जुलाई 14, 2023

आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

किस तरह तुझे बाढ़ से बचाएं आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं प्यार भरे नग्में सुनाएं धरती पर नहीं अच्छे हालात सातवें आसमान पर तुझे बिठाएं । चांद किस का किस की चांदनी चुनाव में नया मुद्दा बनाएं ख़्वाब जनता को दिखलाकर हक़ीक़त से आंखें हम चुराएं । फिर किसी को ढूंढ कर मसीहा घोषित करें फिर किसी के झूठे वादों पर ऐतबार करें और पछताएं । भूखे बच्चों को उनकी माएं चूल्हे पर पानी उबलना रख बहलाएं और शाहंशाह मौज मस्ती मनाएं दुनिया भर को जो चाहें दिखलाएं । चांद पर मंगल मनाएं जिनको हासिल सब खाने पहनने को गरीब रोएं कि चिल्लाएं कौन सुनता उनकी सदाएं । आधुनिक हथियार लड़ाकू विमान खरीद कर हम शांतिदूत हैं आपस में भाईचारा बनाएं शासक तुम भी शासक हम भी जी भर मक्खन मलाई खाएं बाक़ी सभी को छाछ भी खैरात में बंटवाएं और जनता के सेवक कहलाएं खुद को मालिक समझते हैं सच बोलने से घबराएं । राजधानी शर्म से पानी पानी हुई रहनुमाओं की मेहरबानी हुई अजब ग़ज़ब की कहानी हुई उनसे कैसे ये नादानी हुई । समंदर दरिया खुद चल कर आते हैं उनके चरणों में सर झुकाते हैं उनकी ख़ास बात है बहती गंगा में नहाते हैं यमुना के तीर महफ़िल सजाते हैं किसी विख्यात गुरु को बुलाते हैं प्रकृति से खिलवाड़ करने वालों को सब मनमानी करने देते हैं उस के बाद नियम कायदे याद आते हैं जुर्माना लगाते हैं पिंड छुड़ाते हैं । लोग हर बात भूल जाते हैं कौन हैं जो कश्तियां डुबाते हैं खेवनहार भी कहलाते हैं । 
 
भगवान पर भरोसा किया उम्र भर पर गरीबों का कोई भगवान नहीं मिला अमीरों का भगवान पैसा है उनको जिस की ज़रूरत होती बना लेते खरीद कर इंसान से भगवान तक को । बहुत है आरती हमने उतारी नहीं सुनता वो लेकिन अब हमारी । जमा कर ली उसने दौलतें खुद धर्म का हो गया वो है व्योपारी । तरस खाता गरीबों पर नहीं वो अमीरों से हुई उसकी भी यारी । रहे उलझे हम सही गलत में  क्या उसको याद हैं बातें ये सारी । कहां है न्याय उसका बताओ  उसी के भक्त कितने अनाचारी । सब देखता , करता नहीं कुछ  न जाने लगी कैसी उसको बिमारी । चलो हम भी तौर अपना बदलें आएगी तभी हम सब की बारी । बिना अपने नहीं वजूद उसका  गाती थी भजन माता हमारी । उसे इबादत से खुदा था बनाया  पड़ेगी उसको ज़रूरत अब हमारी । आख़िर में इक ग़ज़ल पेश है । 
 

                        ग़ज़ल डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

चंद धाराओं के इशारों पर
डूबी हैं कश्तियाँ किनारों पर ।

अपनी मंज़िल पे हम पहुँच जाते
जो न करते यकीं सहारों पर ।

खा के ठोकर वो गिर गये हैं लोग
जिनकी नज़रें रहीं नज़ारों पर ।

डोलियाँ राह में लूटीं अक्सर
अब भरोसा नहीं कहारों पर ।

वो अंधेरों ही में रहे हर दम
जिन को उम्मीद थी सितारों पर ।

ये भी अंदाज़ हैं इबादत के
फूल रख आये हम मज़ारों पर ।

उनकी महफ़िल से जो उठाये गये
हंस लो तुम उन वफ़ा के मारों पर ।
 

 
 

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