गुज़रेंगे ज़िंदगी के लिये ।

उन्हीं के शीशा-ए-दिल चूर चूर हो के रहें
तरस रहे थे जो दुनिया में दोस्ती के लिये ।

जो काम आये मेरी ज़िन्दगी तेरे हमदम
तो छोड़ देंगे दुनिया तेरी ख़ुशी के लिये  ।

किसी ने दाग़ दिए दोस्ती के दामन पर
किसी ने जान भी लुटा दी दोस्ती के लिये । 
 
शायर  -  मख़मूर देहलवी ।



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