किसे हम दास्तां अपनी सुनायें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "
किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायेंकि अपना मेहरबां किसको बनायें।
कभी तो ज़िंदगी का हो सवेरा
डराती हैं बहुत काली घटायें।
डराती हैं बहुत काली घटायें।
यहाँ इन्सान हों इंसानियत हो
नया मज़हब सभी मिलकर चलायें।
नया मज़हब सभी मिलकर चलायें।
सताती हैं हमें तन्हाईयां अब
यहाँ परदेस में किसको बुलायें।
यहाँ परदेस में किसको बुलायें।
हमारा चारागर जाने कहाँ है
कहाँ जाकर ज़ख्म अपने दिखायें।
कहाँ जाकर ज़ख्म अपने दिखायें।
जिन्हें जीना ही औरों के लिए हो
बताओ फिर ज़हर कैसे वो खायें।
बताओ फिर ज़हर कैसे वो खायें।
चमकती है शहर में रात "तनहा"
अँधेरे गावं इक दिन जगमगायें।
अँधेरे गावं इक दिन जगमगायें।
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