जुलाई 19, 2018

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग-5 डॉ लोक सेतिया

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग-5 

                                           डॉ लोक सेतिया 

  कल की कहानी ने भी निराश किया और आज की कहानी ने भी। अच्छा लिखना काफी नहीं है सच्चा लिखना पहली शर्त है सार्थक लेखन की। आप दर्शकों को भटका रहे हैं , दस मिंट की कहानी के बाद सवाल करते हैं वो क्या करेगा या करेगी और क्या करना उचित होगा क्या अनुचित। लोग दो तरह से राय देते हैं , पहले ज़मीर और नैतिक मूल्यों की बात , और दूसरे साहूलियत और सुविधा के हिसाब से अनुचित को उचित ठहराते हैं। और अंत में आप अनुचित किये हुए को उचित साबित कर कहानी का सुखद अंत करते हैं मगर उसी के साथ सभी आदर्शों विचारों को कत्ल कर देते हैं। अगर यही कहानी सुनानी है तो फिर ऐसी कहानी कोई मार्गदर्शन नहीं कर सकती , राह दिखलानी थी मगर ये रास्ते से भटका देती है। माफ़ करें जो भी लिखने वाले हैं मगर ऐसा करना क्या इसलिए उचित है कि आपको समाज की वास्तविकता नहीं दर्शानी और केवल पैसा बनाना है। 

कल बुधवार 18 जुलाई की कहानी की बात :-

कोई पत्नी अपनी चाहत पूरी नहीं होने पर अपने पति की आमदनी कम होने के कारण अपशब्द बोलकर घायल करती रह सकती है। अंत में केवल तलाक की नौबत आने और तलाक के कागज़ फाड़ देने के बाद गलती मान लेना काफी है वो भी जब पति भविष्य में उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने का वादा करे। इतना आसान है हर किसी का आमदनी बढ़ा लेना , फिर तो हर कोई अंबानी सलमान खान अमिताभ बच्चन या अक्षय कुमार बन जाता। उधर पुरुष भी पत्नी से नफरत और अपमान मिलने के बाद किसी महिला सहयोगी से साथ पाकर पत्नी को छोड़ उसके साथ विवाह की बात सोचता है जिसके विवाहित होने का पता ही नहीं। फिर जब वो भी इनकार कर देती है क्योंकि अपने अपाहिज पति को नहीं छोड़ना चाहती और केवल साथ चाहती है खुश रहने को। इतना काफी नहीं है घर वापस आने पर अपने दोस्त की अपनी पत्नी से बातें सुनता है जो उसे तलाक लेने के बाद अपनाने की बात कहता है और बताता है उसके पास वो सब है जो वो अपने पति से चाहती है। मगर जब वो उसको छूना चाहता है तो थप्पड़ मार कर बताती है कि उसे सब अपने पति से चाहिए किसी और से नहीं। माना पति के साथ ईमानदार है मगर वास्तविक प्यार कभी अपमानित नहीं करता है , जहां आदर नहीं वहां प्यार भी नहीं हो सकता। कहानी का संदेश कुछ भी नहीं। 

आज बृहस्पतिवार की कहानी की बात :-

गुरु अपना ईमान बेच देता है अपनी संस्था चलाने की खातिर और किसी गरीब को छोड़ अमीर के बेटे को आगे बढ़ाने का काम करता है। बाप की दौलत से ऊपर पहुंच वही अपने गुरु को आईना दिखाता है मगर खुद भी उसी की राह पर चलकर सौदेबाज़ी करता है। जो बोया वही काटना पड़ता है मगर अंत में आत्मग्लानि के चार डायलॉग बोलने से कुछ भी वास्तव में सही नहीं होता है जैसा दर्शकों को समझने को कहा जा रहा है। आज भी कम काबिल ऊंचे पायदान पर खड़ा है और अपने से अधिक काबिल को अवसर देने का काम कर कहना चाहता ही नहीं कह रहा है कि मैं तो हमेशा से उसे बढ़ावा देना चाहता था ये गुरु जी आपकी गलती है जो नहीं बढ़ सका। लेकिन गुरु को बिकने का दोषी समझने वाला खुद आज उसी व्यवस्था को दोहरा रहा है। 
शायद बाद में दर्शक सोचते होंगे इन सब बातों से सार क्या निकला। कभी जीवन में ऐसा दोराहा आये तो उनको किस तरफ जाना चाहिए किस तरफ नहीं। यहां तो कोई अंतर ही नहीं है , दोराहा घूम कर फिर इक दोराहे पर ला खड़ा करता है।


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