चुनावी आंकड़ों का बाज़ार ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया
कितना अनुपम है , हर दल का इश्तिहार ,
जनता का वही ख़्वाब सुहाना , सच होगा
देश की राजनीति का बना पचरंगा अचार
नैया खिवैया पतवार चलो भवसागर पार ।
देख सखी समझ आंख मिचौली की पहेली
सत्ता होती है , सुंदर नार बड़ी ही अलबेली
सभी बराबर अब राजा भोज क्या गंगू तेली
मांगा गन्ना देते हैं गुड़ की पूरी की पूरी भेली ।
अपना धंधा करते हैं जम कर के भ्र्ष्टाचार
हम जैसा नहीं दूसरा कोई सच्चा ईमानदार
दोस्त हैं दुश्मन , सभी हम उनके दिलदार
दुनिया सुनती महिमा , अपनी है अपरंपार ।
छोड़ दो तुम सभी अपनी तरह से घरबार
इस ज़माने में ढूंढना मत कभी सच्चा प्यार
अपने मन की करना , सोचना न कुछ तुम
बड़ा मज़ा आता है कर सबका ही बंटाधार ।
हमने मैली कर दी गंगा यमुना सारी नदियां
पापियों के पाप धुले कहां नहलाया सौ बार
डाल डाल पर बैठे उल्लू , पात पात मेरे यार
खाया हमने सब कुछ नहीं लिया पर डकार ।
अपने हाथ बिका हुआ है आंकड़ों का बाज़ार
अपना खेल अलग है , जीतने वाले जाते हार
काठ की हांडी हमने देखी चढ़ती बार-म-बार
कौन समझा कभी जुमलों की अपनी बौछार ।
अपना रोग लाईलाज है कौन करेगा क्या उपचार
जितनी भी खिलाओ दवाई कर लो दुआएं भी पर
कुछ असर नहीं होता हम को रहना पसंद बिमार
बदनसीब जनता का ख़त्म नहीं होता इन्तिज़ार ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें