जून 08, 2025

POST : 1983 शोध प्यार के फूलों पर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      शोध प्यार के फूलों पर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

पीएचडी के लिए इक छात्र ने ये विषय चुना है उसने अपनी नानी से कभी इक कहानी सुनी थी कोई पौधा होता था जिस पर प्यार के फूल खिलते थे और समय आने पर खूब फलता फूलता था दो तरह के फल लगते थे भाई बहन कहलाते थे ।  पूरी की पूरी कहानी दो लोगों के प्रेम से विवाहित जीवन को दर्शाती थी लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्यार के फूलों के खिलने का मौसम और मुहब्बत के गुलशन में बहार आने की बात को लेकर छात्र को ज़रूरी लगा तो उसने तलाश करना शुरू किया कहीं ऐसा कोई फूल खिला दिखाई दे जाये । छात्र ने अपने मामा जी से पूछा आपको माता जी ने कुछ पहचान बताई होगी अगर याद है तो मुझे आसानी होगी । मामा जी कुछ दार्शनिक प्रकार के थे उन्होंने समझाया नानी दादी की कहानियां वास्तविक जीवन में नहीं मिलती हैं उनकी काल्पनिक सपनों की दुनिया हुआ करती थी जिस में परियां झरने पंछी चिड़िया फूल बंदर रहते थे । बाद में कुछ कवियों ने कविता लिखी प्रेम को पवित्र भावना बतलाया तो कुछ लिखने वालों ने प्यार को त्याग का नाम देकर उसे भगवान बनाया । प्यार वास्तव में धरती पर नहीं पैदा हुआ था कोई उस को स्वर्ग से लेकर आया और धरती को बड़ा खूबसूरत बनाने को अपना मकसद बनाकर जीवन बिताया । जाने कहां से कोई आया जो नफरतों की आंधी साथ लाया उसने प्यार के फूलों को मसला कुचला उस गुलशन को तबाह बर्बाद किया और अपना इक महल बनाकर खिलखिलाया । 
 
कितनी किताबें पढ़ कर दुनिया भर में प्यार की निशानियां ढूंढ ढूंढ देख समझ कर शोधग्रंथ बनाया है अभी तक उसको ढाई आखर का मतलब नहीं समझ आया है । खुद उसने इस बीच किया प्यार और धोखा खाया है खुद जिस को नहीं समझ पाए दुनिया को समझाया है । कभी लोग नासमझ थे नादान थे दुनियादारी से बिल्कुल अनजान थे कोई अपना था न ही पराया था जिस किसी ने बात की सभी को अपनाया था । प्यार क्या होता नफरत कैसे कोई नहीं जानता था घर गली गांव बस्ती सभी की बात सच है हर कोई मानता था । झूठ बोलना पाप कहलाता था हर आदमी ईमान से रखता नाता था । मगर इक दिन किसी वीराने में कोई चमकदार चीज़ नज़र आई थी बस उसी देख नीयत डगमगाई थी अपनी सभी ने बतलाई थी जानते हैं क्या थी वो चीज़ झूठ की परछाई थी । अचानक किसी ने किसी को पास बुलाया था सभी को बताना हमारी बनाई हुई है ये उसको अपना साथी बनाया था । प्यार के रिश्ते की शुरुआत झूठ से होती है ये हक़ीक़त है सच बोल कर कोई किसी से मुहब्बत नहीं कर सकता है , मुझे दुनिया में सबसे अच्छे आप लगते हो तुमसे बढ़कर सुंदर कोई भी नहीं है । प्यार का पहला सबक यही है दो लोगों को लगा दुनिया की सबसे कीमती चमकीली चीज़ हमको मिली है और दोनों उसी को संभालने संवारने लगे रहे उम्र भर । 
 
दुनिया सतरंगी नहीं बहुरंगी अतरंगी है , हर कोई उसी तरह की चीज़ पाने की कल्पना करने लगा और किसी ने कहा है फ़िल्मी डायलॉग है ' इतनी शिद्दत से मैंने तुम्हें पाने की कोशिश की है , की हर ज़र्रे ने मुझे तुमसे मिलाने की साज़िश की है ।  कमाल ऐसा हुआ कि जिसको जो मिला उसने उसे ही मुहब्बत नाम दे दिया और ऐसे सभी को जैसी पसंद थी वैसी मुहब्बत की कली मिलती रही खिलती गई । प्यार ही प्यार हर तरफ सभी की झोलियां भरी हुई थी , लेकिन आपसी संबंधों में बीच में तकरार आई और कभी प्यार कभी तकरार होना विवाहित होने की निशानी बन गया । लोग बदले दुनिया बदलती रही और इंसान की चाहत भी फ़ितरत भी बदलतने लगी लोग आपस में नहीं ज़माने की बातों को चाहने लगे , इस जगह आने तक कितने ही ज़माने लगे । दौलत शोहरत ताकत हासिल करने को प्यार को ठोकर लगाने लगे ऐसे लोग अपनी कोई नई दुनिया अलग बसाने लगे कभी उस तरफ कभी इस तरफ आने जाने डगमगाने लगे ज़रा सी हलचल से डगमगाने लगे ।    
 
शायद कोई दर्पण था जिस ने दुनिया को उलझाया हर शख़्स ने देखा खुद पर इतना प्यार आया मुझसे प्यारा और न कोई गीत गुनगुनाया । भगवान ने इक जैसा हर इक इंसान बनाया मगर अपनी शक़्ल देख सभी को महसूस हुआ वही विधाता है अहंकार ने खुद को ख़ुदा से बड़ा समझा कोई ये खेल नहीं समझ पाया । किसी को सत्ता ने पास बुलाया कुर्सी पर बैठा है आदमी जहां से हुआ पराया उसने चाबुक से शेर को पिंजरे में कैद कर दिखाया तो उसका जादू सभी को बहुत भाया । शासक का तराज़ू था दौलत और मुहब्बत दोनों पलड़ों पर रख कर देखा दौलत का पलड़ा भारी था जितने भी बार आज़माया । प्यार बिकने लगा कीमत चुकाकर बोली पर ख़रीददार ख़रीद लाया , इक दिन किसी ने मुहब्बत का बाज़ार लगाया क्या अपना क्या पराया । प्यार एक से नहीं हज़ार से हो सकता है जिस किसी को जितना मिले थोड़ा है पाकर फिर खो सकता है । आगे बहुत कुछ है पर आखिरी अध्याय पर आते हैं आपको अंजाम ए इश्क़ की व्यथा बताते हैं । 
 
ये इक्कीसवीं सदी है प्यार मुहब्बत इक खिलौना है , हर कोई समझता है करना है नहीं होना है , कौन मुकाबिल है क्या पाने की आरज़ू है सोच समझ कर साफ साफ बात करते हैं । भविष्य की रूपरेखा क्या क्या शर्त है पहले जानते समझते हैं तभी इक दूजे के होते हैं । समझदार हो गए हैं चलता फिरता आजकल लोग इश्तिहार हो गए हैं । आदमी औरत नहीं प्यार जानवर से होने लगा है मत पूछना ज़ालिम बोझ कैसा सर पर ढोने लगा है । वो पहले सी मुहब्बत कोई मांगता नहीं है हर कोई व्यस्त है इतनी फुर्सत ही किसी को नहीं है , जब तक साथ निभाए कोई उपकार समझना है उम्र भर कौन देता साथ ये नाता बेकार समझना है ।  अब कभी सूखे हुए फूल किताबों में नहीं मिलते हैं कागज़ के फूल जिधर देखो खिलते हैं बिखरते हैं ज़रा से झौंके से तेज़ हवा के आंधी तूफ़ान का हाल ना पूछो , शोध ने किया जो कमाल ना पूछो । बस इतना समझ लो ये सबक पढ़ना लाज़मी है , मिल जाएं आप गर तो किस बात की कमी है । 
 
 भारत में प्रेम के रुझान: मैक्एफ़ी ने बढ़ते एआई घोटालों और नकली डेटिंग ऐप्स  के बारे में चेतावनी दी | टेक न्यूज़ - बिज़नेस स्टैंडर्ड
 
 

जून 06, 2025

POST : 1982 दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी अच्छी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी अच्छी  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

चोरी चोरी चुपके चुपके नहीं सोशल मीडिया पर दुनिया भर के सामने लड़ना झगड़ना  ऐसे धनवान लोगों का और ताकतवर देशों के शासकों का सभी ने देखा रात भर जागकर । देसी भाषा में इसको खुला खेल फर्रुखाबादी कहते हैं , अमेरिका में क्या कहते हैं नहीं मालूम । लेकिन मैं उनकी तरह कोई विश्लेषण नहीं करने वाला जिनको सब पता होता है और सभी कुछ का वीडियो बनाकर यूट्यूब चैनेल पर शेयर करना होता है वो भी सबसे पहले और सबसे शानदार । हमने सरकारों की बादशाहों की पैसे वाले धनवान भाई बहनों से लेकर कारोबार में टक्कर देने वालों की कौन बड़ा कौन छोटा को लेकर टकराव की चर्चा बहुत सुनी हैं । मैंने कभी उनकी दोस्ती को दोस्ती नहीं समझा और न ही दुश्मनी को दुश्मनी समझने की भूल की है । बड़े लोगों की बातें कभी बड़ी नहीं होती हैं कभी देखना सोचना समझना तो गली के शहर के चौक पर झगड़ते हुए छोटे छोटे बालक जैसे लगते हैं झट से बाप दादा मां बहन पर उतर आते हैं कभी हाथ नहीं लगाते कायर बन कर दूर से धमकियां देते हैं । 
 
हमको तो अपनी बात कहनी है हमने सब कर के देख लिया है न तो दोस्त बनाकर दोस्ती करना अच्छा है न ही दुश्मन बनाकर दुश्मनी करना अच्छा है । हमको तो हमेशा महसूस हुआ है कि जिनको न दोस्ती करने का सलीका आता है न ही दुश्मनी निभाने का तरीका आता है उन से रिश्ता नाता क्या पहचान तक नहीं रखनी चाहिए । मगर ये अपने बस की बात नहीं क्योंकि जब भी अजनबी अनजान लोगों से मिलते हैं जान पहचान होती है बातें मुलाकातें होती हैं तब बातों बातों में प्यार भी होता है किसी से किसी से तकरार भी हो जाती है । वास्तव में ज़िंदगी की अधिकतर परेशानियां ऐसे ही मिलती हैं कभी बाद में सोचते हैं कि काश उनसे पहचान क्या परिचय ही नहीं होता तो बेहतर था । तेरी दुश्मनी से बढ़कर तेरी दोस्ती ने मारा , हमने तो ढूंढ लिया है किसी मझधार में कोई किनारा , सभी जीता किये मुझसे मैं सभी से बाज़ी हारा ।  
 
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों , मुहब्बत हुई शादी हुई अब आप कुछ भी कर लें कभी अजनबी की तरह जीना संभव नहीं है । पहली बात तो अलग होना ही आसान नहीं है और कितनी मुसीबत से बचने को समझौता कर लेते हैं । अलग अलग होने पर भी ख़लिश रहती है , परवीन शाकिर कहती है , ' कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने , बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की । शायद ही कुछ लोग मिलते हैं जिनको आता है जियो और जीने दो का ढंग अन्यथा अधिकांश जीते हैं न जीने ही देते हैं । मीरा भी कहती है जो मैं इतना जानती प्रीत  किये दुःख होय , नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत ना करियो कोय ।  मुझे लगता है जितनी भी कहानियां हैं उन में दोस्ती और दुश्मनी को लिखने वालों ने अपनी सुविधा के लिए उपयोग किया है जब चाहा कोई दोस्ती की परिभाषा बनाई और किसी ने दोस्ती निभाने को अपनी जान की बाज़ी लगा दी । कभी दुश्मनी को इस हद तक बढ़ाया की नफ़रत की इंतिहा कर दी , मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे ऐसे शब्द कहने वाला कभी वास्तव में प्रेमी रहा हो यकीन नहीं किया जा सकता । मगर लेखक को गीत लिखना था इसलिए इक ज़रा सी गलतफ़हमी से इतना बदगुमां हो गया , क्या ऐसे नायक से नायिका फिर कभी नाता कायम रखना चाहेगी , ज़िंदगी में जाने कब कोई ऐसा दृश्य दिखाई दे जाये । कभी किसी अगली कहानी में नायक पछताता है गलतफ़हमी का शिकार होकर अपनी पत्नी से अलग होने के बाद , गाता है ज़िंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम वो फिर नहीं आते । आज दोस्ती दुश्मनी के गीतों के बोलों को याद करना भी अनावश्यक लगता है । बहुत देर लगती है समझ आने में कि ये दोनों ही सिर्फ पागलपन हैं कुछ भी और नहीं हैं किसी से दोस्ती अच्छी न किसी से दुश्मनी अच्छी । अमेरिका के शासक की दोस्ती दुश्मनी हो चाहे अपने देश के शासक की यारी दुश्मनी हमको क्या मतलब है क्या हासिल होगा कल उनके रिश्ते बदल जाएंगे हमको क्या पता कौन कितने पानी में है । आज कुछ शेर अपनी ग़ज़ल से दोहराना चाहता हूं । 
 
 
 

हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) 

 

 डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।


तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।


मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।
 
 
 Mira bhajans: Rhythm divine

जून 05, 2025

POST : 1981 आप जनाब आप हैं हम क्या हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     आप जनाब आप हैं हम क्या हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ लोग पहली कतार में बैठते हैं , उनको पिछली कतार में बैठना मंज़ूर नहीं तो कुछ मंच पर विराजमान होते हैं उनको सामने बैठना पड़ता है मगर तब जब मुख्य अध्यक्ष या कुछ बेहद  विशिष्ट सम्माननीय अथिति घोषित किया जाता है । भूलता नहीं भूलना भी नहीं चाहिए इक बार मुझे खुद जिन्होंने आमंत्रित किया जो कार्यक्रम का मंच संचालन भी कर रहे थे मुझे पहली कतार की पिछली कतार में खुद बिठाया और कुछ देर बाद मंच से ही कहा था कि उस कतार में केवल पत्रकार बैठ सकते हैं आप उठ जाएं और कोई दूसरी जगह तलाश करें । अभी तक मुझे समझ नहीं आया कि मेरी जगह कहां है या शायद कहीं भी नहीं है । महफिलें आपकी , और तन्हा हैं हम , यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये । खैर पुरानी बातों को भुलाना आता है उचित है कि नहीं मगर मैंने उस घटना से सबक ज़रूर सीखा लेकिन दोस्त से संबंध कायम रखा शायद उनको भी अपनी गलती का एहसास हुआ तभी अगले दिन मेरे दरवाज़े के बाहर खड़े होकर कहा था भीतर आने की इजाज़त है । मैंने हमेशा दोस्तों को फिर से गले लगाया है ये तजुर्बा कितनी बार हुआ है । करीब चालीस साल पहले किसी मशहूर लेखक प्रकाशक के घर पर मिलने चला गया था , तब कोई फोन पर आने से पहले बताना संभव ही नहीं होता था । मिलकर इक ग़ज़ल लिखी थी उनको भी भेजी थी ।  कुछ साल बाद मोबाइल फोन पर उनसे बात हुई शायद उनको पहली मुलाक़ात भूल गई थी , मैंने फिर उनसे जाकर मिलना उचित नहीं समझा था , कहा था कभी मुमकिन हुआ तो मिलेंगे । पहले उस हादिसे पर लिखी ग़ज़ल फिर मालूम नहीं आगे क्या कहना है । 
 
 

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) 

    डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे
बिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे ।

रख दिये  इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे ।

था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे ।

हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे ।

ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे ।

आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे ।

महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे ।    
 
मुझे सच नहीं पता कि मेरी जगह कहां है मैं कौन हूं लिखता हूं मेरी चाहत है विवशता भी है बिना लिखे कुछ बेचैनी रहती है । कभी कुछ लोग समझते हैं कितनी किताबें छपवाई हैं कितने ईनामात सम्मान पुरुस्कार मिले हैं किस किस तरह से शोध किया है प्रयोग किये हैं साहित्य को समर्पित किया है जीवन अपना । देश में कभी विदेशों में कभी बड़े बड़े आयोजनों में कितनी यात्राएं साहित्य अकादमी की सदस्यता उनके साथ जुडी हुई लंबी सूचि है जिस तरफ मैंने कभी इक कदम भी नहीं बढ़ाया । जाने की चाहत ही नहीं बल्कि बचता हूं कभी किसी ऐसे प्रलोभन का शिकार होकर भटक नहीं जाऊं । लेकिन अचानक किसी ने अपना परिचय दिया और इक किताब जिस में सिर्फ उनकी शख़्सियत का घोषित संक्षिप्त परिचय है । मेरे लिए उनका नाम भी लेना शायद अनुमति लेनी चाहिए कभी कोई कॉपीराइट का विषय नहीं बन जाये । अभी कुछ दिन पहले किसी ने अपना इक ग्रुप बनाया ताकि प्रदेश में रहने वाले लिखने वालों की जानकारी इक पुस्तक में शामिल की जा सके । किसी ने कुछ विचार प्रकट किये तो उन्होंने बड़ी ही तल्ख़ी से जैसे उनको नहीं सभी को डांट दिया अर्थात मेरी मर्ज़ी जो चाहे करूं किसी को कुछ बोलने का अधिकार नहीं , ऐसे लोग खुद को इतना बड़ा और महान मानते हैं कि किसी से सलीके से पेश नहीं आते । 
 
अच्छा है मैंने कभी ऐसा होना नहीं चाहा बड़ा साहित्यकार कथाकार इत्यादि इत्यादि ।  सच कहूं तो कितने ही ऐसे लोग हैं जिनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या बड़ी है पाठकों की शायद कम ही होगी । अधिकांश मैंने उनके लेखन में किसी मकसद का अभाव अनुभव किया है सिर्फ़ लिखने को लिखना कागद कारे करना होता है । तब अजीब लगता है जब कोई खुद ही अपने आप को कोई ऐसा विशेषण देने का कार्य करता है जानते हुए भी कि उसका वास्तविक किरदार बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है । हमने कितने महान रचनाकारों की बातें उनकी अनुपम कृतियों को लेकर जाना है समझने का प्रयास किया है लेकिन उन में किसी ने खुद को कुछ ऐसा मानकर प्रयास किया हो मनवाने का कभी नहीं सुना किसी से बल्कि विनम्रता पूर्वक खुद को हमेशा साहित्य का उपासक या छात्र ही बतलाते रहते थे ।
 
 पुरानी नहीं साहिर लुधियानवी की ही बात है जिन्होंने  कहा  ' मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी कहानी है , पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है । कल और आएंगे नग्मों की खिलती कलियां चुनने वाले ,   मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले । हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की , आज उगती है कल कटती है । जीवन वो महंगी मदिरा है जो कतरा क़तरा बटती है । सागर से उभरी लहर हूं मैं सागर में फिर खो जाऊंगा , मिट्टी की रूह का सपना हूं मिट्टी में फिर सो जाऊंगा । कल कोई मुझको याद करे क्यूं कोई मुझको याद करे , मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बरबाद करे । वो भी इक पल का किस्सा थे मैं भी इक पल का किस्सा हूं , कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूं । पल दो पल में कुछ कह पाया इतनी ही सआ'दत  काफ़ी है , पल दो पल तुमने मुझको सुना इतनी ही इनायत काफ़ी है ।  
 
   Main Pal Do Pal Ka Shair Hoon | Sahir Ludhianvi | Geet | Kabhi-Kabhi -  YouTube
 

जून 04, 2025

POST : 1980 तस्वीर लगाई है संग-संग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

             तस्वीर लगाई है संग-संग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

यहां आज उन तस्वीरों का ज़िक्र नहीं है जो दिन महीने मौसम देख कर बदलते रहते हैं क्योंकि उनका कोई हिसाब नहीं और कौन है जो दिखावे को ऐसा नहीं करता , दिखावे की ज़रूरत ही तभी पड़ती है जब वास्तव में आप में कुछ होता नहीं है । इस में खेल त्यौहार धर्म से देशभक्ति क्या संविधान लोकतंत्र तक की बात होती है जिन्होंने शपथ उठाई होती है सभी से न्याय करने पक्षपात नहीं करने की उनको निभाना कब आता है । ये मगर कुछ अलग विषय है हर कोई किसी भी जाने माने व्यक्ति साथ मिलता है तो इक तस्वीर बनवाता है । राजनेता वर्ग की मज़बूरी है उनको अपने आका को माई बाप बताना होता है ख़ास हैं उनसे करीब हैं ये भ्र्म फैलाना होता है । लेकिन इधर देखते हैं अपनी फेसबुक पर कितने ही लोगों ने शासक वर्ग किसी राजनेता से बड़े अधिकारी संग अपनी तस्वीर लगाई है क्या आपको मालूम है कौन अच्छा है किस में क्या बुराई है । कल किसी हिस्ट्रीशीटर की फोटो बड़े राजनेता संग मंच पर अभिवादन करते नज़र आने पर हंगामा होने लगा सोशल मीडिया पर तभी देखा जो सच लिखते हैं खुद उन्होंने झूठे के सामने हाथ जोड़ते हुए शान से तस्वीर बनवा कर कवर फोटो सजाई है । किसी बड़े रचनाकार साथ मंच सांझा किया उसकी याद संजोना ठीक है मगर किसी बड़बोले नेता जिस की बात का कोई भरोसा नहीं क्या कर बैठे कब पता नहीं उनसे दूर रहते तो लगता आपको समझ है झूठ को सच नहीं समझते हैं लेकिन आप तो शोहरत पाने को तरसते हैं क्या जीते हैं कि ज़िंदा होकर भी मरते हैं । 
 
लिखते कुछ हैं अपनी बात से मुकरते हैं किस बात का डर है इतना क्यों डरते हैं । चलो आज मिलकर खुद आईने में अपनी सूरत देखते हैं समाज को दिखलाते हैं आईना मगर सामने आईना हो तो घबरा कर अपनी शक़्ल अजीब लगती है जितना भी बनते सजते संवरते हैं । कैमरा आपको नचाता है पोज़ बदलने से क्या किरदार बदल जाता है हमने देखा है जनाब यही काम करते हैं दिन में कितने लिबास बदलते हैं लोग इनकी इस अदा को क्या समझते हैं उनकी शोहरत से लोग जलते हैं । कुछ दिन पहले देश की राजधानी में ख़ास आयोजन हुआ साहित्य के बदलाव और बदलाव के साहित्य विषय को लेकर । यूट्यूब पर देखा वहां कुछ भी नहीं बदला है वही बड़े छोटे का बढ़ता अंतर वही सर झुकाना वही औपचरिकता निभाते हुए जितना बताना उस से अधिक छुपाना । कोई ग़ज़ल कहता था मुझको ये मंज़ूर नहीं आदमी आदमी में इतना फ़र्क नहीं होना चाहिए आज आचरण में दूसरा ही तौर दिखाई दिया , जब आप ख़ास बन जाते हैं तब साधारण जैसे नहीं रह पाते हैं । चर्चा जिस विषय पर करनी थी वही पीछे रह गया शायद और शान ओ शौकत क्या सजावट क्या बनावट से चलते चलते बड़ा आदर सत्कार क्या लज़ीज़ खाना था कितना खूबसूरत नज़ारा था बस मलाल था कुछ घड़ी के मेहमान है लौट कर अपने घर जाना था , अपना उस महानगर में कहां कोई ठिकाना था । अब उन तस्वीरों से दिल बहलाया करेंगे यारों को झूठे सच्चे किस्से सुनाया करेंगे ।   
 
सरकार ने चुनकर कुछ सांसदों को विदेशी दौरों पर भेजा था , दुनिया को अपना पक्ष समझाना था हमको आतंकवाद का अर्थ बताना था । उनके फोटो वीडियो सोशल मीडिया पर छाये हैं उन्होंने क्या गीत गाकर सुनाये हैं महफ़िल में झूमे हैं खूब नाचे हैं सैर सपाटे किये हैं घूम कर दुनिया लौटे हैं ख़ाली है दामन बस कुछ उपहार कीमती मिले हैं असली मकसद का क्या हुआ कोई नहीं जानता है कितने घने गहरे उनके साये हैं । हमने कैसा चलन चलाया है तस्वीरों में हर कोई छाया है जाने कैसी प्रभु की माया है सब को भरमाया है जिसे देखते हैं अपना हुआ पराया है । आधुनिक युग का यही इतिहास है देखने में कोई कैसा भी है तस्वीरों में क्या बात है रात दिन है दिन अंधियारी रात है ।  हमने कही है ग़ज़ल में जो अपनी बात है दो ग़ज़ल हैं उसी में अपनी शह है सबकी मात है । 
 
 1 

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।

बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।

हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।

आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।

खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं । 
 
 2 

हम तो जियेंगे शान से ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से
गर्दन झुकाये से नहीं ।

कैसे कहें सच झूठ को
हम ये गज़ब करते नहीं ।

दावे तेरे थोथे हैं सब
लोग अब यकीं करते नहीं ।

राहों में तेरी बेवफा
अब हम कदम धरते नहीं ।

हम तो चलाते हैं कलम
शमशीर से डरते नहीं ।

कहते हैं जो इक बार हम
उस बात से फिरते नहीं ।

माना मुनासिब है मगर
फरियाद हम करते नहीं ।

 तारों भरा आसमान, फिर भी रात काली क्यों होती है? - BBC News हिंदी

जून 03, 2025

POST : 1979 ख़तरनाक हैं ख़िलौने ( हास- परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     ख़तरनाक हैं ख़िलौने ( हास- परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

यही गलती विधाता से हुई थी इंसान रुपी खिलौने बनाये थे अपनी दुनिया को सजाने को , उसी आदमी ने भगवान की बनाई खूबसूरत दुनिया का क्या हाल किया है । जिस दिन से इंसान ने ईश्वर को चुनौती देना शुरू किया तभी से भगवान इक सामान बन गया और इंसान भगवान का भी भगवान बन गया । खिलौने बनाने की शुरुआत दोनों ने मिट्टी से ही की आदमी खिलौना था भगवान भी खिलौना बन गया है , अंजाम मिट्टी का मिट्टी होना है । आपको लग रहा होगा क्या दकियानूसी बात कर रहा हूं , नहीं बड़ी महत्वपूर्ण बात है और आज इस से ज़रूरी कुछ भी नहीं है । दुनिया में जंग का आलम है ऐसे में किसी ने अजब ग़ज़ब ढाया है खिलौनों का बाज़ार हर तरफ छाया है । ड्रोन जिसे हमने इक खिलौना समझा था उस ने अपना परचम लहराया है ।  ड्रोन कितने का बनता है , फाइटर प्लैन कितने का कौन बड़ा कौन छोटा है परिभाषा उपयोगिकता से समझ आती है कुछ लाख से बना इक खिलौना हज़ारों करोड़ खर्च कर बनाये लड़ाकू विमान और बंबों की वर्षा करने वाले जेट विमानों को ध्वस्त कर सकता है । हम चांद छूने की ख़्वाहिश पूरी भले कर ली हो लेकिन अभी तक खुद सैनिक लड़ाकू विमानों का इंजन नहीं बना पाये सभी कलपुर्ज़े विदेश से मंगवा कर देश में जोड़ने को ही कहा हम आत्मनिर्भर हो गए हैं और जब आवश्यकता पड़ी तो उनके तरफ देखने लगे जिन से महंगे विमान खरीदे थे मंगवाए थे लेकिन तकनीकी जानकारी बकाया थी ' उधार की खाई आगे कुंवा पीछे खाई ' कहावत याद आई ।
 
हमने भी देश में समाज में कुछ कीमती सामान बनाये हैं , लोकतंत्र कितनी महंगी कीमत चुकाकर लाये हैं । संसद विधानसभा संविधान न्यायपालिका बड़े कीमती गहने हैं कितना मोल चुकाया है जनतंत्र की चादर पर दाग़ ही दाग़ हैं खोकर आज़ादी पछताए हैं । इतने ऊंचे भव्यतापूर्ण संस्थानों का भी हुआ यही हाल है लूट भ्र्ष्टाचार की राजनीति से लोकतंत्र घायल और बेहाल है , सांसद विधायक मंत्री प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा व्यवस्था तक असली कुछ भी नहीं बचा है सभी नकली मिलावटी माल है ।  राजनेताओं से प्रशासनिक सरकारी अधिकारियों विभागों का बुना हुआ ऐसा जाल है जिस में ख़ास लोगों की मौज है साधारण जनता बेबस और बदहाल है । सत्ता के चेहरे पर नज़र आती जो लालिमा है भूखी नंगी जनता की खून पसीने की गाड़ी कमाई है लूटी है सत्ता की बेहयाई है । सियासत से लेकर रणनीति कूटनीति सभी को खेल तमाशा बना दिया है , इतना बहुत है आज ख़ामोश रहना निज़ाम की चाहत है वर्ना मुसीबत है । 
 
एक मुसाफ़िर एक हसीना फिल्म का गीत है रफ़ी जी की आवाज़ है शायर हैं रिज़वी जी  : -
 
हमको तुम्हारे इश्क़ ने क्या क्या बना दिया 
जब कुछ न बन सके तो तमाशा बना दिया । 
 
काशी से कुछ गरज़ थी न काबे से वास्ता 
हम ढूंढने चले थे मोहब्बत का रास्ता 
 
देखा तुम्हारे दर को तो सर को झुका दिया ।  
 
दिल की लगी ने कर दिया दोनों को बेकरार 
दोहरा के दास्तां ए मोहब्बत फिर एक बार 
 
मजनूं हमें और आपको लैला बना दिया । 
 
निकले तेरी तलाश में और खुद ही खो गए 
कुछ बन पड़ी न हमसे तो दीवाने हो गए 
 
दीवानगी ने फिर तेरा कूचा दिखा दिया । 
 
जलवों की भीख फेंकने वाले की खैर हो 
पर्दा हटाके देखने वाले की खैर हो 
 
बनके भिखारी इश्क़ ने दामन बिछा दिया ।  
 
 
 Indias top 10 formidable weapons - Agni, K-9 Vajra, Rafale... भारत के 10  खतरनाक हथियार जिनके आगे बेबस हो जाएगा पाकिस्तान - Indias top 10 formidable  weapons render Pakistan defenseless with their
 

जून 01, 2025

POST : 1978 ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है
इश्क़ की हर दास्तां खामोश है ।

बस तुम्हीं करते रहे रौशन जहां
तुम नहीं , सारा जहां खामोश है ।

क्या बताएं क्या हुआ सबको यहां
चुप ज़मीं है , आस्मां खामोश है ।

झूमता आता नज़र था रात दिन
आज पूरा कारवां , खामोश है ।

तू हमारे वक़्त की , आवाज़ है
किसलिए तूं जाने-जां खामोश है । 
 
दस साल पुरानी कही ग़ज़ल से शुरुआत की है , जाने क्यों आज एहसास हुआ कब से हमने बातचीत करना छोड़ दिया है । शोर फ़िल्म की बात याद आई है नायक जिस आवाज़ को सुनने को बेताब रहता है जब उस संतान की आवाज़ वापस आती है तो खुद फिर हादिसे में उसका सुनना चला जाता है । ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है , मगर हम सभी गूंगे बहरे नहीं हैं फिर क्या हुआ जो हमने बोलना छोड़ दिया है । अक़्सर सोचता रहता हूं किसी से मिलकर नहीं तो फोन पर ही बाहर रहते हुए भी बात करूं । स्मार्ट फोन पर हज़ार नाम हैं दुनिया भर से परिचय होने का झूठा प्रमाण है असल में शायद कोई हमको जानता है शायद ही किसी को हम जानते हैं । फिर भी कुछ लोग हैं जिनसे बात की जानी चाहिए कभी हुआ करती थी घंटो की बातचीत लैंडलाइन फोन पर , घर दुकान पर मिलना बात करना जीवन का हिस्सा था । कब कैसे ये हो गया कि हम भूल गए संवाद रखना कितना महत्वपूर्ण है , हुआ ऐसे कि लोग व्यस्त होने से अधिक व्यस्तता का प्रदर्शन करने लगे । शायद जिस ने फोन किया है उसे कोई विशेष बात बतानी हो , बिना सोचे फोन काटने लगे और संदेश भेजने लगे अभी ख़ाली नहीं बाद में फोन करता हूं । कभी ऐसा भी नहीं होता और कभी कोई फोन उठाते ही पूछता कुछ ख़ास बात है कोई कारण या काम है तो बताओ । ऐसा सिर्फ पहचान वाले नहीं बेहद करीबी समझे जाने वाले लोग भी कहने लगे । आदमी आदमी से बात नहीं करता हर शख्स अपने फोन पर जाने क्या क्या देखता ढूंढता फिरता है , जिस बेजान चीज़ में कोई अपनत्व नहीं इक वही अपना लगता है बाक़ी सब पराये लगते हैं , बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी । 
 
ऐसा कदापि नहीं कि किसी को फुर्सत नहीं होती थी , बल्कि अधिकांश अनावश्यक कार्यों में किसी ख़ास मकसद से समय बिता रहे होते थे बस उनकी प्राथमिकता कोई और होते थे । मोबाइल फोन ने जाने किस तरह हम सभी को मतलबी बना दिया था बात करने की कीमत मिनटों में पैसे से दिखाई देती थी खुद का नहीं फोन का टॉकटाइम कीमती लगता था , अब भले अनलिमिटेड कॉलिंग मुफ़्त मिलती है कुछ सौ रूपये का रिचार्ज करवाने से लेकिन घंटों सोशल मीडिया पर और रास्ते चलते भी बात करने लगे हैं तब भी संपर्क जिन से कुछ हासिल होता है उन्हीं से रखते हैं । शुभकानाएं हर दिन देते हैं व्हाट्सएप्प पर कोई कुशलक्षेम नहीं पूछते हैं । औपचारिकता निभाते हैं किसी से कोई हाल चाल सांझा नहीं करते हैं । आज भी चाहता था किसी से बात करूं पहले की तरह बिना किसी मतलब या ज़रूरत लेकिन किस से करनी है से भी पहले सोचना पड़ा बात क्या करनी है कुछ विशेष है नहीं बस दिल चाहता है । दिल चाहता है कभी न बीतें चमकीले दिन , दिल चाहता है हम न रहें कभी यारों के बिन । इक घबराहट सी होती है कि जिसे भी फोन मिलाया उधर से सवाल आया कैसे याद आई कुछ ख़ास बात है तो बताएं तब क्या जवाब देंगे । 
 
आपको याद है राजेश खन्ना की फ़िल्म थी आनंद जिस में आनंद किसी भी अनजान अजनबी व्यक्ति को हमेशा मुरारीलाल नाम से बुलाता और लोग हैरान होते । अमिताभ बच्चन कहते हैं पहले देख लिया करो तब राजेश खन्ना बताता है कि किसी मुरारीलाल नाम वाले को वो जानता ही नहीं , ये तो किसी से दोस्ती करने बात करने का इक तरीका है । लेकिन इक दिन कोई उसी तरह मिल जाता है और आनंद को जयचंद कहकर बुलाता है । जब राजेश खन्ना अमिताभ बच्चन को बताता है कि उसे मुरारीलाल मिल गया है तब जॉनी वॉकर कहते है कि उसका नाम भी मुरारीलाल नहीं , ईसाभाई सूरतवाला है जैसे राजेश खन्ना का आनंद है । कभी सोचा नहीं था किसी से अचानक यूं इक बार मुलाक़ात हो सकती है पहचान होने से कितनी लंबी बात हो सकती है लेकिन ऐसा वास्तव में हुआ कल ही ऐतबार करना कौन क्या ये फिर कभी कभी अगर मिलना हुआ तो । हां कोई नाम लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी , मुलाक़ात हुई क्या क्या बात हुआ आपको बताता हूं ।    
 
कल अचानक कुछ अलग बात हो गई , जैसे कोई काल्पनिक कहानी हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी हो गई हो ।अपने नगर से बाहर आया हुआ हूं कुछ दिन पारिवारिक काम से । अजनबी शहर है कुछ जान पहचान वाले हैं भी तो बड़े शहर में मिलना जुलना कठिन लगता है साथ सभी की अपनी अपनी दिनचर्या होती है किसी से मुलाक़ात की बात नहीं हुई । कुछ दूर इक पार्क में सुबह सैर पर जाता हूं थोड़े अनजान चेहरे दिखाई देते हैं कुछ पहचान सी लगने लगी है । सड़क के उस छोर पर इक घर थोड़ा अलग लगता रहता जिस के बाहर इक नाम लिखा हुआ है कभी कोई रहने वाला नज़र नहीं आता था , कल सुबह बड़ा सा पुराने ढंग का लोहे का गेट दोनों तरफ खुला हुआ था और इक व्यक्ति खड़ा था । शायद उन्होंने ही पहल की और पूछा अभिवादन कर आप क्या यहीं रहते हैं , मैंने बताया जी नहीं मैं हरियाणा में रहता हूं यहां बेटा रहता है आना जाना रहता है । उन्होंने बताया वो भी किसी और शहर में रहते हैं यहां घर बनाया हुआ है कभी कभी आते हैं । कुछ सोच कर उन्होंने घर में भीतर बुलाया ये कहते हुए कि चाय पीते हैं मिल कर बैठते हैं , इनकार नहीं किया आग्रह को देख कर । 
 
  बड़े से प्लॉट में आखिरी कोने में आवास बनाया हुआ था अधिकांश जगह हरियाली पेड़ पौधे और बड़ा सा फैला हुआ आंगन , बताने लगे उनको ऐसा ही पसंद है । मैंने भी बताया कि हमारा घर भी कुछ इसी तरह आसपास हरियाली है सार्वजनिक पार्क हैं सामने वास्तव में ऐसा माहौल शानदार लगता है । उन्होंने अपने इक सहायक को दूध लाने को कहा चाय बनाने को , पता चला उनकी चाय पीने की आदत ही नहीं है । मैंने कहा आप रहने दें अथवा चलें हमारे निवास चाय पीते हैं । चाय के लिए दूध आने चाय बनने में कितना समय लगा बिल्कुल पता ही नहीं चला , पहली बार की मुलाक़ात में कैसे खुलकर इतनी बातें हुईं मालूम नहीं । पुराने गाने सुनाने लगे जाने कितने गीत और वास्तव में मधुर आवाज़ में जबकि कहने लगे उनको संगीत की कोई जानकारी नहीं है । मैंने बताया कभी मैं हॉस्टल में दिन भर गाता - गुनगुनाता रहता था अब गला ख़राब हो गया है । लेकिन उन्होंने कोई गीत सुनाने को कहा तो मैंने बताया कुछ दोस्त कभी शाम को मिलकर ऐसे ही घंटों सुनते सुनाते थे । अजीब लगेगा लेकिन कोई डेढ़ घंटा हम बैठे ऐसे ही जाने कितनी बातें करते रहे सामाजिक से व्यक्तिगत साधारण बातें जिनका कोई ख़ास महत्व नहीं होता है अपनी पसंद जैसे उनका रोज़ शाम को फुटबॉल खेलना इत्यादि । शायद मेरे लिए इक खूबसूरत याद बन कर रहेगी उनसे मुलाक़ात । 
आखिर में इक ग़ज़ल से ही अपनी बात रखते हैं , ग़ज़ल जनाब महशर काज़िम हुसैन लखनवी जी की है ।
 

मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते , कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते ।   

 

जल गया ख़ुश्क हो के दामन- ए - दिल , अश्क़ आंखों से और क्या बहते ।

 

बात की और मुंह को आया जिगर , इस से बेहतर यही था चुप रहते । 

 

हम को जल्दी ने मौत की मारा , और जीते तो और ग़म सहते । 

 

सब ही सुनते तुम्हारी ऐ ' महशर ' , कोई कहने की बात अगर कहते ।  

 
 
 खामोश अल्फ़ाज़
  

POST : 1977 कहां है सीमा उलझन आन पड़ी ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया

  कहां है सीमा उलझन आन पड़ी  ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया 

हद के भीतर रहना ज़रूरी है , माना बात कहना मज़बूरी है लेकिन आपसी तालमेल रखना है दिल से दिल मिलते नहीं हमेशा ख़त्म नहीं होती बीच की दूरी है । किस सीमा तक संयम रखना है कब कहां धैर्य और साहस की बीच की इक रेखा है हमने क्या समझा है कितना देखा है । दोस्ती हमको निभानी है अपनी अहमियत बचानी है आपका दर्द समझना है हमसे भी खफ़ा खफ़ा ज़िंदगानी है । अभी तलक हमने यही नहीं जाना है ज़ुल्म सहना है हर किसी का बस किसी तरह नाता बचाना है ये कैसा याराना है हमको खोना है उनको पाना है । आज सच को सच कहना है झूठ से आज टकराना है , छोड़ना हर इक बहाना है । हमने प्यार मुहब्बत में दरिया समंदर पार किए कितने भंवर कितने तूफ़ान रास्ते में खड़े थे टकराये भी कभी डूबे भी दुनिया ने भी अपनी नफरतों की इंतिहा कर दी हमको इक कश्ती बादबानी दी और हवाओं को छीन लिया । 
 
हद के अंदर हो नज़ाक़त तो अदा होती है , हद से बढ़ जाये तो आप अपनी सज़ा होती है , इतनी नाज़ुक ना  बनो , हाय इतनी नाज़ुक ना बनो । जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे , ज़िंदगानी का कड़ा बोझ सहोगी कैसे । तुम जो हलकी सी हवाओं में लचक जाती हो , तेज़ झौंकों के थपेड़ों में रहोगी कैसे । ये ना समझो कि हर इक राह में कलियां होंगी , राह चलनी है तो कांटों पे भी चलना होगा । ये नया दौर है इस दौर में जीने के लिये , हुस्न को हुस्न का अंदाज़ बदलना होगा । कोई रुकता नहीं ठहरे हुए रही के लिए , जो भी देखेगा वोह कतरा के गुज़र जायेगा । हम अगर वक़्त के हमराह ना चलने पाये , वक़्त हम दोनों को ठुकरा के गुज़र जायेगा । फिल्म वासना , साहिर लुधियानवी का गीत याद आया है , खुद को वक़्त के अनुसार बदलना है वक़्त कभी किसी की खातिर नहीं बदलता है । दर्द जब हद से बढ़ जाता है कहते हैं दवा बन जाता है मगर ऐसा अभी हुआ तो नहीं दर्द की हद क्या है उम्र भर कौन कैसे इंतज़ार करे । भरी दुनिया में क्या कोई नहीं जो हमको समझे और प्यार करे । तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम । बस और नहीं ।  
 
शराफ़त की हद होती है , सियासत ने सभी सीमाओं का उलंघन किया है लोकतंत्र को छलनी कर जनता को देश समाज को बर्बाद कर संविधान न्याय को बदहाल किया है । शासकों प्रशासकों के गुनाहों का कौन हिसाब करेगा क्या भगवान सभी ज़ालिमों को माफ़ करेगा अगर ऐसा हुआ तो किस दुनिया में कोई इंसाफ़ करेगा । सरकारों धनवानों और प्रशासनिक अधिकारियों कर्मचारियों की मनमानी और अपना कर्तव्य नहीं निभाने की शैली पर रोक नहीं है जैसा चाहा था हमारा देश वैसा लोक नहीं है । दोस्ती प्यार रिश्ते संबंध से सामाजिक आचरण तक सभी से हर शख़्स परेशान निराश है क्योंकि सभी ने मर्यादाओं नैतिक मूल्यों का परित्याग कर ख़ुदग़र्ज़ी का दामन थाम लिया है किसी को डुबोकर खुद अपनी नैया पार लगाने का दौर है । आखिर इक ग़ज़ल सुनाता हूं ।  
 
 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं ( ग़ज़ल )  

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं
पौंछकर आंसू सभी , अब मुस्कुराना चाहता हूं ।

ज़िंदगी भर आपने समझा मुझे अपना नहीं पर
गैर होकर आपको अपना बनाना चाहता हूं ।

दोस्तों की बेवफ़ाई भूल कर फिर आ गया हूं
बेरहम दुनिया को फिर से आज़माना चाहता हूं ।

किस तरफ जाना तुझे ,अब रास्ते तक पूछते हैं
बस यही कहता हूं उनको इक ठिकाना चाहता हूं ।

आप मत देना सहारा ,जब कभी गिरने लगूं मैं
टूट जाऊं ,बोझ खुद इतना उठाना चाहता हूं ।

आपसे कैसा छिपाना ,जानता सारा ज़माना
सोचता हूं आज लेकिन क्यों दिखाना चाहता हूं ।

नाचते सब लोग "तनहा" तान मेरी पर यहां हैं
आज कठपुतली बना तुमको नचाना चाहता हूं । 
 
 तु प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम - Tu Pyar Ka Sagar Hai Teri  Ek Boond Ke Pyaase Hum - YouTube

मई 31, 2025

POST : 1976 चल उड़ जा रे पंछी ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

       चल उड़ जा रे पंछी   ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

क्या क्या नहीं किया इक अपना आभामंडल बनाने को , धुंवा बना के फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको , मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको । ग़ज़ल सुनकर सुकून नहीं मिलता मत छेड़ ये तराने , याद आते हैं गुज़रे हुए ज़माने । घौंसला बड़े प्यार से सजाया था हर किसी को दिखाया था , किसी की बुरी नज़र लग गई है ,  अचानक सब तिनके बिखर गए हैं आशियाना वीरान है पंछी भूला उड़ान है ।  ऊंची हवेली की बुनियाद कमज़ोर थी इक झौंका हवा का आया और उड़ा कर आकाश में लाया और धूल बनाकर मिट्टी में मिला दिया । किसी ने खरी बात कह दी कि आज तक कोई भी परियोजना समय पर पूरी नहीं हुई , कोई इतना बेपरवाह हो सकता है भला कितना प्यारा ख़्वाब टूट गया हर सपना अधूरा है । कौन समझाए उनकी योजना क्या है उनको जिस जिस परियोजना को भी करना था ऐसी सभी योजनाएं समय पर नहीं निर्धारित वक़्त से पहले पूर्ण हुई हैं । हर चुनाव से पहले उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया है । इतिहास को बदलने से तोड़ने झुठलाने तक इक अपना आधुनिक इतिहास बनाया है । परों से नहीं हौंसलों से उड़ान होती है दिल का परिंदा है जान है तो जहान है आह भी कभी इक तूफ़ान होती है । आपने खुद को पिंजरे में कैद रखा कभी अपने परों को तोला ही नहीं , सीखा नहीं उड़ना उड़ाना बना बैठे पहाड़ पर अपना ठिकाना जब ज़मीं पर गिरने लगे तब समझे अफ़साना । 
 
अचानक ऊंट पहाड़ के नीचे आया है हर तरफ बढ़ता हुआ साया देख कर घबराया है । मुझे अपने दोस्त जवाहर लाल ठक्कर जी का शेर याद आया है , इक फूल को छुआ तो सब कागज़ बिखर गए , तुम कह रहे थे मेरा बहारों का शहर है । दिन भर तरसता ही रहा कोई बात तो करे , मुझ को कहां खबर थी इशारों का शहर है । मतलबी यार आपने बनाये आपके रास्ते पर फूल बिछाए देख कर गले लगाकर झूले झूले सावन के गीत गाये अपनी शान पर कितना इतराये जब बुलाया कठिन घड़ी में तो छोड़ गए साथ सभी हमसाये । महफ़िलों में रौनक नहीं है अकेलापन है दिल घबराता है विदेश जाना क्या अपने घर से निकलना छोड़ दिया है ।  धीरे धीरे मचल ए दिल ए बेकरार कोई आता है , कोई आहट नहीं है उनको इक डरावने ख़्वाब ने जगाया है , माथे पर पसीना आया है आने वाला कोई भी अपना हो चाहे बेगाना हो किसी को नहीं अपने जहां में बसाना है , हर अपना लगता बेगाना है । आपका खेल ख़त्म हुआ बदलने लगा ज़माना है हमने बनाया था जिसे मयखाना साकी किसी और की प्यास बुझाने लगे हैं छलकते जाम थे जिन हाथों में टूटा हुआ पैमाना है । पांव जब कभी लड़खड़ाने लगते हैं ज़िंदगी के मिजाज़ समझ आने लगते हैं मदहोशी में फिर बेवफ़ा की याद आती है दर्द भरे नग्में गुनगुनाने लगते हैं । दुनिया का यही चलन है कुछ भी साथ नहीं लाया कोई कुछ भी साथ नहीं ले जाना है तेरा क्या है मेरा क्या है चार दिन का होता बसेरा क्या है , चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना । नासमझ लोग पिंजरे को अपना आशियाना समझ लेते हैं इक बोध कथा से विषय का अंत करते हैं । 
 

                    साधु और पिंजरे में बंद पक्षी ( बोध कथा )

 पहाड़ों पर सैर करते इक साधु को घाटी में कहीं दूर से आवाज़ सुनाई दी मुझे आज़ाद करो । ढूंढते हुए उसको इक पक्षी पिंजरे में बैठा ऐसा कहता मिला । मगर पिंजरा तो खुला था बंद नहीं फिर भी साधु ने भीतर हाथ डालकर उसको बाहर निकाला और आसमान में उड़ने को छोड़ दिया । अगली सुबह फिर साधु को वही आवाज़ सुनाई दी और जाकर देखा तो पाया कि पक्षी वापस उसी पिंजरे में चला आया है । उसकी आदत बन गई थी आज़ाद होने को कहना मगर खुद ही कैद होकर रहना । अब साधु ने उस पक्षी को निकाला उड़ाया और फिर उस पिंजरे को उठाकर बहते पानी में गहराई में फेंक दिया । इस तरह उसके लिए पिंजरा ही नहीं रहा वापस आने को । लेकिन आजकल जो संत साधु मिलते हैं उनके पास हमारे लिए पिंजरे हैं वो कभी हमें सही दिशा नहीं समझाने वाले । अपने विवेक से हमने ही अपने आप को स्वार्थ और खुदगर्ज़ी के पिंजरे से मुक्त करना है । घर बैठे चिंतन कर सकते हैं क्योंकि जब आपको बाहर नहीं जाना तभी अपने भीतर जाने का समय होता है । 

 
 Chal ud ja re panchi - An online Hindi story written by Jyoti |  Pratilipi.com
  

मई 30, 2025

POST : 1975 हमको मिलते हैं समाज से ( बात व्यंग्य की ) डॉ लोक सेतिया

   हमको मिलते हैं समाज से ( बात व्यंग्य की ) डॉ लोक सेतिया 

सच कहता हूं मैं चाहता हूं हमेशा से आरज़ू रही है ये नामुराद विधा छोड़ कोई ग़ज़ल कोई कविता कोई कभी इक कहानी लिखना । मुश्किल है बहुत मुश्किल तल्ख़ मिज़ाज से छुटकारा पाना , ग़ज़ल के नर्म मुलायम अल्फ़ाज़ कविता के कोमल एहसास कहानी की वो उड़ान जिसकी कोई सीमा नहीं असली मज़ा है उनके साथ जीवन जीना । मगर कैसे किया जाये क्योंकि समाज में हर तरफ फैला हुआ है ऐसा वातावरण जो कितनी ही विडंबनाओं विसंगतियों को दिखाता ही नहीं विचलित करता है चैन नहीं मिलता उसको लिखे बगैर । शायद व्यंग्यकार की विवशता है बेचैनी उसको हंसने मुस्कुराने नहीं देती न ही खुल कर अश्क़ बहाने देती है इस लिए कि रोना चीखना घबराना है हारना है लेखक लड़ना चाहता है हार नहीं मानता तभी विधा का चयन हालात की मर्ज़ी पर निर्भर है । आजकल जिधर देखते हैं सभी जैसे हैं वैसे दुनिया को दिखाई नहीं देना चाहते हैं , किरदार भले आदमी का जीना नहीं चाहते मगर कहलाना महान चाहते हैं । 
 
किताबी दुनिया में युग युग से नायक और शानदार व्यक्तित्व की परिभाषा स्पष्ट है , खुलापन , कर्तव्यनिष्ठा , बहिर्मुखता , सहमतता , विक्षिप्तता ये पांच प्रमुख गुण कहलाते हैं जो व्यक्ति के व्यवहार सोच और भावनाओं को समझने में मदद करते हैं । याद रखना ये पांच गुण उसी तरह से महत्वपूर्ण है जैसे पांच तत्वों से सृष्टि बनी है , आकाश  वायु अग्नि जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत कहलाते हैं । व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के विचारों को , भावनाओं को और व्यवहार अथवा आचरण को संगठित और स्थिर करता है । यह व्यक्ति के जीवन के अनुभवों वातावरण और सामाजिक प्रभावों से प्रभावित नहीं होने देता है। परीक्षा की घड़ी में अपने मूल्यों को बचाए रखता है तभी कोई व्यक्ति सही मायने में शानदार इंसान समझा जाता है । आपको बोझिलता महसूस होने लगी है ये सब फालतू बातें सुनने की फुर्सत नहीं है चलो बदलते हैं जो आपको पसंद आये कोशिश करते हैं ।    
 
सरकार से लेकर साधारण लोगों तक सभी की ख़्वाहिश है अपनी अलग पहचान बनाई जाए , खुद अपने को सबसे बढ़कर महान दर्शाया जाये । खुद सबसे आगे चलना है सभी को अपने पीछे लगाया जाये , बस इसी कोशिश में होता है कि धीरे धीरे इक इक कर लोग पीछे छूटते जाते हैं और कारवां बिखरता जाता है साथ कोई नहीं बचता हम अकेले रह जाते हैं । आपको यकीन शायद नहीं आएगा अधिकांश नहीं बल्कि तमाम लोग भीड़ जमा कर चलते हैं लेकिन जाना कहां है नहीं सोचते समझते बस चल पड़ते हैं कोई भी रास्ता दिखाई देता है उसी पर चलने लगते हैं । ज़िंदगी बिताने के उपरांत समझ आता है कि ये रास्ता किसी मंज़िल की तरफ नहीं जाता है , हम भटकते रहते हैं । हमारा देश लोकतंत्र राजनेता धर्म और सच के झंडाबरदार लोग लिखने वाले कुछ भी करने वाले मार्ग से भटक कर जिधर सभी जा रहे हैं भेड़चाल की तरह अनुसरण करते करते थक गए हैं । राजनीति इतनी बदली है कि सत्ता के गलियारे किसी कोठे की नचनियां से भी घटिया वातावरण भाषा और आचरण अपनाने लगे हैं । असलियत छुपाने को झूठी बतियां बनाने लगे हैं । 
 
ईमानदारी नैतिकता और सामाजिक कल्याण की भावनाओं से अपना दामन छुड़ाकर हम ऐसा समाज बना रहे हैं जिस में गधे आलाप लगाकर आदमी को समझा रहे हैं । विवेक विचार विमर्श की जगह टीवी से सोशल मीडिया तक इक बहस जारी है जिस का कोई अर्थ नहीं निकलता सिर्फ़ सर धुनते हैं दर्शक सुनते हैं । टीआरपी और अपने खुद का गुणगान करना महान मकसद हो गया है , अपने भीतर कितना खोखलापन है कोई नहीं समझता । शोर है ढोल की पोल जैसी बात है अंदर खाली है फटने का डर है । आपको इक बार फिर से अंतर बताता हूं , कविता सभी का दुःख दर्द महसूस करती है , कहानी आपको मार्ग दर्शन देती है , ग़ज़ल बड़ी कठिन है दो मिसरों में बड़ी बड़ी बात कहना । लेकिन साहित्य की ये विधायें आपको हालात से परिचित करवा समझती हैं अपना दायित्व निभा दिया है जबकि व्यंग्यकार की परेशानी ख़त्म नहीं होती वो बदलना चाहता है और इस कोशिश में खुद घायल होने को अभिशप्त है । कांटों की शैया पर व्यंग्य फिर भी चैन से अपनी बात कहता है ।  
 
 Premanand Maharaj Katha: सांप की मौत के कारण बाणों की शैय्या पर लेटे थे  भीष्म पितामह, प्रेमानंद महाराज ने बताई कथा - Premanand Maharaj Katha  Bhishma Pitamah was lying on the bed

मई 29, 2025

POST : 1974 तमाशा भी खुद ही तमाशाई भी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      तमाशा भी खुद ही तमाशाई भी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

लोग झूठी कसमें खाते हैं जानते हैं कोई नहीं मरता झूठ के सहारे दुनिया ज़िंदा है सच की राह चलती तो दो घड़ी नहीं टिक सकती ऐसे हालात हैं । वो बड़े संत महात्मा कहलाते हैं शहर में जब भी आते हैं कुछ ऐसी अलख जगाते हैं कोई नया सबक पढ़ाते हैं हम नासमझ क्या जाने ये कौन हैं जहां से आये चले जाते हैं । अदालत वालों से कहने लगे अदालत में झूठ बोलना पाप नहीं है पाप महंगा बिकता है सच नहीं बिकता झूठ बोलने से कारोबार चलता है । यही कमाल है भांप लेते हैं कहां कैसे लोग हैं जो उनको अच्छी लगेगी वही बात समझाते हैं । उस खबर के साथ इक खबर थी बड़ी अदालत की खामोश रहने की शर्त पर किसी को ज़मानत दी थी अब बात का मतलब समझाने लगे कि हमने खामोश रहने को नहीं कहा था सिर्फ़ सच नहीं बोलना है इतना फरमान जारी किया था । लेकिन सामने हैं देख सकते हो जिस ने आपत्तिजनक शब्द बोले थे हमने उसको मोहलत दे दी है हमारे तराज़ू के बाट बदलते हैं पलड़ा बराबर है कमाल नहीं समझते आप के सितारे गर्दिश में आप सितारों की चाल नहीं समझते । जिनकी बात पहले की थी कुछ साल पहले कोई बड़ी शोहरत नहीं थी हम भी उनसे मिले थे इक धर्मशाला में उनका ठिकाना था । हमने उनसे सवाल किया था इतने उपदेश धार्मिक प्रवचन होते हैं फिर समाज सुधरता नहीं खराब होता जाता है । बोले अच्छा बुरा सब नज़र की बात है इधर से कुछ उधर से कुछ नज़र आता है , लोग आते हैं सर झुकाते हैं उपदेश सुनते हैं भूल जाते हैं । मैंने निवेदन किया जब आप कथा सुनाते हैं समझाना अगर आचरण नहीं बदलते तो व्यर्थ समय गंवाते हैं । वो पहली बार सच बोल बैठे हमको वही तो बुलाते हैं पैसे ताकत वाले लोग हैं हम उनसे बचते हैं जो मूर्ख लोग टकराते हैं चूर चूर हो जाते हैं ।   
 
 बड़ी उलझन है पहले खुद सभी कुछ विदेश से मंगवाया अचानक लगा घड़बड़ हो गई अब कहते हैं विदेशी मत मंगवाओ मत खरीदो मत बेचो । हमने विदेशी सामान की होली जलाई थी अंग्रेजी हुक़ूमत देश से भगाई थी ज़रा अपने खुद की तलाशी लेना कुछ भी विदेशी रखा हो फैंक देना चाहे कितना कीमती सामान हो । जब भी भूलसुधार करनी हो पहल अपने से करते हैं । हम भारतवासी कब किसी से डरते हैं , पिछले दस सालों में विदेशी माल का आयात पहले से कई गुणा बढ़ा है और निर्यात पहले से घटता गया है । और किसी ने नहीं किया सब आपका दुनिया भर के लोगों से रिश्ता है दोस्ती है प्यार है आपने जो ग़ज़ब ढाया है जनता का जीवन डगमगाया है । चलो गांधी जी का तरीका अपनाते हैं विदेशी सामान को ख़ाक़ में मिलाते हैं । जितना भी विदेशी सामान मूर्तियां अन्य सामान बड़े बड़े महल भवन से हर कदम निशानियां हैं सभी आपकी अजब अजब निशानियां हैं । आपने क्या क्या ढंग अपनाये हैं ऊंचे दाम घटिया चीज़ें बड़े चाव से लाये हैं , अब लौट कर वापस उसी ठिकाने आये हैं लेकिन आपके अपने हैं जो उनसे बचना रिश्ते उनसे कितनी तरह निभाए हैं । नहीं उनका देश से गुज़ारा है उनको मुनाफ़ा आपसे ही नहीं सबसे प्यारा है , उनका कोई नहीं आपके बिना सहारा है । उनकी बात बदलते पता नहीं चलता पलक झपकते ही उनका तौर तरीका बदलने लगता है , उनकी झांकी निकलती है लोग फूलों की बारिश करते हैं । हमसे खरीदो सब बेचते हैं हमने देखा उनकी दुकान में कोई सामान ही नहीं वो कुछ बनाते भी नहीं मंगवाते भी नहीं फिर भी सभी कुछ का कारोबार करते हैं , आजकल वो सजने संवरने की बात कहते हैं दुल्हनों का श्रृंगार करते हैं । 
 
कोई उनकी कहानी खोज लाया है , उनका सफ़र नया नहीं पुराना है उनका मकसद बनाकर ढाना है , स्वदेशी का राग इक बहाना है । हमने कृत्रिम होशियारी से सवाल पूछा है उन में क्या क्या ख़ास स्वदेशी है जवाब सुनकर सर चकराया है उनका हर पुर्ज़ा किसी विदेशी कंपनी का बनाया है भारत में उनको मिला कर मेक इन इंडिया का ठप्पा लगाया है । असली क्या है नकली क्या है कौन परखता है समझता है उनको कुछ भी नहीं आता है सिर्फ़ उनके पास बही खाता है जिस में साहूकार क़र्ज़ बढ़ा चढ़ा कर लिखता है जो कोई वापस लौटाता है सूद समझ जमा करना भूल जाता है । देश की अर्थ - व्यवस्था चरमराई है लेकिन किसी की बढ़ी कमाई है उन साहूकारों को बधाई है अधिकांश जनता सड़क पर आई है पीछे कुंवा है आगे खाई है ।  हम बेचेंगे लाज़िम है कि हम सब बेचेंगे ये नई प्रथा आज़माई है उनकी शान है दुनिया भर में जगहंसाई है ये कैसा देश है जिस में जनता खुद तमाशा भी है खुद ही तमाशाई है । अदालत से सियासत तक तमाशा ही तमाशा है धर्म उपदेश क्या है इक बताशा है । 
 
भावार्थ : - झूठ बोलने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , मगर झूठ बोलने का सलीका किसी किसी को आता है , हमारे शहर में इक महात्मा ये कला जानते हैं मगर किसी को समझाते बताते नहीं हैं ।  
 
 जयपुर की विरासत से जुड़ा 'तमाशा', जहां नजर आती है मूछों वाली हीर और  राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर तंज कसता रांझा - Holi 2024
 
 

मई 27, 2025

POST : 1973 अच्छे लोग कहते हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      अच्छे लोग कहते हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

पिछले कुछ सालों से बहुत लोग किसी को भला बुरा कहने में हद पार कर चुके हैं , किसी को मरने के बाद बुरा साबित करना किसी को अच्छा साबित नहीं कर सकता है । आपकी महानता की बुनियाद किसी की कब्र पर कायम है तो ये आपको कितना बौना साबित करती है । वास्तव में जिनको हर शख़्स में खामियां दिखाई देती हैं कोई भी अच्छाई नहीं नज़र आती उनकी निगाह से सोच या नज़रिया तक दोषपूर्ण है उनको आईना देखने से डर लगता है ।  कभी कभी लगता है अच्छा होना किसी मुसीबत से कम नहीं है , दुनिया अच्छों को अकसर बुरा साबित करती है किसी को अच्छा समझना दुनिया ने सीखा ही नहीं । बुरा कहने के लिए साहस नहीं चाहिए और न ही खुद अच्छा होने का प्रमाण , सिर्फ आपको झूठ को भी सच साबित करने की कला आनी चाहिए जो आपको सोशल मीडिया से खूब सिखलाई जाती है ।
 
दुनिया जहान के ख़राब लोग हैं सभी , जितने भी मेरे करीब रहते हैं , तमाम अच्छे भले लोग हर दिन बस यही बात कहते हैं । पास किसी के उनके सवालों का कोई जवाब नहीं बढ़कर उनसे हुआ कोई नवाब नहीं नहीं ये सच है कोई झूठा ख़्वाब नहीं । अपनी नज़रों में हर कोई महान होता है सभी के भीतर इक मिटठू तोता है , दिल सौ बार वही दोहराता है सभी को समझाना उसी को आता है । कौन उनसे बढ़कर रिश्ते नाते निभाता है पूछना उनसे पास उनके सबका बही खाता है । बस वही शख़्स उनके दिल को भाता है जो उनकी हर बात में हां मिलाता है कौन ऐसा है जो सुर से सुर मिलाता है राग दरबारी किसी किसी को आता है । हमने चुप रहने की कसम खाई है हमारी इसी में भलाई है हम जिस कुर्सी पर बैठे हैं कटवाने को बालों को काटने वाले के पास उस्तरा कैंची है अपना नाई है । हर किसी ने उसके सामने गर्दन झुकाई है जिस किसी की हजामत उसने बनाई है चेहरे पर चमक चंपी करवाते ही आई है । साहब आपकी दाढ़ी खूब जचती है बस थोड़ी सफेदी जो आई है वही इक लट लगती हरजाई है गंजे सर की रौनक क्या बताएं अनुपम खेर आपका शायद भाई है क्या ग़ज़ब की हंसी है उसने आपसे सीखी है या किसी से चुराई है । 

हम मानते हैं सब जानते हैं आप कितने समझदार हैं चतुर सुजान हैं सयाने हैं अंधों का राज है सभी काने हैं । आपकी कम होगी जितनी भी हुई बढ़ाई है ये दुनिया क्या जाने आपने इक कसम उठाई है सामने कोई खड़ा नहीं हो सकता पीछे सभी ख़ास लोग हैं चोर चोर मौसेरा भाई है । हर ज़ुबान पर चर्चा आपका है कोई भी आप सा नहीं देखा आपके पास छाछ है सभी के लिए खुद की खातिर दूध मलाई है । आपने ऐलान किया है कि सिर्फ़ आप समंदर हैं रेगिस्तान की प्यास आपने बुझाई है मृगतृष्णा आपका हर करिश्मा है भूख गरीबी तक को शर्म आती है । धूप आपकी प्यास बुझाती है छांव दरख़्तों की घबराती है आपको ढकती है शान बढ़ाती है । बात कितनी पुरानी है शक़्ल जानी पहचानी है शान से सवारी निकलती है उसने ग़ज़ब की खूबसूरत पोशाक बनवाई है उसको सच बोलने की सज़ा मिलती है कहता है बच्चा कोई नंगा है देख लो सब कितना चंगा है । 
 
समझदारों की बात मत करना समझदारों ने दुनिया को बर्बाद किया है नासमझ लोग कुछ जानते ही नहीं कोई लाख समझाता रहे मानते ही नहीं । मतलब की बात समझदार करते हैं सच नहीं बोलना कोई खफ़ा होगा डरते हैं कभी कह बैठे कुछ तो बात का मतलब और बताते हैं झूठी बात है मैंने कुछ बोला नहीं झट से मुकरते हैं । सब अच्छे लोग कहलाते हैं मरने के बाद ज़िंदा रहकर बुरे कहलाते हैं आपको इक कथा सुनाते हैं किसी की नहीं इक कवि की बात बताते हैं । कभी किसी ने कहा था ........... मरिया जाणिये जिस दिन तेहरवां होय मैंने बीच में ख़ाली छोड़ दिया है आप चाहें तो किसी और का नहीं मेरा नाम भर सकते हैं । मैं ज़िंदा कब हूं अमिताभ बच्चन जी का डायलॉग है ये जीना भी कोई जीना है लल्लू । हास्य कविता का आनंद लीजिए । 
 
 

कवि नहीं मर सकता  ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

चला रहे हो कविवर
शब्दों के तुम तीर
आखिर कब समझोगे
श्रोताओं की पीर ।

कविता से अनजान थे लोग
बस कवि से परेशान थे लोग
क्या क्या कहता है जाने
सुन सुन कर हैरान थे लोग
कविता से बच न पाते
कुछ ऐसे नादान थे लोग ।

खुद ही बुला आए उसको
अब जिससे परेशान थे लोग ।

कविताओं से लगता डर
वो भी आखिर इंसान थे लोग 
उनको भाता नहीं था कवि 
पर कवि के दिलोजान थे लोग ।

कवि ने मरने का भी
कई बार इरादा किया
लेकिन हर बार फिर
जीने का वादा किया ।

कवि की हर कविता
फटा हुआ थी ढोल
खोलती थी रोज़ ही
किसी न किसी की पोल ।

कवि ने भाईचारे पर
कविता एक सुनाई 
हो गई जिससे घर घर में
थी लड़ाई । 

बाढ़ में डूबे हुए थे
कितने तब घर
जब लिखी कवि ने
कविता सूखे पर
कविता बरसात से
बरसा ऐसा पानी
आ गई तब याद
हर किसी को नानी ।

धर्म निरपेक्षता समझा कर
लिया कवि ने पंगा
भड़क उठा उस दिन
साम्प्रदायिक दंगा ।

प्रेम रोग पर
कविता क्या सुनाई
कई नवयुवकों ने थी
कन्या कोई भगाई ।

झेल रहे थे सभी
जब सूखे की मार
शीर्षक तब था
कविता का बसंत बहार ।

सुन ख़ुशी के अवसर पर
उसकी कविता धांसू
निकलने लगे श्रोताओं के आंसू ।

इतनी लम्बी कविता
उसने इक दिन सुनाई
मुर्दा भी उठ बोला
बस भी करो भाई ।

श्रोताओं पर कवि ने
सितम बड़े ही ढाए
जिसके बदले में उसने
जूते चप्पल पाए ।

कहीं से इक दिन
लहर ख़ुशी की आई
कवि के मरने की
वो खबर जो पाई  

कवि की मौत का
सब जश्न मना रहे थे 
बड़े दिनों के बाद
सारे मुस्कुरा रहे थे 

उसने फिर से आ
सब को डराया
जिन्दा जब वापस
कवि लौट आया ।

प्यार करते मुझसे
समझ लिया कवि ने
दुखी देखा जब
सबको वहां कवि ने ।

सब ने मिलकर कहा
करो इतना वादा
कविता तब सुनाना
जब हो मरने का इरादा
तेरे मरने की अच्छी खबर थी आई
इसी बात पर थी
ख़ुशी की लहर छाई ।

कवि ने समझाया बेकार हंसे
बेकार ही तुम सब हो रोये
कवि को मरा तभी मानिये
जिस दिन तेरहवां कवि का होय ।  

बहुत हुआ बड़ा कठिन है अब सहना 
चाहते हैं सब करना तो आपकी भलाई 
तुमने आकर हम सबकी है नींद उड़ाई 
नहीं मरने वाला कवि बोला सुनो भाई ।


कवि मरा ये जानकर खुश न होना कोय
कवि मरा तब मानिये जिस दिन तेहरवां होय ।
 
 

 Best 100+ Hindi Quotes On Life | हिंदी कोट्स
   

मई 25, 2025

POST : 1972 एक हम हैं इक ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

    एक हम हैं इक ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 
एक हम हैं इक ख़ुदा है 
बस वही सब जानता है । 

बेवजह क्यों लड़ रहे हैं 
हर किसी से ही गिला है ।
 
मौत बन जाती तमाशा 
क्या अजब ये हादिसा है । 
 
सब पुराने दोस्त अपने 
पर ज़माना अब नया है । 
 
ज़हर सबसे पूछता है 
क्या मुझे तुमने चख़ा है । 
 
नफरतों का दौर है अब 
प्यार करने की सज़ा है । 
 
बोलते हैं सच सभी बस 
झूठ ' तनहा ' बोलता है । 
 

 

मई 24, 2025

POST : 1971 विरासत अब समझ में आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

विरासत अब समझ में आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 

सियासत बोझ बनती जा रही है 
विरासत अब समझ में आ रही है । 
 
नज़र तिरछी हुई सत्ता की देखो 
लो सबको याद नानी आ रही है ।  
 
भरोसा अब नहीं कोई भी बाकी 
हक़ीक़त देख कर पछता रही है । 
 
जो शोले राख में दहके हुए हैं 
उसे वो रौशनी बतला रही है । 
 
हुआ क्या हाल ' तनहा ' देश का है
फसल को बाड़ चरती जा रही है । 
 
 

 
 

POST : 1970 किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 
 
किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे 
जहां प्यास लिखना हो पानी लिखेंगे । 
 
बुरा वक़्त आया नहीं दोस्त कोई 
की सबने बड़ी मेहरबानी लिखेंगे । 
 
वो बेदर्द ज़ालिम लुटेरे थे बेशक 
मगर थे सभी खानदानी लिखेंगे । 
 
न पूछा कभी नाम क्या आपका है 
है तस्वीर किस की पुरानी लिखेंगे । 
 
हुई थी मुलाक़ात ख्वाबों में ' तनहा '
उसे अपने सपनों की रानी लिखेंगे । 
 
 

 
 
 

POST : 1969 रहो खामोश ये फ़रमान चुप रहना नहीं आसां ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

       रहो खामोश ये फ़रमान चुप रहना नहीं आसां ( ग़ज़ल ) 

                  डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

रहो ख़ामोश ये फ़रमान चुप रहना नहीं आसां  
न जीने की भी मोहलत है यहां मरना नहीं आसां । 
 
अजब इक तौर देखा अब अदावत की सियासत है
इनायत कातिलों पर क्यों ये सच कहना नहीं आसां । 
 
लगी करने यहां सरकार कारोबार सत्ता का 
उन्हीं रस्तों गुज़रना है जहां चलना नहीं आसां ।
 
उसी को चारागर समझो दिए हैं ज़ख़्म सब जिसने 
जिसे नासूर कहते हैं उसे भरना नहीं आसां । 
 
बुझा सारे चरागों को अंधेरा कर दिया इतना 
हवाएं कह रही ' तनहा ' शमां जलना नहीं आसां ।  
 

Dushyant Kumar Selected Shayari Collection - Amar Ujala Kavya - Dushyant  Kumar Shayari:दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से चुनिंदा शेर


मई 23, 2025

POST : 1968 भरोसा टूट जाता है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     भरोसा टूट जाता है   ( व्यंग्य  ) डॉ लोक सेतिया 

 
इक फ़िल्मी दृश्य जब निर्देशक ने कहा तो लिखने वाले कहने लगे ऐसा दिखाकर हम उपहास के पात्र बन जाएंगे भला किसी हस्पताल में किसी रोगी को एक साथ तीन लोगों से लेते सीधे खून चढ़ाते देखा है । लेकिन फ़िल्मवाले जानते हैं भारतीय सिनेमा का दर्शक कभी सोचता समझता सवाल नहीं करता उसे तो यही सबसे सही प्रमाण लगता है बेटों का खून मां का खून ही है , ग्रुप मिलाने की ज़रूरत नहीं होती । लेकिन इक फ़िल्म में नाना पाटेकर दो अलग अलग धर्म वालों का खून निकलवा कर पूछता है बताओ कौन सा हिंदू का कौन सा मुस्लिम का है । हमने खून सफ़ेद होना खून का पानी होना कहावत सुनी है खून पसीना एक करना से खून भरी मांग तक कितनी कहानियां लिखी गई हैं । एक फ़िल्म में नायक नायिका की मांग में होली पर गुलाल भरता है और एक में अपने खून से किसी की मांग भर सुहागिन बना देता है । 
 
सफर फिल्म में राजेश खन्ना का डायलॉग है , नायिका नायक को निराशावादी  गीत , ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं , गाते हुए सुनकर कहती है , लगता है जैसे आज संगीत रो रहा है , यहां हवा नहीं आंधियां चल रही हैं । राजेश खन्ना खामोश खड़ा जिधर देख रहा होता है , नायिका सवाल करती है जवाब नहीं दिया ये खाली कैनवास को क्या देख रहे हो । वो कहता है मैं अपनी ज़िंदगी को देख रहा हूं जिस में कोई रंग नहीं है कोई मायने नहीं है मकसद नहीं है , दूर से तो वो कोई जुलूस सा लगता है पास जाओ तो लगता है कि मेरी अर्थी है जिसे अपने ही कांधों पर उठाए मैं चलता जा रहा हूं । तुम नहीं जानती मेरे दिल में कैसी आंधियां चल रही हैं , कितने भूचाल भीतर हैं , दिमाग़ में कैसे तूफ़ान हैं , इक आग़ की नदी है जिस में मैं बह रहा हूं । न जाने किस ज्वालामुखी के गर्भ से इसने जन्म लिया है  मैं जल रहा हूं मैं जल रहा हूं कोई लावा है जो मेरे अंदर बह रहा है । नायिका कहती है खुद अपने आप से सहानुभूति होना इक रोग है अन्यथा हमने सीखा है आशावादी रहकर कठिनाईयों से लड़ना , और वो अपने सफर पर चलने की बात कहते हुए आगे बढ़ती जाती है । 
 
 आधुनिक राजनीति ने सामाजिक वास्तविकता से भले कुछ नहीं सीखा हो फ़िल्मी तौर तरीके अभिनय डायलॉग खूब सीख लिए हैं , आजकल कुछ नेता तो इतने माहिर हैं कि लोग  उनके अभिनय को अभिनय नहीं सच समझने लगे हैं । रंग बदलती दुनिया में कभी किसी ने क्या विधाता ने नहीं सोचा होगा कि आधुनिक युग में खून भी अपना रंग रूप बदलता रहेगा कभी पानी कभी माहौल के अनुसार सिंदूर कहलाएगा ।  भाषणों में लुभावने वादे करना पीछे छूट गया लोग ऐसी बातों का उपहास करते हैं यकीन नहीं करते आजकल मनघडंत मनोरंजक बातें भी कारगर नहीं होती तो असंभव आसमान को ज़मीन पर ज़मीन को आकाश पर जैसे बदलाव की बातें तालियां बजवाती हैं । दुष्यंत कुमार की बात याद आई है , रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया , इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो । आजकल राजनेताओं की बातों में गंभीरता कम हंसी मज़ाक़ कॉमेडी जैसी अधिक होती है शायद खुद उनके पास अभाव है सोच समझ कर देश की समाज की समस्याओं का समाधान खोजने का ।  लोग आजकल यही देख कर चिंतित हैं कि किसी भी राजनीतिक दल में विचारधारा में परिपक़्वता दिखाई नहीं देती सभी उलझे हुए हैं आपसी बहस और अनावश्यक वाद विवाद में तब जब देश आशंकाओं से घिरा कोई सही मार्ग ढूंढने को बेचैन है ।

 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं , देखना ये है की अब आग किधर लगती है । सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है , हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है । जाँनिसार अख़्तर जी के शेर हैं । इक कहावत है आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास । कितना कुछ बदलने की बातें की थी सत्ता हासिल करने को बदलाव कैसा खुद ही बदलते बदलते क्या से क्या बन गए हैं ।  शायद सोचते हैं अभी तो तमाम उम्र पड़ी है जनता समाज की भलाई करने को पहले जो खुद अपनी चाहत है ख़ास लोगों को ज़रूरत है उसे पूरा होने में विलंब नहीं होने देना है । अपने आखिर अपने होते हैं साधारण लोग जन्म जन्म तक इंतिज़ार कर लिया करते हैं , ज़िंदगी में नहीं तो मौत के बाद ही सही स्वर्ग मिलने की उम्मीद रहती है । 
 
 

जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है :-   


फुर्सत - ए - कार फ़क़त  चार घड़ी है यारो , 
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो । 

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झांको ,
ज़िंदगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो । 
 
हमने सदियों इन्हीं ज़र्रों से मुहब्बत की है ,
चाँद- तारों से तो कल आंख लड़ी है यारो । 
 
फ़ासला चंद कदम का है , मना लें चलकर ,
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो ।
 
किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको , 
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो । 
 
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे ,
सिर्फ कहने के लिए बात बड़ी है यारो । 
 
उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें , यूं ही सही ,
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो ।   




मई 17, 2025

POST : 1967 ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

आज फिर ज़रूरत महसूस हुई पुराने महान शख़्सियत वाले हमारे नायकों की जो आज़ादी से पहले भी और देश की आज़ादी के बाद भी गर्व से सर ऊंचा कर दुनिया भर में अपनी महान विरासत और बौद्धिक शक्ति से विदेशी सरकारों जनता को प्रभावित कर सकते थे । आज भी स्वामी विवेकानंद से महात्मा गांधी तक इक लंबी सूचि है जिनकी कही बातों विचारों ने भारत देश का डंका विद्वता को लेकर दुनिया में बजाया था । तमाम लोग कितनी भाषाओं के जानकर और विचारों उच्च आदर्शों की खान हुआ करते थे साथ ही निर्भय होकर साहसपूर्वक अपनी बात रखकर प्रभावित किया करते थे । आर्थिक भौतिक तौर पर देश पिछड़ा होने के बाद भी शिक्षा ज्ञान और विवेकशीलता के मापदंड पर किसी भी पश्चिमी सभ्यता से शानदार साबित होते थे । अभी भी हम अपनी गौरवशाली विरासत परंपराओं की बात करते हैं जबकि अपने वास्तविक व्यवहार में हम उन सभी को छोड़ विदेशी तौर तरीके अपना कर दोहरे चरित्र वाले बन चुके हैं । अभी कुछ दिन पहले इक ऐसा आंकलन पढ़ने को मिला जिस में बताया गया था कि तीन चौथाई भारतीय किसी बाहर विदेशी यात्रा पर नहीं जाते और आधी आबादी तो देश में भी अपने आस पास तक ही जाती है । लेकिन जो करोड़ों लोग किसी भी कारण विदेशों में जाते हैं घूमने नौकरी कारोबार करने उनकी भी जानकारी सिमित रहती है कोई सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक नहीं होती है । आपने देखा होगा सुनते होंगे कुछ लोग सोशल मीडिया पर फोटो वीडियो पोस्ट करते हैं लेकिन मैंने जब भी ऐसे लोगों से चर्चा की हैरानी हुई क्योंकि सभी ने विदेश में कुछ स्थानों को देखने घूमने और मौज मस्ती मनोरंजन करने को ही महत्व दिया । वहां की सामाजिक अथवा राजनीतिक सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सजगता जैसे विषयों पर कोई जानकारी हासिल नहीं की अधिकांश जैसे गए थे उसी तरह लौटे । अधिकांश ने खुद कोई बदलाव नहीं महसूस किया और न ही अनुभव किया कि उनसे किसी देश के लोगों ने कुछ हासिल किया कभी ऐसा लगा । 

हमने कितनी बार देखा कोई प्रतिनिधिमंडल किसी देश या कई देशों में भ्रमण करने गया वहां की शिक्षा स्वास्थ्य प्रणाली कृषि आदि को समझा लेकिन देश में आकर कोई सार्थक पहल दिखाई कम ही दी है । कारण एक ही है कि हमारे समाज में पैसा सबसे महत्वपूर्ण हो गया है और जो बातें वास्तव में अनमोल हैं उनकी कीमत गौण समझी जाने लगी है । शिक्षक व्यौपार , राजनेताओं को छोड़ दें तो पुराने सामाजिक धार्मिक संतों महात्माओं ने भी जितना संभव हुआ देश विदेश जाकर समाज को जागरूक किया और सही मार्गदर्शन दिया । अब तो हमने मशीनी चीज़ों को छोड़ मानवीय आदर्शों संवेदनाओं को जीवन से बाहर कर दिया है जैसे उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं रही है । हमने रटी रटाई किताबी पढ़ाई को ही ज़िंदगी का आधार मान लिया है और अपनी बुद्धि विवेकशीलता को भुला बैठे हैं । हमको लगता है आधुनिक उपकरण संसाधन और तथाकथित विकास से समाज शानदार बन जाएगा जबकि ये सच नहीं है बल्कि जब ये सभी नहीं था और हम लोग सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तब सामाजिक पारिवारिक नैतिक रूप से कहीं बेहतर हुआ करते थे । पहले हम मानसिक तौर पर ऊंचाई पर खड़े थे अब ढलान पर हैं और लगता है फिसलते फिसलते गिरते जा रहे हैं । 
 
 भारतवर्ष इक पुरातन देश है जिसकी अपनी अलग पहचान रही है , शासक बदलते रहते हैं लेकिन किसी ने भी अपनी सभ्यता अपनी कूटनीति रणनीति को अनदेखा नहीं किया । आज़ादी के बाद हमने दुनिया के सभी गुटों से अलग गुट निरपेक्षता को अपनाया , पूंजीवाद को छोड़ धर्मनिरपेक्ष और ऐसे समाजवाद को आधार बनाया जिस में सरकार से अधिक महत्व जनता की समानता का समझा जाता है । जाने कैसे हमारी देश की सरकार पत्रकारिता और अन्य महत्वपूर्ण संगठन इक ऐसे झूठे विकास की तरफ बढ़ने लगे जिस से कुछ ख़ास अमीरों धनवानों को छोड़ बाक़ी जनता का कोई कल्याण नहीं हो सकता , जबकि उस विकास की कीमत साधरण नागरिक कितनी तरह से चुकाता है । रईसों की तिजोरी भरने लगी और जनता की हालत इस कदर खराब हुई कि सरकार 80 करोड़ लोगों को राशन बांटने को विवश हुई , राजनीतिक विचारधारा बदली और 
जनता को दाता से भिखारी बना दिया गया ।

  सत्ता अंधी और स्वार्थी बन गई है और लोग इक मोहजाल में फंसते गए हैं । ऐसा होने का कारण भी है , हमारे देश समाज में काबलियत की कोई कद्र नहीं समझी जाती है , अवसर मिलना आगे बढ़ना हो तो कुछ और सहारे बैसाखियों की तरह ज़रूरी लगते हैं ।  राजनीति समाज से प्रशासन की व्यवस्था तक हर कोई  अवसरवादिता का शिकार है कहीं कुछ भी सामन्य ढंग से होता नहीं है । हमने अपनी बुनियाद को ही खोखला कर दिया है व्यवस्था चरमर्रा कर कभी भी ध्वस्त हो सकती है प्रतीत होता है । आखिर में शायर राजेश रेड्डी जी की ग़ज़ल के कुछ शेर याद आते हैं । आज मुरझाया उदास अकेला लगता है हर कोई कभी हंसता मुसकुराता खिला खिला होता था हर कोई यहां । हमने कितना कुछ हासिल कर लिया है लेकिन कैसे हासिल किया है खुद अपनी ही नज़रों में गिरने के बाद ।

रंग मौसम का हरा था पहले , पेड़ ये कितना घना था पहले ।

 

मैं ने तो ब'अद  में तोड़ा था इसे , आईना मुझ पे हंसा था पहले । 


जो नया है वो पुराना होगा , जो पुराना है नया था पहले । 


ब'अद में मैंने बुलंदी को छुआ , अपनी नज़रों से गिरा था पहले ।


 
 
 प्रबलित मिट्टी की ढलानें - टेरे आर्मी इंडिया

POST : 1966 सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

   सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया 

शिखर पर खड़ा हुआ है झूठ सच पड़ा हुआ खाई में  
इंसाफ़ क़त्ल होता रहता सच और झूठ की लड़ाई में
 
सियासत की अर्थी भी निकलेगी मगर बरात बन कर
जनता की डोली का दुःख दर्द दब जाएगा शहनाई में
 
शासकों को क्या खबर क्या क्या होने लगा समाज में 
जंग लाज़मी है चुनावी खेल में , हर भाई और भाई में
 
आत्मा ज़मीर आदर्श और ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाना 
कोई कबाड़ी खरीदता नहीं ये सब सामान दो पाई में 
 
जिनको इतिहास लिखना आधुनिक समय का यहां 
भर लिया इंसानी खून उन्होंने कलम की स्याही में 
 
राजनेता अधिकारी धनवान लोग शोहरत जिनकी है 
खोटे साबित हुए सब कसौटी पर हर बार कठिनाई में 
 
सबका भला नहीं सिर्फ खुद अपने लिए जीना मरना 
खूब मुनाफ़ा अब बाजार में अच्छों की झूठी बुराई में  
 

सच और झूठ | Hindi Abstract Poem | Shahbaz Khan
   

मई 14, 2025

POST : 1965 मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया

       मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया  

मुझे लिखना है  ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।

टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।

धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।

छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।

बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।

ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।

हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।

सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।

जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।

मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की  और विश्वास की ।

लिखनी है  कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।

अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।

बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों 
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।

फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।

वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।

ये कविता शुरुआती समय की लिखी साधरण शब्दों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है ब्लॉग पर भी 12 साल पहले 2012 में पब्लिश की थी । इक जाने माने कवि को ईमेल से भेजी तो उनकी सराहना पाकर लगा कोई सार्थकता दिखाई दी होगी उनको तभी पहली बार ऐसा उत्साह बर्धन मिला मुझको ।  लिखना मेरे लिए कोई शौक या ख़्वाहिश नाम शोहरत पाने का माध्यम नहीं है , इक संकल्प है जूनून है समाज को कुछ देने उसको बेहतर बनाने के प्रयास की ख़ातिर । करीब पचास साल पहले जो तय किया था अपने समाज और देश की समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं को लेकर पत्र चर्चा या किसी से मिलकर समाधान सुधार करने के लिए समय के साथ उसका स्वरूप बदलते बदलते कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य बन गया है । कभी कभी कितनी बार धैर्य टूटना और निराश होना इस रास्ते में आता रहा है मगर हमेशा फिर आगे चलते रहने का ही निर्णय लिया है ।  थमना थककर ठहरना मुझसे कभी हुआ नहीं फिर से इक सोच रही है मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही है । 
 
कोई संगी साथी नहीं कोई भीड़ नहीं कोई संगठन जैसा नहीं बस अकेले ही अपनी इक पगडंडी बनाकर इक मंज़िल प्यार और मानवता की ढूंढने और बनाने की कोशिश करना चाहता हूं । जानता हूं आधुनिक युग में पढ़ना और समझना शायद ही कोई चाहता है और पढ़ कर असर होना बदलाव होना और भी कम आशा की जा सकती है । जब देखते हैं तमाम लोग निष्पक्षता से  किनारा कर अपनी कलम का उपयोग किसी अन्य मकसद से करते हैं कभी विचारधारा से बंधे कभी धर्म राजनीति से जुड़े इकतरफ़ा लेखन करते हैं अथवा लिखने से नाम शोहरत कुछ और हासिल करना चाहते हैं तब महसूस होता है आज का क़लमकार भटक गया है ।  साहित्य सृजन करते करते भटक जाना या यूं कहें बहक जाना  इस से बचना है बड़ी फ़िसलन है , मुमकिन है कुछ लोग सैकड़ों किताबें लिख कर शोहरत की बुलंदी पर खड़े भौतिक आर्थिक लाभ अर्जित कर खुश हैं अपना ध्येय हासिल कर , मगर क्या मेरे जैसे बेनाम लिखने वालों से अधिक समाज को बदलाव ला पाए हैं या फिर कुछ लोगों तक उनकी किताबें पहुंची हैं इतना ही हुआ है । 
 
मैं कोई और मकसद नहीं रखता लिखने में सिर्फ जैसा भी समाज है लोग हैं जैसा वातावरण पहले से भी खराब होता जा रहा है उसको रेखांकित करना उजागर कर संबंधित वर्ग तक बात पहुंचाना ज़रूरी है । जी नहीं मैं कोई उपदेशक नहीं किसी को सही या गलत साबित नहीं करना मुझको , सच दिखाना दर्पण का कार्य है भले अंजाम कुछ भी हो । सोचता हूं कि जितने भी पढ़ते हैं कुछ पर ही सही प्रभाव पड़ता अवश्य होगा , मुमकिन है अभी नहीं तो भी कभी न कभी लोग पढ़कर समझेंगे सोचेंगे कि किसी ने ज़िंदगी की उलझनों कठिनायों से जूझते हुए भी पतवार को थामे रखा कश्ती को भंवर में डूबने नहीं दिया खुद बचने को ।  निराशा है परेशानी है जब समाज में अधिकांश लोग वास्तव में जैसा करना चाहिए उस से विपरीत कार्य करते हुए भी संकोच नहीं करते । बुद्धिजीवी समाज पत्रकारिता समाज की संस्थाएं अपने कर्तव्य निभाने को छोड़ नैतिकता को भूलकर आडंबर और प्रचार में लगे हुए हैं । जिनको सभ्य समाज का निर्माण करना था वही पुरातन मूल्यों को ताक पर रख साहित्य की परिभाषा को बदलना चाहते हैं । साहित्य और प्रकाशन का इक बाज़ार बनाया गया है जिस में लोग अख़बार पत्रिकाएं किताबें छापकर धनवान बन रहे मालामाल होते जाते हैं लेकिन लिखने वाला लेखक वहीं खड़ा है अपनी आजीविका का कोई अन्य साधन तलाशता । सामाजिक शोषण पर मुखर लेखक मौन है बेबस है अपनी बर्बादी किसको बताये । सोशल मीडिया के सवर्णिम काल में ए आई अर्थात नकली होशियारी ने संजीदगी पूर्वक लेखन को किनारे कर दिया है , हर कोई बिना भाषा अर्थ समझे जाने लिखने लगा है ।
 
लिखना अच्छी बात है मगर क्या लिखना चाहिए मालूम होना चाहिए और कितनी बार लगता है कि ऐसा नहीं लिखना अच्छा था । ये बात किसी और के लिए नहीं खुद अपने बारे भी कहना ज़रूरी है कितनी बार पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है बहुत कुछ लिखना उचित नहीं था कुछ को दोहराया जाता रहा बार बार जो कोई शानदार शैली नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि किसी बात को अधिक बार दोहराने से अच्छी बात भी आपकी अहमियत खो देती है । सार्वजनिक मंच पर लिखा मिटाने से भी बिगड़ी बात बनती नहीं है इसलिए लेखक को पहले बार बार सोच विचार कर ही लिखना चाहिए ।  अंत में खुद अपने आप से साक्षात्कार करती इक कविता प्रस्तुत है ।
 

अपने आप से साक्षात्कार ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

हम क्या हैं
कौन हैं
कैसे हैं 
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।

हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।

हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये 
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।

मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान 
आदर्शों को छोड़ कर
हम करने लगे
आपस में टकराव ।

इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये 
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।

खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने 
मकसद तक अपना ।

आईना बनना था 
हमको तो
सारे ही समाज का 
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे  हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात । 
 
 
 उद्यमियों को साहित्य पढ़ना चाहिए (सिर्फ बिजनेस किताबें नहीं) | जोस अल्वारो  ए. अडिज़ोन द्वारा | द एमवीपी | मीडियम