जुलाई 30, 2023

निकले थे कहां जाने को पहुंचे कहां ( भटकाव ) डॉ लोक सेतिया

     विवेकशील इंसान नहीं बने ( भटकाव ) डॉ लोक सेतिया  

                      (  निकले थे कहां जाने को पहुंचे कहां  )

आपकी नहीं ज़माने की नहीं ख़ुद अपनी बात करता हूं कभी कभी ख़ुद को लेकर ख़ुद से सवाल करता हूं । ज़िंदगी ठोकरें खाती रही बिना सोचे समझे चलता रहा मुझे जिस मंज़िल की चाहत थी ये रास्ता उस तरफ जाता ही नहीं था शायद विवेक से काम लेता सोचता समझता कि मैं कौन हूं क्या हूं क्या चाहता हूं । ज़िंदगी का कोई मकसद होता तब उस मंज़िल की खोज में जीवन व्यतीत भी होता तो तसल्ली होती कि पता था किधर जाना है । पहुंचना ज़रूरी नहीं है शायद पहुंचता कोई नहीं लेकिन जो चलते हैं तय कर के कि उनको क्या करना है उनकी कोशिश असर लाती अवश्य है । समाज के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर चिंतन करते हैं क्या होना चाहिए क्या है जो नहीं होता तो अच्छा होता । धन दौलत नाम शोहरत ताकत और ज़माने भर की दिखावे की खुशियां हासिल कर भी अपने भीतर का इक ख़ालीपन कुछ अधूरापन कोई कमी महसूस होती है जो बेचैन करती है । ऐसा लगता है तो हम भटकते रहे हैं हीरे मोती नहीं कंकर पत्थर जमा करते रहे हैं । ये दुनिया जैसी हमको मिली थी हमने उसको सजाया संवारा और शानदार बनाया है या फिर हमने सिर्फ खुद अपने मतलब अपनी ख़्वाहिशों अपनी ज़रूरत अपनी अधिक सब पाने की हवस को पूरा करने की खातिर बर्बाद किया है । थोड़ा विचार करते हैं समझते हैं किसी के समझाने से नहीं अपने ख़ुद के विवेक से जानते हैं वही मन आत्मा सबसे बड़ा गुरु है । 
 
कल इक धर्म उपदेशक की बात सुनी बड़ी अच्छी लग रही थी मगर विवेक से समझा तो वास्तविकता बिल्कुल विपरीत थी जो धर्म अंधविश्वास पर कटाक्ष करता है उसी की बात करने वाले ख़ुद मनघडंत कथाओं से सुनने वालों को सच छोड़ गुमराह कर रहे हैं । जिनको अपने धर्म की सबसे ज़रूरी बात को ध्यान रखना ज़रूरी नहीं लगता और अपनी बात का प्रभाव जमाने को अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं वो धर्म की नहीं किसी और राह की बात कर रहे हैं । आपको सैर करना घूमना अच्छा लगता है रमणीक स्थल आलीशान महल ऊंचे पर्वत सागर घाटियां देखते हैं अपनी फोटो करवाते हैं और खूब पैसा समय खर्च कर आनंद का अनुभव कर लौट आते हैं । बस कुछ यादें रहती हैं कि हमने देखा था वो खूबसूरत जहां का दृश्य दिलकश नज़ारा लेकिन वो हमारा था नहीं होता भी नहीं बस किसी मृगतृष्णा की तरफ़ दौड़ते रहते हैं । कभी सोचा तक नहीं कि जिस घर जिस गांव जिस शहर जिस बस्ती में रहते हैं उसे ही अपनी कोशिश से अच्छा बनाने का प्रयास करते तो अधिक ख़ुशी मिलती जो वास्तविक होती हमेशा साथ रहती सिर्फ यादों में तस्वीरों में नहीं । अपनी कल्पनाओं को साकार करना बड़ी लगन का काम होता है लेकिन कठिन होता है हम कठिनाईयों से भागते हैं ।  
 
हमारे पथपदर्शक बने नायक धर्म उपदेशक शासक राजनेता प्रशासक धर्म उपदेशक कहते भले कुछ भी रहते हों लेकिन उन्होंने कभी दुनिया देश समाज को वास्तव में पहले से अच्छा बनाने को कुछ नहीं किया है बल्कि ये लोग इंसान नहीं बन पाये और भगवान बनने कहलाने होने का कार्य करते रहे । जिनको देश की जनता की भलाई करनी चाहिए जिस के लिए उनको कितना कुछ मिलता है उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया होता तो आज समाज की हालत इतनी खराब नहीं होती । जिस देश समाज में अन्याय अत्याचार ज़ुल्म ढाने वाले शान से रहते हैं और आम नागरिक अपने अधिकारों न्याय की याचना करते करते ज़िंदा रहते मरता रहता है वो देश समाज कोई आदर्श नहीं हो सकता है । चिंता की नहीं शर्म की बात है कि जिनको शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा और सुरक्षित रहने का वातावरण बनाना था उन्होंने उल्टा किया है और भय और अराजकता का आलम बना दिया है उस पर उनको अपने अपराधों अपने गुनाहों पर कोई अफ़सोस भी नहीं बल्कि अपना गुणगान करवाते हैं खुद को मसीहा साबित करते हैं । हमारा दोष है कि हम ऐसे लोगों को अपना आदर्श समझने लगे हैं उनके अनुचित कार्यों को अनदेखा कर उनकी जयजयकार करते हैं । आख़िर में शाईर साहिर लुधियानवी जी की इक रचना से कुछ शेर पेश करता हूं ।

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है  ,     

इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है ।

ये राह कहां से है ये राह कहां तक है  ,             

ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है । 

इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया , 

इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है । 

क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते ,    

इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है । 

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का ,   

जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है । 

इंसान समझता है वो इल्म का सागर है ,    

उस ने अभी दुनिया  के इक कतरे को जाना है । 





 

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