जुलाई 15, 2018

POST : 838 वो आये घर हमारे खुदा की कुदरत है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  वो आये घर हमारे खुदा की कुदरत है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

    वो आये घर हमारे खुदा की कुदरत है , हम कभी उनको कभी अपने घर को देखते हैं। 

 स्वागत है आपका मेरे शहर में महोदय। जब कोई घर आता है तो हंस कर अभिवादन करते हैं। ऐसे में अपने दुःख दर्द की बात नहीं करते। आंसू आने लगें तो छुपा लेते हैं रोक लेने चाहियें फिर भी छलकने लगें तो कहना चाहिए आंसू ख़ुशी के हैं। आंसू का कोई रंग नहीं होता जाति धर्म नहीं होता आंसू ही हैं जो सुख दुःख दोनों समय काम आते है। आज देश के राष्ट्रपति आ रहे हैं कई दिन से खबर पढ़ते रहे है क्या क्या प्रबंध किये जा रहे हैं। आज सुबह सैर पर गया तो देखा सड़कें धुली धुली हैं , फॉयर बिर्गेड की गाड़ियां खड़ी हैं कई तैयार और पुलिस की जिप्सियां वाहन दौड़ते फिर रहे हैं। अनाज मंडी के पीछे किसान विश्राम भवन की बंद दिखाई देने वाला गेट खुला हुआ है साफ सफाई की जा रही है चार पांच गाड़ियां पोर्च में खड़ी हैं जिन पर वीआईपी का लेबल चिपका हुआ है। मुझे भी कोई ऐतराज़ नहीं है आपकी शानो शौकत पर , आपके घर रौशनियां हों मगर हर गरीब के घर भी इक छोटा सा दिया भी जलता रहना चाहिए। सबको अपने हिस्से का आसमान मिले। मुझे नहीं लगता असली किसान उस भवन में आराम करना तो क्या कभी अंदर भी जा सके होंगे।  मगर सरकारी लोग किसान से लेकर कुछ भी होने का लाभ उठा सकते हैं।  उनकी मर्ज़ी।   
 
                          अभी कुछ शेर दुष्यंत कुमार के याद करते है। 
 
आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन , इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं। 
 
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में , हम नहीं हैं आदमी , हम झुनझुने हैं।
 
हरियाणा की सरकार चाहती है हम निराशा की बातें छोड़ आशावादी बातें करें। उनके आये दिन आयोजित तमाशों को देख कर आनंद लें खुश होकर ताली बजाएं। यथार्थ की बात करना निराशा नहीं होता है , अंधेरा है जब तक नहीं स्वीकार करोगे दिया कैसे जलाओगे। 
 
मत कहो आकाश में कुहरा घना है , ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। 
 
दोस्तो ! अब मंच पर सुविधा नहीं है , आजकल नेपथ्य में सम्भावना है। 
 
आजकल सवाल करना जुर्म है। आपकी देशभक्ति कटघरे में खड़ी कर देते हैं। हम इतना तो कह सकते हैं दुष्यंत की तरह। 
 
इस अंधेरे में दिया रखना था , तू उजाले में ही बाल आया है। 
 
हमने सोचा था जवाब आएगा , एक बेहूदा सवाल आया है।
 
बस दो शेर और दुष्यंत कुमार के सुनाकर फिर अपनी बात कहता हूं। नहीं कहूंगा तो खुद अपना ज़मीर मुझे मुजरिम ठहराएगा। घबरा गया सच लिखने से , डर गया डराने से। फिर ज़िंदा क्यों है। 
 
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो , कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो। 
 
किसी भी कौम की तारीख़ के उजाले में , तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो। 

आज सब चाक चौबंद है राष्ट्रपति जी और उनकी धर्म पत्नी जी को आना है। हमेशा सब चाक चौबंद क्यों नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे आज ही हर बात हो सकती है सब उपाय करने चाहिएं। क्यों सब उपाय हमेशा नहीं हों कि केवल किसी वीवीआईपी के आने पर महीनों सब ठीक करना पड़े वो भी अगले दिन फिर से खराब होने देने के लिए। जब कोई किसी बड़े पद पर होता है तो अजीब अजीब ख्वाहिशें दिल की पूरी करता है , कोई सेना के लड़ाकू विमान की सैर करता है कोई समंदर में युद्धपोत पर जाता है। जब जंग हो क्या उनको करना है ये सब , रहीसाना शौक हैं जो देश का कितना धन खर्च कर पूरे किये जाते हैं। इनका अर्थ कुछ भी नहीं। मगर ये तमाम लोग गरीबी की बात ही नहीं करते बल्कि दावा करते हैं खुद इन्होने गरीबी देखी है। देखी थी माना मगर क्या आज गरीबी का दर्द याद है , वो भूख वो बेबसी वो मौत से बदतर जीना। अगर याद है तो आप राष्ट्रपति हों प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री या संसद विधायक या किसी भी बड़े पद पर आसीन लोग , किस तरह इतने संवेदनाहीन हो जाते हैं कि करोड़ों लोगों की भूख मिटा सकता है इतना खाते हैं और उससे ज़्यादा उड़ाते हैं। ये देश के गरीबों की रोटी से खेलने वाले कौन हैं , क्या देश सेवक हैं , देशभक्त हैं।




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