जुलाई 07, 2023

POST : 1689 मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया [ पहला भाग ]

  मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया 

                            दिसंबर 1977 नई दिल्ली । 
 
                                    [  पहला भाग  ]

बचपन से शौक रहा कुछ कविता कुछ शायरी जैसे अल्फ़ाज़ लिखना जबकि मेरी परवरिश जिस माहौल में हुई ये उस में ये संभव नहीं था । कुछ भी साहित्य संगीत का वातावरण नहीं था न मैंने पढ़ा किताबों में न कहीं से कोई प्रेरणा ही मिली किसी से कभी स्कूल कॉलेज से कहीं से भी । अंतर्मुखी स्वभाव था सोचता रहता कुछ किसी से कहना नहीं अच्छा लगता था । 1973 में कॉलेज से निकलकर हिसार में कुछ महीने रहा कुछ सीखने को कुछ वरिष्ठ डॉक्टर्स के अधीन इक चैरिटेबल ट्रस्ट के अस्पताल में उन दिनों बहुत व्य्स्त रहता अस्पताल में लेकिन इक कमरे में अकेला रहता था साथी बचपन से इक बैटरी वाला रेडियो और कागज़ कलम पुरानी कुछ कापियां कुछ बिखरे पन्ने पेटी में ढेर सारे ख़त तमाम दोस्तों पहचान वालों रिश्ते नाते से कभी कहीं राहों में बस में मुलाकात बातचीत हुई ऐसे अजनबी लोगों से पत्राचार यही सामान था मुझे कोई ख़ज़ाना लगता था । तब बिखरी हुई चीज़ों को समेटा और इक नोटबुक पर एकत्र किया तरतीब से । दिसंबर 1977 में इक डायरी खरीदी जिस पर यही शुरुआत में लिखा हुआ है । बाद में डायरी लिखना इक आदत बन गई और कितनी डायरियां अलमारी में संभाल कर रखी हुई हैं उन से कुछ को यहां लिखने की कोशिश है । 
 
1 अक्टूबर 30 1973 ( हिसार ) 
 
हर मोड़ से फिर की शुरू मैंने ज़िंदगी 
ख़त्म नहीं हुए हैं ज़िंदगी के मोड़ अभी । 
 
3 नवंबर 1973 
 
अश्कों को सजाए पलकों पर इंतज़ार है 
मिल जाए पैग़ाम कोई आएगा कोई कब । 
 
आए हो उस ज़िंदगी का हाल पूछने जब 
कुछ भी बचा नहीं है लुटा था जो वो सब ।  
 
तुझे दर्द की कसम है मेरे दोस्त मेरे हमदम 
इस दिल में रहता है इक तेरे दुःख का ग़म  ,
घबरा न ज़िंदगी से इन हादिसों के डर से 
इक तेरी ख़ुशी की खातिर तो जी रहे हैं हम ।  
 
4 अप्रैल 1974 
 
अपनी कहानी का हमको कोई नाम नहीं मिलता 
सुनेगा कौन हाल ए दिल कोई इंसान नहीं मिलता ,
हमको अभी तलक है उसका इंतज़ार उम्र बाकी 
अजनबी दुनिया है सारी इक मेहरबान नहीं मिलता ।  
 
अश्क़ है कि आहें या ज़िंदगी हसीं है 
देखते हैं सब पर करीब कुछ नहीं है  
मंज़िल की कुछ खबर न कोई रास्ता ही 
कुछ पल ठहरने को सायबान नहीं मिलता ।  

है प्यार न किसी से कोई रंज न कोई गिला है 
नहीं कोई वफ़ा की उलझन न कोई बेवफ़ा है 
ये ऐसा इक जहां है ढूंढने पर जिस में मुझे 
मुझको खुद मेरा अपना निशान नहीं मिलता । 

8 मार्च 1975 

दिल में फिर इक उदासी छाई हुई है क्यों
कहीं दूर से मुझे पुकारा है जैसे किसीने । 

29 मार्च 1975 

हमसफ़र कोई नहीं अब सफ़र करना नहीं 
जीने की खातिर रोज़ हमको तो मरना नहीं । 

इक आंसू में हमारे तेरा जहां बह जाएगा 
वर्ना क्या तेरे लिए अब तलक रोते न हम । 

ज़रा सी आहट पे उठ जाती हैं जो , क्या
अब भी तेरी निगाहों को इंतज़ार है मेरा । 
 
मुस्कुराने लगे ज़रा तो पलकों पे अश्क़ आ गए 
हमको तुमसे तो कहना अपना अफ़साना न था । 
 
31 मार्च 1975 
 
अलविदा ज़िंदगी मुझको सफ़र करने भी दे 
रोके रहेगी कब तलक यूं मुझे तू प्यार से । 
 
28 अप्रैल 1975 
 
छू कर अश्क़ों को मेरे देखते हैं बार बार 
उनको यकीं मेरे रोने का कभी आया नहीं । 
 
9 जून 1975 
 
यह दोस्ती ये प्यार न रास आएगा हमें 
वर्ना ये सारा जहां तो बेवफ़ा होता नहीं । 
 
शिकवा करें तुम से या अपने नसीब से हम 
मुंह फेर लेता है वही देखें जिसे क़रीब से हम । 
 
12 अगस्त 1975 
 
फिर तेरी याद आई हमने पुकारा तुमको 
बेचैन बेकरार दिल दे दो सहारा हमको ,
 
बरसों के पुराने वादे भूल गए तुम जिनको 
होंगे नहीं जुदा कभी कह दो दोबारा हमको ,
 
आकर कभी तन्हाई में बाहें गले में डालो 
उन बंद पलकों में अब हमको  छुपा लो ,
 
या फिर से नाम लिख मरमरी से हाथों पे 
लबों से छू कर हमको मिटा ख़ुद ही तुम ।  

23 अगस्त 1975   वफ़ा 

है अपनी वफ़ा का अंदाज़ कुछ ऐसा दोस्त 
बेवफ़ा बन जाता है जिस से वफ़ा करते हैं । 

हम उनकी बेवफ़ाई का शिकवा न कर दें 
घबरा के दिलाते हैं वफ़ा का यकीन वो । 

आज़मा कर मेरी वफ़ा पशेमान हो जाते हैं सब 
हम तो हर दम तैयार हैं इस इम्तिहां के लिए । 

जिसकी वफ़ा की खातिर हम अब तक जी रहे हैं 
उसी बेवफ़ा की खातिर काश हम मर ही जाते । 

वफ़ा वफ़ा की ख़ातिर की नहीं हमने कभी 
वर्ना खुद को भी हम इक बेवफ़ा ही समझते । 


पलकों पे रोक लेते हैं आंसुओं को अपने 
देख कर कहीं वो शिकवा न समझ बैठें । 

दर्द - ए -दिल तुमने हमें क्योंकर दिया 
हमने नहीं मांगा था ये नज़राना आपसे । 


तुम बिन न कभी जी सकेंगे हम 
तुम बिन जी के क्या करेंगे हम 

तुम बिन यादों में खोये रहते हैं 
तुम बिन यादों का क्या करेंगे हम । 

20 मार्च 1976 

इक चाह न होगी पूरी कोई अपना हो 
लगती है हर ख़ुशी मुझे जैसे सपना हो । 
 
 

 





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