मार्च 26, 2025

POST : 1957 मंदिर साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 मंदिर  साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ साल पहले हरियाणा के शहर फतेहाबाद में ऐसा मंदिर ढूंढने पर मिल गया था किसी नासमझ ने कभी बनवाया था झूठ के देवता का पहला मंदिर । वहां आंखें बंद कर श्रद्धापूर्वक विनती करने से देवता खुद दर्शन देते हैं और उपदेश भी देते हैं । मनोकामनाएं पूर्ण हुई जितने राजनेता उनकी शरण में आये चुनाव लड़ने से पहले कोई चढ़ावा कोई आडंबर नहीं होता बस झूठ की जयजयकार करनी होती है । आखिर इक दिन कोई टेलीविज़न का पत्रकार राजधानी से आया देखने परखने तो खुली आंख से कुछ नहीं नज़र आया बस इक घना अंधकार छाया हुआ था बिल्कुल उसके चैनल की शैली जैसा । तभी सामने पढ़ा वत्स आंखें बंद करोगे तो सब दिखाई देगा , और जब उसने आंखों पर पट्टी बांधी तो उसको रौशनी ही रौशनी चारों तरफ नज़र आने लगी और मधुर स्वर सुनाई देने लगा । हैरान होकर बोला पत्रकार क्या ये कोई जादू है तिलिस्म की दुनिया है । जवाब मिला नहीं यही वास्तविक दुनिया है आप जो देखते हैं दिखलाते हैं सब नकली दुनिया है आप खुद कलयुग का इक अवतार हैं खुद अपनी जान के दुश्मन हैं दुश्मनों के ख़ास यार हैं , यानी कि चलता फिरता कोई इश्तिहार हैं । पत्रकार समझ गया जिसकी तलाश थी हमेशा से वो दर मिल गया है , विनती की क्या आप हमारे देश की राजधानी में चलकर सभी को दर्शन दे कर उनका जीवन सफल नहीं कर सकते । 

झूठ के देवता की आवाज़ आई मैं तो हर शहर में हूं आपको कठिनाई नहीं होगी जाओ जाकर किसी भी सरकारी कार्यालय में सचिवालय में मंत्रालय के दफ़्तर में मुझसे वार्तालाप कर सकते हो । बंद आंखों से आपको सच दिखाई देगा , शासक जो कहते हैं की जगह आपको जैसा करते हैं सुनाई देगा समझ आएगा । घबराना मत जब आप वास्तविकता देखोगे तो आपको शासक अधिकारी जो दावे करते हैं धर्म इंसानियत और मानवता के लोककल्याण के आपको ज़ालिम तानाशाह दिखाई देंगे । दीवारों से फर्श तक आपको खून के छींटे नज़र आएंगे कितनी रूहों की आहें और चीखें सुनाई देंगी , बड़े बड़े पदों पर न्यायधीश बने हुए लोग आपको बेरहम और स्वार्थी मिलेंगे । आपको समझ आएगा कि कभी भी रहमदिल शासकों ने खुद को महिमामंडित नहीं किया था , हमेशा लुटेरे और ज़ालिम शासकों ने खुद को महान कहलवाने को ऐसा किया था । जनता तो हमेशा उनको क़ातिल समझती थी भले वो खुद को कितना दयालु और मसीहा घोषित करते रहे थे । 

आखिर वापस लौटकर उस पत्रकार ने देश की राजधानी के सचिवालय और सभी विभागों के दफ्तरों में जा कर बंद आंखें कर झूठ के देवता को याद किया तो सामने सब साफ़ साफ़ दिखाई दिया । खून ही खून फैला हुआ था सभी लोगों के दामन मैले थे भ्र्ष्टाचार की गंदगी की बदबू उनसे हवाओं को प्रदूषित कर रही थी । आखिर पत्रकार घबरा गया और कहने लगा कभी कोई रहमदिल शासक हुआ होगा उसके बारे बताएं थोड़ा सुकून मिलेगा शायद , रहीम और गंगभाट का संवाद बताया देवता ने कुछ ऐसा हुआ था । 

 

रहीम और गंगभाट संवाद : - 


इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
आपको इस बारे कितनी बार बताया गया है आज आपको आखिर में किसी शायर की ग़ज़ल सुनाते हैं । 
 

बंद आंखों का तमाशा हो गया , खुद से मैं बिछुड़ा तो तन्हा हो गया । 

मौसमों की उंगलियों के लम्स से , दाग़ दिल का और गहरा हो गया । 

एक सूरत ये भी महरूमी की है , मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । 

देखता है हर कोई मुंह फेरकर , मैं न जाने किसका चेहरा हो गया । 

दोस्ती दुनिया से कर ली हमने तो , कांच के टुकड़ों पे चलना हो गया । 

( शायर का नाम पता नहीं है ढूंढने पर भी मिला नहीं मुझे । ) 

 
 
 
 तेरी मोहब्बत के तिलिस्म में गिरफ्तार हो गए, दिल के हर जज़्बे से बेक़रार हो  गए। "संतोष"चाँदनी रातों में तेरी यादें सजती हैं, ख़्वाबों में ...

मार्च 23, 2025

POST : 1956 शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया

शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया 

भगत सिंह राजगुरु सुखदेव तीन युवा आज़ादी के परवाने हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए थे 23 मार्च 1931 को । आज भी आधी रात को कोई बेचैन है देख कर अंग्रेजी शासन से भी अधिक निरंकुश शासक और प्रशासक जनता का दमन करते हैं सरकार का अर्थ सामाजिक सरोकार नहीं सत्ता की मनमानी बन गया है । ऐसे में वही लोग शहीदों की समाधियों बुतों पर फूलमाला अर्पित कर दिखावे की श्रद्धा जताते हैं उनके विचार उनका मकसद सभी को न्याय और समानता मिलने का किसी को याद नहीं है महत्वपूर्ण खुद को शायद उन से बड़ा देशभक्त दिखाना होता है जबकि वास्तविकता में उन्होंने समाज देश को कुछ दिया नहीं बल्कि छीना है । आज 140 करोड़ में से 80 करोड़ भूखे नंगे हैं क्योंकि कुछ लोगों ने उनके हिस्से का सभी कुछ लूट लिया है और रोज़ खुद पर बेतहाशा धन बर्बाद करते हैं । सामन्य वर्ग की समस्याओं के प्रति उदासीन और बेपरवाह हैं उनको रत्ती पर भी खेद नहीं है कि आज़ादी के 77 साल बाद ऐसा क्यों है । राजनीति इतनी संवेदनहीन बन गई है कि उसे सत्ता और चुनाव को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है । देश को स्वतंत्र करवाने को जिन लोगों ने जीवन अर्पित किये कुर्बानियां दीं उनके लिए इक दिन कुछ क्षण औपचारिकता निभाने के अलावा कुछ भी उनको ज़रूरी नहीं लगता है । 
 
अफ़सोस इस बात का है कि तमाम लोग सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक आचरण से परेशान हैं मगर कोई भी खुलकर सामने नहीं आता विरोध कर अन्याय को अन्याय कहने का साहस कर । क्या हम उनकी विरासत को संभाल नहीं सके हैं कायर हैं डरपोक हैं , आंदोलन भी कोई स्वार्थ कोई मकसद हासिल करने को करते हैं देश की लच्चर व्यवस्था भेदभाव पूर्ण व्यवहार को बदलने की कोशिश तक नहीं करते । सिर्फ कुछ खास दिनों पर देशभक्ति की भावना दिखाई देती है जैसे कोई मनोरंजन का अवसर हो कोई चिंतन नहीं करते कभी कि इतने सालों ने साधारण जनता को क्या मिला है बुनियादी सुविधाएं अधिकार तक नहीं बल्कि हाथ जोड़े खड़े हैं ज़ालिम प्रशासन सरकार के सामने । ऐसी आज़ादी की कल्पना नहीं की थी जिन्होंने देश को आज़ाद करवाने को अपना सर्वस्व और जीवन अर्पित किया था । किसी खेल के मैदान में चेहरे या पोशाक को तिरंगे रंग में रंगने से वास्तविक कर्तव्य देश के प्रति पूर्ण नहीं होता है । शासक बनकर अपनी सुख सुविधा की खातिर नियम कानून बनाकर जनता का शोषण करने वाले मुजरिम हैं शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव जैसे अमर शहीदों के , उन को फूल अर्पित करने से बेहतर होगा उनकी आंकाक्षाओं अपेक्षाओं पर विचारधारा पर चल कर वास्तविक श्रद्धा व्यक्त करते ।  अंत में अमर शहीदों को नमन करते हुए दो रचनाएं प्रस्तुत हैं ।

जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जश्ने आज़ादी का हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।
 
याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे बात ये कि  
काट कर पेड़ क्यों रहे शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया कभी 
लोग भूखे हैं सब नेता सच झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी मगर  
आईना खराब है चेहरे अपने छुपाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा 
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।

यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को 
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
 
 

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं
शख्स जो सच की राह चलते हैं ।

राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं ।

गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं ।

जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं ।

जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं ।

कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं ।

टालते हैं हसीं में  वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं ।  
 



बलिदान दिवस 2023: आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को याद कर रहा देश

मार्च 22, 2025

POST : 1955 बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

शोध का विषय है कितने लोग हैं जिनकी अंतरात्मा जिनका विवेक उनको उचित अनुचित कर्मों को करते हुए देखता नहीं रोकता टोकता नहीं उनको किसी पर ज़ुल्म ढाते रत्ती भर भी अपराधबोध होता नहीं है । सत्ता के लिए पैसे के लिए अपने स्वार्थ के लिए अहंकार के लिए ऐसे लोग अमानवीय अनैतिक कर्म करते रहते हैं । ये तमाम लोग खुद को धार्मिक ईमानदार और समझदार मानते हैं जबकि जानते हैं कोई ईश्वर उनके आचरण को उचित नहीं समझ सकता है । धार्मिक आडंबर से अन्य लोगों को धोखा दे सकते हैं ईश्वर को नहीं लेकिन अपने मोह माया के जाल में फंसे ये लोग खुद को भी छलते हैं और अपनी आत्मा को दफ़्न कर किसी बेजान शरीर की तरह जीवन व्यतीत करते हैं । राजनेताओं प्रशासनिक अधिकारियों धनवान व्यापारी वर्ग से बड़े बड़े नाम शोहरत वाले अदाकारों फ़िल्मकारों तमाम अख़बार टीवी चैनेल  के संपादकों पत्रकारों को जैसा नहीं करना चाहिए करते रहने पर कोई संकोच नहीं होता है । सफलता हासिल करने को ऊंचाई पर चढ़ने को मालूम नहीं कब आत्मा को मार कर किसी गहरी खाई में फैंक देते हैं ।  जब भी उनकी मृत्यु होती है श्रद्धांजलि सभा में उनकी आत्मा की शांति और सद्गति की प्रार्थना करने वालों में भी बहुत लोग आत्मा विहीन होते हैं खुद उनकी आत्मा भटक रही होती है दुनिया के मायाजाल में । शोक सभाओं में शोक व्यक्त करने वाले कितने लोग नहीं जानते शोक का अर्थ क्या है । अपने दैनिक कार्यों में ऐसे लोग जानते समझते हुए भी कितने ही लोगों को दुःख देते हैं उनको तड़पाते हैं सही कार्य विवेक पूर्ण निर्णय नहीं करते बल्कि गलत कार्य अनुचित पक्ष को अपनाते हैं । 

आपने सुना होगा ज़ालिम शासक और अन्याय करने वाले कायदे कानून का विरोध किया गया था हमारे बड़े महान आदर्शवादी गांधी भगत सिंह जैसे नायकों ने , हम उनकी समाधियां बनाते हैं उन पर फूल चढ़ाते हैं लेकिन अपने सामने वही सब करने वाले लोगों को ज़ालिम कहने से घबराते हैं । हम कायर बनकर किसी ज़ालिम का अन्याय सहते हैं भीतर घुट घुट कर जीते हैं मुर्दा बनकर रहते हैं ।
 
 https://blog.loksetia.com/2024/11/post-1921.html
 
 24 नवंबर 2024 को लिखी पोस्ट ,  नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया पर मैंने सावधान किया था इसकी यारी दोगली तलवार साबित हो सकती है । कभी कभी लगता है कि जो लोग जाने कब से बगैर आत्मा ज़िंदा हैं उनको ऐसी कोई झूठी नकली होशियारी मिल गई तभी ज़मीर को मार कर भी उनको जीना संभव हुआ होगा । कोई पुरानी कथा है कि कोई दुनिया को अपने अधीन करने को जिस इक दैत्य का निर्माण करता हैं आखिर उसी का शिकार खुद होता है । सरकार भी कभी अपने ही बिछाए हुए जाल में खुद फंसेगी उसी तरह । आदमी कुदरती न्याय से बच नहीं सकता है चाहे कोई जिस भी कारण अनुचित कर्म करता है किसी दिन उसको परिणाम भुगतना पड़ेगा ये सभी धर्म कहते हैं और हमने देखा भी है भलाई का सिला भलाई मिलता है और किसी से बुरा करने का नतीजा भी बुरा ही मिलता है । 

धार्मिक कथा इस तरह है : -
 
कोई अपना घोडा बेचने बाज़ार में जाता है , इक खरीदार घोड़ा देख कर कीमत पूछता है , बेचने वाला कहता है मुझे आज पैसों की बड़ी ज़रूरत है इसलिए सस्ते में बेच रहा हूं पांच सौ में अशर्फियां मोल है । खरीदार कहता है मुझे घोड़े की सवारी कर परखना पड़ेगा । परख कर वो कहता है कि आपका घोड़ा तो अधिक कीमत का है छह सौ अशर्फियां कीमत होनी चाहिए , बेचने वाला कहता है आपको उचित लगता है तो दे दो , तब खरीदार पूछता है आपको मालूम है इसकी कीमत क्या है । बेचने वाला कहता है घोड़ा तो आठ सौ कीमत का है लेकिन मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है और मुझे पांच सौ की ज़रूरत अभी तुरंत है । खरीदार कहता है कि मैं आपका घोड़ा पूरी कीमत में आठ सौ चुका कर खरीदता हूं । तब बेचने वाला सवाल करता है कि मुझे इस बात का कारण बताएं कि जब आपको खुद मैं पांच सौ में बेचने को तैयार था फिर आपने महंगा क्यों खरीदा मुझसे । खरीदार बताता है कि मेरे धर्म में समझाया गया है कि कभी किसी की मज़बूरी मत खरीदना अन्यथा कभी कोई तुम्हारी मज़बूरी खरीदेगा बाद में । ये सबक पढ़ते सभी हैं समझते नहीं हैं अधिकांश लोग ।  
 
 



मार्च 18, 2025

POST : 1954 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इमाम बख़्श नासिख़ जी की ग़ज़ल है , शाहंशाह गुनगुनाते रहते हैं किसी ज्योतिष विशेषज्ञ ने पत्री देख उनके पूर्व जन्म की घटना बताई थी । आपकी प्रेमिका को तब किसी राजा ने छीन लिया था और आप वियोग में तड़प तड़प कर मर गए थे । शहंशाह को सपने में जो सुंदरी दिखाई देती है वही उनकी इस जन्म में पहली प्रेमिका है तलाश करोगे तो किसी दिन मिल ही जाएगी । शहनशाह ने चित्रकार से बिल्कुल वैसी तस्वीर बनवा ली और हमेशा सीने से लगाए रहते हैं । 
 
अभी इक किताब में पढ़ा है आपको आईने में खुद अपना अक्स दिखाई देता है और आपकी सोच में कोई खुद जैसा छाया रहता है । संत असली हमेशा पहले हुए बड़े संतों की छवि मन में लिए रहते थे , कहते हैं जिसका जो भी गुरु होता है आंखें बंद कर उस के दर्शन कर लेते हैं । लेकिन ये बात हम सभी की होती है लोग हमेशा उसी की चर्चा करते हैं जैसी सोच उनकी भीतरी अंर्तमन की होती है , जाकी रही भावना जैसी । ज़ालिम कभी किसी रहमदिल की बात नहीं करते उनको जिस जैसा बनना है उसी की चर्चा करते हैं , प्यासा पानी की भूखा रोटी की चिंता करता है जबकि बहुत अधिक खाने पीने वाला भीतर का सब उगलता है यानी उलटी करता है । आजकल ये विष-वमन रोग बहुत बढ़ता जा रहा है ।
 
शासक लोग कभी सामने अपनी वास्तविक शक़्ल को नहीं दिखलाते हैं बहुत कोशिश कर कितने तौर तरीके आज़माते हैं असलियत छुपाने और बनावट दिखाने की खातिर । लेकिन वो भजन है ना तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये , मन से कोई बात छुपे ना मन के नयन हज़ार । मन की बात कोई सार्वजनिक नहीं करता जो लगता है करते हैं उनकी परेशानी और है , मन में झांकते हैं तो लगता है कोई पहले का शासक ख़्वाबों - ख़्यालों में छाया हुआ है । उसके बातें उसके कारनामे करते भी हैं साथ चाहते हैं लोग उन जैसा नहीं समझने लगें । मन का चोर क्या नहीं करवाता है कभी कभी तो खुद अपनी ही नज़र में ख़लनायक की छवि उभरती दिखाई देती है । 


जनाब कोई पच्चीस साल से सीने में इक तस्वीर लिए फिरते थे , धुंधली सी यादें जैसे कोई पिछले जन्म की बातें महसूस करता है आपको पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं हो तो नहीं समझोगे । करीब आधी उम्र तक पचास का होने से पहले कुछ नहीं करते थे मांग कर गुज़र बसर किया करते थे , सपने देखते थे इक दिन शाहंशाह बन कर शासन करने का । वही किरदार मन को भाता था जिसे दुनिया कभी याद करना नहीं चाहती लेकिन जो इतिहास से कभी भुलाया नहीं जा सकता है तानाशाह शासक हमेशा याद रहते हैं अच्छे न्याय करने वालों को लोग अक़्सर भुला देते हैं । उनकी चाहत है सदियों तक उनको इक मिसाल की तरह दुनिया याद करती रहे , बदनाम होंगे तो भी नाम तो होगा । नीरज जी भी कहते हैं ,  इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में , लगेगीं आपको सदियां हमें भुलाने में । न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर  , ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में । जनता भी कमाल करती है किस किस को ख़ुदा बना कर आखिर पछताती है , कोई शायर कहता है , तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला । मैं रफ़्ता रफ़्ता हुआ क़त्ल जिस के हाथों से ,   .................      वो क़ातिल मैं आप ही निकला । शायर कौन था , आधा शेर याद है पूरा क्या था याद नहीं है ।
 
बादशाहों की कितनी प्रेम कहानियां होती हैं कितनी निशानियां होती हैं , आधुनिक शासक भी चाहते हैं उनका नाम अमर रहे , आये दिन कहीं कुछ करते बनवाते हैं शिलालेख पर अपना नाम अंकित करवाते हैं ।  इधर तो पुराने शिलालेख हटवा तुड़वा खुद उसे नाम बदल अपने नाम करते हैं । कुछ बनाने में ज़माना लगता है मिटाने में क्षण भर बहुत है आधुनिक युग का विकास यही है तोड़ना तोड़कर कुछ का कुछ बनाना । शायद खुद किसी जन्म में जो जो बनाया उसे ढहाकर आधुनिक नाम से फिर से बनाना जैसा कोई मिट्टी से खिलौने बनाता है तोड़ता रहता है लुत्फ़ उठाता है । कोई बादशाह अपनी रानी को छोड़ किसी पिछले जन्म की माशूका की तस्वीर बनवाता है किसी चित्रकार से अपनी मन में बसी हुई महबूबा की छवि हूबहू और दुनिया भर में उसी को ढूंढता फिरता है , मिलती ही नहीं उसकी सूरत से किसी की भी सूरत ।  पिछले जन्म की प्रेमिका कहां हो । 

Know how your deeds were in the last life जानिए, पिछले जन्‍म में कैसे थे  आपके कर्म

मार्च 17, 2025

POST : 1953 कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

                 {  कलयुगी कथा का अगला अध्याय पढ़ते हैं  }

देश आज़ाद हुआ जनता की तकदीर कभी नहीं बदली , ज़ुल्म वही ज़ालिम बदलते रहते हैं अब ज़ालिम का तौर तरीका इतनी जल्दी बदलता है कि समझ नहीं आता ये इंसाफ़ करते हैं या सच को सूली पर चढ़ाया जाता है ।  सरकार प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा तंत्र बनाया गया सामन्य लोगों को अधिकार और समानता प्रदान देने को नाम दिया गया जनसेवा समाज कल्याण इत्यादि । जनता को प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया गया वोट देने का लेकिन देश की राजनीति ने चुनावी प्रक्रिया को किसी शतरंज की बिसात पर मोहरों का खेल बनाकर सत्ता को उस में मनमानी करने खिलवाड़ करने की खुली छूट दी गई । जब भी जहां लगा वास्तविक लोकतंत्र राजनेताओं की आकांक्षाओं में अड़चन पैदा कर सकता है लोकतंत्र को ही कुचल कर अपाहिज बना दिया गया । लोकतंत्र का शोर सुनाई देता है वास्तविक लोकतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं देती है । गांव से शहर शहर से महानगर महानगर से राजधानी तक जनता को उलझाने को इतने दफ़्तर विभाग बना दिए गए लेकिन एक भी ऐसा नहीं जो सही कर्तव्य निभाता बल्कि जनता की परेशानी दुःख दर्द पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़कने का काम कर्मचारी अधिकारी करते रहते हैं । सामन्य व्यक्ति पर कानून कड़ाई से लागू करने वाले सरकारी तंत्र विभाग अधिकारी कर्मचारी पर फ़र्ज़ नहीं निभाने पर कोई सज़ा क्या कोई सवाल तक नहीं पूछता है । कर्तव्य को भूलकर सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था जनता को न्याय मिलने में बाधाएं उतपन्न करने लगी ताकि उसको रिश्वत मिल सके , बिना घूस या सिफारिश कोई भी उचित काम भी नहीं करता है , जेब भरने पर सभी कार्य करते हैं अनुचित भी उचित भी । 

कभी लोग शिकायती पत्र लिखते थे सत्ताधारी उच्च पद पर बैठे शासक को तब कुछ असर होता था कोई शर्मसार होकर अपनी गलती सुधरता था । बाद में ये सामन्य बात लगने लगी और इतनी बेहयाई करने लगे कि ऊपर विभाग से बार बार पत्राचार से कुछ करने का कोई जवाब ही नहीं देते निचले अधिकारी कर्मचारी । क्योंकि सरकारी कर्मचारी पर काम नहीं करने या जो करना है उसे नहीं करने पर कुछ भी करवाई नहीं की जा सकती इसलिए जनसेवा को सभी ने मनमानी करने का हक समझ लिया । सत्ताधारी राजनेताओं को भी देश समाज जनता की नहीं सिर्फ अपनी कुर्सी और अपने लिए शान ओ शौकत की ज़रूरत महत्वपूर्ण लगने लगी है ।  धीरे धीरे हालत इतनी खराब हो गई है कि अपराधी संसद विधायक बन कर सत्ता को अपहरण कर पूरी व्यवस्था को ऐसा गठजोड़ बना लिया है जिस में गुंडे बाहुबली भ्र्ष्ट राजनेता और सरकारी प्रशासन मिलकर देश समाज को बर्बाद करने लूटने लगे हुए हैं । 140 करोड़ जनता का बड़ा भाग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है मगर शासक लोग खुद अपने पर बेतहाशा धन खर्च कर आज़ादी और न्यायव्यवस्था का मज़ाक किये हुए हैं । शायद उनको संविधान की शपथ भूल गई है और ईमानदारी नैतिकता को ताक पर रख छोड़ा है । 
 
समय के साथ जनता की परेशानियां ख़त्म नहीं हुईं बढ़ती जा रही हैं , ऐसे में पुरानी खुले दरबार या अन्य स्थानीय कष्ट निवारण की सभाओं की जगह आधुनिक पोर्टल साइट्स पर शिकायत दर्ज करने को विकल्प बनाया गया है ।  लेकिन ये सबसे बड़ा धोखा अथवा छल साबित हुआ है क्योंकि उन पर दर्ज शिकायत पर कोई गौर ही नहीं किया जाता और किसी दफ़्तर में बैठा कोई व्यक्ति टिप्पणी कर शिकायत का निपटारा किया लिख देता है बिना ठीक से जाने समझे । जो टिप्पणी की जाती है वास्तव में कोई इंसाफ़ नहीं ज़ख़्म पर नमक छिड़कने जैसा होता है । सरकार के तमाम झूठे आंकड़ों विज्ञापनों की तरह इस सब पर कितना धन व्यर्थ बर्बाद किया जाता है नतीजा कुछ भी नहीं । इस तरह से पोर्टल पर संख्या घटाने से जनता की समस्याएं कभी हल नहीं हो सकती हैं , जबकि पोर्टल पर नियुक्त नोडल अधिकारी को विवेक से समस्या समझनी ही नहीं होती है जिस से लोग सालों से पीड़ित है नोडल अधिकारी एक दिन बाद ही उस पर निर्णय सुनाता है कि ये शिकायत विचारणीय नहीं है । 

ऐसा क्यों है आखिर में समझना होगा कि हमारे प्रशासन पुलिस न्याय व्यवस्था सरकारी कार्यशैली में रत्ती भर भी मानवीय संवेदना बची नहीं है । सरकार अपनी नाकामी को ढकने को बताती है कि कितने करोड़ लोगों को क्या क्या दिया जाता है । जबकि सोचना चाहिए था कि आज़ादी के 77 साल बाद इतने लोग गरीब भूखे बदहाल क्यों हैं क्या इसका कारण वही लोग नहीं जिनको बहुत कुछ करना चाहिए था लेकिन कुछ भी नहीं किया सिवा झूठे आश्वासन आंकड़े और खोखले वादों के । विडंबना की बात है कि ऐसे तमाम क़ातिल मसीहा कहलाते हैं । कथा अनंत है विराम देते हुए कुछ दोहे सुनाते हैं । 

देश के वर्तमान हालात पर वक़्त के दोहे - डॉ  लोक सेतिया 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान।  
 
अंधे - बहरे शहर में ये बातें बेमोल 
कौन सुनेगा अब यहां तनहा तेरे बोल ।  
 
 Lafz - ख़ंजर से करो बात न तलवार से पूछो मैं क़त्ल हुआ... | Facebook



मार्च 15, 2025

POST : 1952 लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

  लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

आधुनिक समय की सरकार सत्ताधारी राजनेता प्रशासनिक अधिकारी वर्ग से न्याय व्यवस्था तथाकथित समाजिक संस्थाएं  क्या कर रही हैं इस पर शोध किया जाये तो संक्षेप में नतीजा यही निकलेगा । आपको कोई भी मंत्री विधायक संसद आमने सामने नहीं मिलते हैं प्रधानमंत्री से सभी मुख्यमंत्री तक ने कुछ ऐप्स और साइट्स बनवा रखी हैं जनता को झूठा दिलासा देने को । इंसान की भावनाओं की दुःख दर्द की समझ जब शासक वर्ग अधिकारी वर्ग को नहीं होती तो ये मशीनी व्यवस्था क्या जाने ज़िंदगी और मौत कोई खिलौने नहीं वास्तविकता हैं । जनता इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यस्था से न्याय मांगते मांगते मर जाती है , इनसे मिलती है सिर्फ और सिर्फ लीद ।  मुझे जनहित और भ्र्ष्टाचारी व्यवस्था पर लिखते पचास वर्ष बीत गए और जाने कब मौत आकर मुझे इस सब से छुटकारा दिलवाएगी , मुझे मरने का खौफ़ नहीं जयप्रकाश नारायण जी की राह पर चलने वाला उनका प्रशंसक हूं मैं । आधुनिक युग की सरकारें कहती और प्रचार प्रसार विज्ञापन करती हैं व्यवस्था को ठीक करने का लेकिन जनता को इनसे हमेशा लीद ही मिलती है खैरात की तरह । बस और कुछ भी नहीं कहना इतना बहुत है जिनको समझ आये मतलब क्या है । आगे आपको कुछ कहनियां बतानी हैं लीद को लेकर । 
 
 
एक बार इक राजा अपने घोड़ों के अस्तबल में खड़ा होता है , इक साधु उधर से गुज़रता है और भिक्षा मांगता है , राजा वहां से ज़मीन से लीद उठाता है और साधु के पात्र में डाल देता है । साधु कहता है आपको दान दी हुई लीद हज़ारों लाखों गुणा मिलेगी खाने को , ऐसा बोल कर साधु नगर से बाहर चला जाता है कुटिया में वापस । उसे रोज़ केवल किसी से एक बार ही भिक्षा मांगनी होती है जो भी मिलता है उसी से गुज़ारा चलाता है । राजा अपनी पत्नी को बताता है उसने ऐसा किया तो पत्नी समझाती है अपने राजगुरु से इस विषय की चर्चा अकेले बैठ करनी उचित होगी । राजगुरु सुनकर परेशान हो जाते हैं और तुरंत जाकर उस साधु से क्षमा याचना करने को कहते हैं ।  राजा अपने रथ पर सवार होकर साधु की कुटिया पहुंचता है , क्या देखता है कि बाहर लीद ही लीद का ढेर लगा होता है किसी पहाड़ जैसा । राजा माफ़ करने की याचना करता है और सवाल करता है इतनी लीद क्यों एकत्र हुई है आपकी कुटिया के सामने । साधु बताता है कि जब भी कोई दान देता है तो दान दी हुई चीज़ जो भी इसी तरह बढ़ती रहती है और दान देने वाले को मिलती है लाखों गुणा बढ़कर । आपको ये सारी लीद खानी पड़ेगी किसी दिन ये विधाता का नियम है इस को बदला नहीं जा सकता ।  विनती करने पर साधु उपाय बताता है कि अगर लोग आपको भला बुरा कह कर आपकी बुराई करें तो आपके बदले ये लीद उनको मिलेगी और ये ढेर कम होता जाएगा । 

भ्र्ष्टाचार भी लीद खाना होता है और समाज में अनगिनत लोग इसी तरह अनुचित ढंग से धन एकत्र कर गंदगी अपने भीतर भरते हैं । शाही लिबास और बनावट से खुद को सजाया जा सकता है लेकिन भीतरी सोच नहीं बदलती है । किसी शासक का करीबी सरकारी कार्यों में भ्र्ष्टाचार किया करता था , राजा उसको दंडित करना तो क्या हटा भी नहीं सकता था कुछ गोपनीय सूचनाओं का सार्वजनिक होने का खतरा था । जब राजा को पता चला लोग उस के कारण शासन की बदनामी करते हैं तो उसका तबादला घोड़ों की देखभाल करने को अस्तबल का कार्यभार सौंप दिया था । राजा ने समझा जितना भी घूसखोर हो उस जगह नहीं मिलेगा कोई भी अवसर । लेकिन ऐसे लोग तरीके खोज लिया करते हैं जो उस ने भी ढूंढ लिया । सुबह गोदाम से घोड़ों को चने तराज़ू पर तोलकर देखभाल करने वाले कर्मचारी को दिए , शाम को वहां की लीद उठाकर तराज़ू पर तोलने बैठा । कर्मचारी हैरान हो गया तो उस से कहा कि जितने चने खिलाने को आपको दिए थे लीद का वज़न उस से बहुत कम है , तुम चने घोड़ों को नहीं खिलाते खुद घर ले जाते हो , ऐसे उसने डराकर कर्मचारी को कुछ हिस्सा खुद खाने कुछ उसको देने पर सहमत कर लिया था । आधुनिक व्यवस्था बिल्कुल उसी तर्ज़ पर चल कर उस जगह भी संभावना खोज लेती है जहां लगता है कि कुछ नहीं रिश्वतखोरी को । इस कलयुगी कथा का ये अध्याय यहीं ख़त्म करते हैं । 

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मार्च 13, 2025

POST : 1951 बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सच बताना चाहिए , कितना बड़ा फ़रेब लोगों से किया जाता है कि लोकतंत्र बड़ी शानदार व्यवस्था है । सही में ऐसा होता तो अभी तलक आज़ाद होने के 77 साल बाद जनता की हालत भिखारी जैसी नहीं होती न ही जिसे जनता ने सेवक चुना वही शासक बन कर जब जैसे चाहे दो प्रकार से नियम कानून बनाते जनता के लिए सज़ा देने वाले और सत्ता और प्रशासन सरकार के लिए मनचाहे वरदान पाने वाले । संविधान की शपथ उठाते हैं जो उनको संविधान की भावना का कोई ज्ञान नहीं होता है , और उस शपथ को सत्ता पाते ही सभी भूल जाते हैं । मैं शपथ उठाता हूं सभी के साथ न्याय करने की , जबकि आज देखते हैं तो वास्तविकता विपरीत नज़र आती है , अदालतों से सरकारी दफ्तरों तक लोग बेबस होकर भटकते रहते हैं न्याय की जगह अपमान और सज़ाएं मिलती हैं । मगर शासक वर्ग खुद अपने लिए जब जैसे चाहे नियम कानून बदल कर सेवक नहीं शासक की तरह आचरण करते हैं , मंत्री से अधिकारी तक कहते हैं दरबार लगाते हैं । अजीब तमाशा है जो असली मालिक है जनता वही याचक बन कर अपने अधिकारों की भीख मांगते हैं । जैसे कोई नकाब लगा कर चेहरा छुपाए रहता हो ठीक उसी तरह सत्ताधारी लोग घोषणा करते हैं जनकल्याण की लेकिन वास्तव में सिर्फ खुद अपना ही भला चाहते हैं । हमदर्द होने का दावा करने वाले कितने बेदर्द होते हैं वही जानते हैं जिन पर गुज़रती है । निर्वाचित होते ही हर जनप्रतिनिधि अचानक बड़ी बड़ी गाड़ियों और शान ओ शौकत से रहने लगता है ये करिश्मा कभी साधरण जनता पर नहीं होता है । लेकिन हम खामोश रहते हैं क्योंकि हमने खुद सच बोलने का हक छोड़ दिया है झूठे लोगों की जय-जयकार कर उनको चुनकर । 
 
कहते हैं पुराने राजा ज़ालिम थे , वो भी अत्याचारी थे जिन्होंने हमको अपना गुलाम बनाए रखा , लेकिन क्या आज के शासक निरंकुश नहीं हैं । आज खुद हमारे बनाये बुत खुद को खुदा समझते हैं और हम लोगों को अपमानित करते हैं इश्तिहार लगवा कर खैरात बांटते हैं । कौन दाता है कौन भिखारी है विडंबना है जिस जनता ने सर पर बिठाया उस पर मनमाने ढंग से कितने ही कर लगाकर खज़ाना भरते हैं फिर उसी से नाम भर को देने को अपनी महानता घोषित करते हैं । कुछ खास लोगों के लिए कानून हाथ जोड़ खड़ा रहता है जो धनवान सत्ता से करीबी रिश्ता रखते हैं अन्य सभी से कानून कोड़े बरसाने का कार्य करता है । लोकतंत्र क्या यही होता है कि कोई शासक है जो सिर्फ भाषण देता है या शानदार दफ़्तर में बैठ गरीबी और देश की जनता की समस्याओं पर बहस करता है कभी समस्याओं का समाधान नहीं करता । अभी तक सभी को बुनियादी सुविधाएं जीने की हासिल नहीं और सरकार कहती है देश आगे बढ़ रहा है जबकि हालत दिन पर दिन और भी खराब होती जा रही है । देश जलता है कोई नीरो बंसी बजाता हो ये कभी हुआ होगा आजकल कितने ऐसे लोग हैं जो सत्ता पर बैठ रोज़ कोई जश्न मनाते हैं कोई आडंबर कोई तमाशा अपने दिल बहलाने को आयोजित करते हैं । 
 
होली है बुरा न मानो , इक दिन की बात नहीं है इस देश में शासक वर्ग हर दिन जनता से खिलवाड़ करते हैं और जनता बेचारी कुछ कह भी नहीं सकती । जैसे कोई आशिक़ अथवा पति किसी महिला से गलत व्यवहार करने को अपने प्यार करने का ढंग बताता है हर सरकार वही करती है । पांच साल की बात नहीं है हर बार वही सब दोहराया जाता है । होली की पिचकारी सत्ता के पास रहती है और होलिका दहन में आग में कोई बुराई नहीं जलती उसकी लपटें जनता को जलाने को व्याकुल हैं । जनता के लिए दशहरा हो चाहे होली हो बदलता कुछ भी नहीं है ढोंगी लोग अलग अलग रूप बदल छलते हैं , बहरूपिया शासक बन गए हैं जो कभी घर घर जाकर हंसाते थे अब रुलाने लगे हैं ।  
 

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मार्च 09, 2025

POST : 1950 गहरी नींद में सोया हुआ शहर ( खामोशियां ) डॉ लोक सेतिया

     गहरी नींद में सोया हुआ शहर  ( खामोशियां  ) डॉ लोक सेतिया

 पत्थरों के घर पत्थर वाले ही ख़ुदा हैं आदमी भी पत्थर दिल हैं यहां मौसम कभी उस तरह से नहीं बदलता है जिस तरह से लोग जल्दी - जल्दी किरदार बदलते हैं । सच कहा जाए तो अभी तक इस शहर की कोई ख़ास अलग अपनी पहचान नहीं बन सकी है , ज़मीन ही से जीवन मिलता है लेकिन शायद धीरे धीरे उस से कट रहें हैं लोग अर्थात अपनी जड़ों से रिश्ता कमज़ोर होता गया है । कोई शायद ही ऐसा दिखाई दिया है जिस को कहा जा सके की शहर का नाम रौशन किया है । लगता है इतनी उपजाऊ धरती पर इक बंजर समाज रहता है , सिर्फ पूर्वजों की कमाई ज़मीन जायदाद और अर्जित शोहरत पर गर्व करना इतराना उस को और ऊंचाई पर ले जाने को कभी कुछ भी नहीं करना अधिकांश की आदत है । खुद अपने ही मुंह से अपनी बढ़ाई करना इस शहर के बड़े धनवान लोगों की रिवायत बन चुकी है , शहर गांव समाज को कुछ योगदान देना कोई नहीं चाहता सभी झूठी शोहरत पाने को व्याकुल रहते हैं । मुखौटे पहने रहते हैं ख़िज़ाब लगाए रहते हैं हंसते हुए कितने दुःख दर्द छिपाए रहते हैं । 
 
  चारागर बीमार हैं अध्यापक रहते लाचार हैं , जिधर भी देखते हैं इश्तिहार ही इश्तिहार हैं । शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार उद्योग की दशा इस शहर में आज भी पिछड़ी हुई है , कुछ भी आवश्यकता होने पर आपको बाहर जाना पड़ता है । कोई भी संस्था नहीं जिसे सभी की भलाई की चिंता हो , अपने वर्ग जाति  आदि को लेकर कुछ संगठन हैं जिनका सिमित दायरा रहता है । इतने सालों में यहां की राजनीति कुनबे कुटंब से बाहर नहीं निकली है और खेद जनक विषय है कि बहुत लोग चाटुकारिता अथवा सत्ताधारी राजनीतिक दलों को पैसा देकर ही बदले में कोई पद हासिल करते रहे हैं । साहित्य को लेकर शहर उदासीन है और जो लिखते हैं वो भी किसी आवरण में छुपे खुद को बंधक बना सुरक्षित समझते हैं इसलिए कोई उच्च कोटि की रचनात्मकता नहीं सामने आई है । पढ़ने को कोई सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं है कुछ हैं जो शिक्षा संस्थानों से जुड़े हैं जिन में अधिकांश छात्र ही जा पाते हैं । सामाजिक बुराईयों से अपने अधिकारों तक इस शहर में इक ख़ामोशी है । तथकथित शरीफ़ अमीर लोग अपने घर खेत में गरीब मज़दूर को बंधुआ समझ जब चाहे जैसा अनुचित आचरण करते हैं लेकिन धार्मिक संस्थाओं के सर्वेसर्वा बन सभ्य कहलाते हैं । किसी को रुलाते उनको कभी खेद नहीं होता ज़ुल्म को इंसाफ़ समझते हैं । 

पत्रकारिता की बात की जाए तो तालाब का ठहरा हुआ पानी जैसी है कोई गतिशीलता नहीं है , गुटबाज़ी तो सभी जगह होती है लेकिन यहां सभी अख़बार सरकारी अधिकारियों राजनेताओं से मधुर संबंध रखते हैं और उनकी भाषा में खबरें लिखते हैं । कभी कभी कोई सामाजिक समस्या की चर्चा होती है जब कोई पत्रकार उस से प्रभावित होता हो , अन्यथा जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता है । निडर निष्पक्ष सच की पत्रकारिता कभी हुआ करती थी जो कब कहां खो गई कोई नहीं जानता । सत्ताधारी नेताओं और जब जो भी प्रशासनिक अधिकारी होते हैं उनका गुणगान महिमामंडन करते हैं सभी स्थानीय पत्रकार । अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष की सीमा प्रशासन सरकार को पत्र भेजने तक रहती है । धर्म को लेकर विशेष अवसर पर काफी आयोजन होते रहते हैं और अनगिनत गुरु शिष्य की परंपराएं हैं लेकिन कोई भी धर्म उपदेशक कभी आचरण में सत्य ईमानदारी को कुछ नहीं कहता है सभी को भजन कीर्तन दान देने अपने मंदिर आश्रम का विस्तार करने की आवश्यकता रहती है । गरीब दीन हीन की सहायता कोई नहीं करता सभी को अपने नाम किसी जगह लिखवाना होता है दान देने के बदले में । 

अमीर रईस लोगों का शहर होने पर भी साधरण नगरवासियों की परेशानियों समस्याओं में कोई सामने नहीं दिखाई देता है । इंसानियत की बात इस शहर में कोई नहीं करता है हैवानियत भी शर्मिंदा होगी इधर कभी आकर देखे तो । आस्तिक होने का दम भरते हैं मगर भगवान से नहीं डरते , ऊपरवाला देखता है कभी इंसाफ़ करेगा कौन जाने ये सच है या ढाल है मनमानी करने वालों की । शहर की विशेषता है कि शाम ढलते ही अधिकांश लोग शराब और खाने पीने के शौक़ीन हैं , क़र्ज़ उठा कर भी मौज मस्ती करने वाले धनवान लोग देखे हैं कंगाल होते हुए भी और कंगाली से मालामाल होते हुए भी किसी राजनीति की शतरंज की बाज़ी से । समझदार चतुर लोग तमाम मिलते हैं लेकिन ढूंढने पर कोई आदर्शवादी कथनी करनी में एक जैसा शख़्स नहीं मिलता है । बौद्धिक दरिद्रता की मिसाल कहला सकता है मेरा ये शानदार शहर यहां सामाजिक संस्थाएं बनती हैं सिर्फ खुद कुछ लोगों की भलाई करने को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल होने को अभिशप्त हैं । 
 
 याद आती हैं  कुछ बातें अक्सर यहां  , ऐसे कितने संगठन बनाये जाते रहे कोई मकसद को लेकर लेकिन वो भटक गए अपनी राह से और कुछ लोग उनका उपयोग अपने स्वार्थ पूरे करने को करने लग गए । शायद सभी जगह ऐसा होने लगा है कि लोग समाज को कुछ देना नहीं चाहते अपितु पाना चाहते हैं समाज सेवा के नाम पर , मेरा शहर भी ऐसा ही है ।  वास्तव में लगता है मेरा शहर बहुत गहरी नींद में सोया हुआ है , कोई हलचल कभी नहीं होती इस में बेशक दुनिया में सौ तूफ़ान आते रहें , इक वीरानगी है जिसे लोग शांति समझते हैं । ये
किसी एक शहर की नहीं हर शहर की यही कहानी है प्यास ही प्यास है भागते रहते हैं रेगिस्तान में चमकती हुई रेत है समझते हैं जिसको पानी है ।










फ़रवरी 21, 2025

POST : 1949 लोकदेव नेहरू - रामधारी सिंह दिनकर ( पुस्तक समीक्षा ) डॉ लोक सेतिया

 लोकदेव नेहरू - रामधारी सिंह दिनकर ( पुस्तक समीक्षा ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने हमेशा कितने लोगों की किताबों की समीक्षा करने से बचना चाहा है , और इतने महान कवि विचारक की किताब पर कुछ भी कहना मुझ जैसे साधरण लेखक के लिए आसान कदापि नहीं है । कुछ साल पहले बालमुकुंद अग्रवाल जी की किताब पढ़ कर स्वतंत्रता आंदोलन के 90 साल 1858 से 1946 की कहानी समझने में आसानी हुई थी अब इस किताब को पढ़कर सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही नहीं बल्कि अन्य तमाम महान नायकों की विचारधारा उनकी देशभक्ति और सामाजिक सरोकारों की चिंता को लेकर सटीक और विश्वसनीय जानकारी हासिल हुई है । राष्ट्रकवि दिनकर जी से बेहतर शायद कोई और इस विषय पर पूर्ण निष्पक्षता ईमानदारी से लिखने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि दिनकर जी नेहरू के करीबी होकर भी महिमामंडन या चाटुकारिता कदापि नहीं कर सकते थे जो बेहद महत्वपूर्ण होता है । 

रामधारी सिंह दिनकर : - 

जन्म 23 सितंबर 1908 , निधन 24 अप्रैल 1974 , 

1959 में ' संस्कृति के चार अध्याय ' पर साहित्य अकादेमी पुरुस्कार और पद्मभूषण की उपाधि , 1973 में उर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरुस्कार ।

महीयसी महादेवी वर्मा ने दिनकर जी को विश्वकवि कहा था क्योंकि उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की वाणी और उसकी स्वायत्तता का गैरवगान और संघर्ष नहीं वरन प्रेम का इक व्यापक क्षितिज है जो उनको विश्वकवि की श्रेणी में ले जाता है । 

दिनकर जी ने कहा था सच्चा कवि हमेशा जीवित रहता है , उस के प्रति राग और द्वेष के कारण उसके सामने उसका सही मूल्यांकन नहीं हो पाता । 

किसी कवि का सही मूल्यांकन उसके निधन के पचास वर्ष बाद होता है , और आज लगता है वही समय है दिनकर जी का निधन होने के पचास साल बाद का । 

पुस्तक से कुछ अंश लेकर समझने की कोशिश करते हैं : - 

( नेहरू जी को दिनकर जी ने हर जगह पंडित जी कहकर संबोधित किया है ये बताना ज़रूरी है आगे पढ़ते हुए ध्यान रहे। )

चीनी आक्रमण के बाद दिनकर जी ने नेहरू की मनोसिथ्ति को समझते हुए लिखा है , मैं जिस धर्म का प्रतिपादन कर रहा था , वह आपद्धर्म था । पंडित जी घोर संकट में भी परम धर्म पर आसीन थे । पंडित जी उस हारी हुई ज्योति के प्रतीक थे , जो पराजित हो कर भी अन्धकार को ललकार रही थी । 

{ परशुराम की प्रतीक्षा } 

अन्धकार को दबी रौशनी की धीमी ललकार ,
कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार । 
सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ?
देखा है क्या कहीं और भू पर उस नर को -
जिसे न चढ़ता ज़हर , न तो उन्माद कभी आता है ,
समर-भूमि में भी जो पशु होने से घबराता है । 
 
आगे दिनकर जी कहते हैं , हिंसा- अहिंसा के बारे में पंडित जी के लगभग वे ही विचार थे , जिनका प्रतिपादन मैंने ' कुरुक्षेत्र ' काव्य में किया है : 
 
व्यक्ति का है धर्म तप , करुणा , क्षमा ,
व्यक्ति की शोभा विनय भी , त्याग भी ;
प्रश्न जब उठता , मगर , समुदाय का ,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को । 
कौन केवल आत्मबल से जूझ कर 
जीत सकता देह का संग्राम है ?
पाशविकता खड्ग जब लेती उठा ,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं । 
 
संस्मरणों की चर्चा करते तो शायद पूरी किताब ही लिखनी पड़ती मगर यहां सिर्फ सार की बात कहनी है ताकि पुस्तक को लेकर पाठक राय बना सकें । 148 पेज से आखिर में दिनकर जी ने अध्याय ' पंडित जी का जीवन दर्शन ' लिखा है जिस में कुछ शीर्षक से नेहरू जी का सपष्ट व्यक्तित्व उजागर होता है । 
 

                  1        धर्म 

दिनकर जी कहते हैं पंडित जी की पूरी श्रद्धा भगवान बुद्ध  पर अटूट थी , भगवान बुद्ध अपने समय से बहुत पहले जनमे थे अथवा यह कहना चाहिए कि उनका समय अब आया है । बुद्ध अगर बीसवीं सदी में जनमे होते , तो उनके सबसे निकटवर्ती आत्मबन्धु गांधी जी और जवाहरलाल हुए होते । बुद्ध का ईश्वर के विषय में क्या मत था ? ऐसे सभी प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में डाल रखा था । किन्तु वे आज अगर मौजूद होते और हम उनसे पूछते ईश्वर है या नहीं , तो उनका जवाब होता , तुम्हें प्रश्न करना नहीं आया । 
 
' मान लो कि ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे हैं , तो परिणाम क्या होगा ?'
 
' अच्छा होगा । ' 
 
' और मान लो ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे नहीं हैं , तो परिणाम क्या होगा ? '
' परिणाम बुरा होगा । '
 
' तो फिर पूछना यह चाहिए कि तुम हो या नहीं तुम्हारे कर्म कैसे हैं । 
वैसे जवाहरलाल जी गीता के प्रेमी थे और गांधी जी को देख कर उन्हें ये विश्वास हो गया था कि सिथ्तप्रज्ञता कल्पना हवाई नहीं है और साधना से सिथ्तप्रज्ञता प्राप्त की जा सकती है ।   
   

               2                     हिंसा-अहिंसा 

दिनकर बताते हैं कि पंडित जी मानते थे कि अहिंसा का सर्वत्र पालन वही व्यक्ति कर सकता है , जिस के भीतर की मानवता अत्यन्त विकसित और सजीव हो , जो भारी से भारी कष्ट सहकर भी उत्तेजना में न आए । 

             3                   प्रजातंत्र 

पंडित जी व्यक्ति के वयक्तित्व का आदर करते थे और यह मानते थे कि असली प्रजातंत्र वह है , जहां सारी जनता मतदान द्वारा अपनी राय ज़ाहिर करती है और शासन उसी राय के अनुसार चलता है । एक हद तक शिक्षा और समृद्धि लाये बिना प्रजातंत्र ठीक से काम नहीं करता है ।
 

             4                  समाजवाद 

सन् 1929 ई में पंडित जी ने लाहौर कांग्रेस के सभापति - पद से ऐलान किया था कि मैं समाजवादी हूं और राजाओं तथा उद्योगपतियों के साम्राज्य के ख़िलाफ़ हूं । प्रजातंत्र और समाजवाद को वे एक ही सिक्के के दो पहलू समझते थे । 

                5              राष्ट्रीयकरण 

सन् 1954 ई में उन्होंने कहा था , समाजवाद विषयक हमारी आम धारणा यह है कि उस से उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होता है । इसलिए ऐसा सोचा जा सकता है कि हम तुरन्त उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दें । जैसे जैसे समाजवाद की प्रगति होगी , अधिक से अधिक उद्योग राष्ट्रीय सेक्टर में होंगे । किन्तु अभी हमारा उद्देश्य धन के उत्पादन और रोज़गार में वृद्धि होनी चाहिए । 
 

              6           राज्य और व्यक्ति   

पंडित जी मानते थे कि आज तक राज्य का उद्देश्य वैदेशिक आक्रमण और आन्तरिक उत्पात से समाज की रक्षा करना रहा है । लेकिन अब कल्याणकारी राज्य का ध्येय जनता की शिक्षा , स्वास्थ्य , रोज़ी आदि समस्याओं का भी समाधान निकालना हो गया है ।
 

                7      पंडित जी और भारतीय एकता 

काल का कारण राजा होता है या राजा का कारण काल - इस प्रश्न का सबसे सही उत्तर यह है कि महापुरुष काल की प्रेरणा से जन्म लेते हैं और फिर वो काल को प्रभावित भी करते हैं । जवाहरलाल जिस युग में जनमे , वह बहुत पहले से एकता की खोज में बेचैन चला आ रहा था । गांधी जी और जवाहरलाल ने उस बेचैनी में वृद्धि कर दी और जनता के मन पर यह बात बिठा दी कि एकता और आज़ादी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । कहते हैं , महापुरुषों के जीवन में अक्सर असफलता अन्त - अन्त तक उनका पीछा करती है । राम  , कृष्ण , सुकरात , ईसा , कबीर और गांधी - ये अपने जीवन में  क़ामयाब नहीं हुए ,  मगर दुनिया को रौशनी उन्हीं के आदर्शों से मिल रही है । अब वही लड़ाई काल के अखाड़े में चल रही है । इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा रौशनी गांधी जी की कुर्बानी से आ रही है , जवाहरलाल की उन कोशिशों से आ रही है जो उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए की थीं और जिन कोशिशों में वे नाकामयाब रहे ।  ये सभी बातें विचार रामधारी सिंह दिनकर जी की किताब से शब्द - ब - शब्द लिए गए हैं मैं उनसे अच्छा क्या वैसा भी कभी भी नहीं लिख पाऊंगा अत: इसे समीक्षा नहीं प्रमुख अंश कहना उचित होगा । 

                            पंडित जी के संस्मरण 

इस से पुस्तक की शुरुआत की गई है मगर मैंने इसे आखिर में रखा है क्योंकि पेज नंबर 13 से पेज नंबर 147 तक 134 पेज पर तमाम घटनाओं स्मृतियों का विवरण है जिसे बड़े ही ध्यान से पढ़ना ज़रूरी है । लेकिन मैंने कुछ बातों का चयन किया है जो नेहरू जी की सोच को दर्शाती हैं । दिनकर जी बताते हैं पहली बार पंडित जी को करीब से देखने का अवसर तब मिला जब किसी राजनीतिक सम्मेलन में मुज़फ्फरपुर में मंच पर जिस मसनद के सहारे पंडित जी बैठे थे , मैं उस के पीछे बैठा था । उस से कुछ दिन पूर्व मुंगेर में श्रीबाबू को टंडन जी ने एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया था , सुयोग देख कर नन्दकुमार बाबू ने ग्रंथ की एक प्रति जवाहरलाल जी के सामने बड़ा दी । पंडित जी ने उसे उलटा पलटा और देखते देखते उनके चेहरे पर क्रोध की लाली फ़ैल गई । फिर वे बुदबुदाने लगे ' ये गलत बातें हैं । लोग ऐसे कामों को बढ़ावा क्यों देते हैं । अजब संयोग कि उन्हीं दिनों अज्ञेय जी और श्रीलंकासुन्दरम नेहरू अभिनंदन ग्रंथ का सम्पादन कर रहे थे । दिनकर जी लिखते हैं जब ऐसा आयोजन होना था उस समय मैं भी तमाशा देखने दिल्ली गया हुआ था । जब राजेन्द्र बाबू ने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करना था उस से एक दिन पहले मैं उनसे मिलने गया था । बातों के सिलसिले में मैंने राजेन्दर बाबू से जानना चाहा कि पंडित जी को अभिनन्दन ग्रंथ कौन भेंट करेगा । राजेन्दर बाबू ने बताया  ' लोगों की इच्छा है कि ग्रंथ मेरे हाथों दिया जाना चाहिए , मगर पंडित जी इस विचार को पसंद नहीं करते । वे मेरे पास आये थे और कह रहे थे कि कल से आप राष्ट्रपति हो जाएंगे । मैं नहीं चाहता कि अभिनन्दन ग्रंथ जैसे फालतू काम के लिए राष्ट्रपति इम्पीरियल होटल में कदम रखें , न ही मैं यही चाहता हूं कि यह समारोह राष्ट्रपति भवन में मनाया जाये । जिन लोगों ने ये तमाशा खड़ा किया है उन्हें भुगतने दीजिये । और , सचमुच , समारोह का आयोजन होटल में ही हुआ और ग्रंथ टंडन जी ने ही भेंट किया । 
 
एक अन्य घटना को लेकर दिनकर जी लिखते हैं , संसदीय हिंदी परिषद की गोष्ठी पंडित जी के घर पर हो रही थी । पंडित जी के बोलने की बारी आई , उन्होंने कहा , ' अभी मैं उड़ीसा गया हुआ था । सुना , वहां के आदिवासी भाई आर्य रक्तवालों से नाराज़ हैं । वो कहते हैं कि एकलव्य अनार्य था और द्रोणाचार्य आर्य थे । इसी कारण द्रोणाचार्य ने उस अनार्य नैजवान का अंगूठा कटवा लिया । ' यह बात सुनकर सभी श्रोता हंसने लगे ; किन्तु पंडित जी को हंसी नहीं आई ; बल्कि विचलित हो कर उन्होंने कहा , ' और अपनी बात मैं आपको बताऊं ? यह सब सुनकर मुझे गुस्सा हो आया । ' 
 
दिनकर लिखते हैं , द्वापर से कलयुग बहुत दूर पड़ता है । लेकिन सच्ची मानवता इस दूरी को नहीं मानती । किन्तु कितनी सजीव थी उस पुरुष की मानवता , जो कलयुग में खड़ा हो कर द्वापर के अन्याय से तिलमिला उठता है !   
 
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फ़रवरी 20, 2025

POST : 1948 कॉमेडी बन गई है राजनीति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      कॉमेडी बन गई है राजनीति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सियासत क्या है समझो कयामत है , वही चमकता है जिस की किस्मत है , रामगढ़ वाले नहीं जानते कौन ठाकुर है कौन बसंती है । कौन कहता है कि चाहत पर सभी का हक है उनकी मर्ज़ी है कुर्सी पर कौन बैठेगा मुख्यमंत्री वही जो उनके मन भाये । शतरंज उनकी है लेकिन कौन बादशाह कौन रानी कितने प्यादे सब उनके हाथ की कठपुतलियां हैं । नौटंकी का लुत्फ़ उठाओ खामोश रहो सिर्फ पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ जब ज़रूरत हो ताली बजाओ नाटक को मत समझो दिल को बहलाओ रोटी नहीं मिलती है तो केक खरीद कर पेट की भूख मिटाओ । चार्वाक ऋषि कहते हैं क़र्ज़ लेकर घी पियो जैसे भी चाहे मौज मनाओ जियो मत किसी को चैन से जीने दो आखिरी जाम है मुझे पीने दो । कॉमेडी शो जब चलता है तब लोग उस बात पर भी कहकहे लगाते हैं जिसे समझने वाले की आंखों में अश्क़ भर आते हैं । ये हम्माम है सभी नहाने वाले नंगे होते हैं लेकिन बादशाह सलामत छाता लेकर बारिश में नहाते हैं गीत पुराना गुनगुनाते हैं बिना भीगे घर से दफ़्तर पहुंच जाते हैं ।  कपिल शर्मा कभी नहीं समझे लोग किस बात पर हंसते हैं उनको बस यही आता है जिस को जैसा चाहे बनाते हैं कलाकार अपना किरदार निभाते हैं कपिल सभी का मज़ाक उड़ाते हैं कहते हैं कभी न कभी हर किसी के दिन आते हैं । सोनी से बिछड़ कर नेट्फ़्लिक्स से रिश्ता बनाया था अब पछताते हैं , आजकल लोग कोई धुन बनाते हैं रैप सांग गाते हैं सुर ताल इस तरह मिलते हैं शब्दों के तुकांत मिलते मिलते बिना किसी मकसद अपनी मस्ती में झूमते गाते हनीसिंह कहलाते हैं । चार दिन की चांदनी में ज़िंदगी जीते हैं अचानक खो जाते हैं । आज आपको इक राजा की कहानी सुनाते हैं सिकंदर का मुक्कदर बदलता है तब अच्छे दिन आते हैं । 

असली बेशकीमती लाल चोरी नहीं हुए लेकिन खो गए हैं लगता है उन्होंने खुद अपनी कीमत नहीं समझी है और आधुनिक युग का जोहरी जिस भी कांच के टुकड़े को किसी पत्थर को हीरा घोषित करता है उसी को बादशाह अपने ताज पर जगह दे कर अनमोल बना देते हैं । मेरी इक ग़ज़ल का शेर है , अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में , देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई । ये इसलिए बताना पड़ा है क्योंकि अनमोल उस को कहते हैं जिस की कोई कीमत नहीं लगा सकता हो , जब आप खुद बिकने चले आये इस दुनिया के चोरबाज़ार में तब अपनी कीमत खुद आपने गंवा दी है । रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल । संसद विधायक दौलत के तराज़ू में टके सेर भाव से बिकने लगे हैं , जनता ने चुना था उसके अधिकार की बात करेंगे मगर उन्होंने खुद अपना अधिकार गिरवी रख छोड़ा सदन का नेता चुनने का । जो बिक गया वो ख़रीदार नहीं हो सकता , बाज़ार का दस्तूर है कैसे समझाऊं । कॉमेडी के नाम पर आपत्तिजनक बातें करने पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है जैसे ठीक उसी तरह जनहित की राजनीति को छोड़ बंदरबांट से लेकर मनोनयन की नीति की प्रणाली पर भी अदालत को ध्यान देना चाहिए अन्यथा चुनाव आयोग की कोई अहमियत नहीं बचेगी और न ही संसदीय विधायी प्रणाली का कोई महत्व रहेगा । सत्ता की राजनीति का कूड़ा कर्कट भी गंगा जमुना की तरह साफ़ करना अनिवार्य है संविधान का महत्व तभी समझ आएगा । कॉमेडी से समाज देश का भला नहीं हो सकता , भूखे भजन न होय गोपाला ।
 
अब मेरी लिखी ग़ज़ल पूरी पेश है । 

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ( ग़ज़ल ) 

          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई ।

इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई ।

बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई ।

मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई ।

( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई ।

सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई ।

लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा
ऐसे  किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई ।  
 

 





फ़रवरी 18, 2025

POST : 1947 सल्तनत का सुल्तान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        सल्तनत का सुल्तान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

सियासत की चाल सीधी नहीं होती तिरछी टेड़ी होती है , जनता विधायक कैसे कैसे लोगों को चुन देती है , विधायक सांसद मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री चुनने लगे तो अंजाम क्या हो , यही सोचकर सदन का नेता सदन के सदस्य चुनने का जोख़िम नहीं उठाया जाता , संविधान खामोश रहता है कुछ नहीं कह सकता । आधुनिक संदर्भ में इक नई कहानी लिखनी पड़ेगी । राजतिलक की पुरानी रस्म को शपथ ग्रहण नाम दिया गया है शपथ खाई जाती है निभाई कभी नहीं जाती है । राजमुकट सुरक्षित रखा गया था लेकिन जब आवश्यकता पड़ी तो राजमुकट अपनी जगह नहीं मिला , सुरक्षाकर्मी तलाश करने लगे और आखिर इक पेड़ पर इक बंदर उसे लिए मिल ही गया । किसी ने बचपन की कहानी याद दिलवाई कि किसी की टोपी बंदर पहने बैठा था पेड़ पर तब तरकीब लगाई अपनी टोपी उतार कर फैंक दी तो बंदर ने भी नकल करते हुए वही किया । शाहंशाह ने अपना ताज सर से उतार कर धरती पर रखा लेकिन बंदर ने तब भी राजमुकट पहने रखा , अचानक बंदर की बंदरिया आई और धरती से ताज उठाकर झट से पेड़ की टहनी पर झूलने लगी । 
 
जैसे ही इक बंदर ने जाकर जंगल में सभी को ये समाचार सुनाया सभी बंदर उसी राजधानी के बाग़ में जमा होकर नाचने झूमने लगे । कुछ ऐसा लग रहा था जैसे सल्तनत का सुल्तान इक बंदर को बना दिया गया है और उसकी बंदरिया को रानी घोषित किया गया है । अभी तलक थोड़ा संशय था अब निर्धारित हो गया है कि आधुनिक शासन बंदरबांट का है इसलिए बंदरों का तख़्तो - ताज पर पहला अधिकार है रामायण काल में बंदरों का शासन रहा था कि नहीं इस सदी में बंदरों की उपेक्षा कोई नहीं कर सकता है । बिल्लियां शेर को सबक पढ़ाती रहीं और बंदर बिना किसी से राजनीति सीखे शिखर पर पहुंच गए ऐसी इक छलांग दिल्ली में ही लगाना दुनिया को हैरान करता रहा । फिर से इक बार इक बंदर ने सूरज को निगल लिया था बड़ी मुश्किल से रिहाई संभव हुई है । 

अभी भी लोग यकीन नहीं कर पाये हैं जिनको मसीहा समझते रहे वही क़ातिल निकला , भला ऐसे भी किसी को कोई ठुकराता है जिस से बेपनाह मुहब्बत की बातें की हों । दिल्ली की गलियां छोड़ कर कोई जाये भी कहां जाकर सुकून ढूंढे नहीं कोई भी ठिकाना दिल से निकलने वालों का दिल की किताब पढ़ना छोड़ दिया कब से ज़माने ने । उम्र गुज़रती थी कभी दिल लगाने में कितना लुत्फ़ था रूठने और मनाने में , ज़िक्र तक नहीं अपना उनके अफ़साने में जिनका बसेरा था इस दिल के आशियाने में । बंदर जब सत्ता पर विराजमान होते हैं सच कहें बड़े महान होते हैं पहचान उनकी बड़े बलवान होते हैं हाथ में तलवार हो तो उसी का सर कटता है जिस पर बड़े मेहरबान होते हैं । दुनिया में ऐसे भी नादान होते हैं जिनकी आह में कितने तूफ़ान होते हैं । आखिर इक मदारी को बुलवाया गया , भीड़ भाड़ में उसका मजमा सजाया गया । बंदर बंदरिया का शादी करने का खेल रचाया गया तब जाकर उनसे राजमुकट और ताज उतरवाने को दूल्हा दुल्हन बना मनवाया गया । मदारी को मंत्रीमंडल में शामिल कर उसका आभार जताया गया । 




 

फ़रवरी 17, 2025

POST : 1946 ग़ाफ़िल कहता ग़ाफ़िल की बात ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

 ग़ाफ़िल कहता ग़ाफ़िल की बात ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

 
दिल ही समझा ना है दिल की बात 
लहरों से होती क्या साहिल की बात ।
 
दर्द अपना किसे बताएं लोग जब अब  
मुंसिफ़ ही कहता है क़ातिल की बात ।  

दिल्ली में कोहराम मचा हुआ है कोई
कीचड़ से सुन कर कमल की बात । 

जमुना का पानी रंग बदलता नहीं कभी  
मछलियां जब करती जलथल की बात ।
 
आई डी दफ़्तर में रखा है सर का ताज़
यही पुरानी आज बनी इस पल की बात ।
 
गूंगों बहरों की बस्ती में होता शोर बहुत 
यही है दिल्ली की हर महफ़िल की बात ।  
 
 
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फ़रवरी 09, 2025

POST : 1945 दिल्ली की गलियां चौबारे ( दिल से दिल तलक ) डॉ लोक सेतिया

  दिल्ली की गलियां चौबारे ( दिल से दिल तलक ) डॉ लोक सेतिया 

दिल्ली छोड़ कर कौन जाता है ग़ालिब सच कहते हैं लेकिन मैंने खुद कितनी बड़ी नादानी की 1980 में बिना सोच विचार दिल्ली को अलविदा कह वापस अपने शहर गांव चला आया ।  कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की पर आज सोचा ये बताना ज़रूरी है , दिल्ली में रहने वाले का ठप्पा चिपक जाए तो आदमी घर का रहता है न घाट का । शहर से बाहर पहले पांच साल पढ़ाई की खातिर रोहतक रहना पड़ा फिर दिल्ली जाकर ठिकाना बनाया सात साल तक खूब बड़े ही सलीके से ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाया । नासमझी कहें चाहे नसीब की बात दिल्ली को छोड़ना ही नहीं बाद में कोशिश कर भी दिल्ली नहीं जा पाना हमेशा इक कसक दिल में रही है । आजकल क्या मिलता है मुझे नहीं मालूम लेकिन तब मुझे जो चाहिए था जीवन में प्यार वो सिर्फ दिल्ली से मिला कभी कहीं से नहीं मिला उम्र भर तलाश करता रहा । इसलिए मुझे दिल्ली कोई महानगर नहीं मुझे अपनी महबूबा लगती है बड़ी ही दिलकश और हसीन गलियां बाज़ार चौबारे और कितने प्यारे प्यारे दोस्त कई रिश्ते नाते इतना सब उस शहर के सिवा कहीं नहीं मिला आज तक । दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी नहीं है देखा जाये तो दिल्ली में पूरा हिंदुस्तान समाया हुआ है दिल्ली ने सभी को अपनाया हुआ है । कभी शासक बाहर से आते थे दिल्ली को लूटते थे लौट जाते थे लेकिन धीरे धीरे दुनिया भर से मतलबी लोग इस नगरी में आकर दिल्ली से सब कुछ हासिल करने के बाद भी दिल्ली की बुराई करते हुए संकोच नहीं करते लेकिन रहते यहीं हैं । दिल्ली के साथ ये छल ऐसा व्यवहार करने वाले कभी दिल्ली के नहीं बन सकते हैं । वास्तव में अधिकांश लोग दिल्ली को समझ ही नहीं पाते हैं जैसे लख़नऊ कोलकाता मुंबई चंडीगढ़ जैसे शहरों को निवासी समझते ही नहीं बल्कि उनका वास्तविक स्वरूप कायम रखते हैं । ये कसूर किस का कहना कठिन है लेकिन आज जैसी दिल्ली बन गई है वैसी दिल्ली की कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी । 
 
जितने साल मैं रहा दिल्ली में मैंने जितना दिल्ली को देखा समझा कभी किसी और जगह को शायद ही जाना है इसलिए 73 साल की ज़िंदगी में दिल्ली में बिताये सात साल मुझे सबसे महत्वपूर्ण खूबसूरत और शानदार लगते हैं । मेरी ज़िंदगी की कहानी बिना दिल्ली के लिखी ही नहीं जा सकती है , उस दिल्ली का हर कोना मैंने देखा है किसी गंदी बस्ती से लेकर लुटियन ज़ोन में राष्ट्र्पति भवन और मुगल गार्डन तक । कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि किसी ने मुझसे कहा कि आपके पीछे पीछे हम दिल्ली चले आये और खुद आप ही छोड़ गए दिल्ली को । मैं लगता है जैसे कोई बंजारा कभी कहीं कभी कहीं जाता रहता है लेकिन बंजारा किसी शहर से दिल नहीं लगाता है जैसा मैंने दिल लगाया और दिल हमेशा उसी शहर में रहा । दिल अभी भी वहीं जाने को व्याकुल रहता है कैसे समझाऊं दिल को कि अब वहां कौन है जो मुझे अपनाएगा । कहते हैं जिसकी हसरत हो नहीं मिलने पर कशिश रहती है मिल जाए तो बात वैसी नहीं रहती लेकिन मुझे तो दिल्ली ने खुद बुलाया था हासिल था सभी फिर भी दिल्ली से बिछुड़ना पड़ा कौन इस को समझेगा बताएगा ये मुहब्बत क्या है । यूं मैंने कभी भी कोई ऐशो आराम कोई शान ओ शौकत कभी नहीं चाही न ही पाई भी लेकिन इक ऐसी ज़िंदगी जिस में कोई बंधन कोई शर्त नहीं हो मनमौजी की तरह खुश रहना मुझे बस सिर्फ वही पसंद थी जो दिल्ली में ही मिली मुझको । 
 
करोलबाग़ से चांदनी चौक तक की रौनक की यादें हैं तो हर दिन अलग अलग जगह लगने वाली मार्किट जिस में सभी कुछ मिल जाता है भी याद है । कभी कभी लगने वाले मेले में दोस्तों संग जाना कभी मंडी हाउस जाना नाटक देखने कितने ही यादगार पल हैं , लेकिन सबसे बढ़कर रामलीला मैदान में जाकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का भाषण सुनना 25 जून 1975 को जिस ने जीवन को इक नई दिशा दिखाई मेरी ज़िंदगी को इक मकसद से जोड़ने का कार्य किया । सच तो ये है कि मैं जैसा हूं मुझे बनाने में दिल्ली में गुज़ारे कुछ साल उसकी नींव हैं , मेरी जड़ें उसी धरती से जुड़ीं हुई हैं आज भी । प्यार क्या होता है और किस से कैसे होता है नहीं मालूम लेकिन मुझे दिल्ली से बेइंतहा प्यार है ।  दुनिया में दिल्ली जैसी कोई और जगह शायद ही कहीं हो मुझे तो लगता है कोई और शहर दिल्ली नहीं बन सकता , मेरी प्यारी दिल्ली को सलाम । 
 

 
 
 


 
  

फ़रवरी 08, 2025

POST : 1944 आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

दस साल पहले 12 फरवरी 2015 को उनकी जीत का राज़ समझने को पोस्ट लिखी थी , दस साल बाद उन्हीं की पराजय का अर्थ समझने की आवश्यकता है । आम कहलाना आसान था आम बनकर रहना बेहद कठिन था बस आप कभी अपने नाम पर खरे नहीं उतर पाए खुद को ख़ास नहीं बल्कि खास से भी थोड़ा ऊपर समझने लगे थे । सभी मापदंड सभी कायदे कानून दुनिया भर के लिए खुद पर कोई बंधन नहीं मान कर मनमानी करने की छूट की आदत ने आपकी राजनीति को बदलने की सोच की बात को कभी गहराई तक जाने नहीं दिया तभी आपका पौधा फ़लदार नहीं हुआ , ज़रा से हवा चलते ही ज़मीन पर गिर गया इरादों की परिपक्वता की कमी से । पहाड़ की ऊंचाई आपने बिना किसी परिश्रम हासिल कर ली जैसे कोई जादुई अलादीन का चिराग़ मिल जाये और हुक्म मेरे आका कहते ही असंभव कार्य संभव कर दे । लेकिन ये खेल तमाशा वास्तविक नहीं होता है इक धोखा होता है क्योंकि आपको कोई जादुई चिराग मिला नहीं था जिस से आप कुछ भी कहते होता जाता इसलिए कभी न कभी जनता को समझ आना ही था । कभी आप बंदर की तरह बिल्लियों में रोटी बांटने वाले बन कर सारी रोटी खुद खाते गए लेकिन समय बदलते ही कोई और उसी तरह बंदर बन कर आपका हिसाब बराबर कर गया है । कहते हैं कर्मों का परिणाम सामने आता है बस लोग समझते नहीं हैं कि बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय । आम तो मौसम बदलते साल बाद वापस पेड़ पर लगने लगते हैं लेकिन राजनीति में जब कोई ख़ास हो जाता है फिर से साधारण बनना असंभव होता है ।
 
आप कैसे थे कैसे इतने बदले की लोग आपको पहचानते ही नहीं भला इतने रंग कोई बदलता है गिरगिट भी हैरान है आपकी ज़ुबान है या कोई बेसुरी तान है । जिधर देखो किसी की झूठी शान का यही हाल है जिस का हर चाहने वाला हुआ लहूलुहान है । जान है तो जहान है खोया आपका ऊंचा आसमान है धरती पर कोई आपका नाम है निशान है कोई खुदा आप पर क्या मेहरबान है इक बस्ती जिस में रहता आम इंसान है कोई झौपड़ी है कच्चा मकान है । अपने देश में आम जनता का यही बसेरा है आपको लगता अंधेरा भी कोई हुआ सवेरा है चार दिन का डेरा है क्या तेरा मेरा है , लूटने का कारोबार आजकल की राजनीति है कौन चोर कौन डाकू सबकी आती बारी है । दल कोई जीतता कोई हारता है जनता हमेशा ही हारी है हार कर भी जनता मानती हार नहीं लोकतंत्र से उसकी सच्ची प्रीती है । चुनाव की घड़ी में जनता की परीक्षा होती है , सामने कुंवां पीछे खाई दिखाई देती है कौन समझेगा हमने क्या क्या आज़माया है जिस पर यकीन किया उसी से धोखा खाया है ।  दूल्हा कौन नहीं जानती दुल्हन बेचारी , बिछुड़े संगी सहेलियां सारी बजने लगी है कोई शहनाई पहले होगी विदाई , गृहप्रवेश की रस्म निभाई , लेकिन ये बंधन है अस्थाई कैसे कहे बता मेरी माई सत्ता किसी की सगी नहीं होती है शासक होते हैं हरजाई । कविता जाने किसने समझी किसने समझाई पढ़ना आप भी लिखी लिखाई ।
 
 

चुनावी आंकड़ों का बाज़ार ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कितना अनुपम है , हर दल का इश्तिहार , 
जनता का वही ख़्वाब सुहाना , सच होगा 
देश की राजनीति का बना पचरंगा अचार
नैया खिवैया पतवार चलो भवसागर पार । 
 
देख सखी समझ आंख मिचौली की पहेली 
सत्ता होती है , सुंदर नार बड़ी ही अलबेली 
सभी बराबर अब राजा भोज क्या गंगू तेली 
मांगा गन्ना देते हैं गुड़ की पूरी की पूरी भेली ।
 
अपना धंधा करते हैं जम कर के भ्र्ष्टाचार
हम जैसा नहीं दूसरा कोई सच्चा ईमानदार 
दोस्त हैं दुश्मन , सभी हम उनके दिलदार 
दुनिया सुनती महिमा , अपनी है अपरंपार ।
 
छोड़ दो तुम सभी अपनी तरह से घरबार
इस ज़माने में ढूंढना मत कभी सच्चा प्यार 
अपने मन की करना , सोचना न कुछ तुम 
बड़ा मज़ा आता है कर सबका ही बंटाधार । 
 
हमने मैली कर दी गंगा यमुना सारी नदियां 
पापियों के पाप धुले कहां नहलाया सौ बार 
डाल डाल पर बैठे उल्लू , पात पात मेरे यार 
खाया हमने सब कुछ नहीं लिया पर डकार । 
 
अपने हाथ बिका हुआ है आंकड़ों का बाज़ार 
अपना खेल अलग है , जीतने वाले जाते हार 
काठ की हांडी हमने देखी चढ़ती बार-म-बार 
कौन समझा कभी जुमलों की अपनी बौछार ।     
 
अपना रोग लाईलाज है कौन करेगा क्या उपचार 
जितनी भी खिलाओ दवाई कर लो दुआएं भी पर 
कुछ असर नहीं होता हम को रहना पसंद बिमार 
बदनसीब जनता का ख़त्म नहीं होता इन्तिज़ार । 
 
 विदाई के बाद के रीति रिवाज जब बहू नए घर आती है: Griha Pravesh Tips -  Grehlakshmi

फ़रवरी 04, 2025

POST : 1943 विश्व आर्थिक मंच का विषकन्या प्रयोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   विश्व आर्थिक मंच का विषकन्या प्रयोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

( ख़बर से सनसनी मची है कि डब्ल्यू ई एफ की वार्षिक बैठक में बेहद महत्वपूर्ण आयोजन में 2025 की सभा में 130 देशों के 3000 से अधिक दुनिया भर के नेताओं और अमीरों ने हिस्सा लिया जिस में जिस्मफ़रोशी की पार्टियों में 9 - 9 करोड़ में लड़कियां बुक करवाई गईं । भारत इस दौरान वैश्विक उद्यमियों से 20 लाख करोड़ से अधिक की निवेश प्रतिबद्धताएं हासिल करने में सफल रहा पांच केंद्रीय मंत्री और तीन राज्यों के मुख्यमंत्री भारत देश से अब तक के सबसे बड़े प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने गए थे । ) 
 
पुराने ज़माने में राजा लोग दुश्मन से दुश्मनी निकालने को विषकन्याओं का उपयोग किया करते थे अपने दुश्मन को खूबसूरत महिलाओं का उपहार भेजते जो विष शरीर के अंगों पर लगा अपना काम किया करती थी । राजा रियासत नहीं जागीर नहीं आजकल सरकार मंत्री और धनवान कारोबारी उद्योगपति बड़ी बड़ी कंपनियों के मालिक धंधा बढ़ाने को क्या नहीं करते हैं । कोई ऐसा भी है जिसने खुद को छोड़ सभी को नकली घोषित किया हुआ है सिर्फ मीडिया को विज्ञापनों से खरीद कर अपना झूठ बेच रहा है सच का लेबल लगाकर । अब भारत सरकार जनता को अन्य वर्गों को अनुदान सहयोग अथवा करोड़ों को अनाज भी देती है तो पैसा देश की जनता से वसूले करों से खज़ाने से खर्च किया जाता है लेकिन तस्वीर किसी एक राजनेता की लगाई हुई जतलाती है जैसे वही दानवीर है । इधर पुरानी परंपराओं आदर्शों और धर्म दान कर्म का बड़ा शोर है , चलो इक बार फिर से इक शासक की वास्तविक मिसाल की घटना को समझते हैं ।
 

रहीम और गंगभाट संवाद : - 


इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
आपने आजकल के ऐसे अमीरों के चर्चे सुने हैं लेकिन उनकी अमीरी की वास्तविकता सभी से छुपी रहती है । नहीं ये कोई तकदीर का खेल नहीं है , अभी किसी ने विवाह पर हज़ारों करोड़ खर्च किए जिसकी चर्चा हुई लेकिन उस आयोजन में कोई ऐसा भी विदेशी नाचने वाला बुलवाया गया था जो अश्लील भाव भंगिमाओं से महिलाओं का मनोरंजन करने को बदनाम है । आपको अचरज नहीं होता जब वही लोग धर्मं ईश्वर पूजा अर्चना भी ऐसे ही शानदार आडंबर पूर्वक करते हैं । कुछ कार्य आस्था प्रकट करने को निजि व्यक्तिगत होते हैं और कुछ विवाह समारोह में सभ्यता पूर्वक आयोजित करने को । लेकिन आजकल हर कोई प्रचार को पागल होकर उन का भी प्रचार करते हैं जो कोई गर्व की बात नहीं हो सकती है । 
 
आज़ादी के 77 साल बाद अधिकांश जनता को अधिकार बुनियादी सुविधाएं शिक्षा स्वास्थ्य नहीं देकर खैरात में पांच किलो अनाज बांटना किसी की तस्वीर नाम लगाकर लोकतंत्र कदापि नहीं है । कहते हैं दुनिया के सबसे पुराने दो कारोबार हैं राजनीति और वैश्यावृति । आधुनिक काल में ज़िस्म से ईमान तक बिकते हैं , टेलीविज़न अख़बार मीडिया बिकाऊ हैं सत्ता है ही घोड़ा मंडी कीमत मिलते सभी दलबदल लेते हैं । सवाल होना चाहिए था अर्थव्यवस्था का चर्चा हुई रंडीबाज़ार बनाकर समझ आया कि जिस को सभी कुछ चाहिए खुद को बेच दे अथवा हाथ फैलाये भीख मांगता रहे । जो चोर लुटेरे हैं साहूकार मालिक बनकर दानवीर कहलाते हैं खुद अपनी कमाई से धेला खर्च नहीं करते हैं । फिल्म वाले हिंसा नग्नता का धंधा कर मालामाल होकर गर्व करते हैं समाज को गंदगी परोस गलत दिशा दिखलाकर ।  अपना कर्तव्य अपना धर्म भूलकर सभी जनता को कर्तव्य और धर्म देशभक्ति का सबक पढ़ाते हैं जिस का कुछ भी खुद नहीं समझ पाते हैं । जो दवा केनाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है , मिल गए कितने ऐसे नीम हकीम कैसे कैसे रूप बना बहरूपिये ।
 
 
आखिर में शायर अख़्तर नज़्मी जी का इक शेर ज्यादा आया है :-
 

वो ज़हर देता तो सब की निगाह में आ जाता ,

सो ये किया कि मुझे वक़्त पर दवायें न दीं ।  



 

जनवरी 27, 2025

POST : 1942 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी  ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 

समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें — डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल  , गुरुग्राम ( हरियाणा )

हिंदी साहित्य की एक नाज़ुक और लोकप्रिय विधा है - ग़ज़ल । ग़ज़ल को लेकर आज अधिकांश क़लमकार सजग हैं और अपनी भावाभिव्यक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं जिनमें अपना व समाज दोनों का दर्द निहित है ।
 
   डॉ. लोक सेतिया एक प्रतिष्ठित रचनाकार हैं जिनकी नवीनतम कृति है -  । ’ फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी '
 
कृति में 130 ग़ज़लें और 21 नज़्में हैं । शायर को ठहराव पसंद नहीं है , इसीलिए ये ग़ज़लें और नज़्में भी गतिमान हैं । इनमें जीवन का फ़लसफ़ा है , वैयक्तिक पीड़ा है , सामाजिक विसंगतियाँ हैं तथा है आम आदमी का दर्द । ये मन को सुकून देती हैं व सोचने को विवश भी करती हैं ।
 
कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ,
तभी ख़ामोश लब सब हो गये हैं ।
 
शायर का दर्द दर्शाती एक ग़ज़ल का शेर देखिए —
 
किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें,
कि अपना मेहरबाँ किसको बनायें ।
 
शायर ज़माने को आगाह भी करता है —
 
नया दोस्त कोई बनाने चले हो,
फिर इक ज़ख़्म सीने पे खाने चले हो ।
 
लोग भला किसके सगे हुए हैं , यह बात शायर बख़ूबी जानता है —
 
हमको ले डूबे ज़माने वाले,
नाखुदा ख़ुद को बताने वाले ।
 
समाज में व्याप्त विसंगतियों की ओर इशारा देखिए —
 
कैसे कैसे नसीब देखे हैं ,
पैसे वाले ग़रीब देखे हैं ।
 
फिर भी शायर आशा का दामन थामे हुए है —
 
दिल पे अपने लिख दी हमने तेरे नाम ग़ज़ल ,
जब नहीं आते हो आ जाती हर शाम ग़ज़ल ।
 
निराश मानव को शायर का सुझाव है —
 
हल तलाशें सभी सवालों का ,
है यही रास्ता उजालों का ।
 
शायर की पूँजी उसका अपना स्वाभिमान है —
 
सबसे पहले आपकी बारी ,
हम न लिखेंगे राग दरबारी ।
 
ज़िंदगी क्या है, देखिए —
 
मुश्किलों का नाम है ये ज़िंदगी ,
दर्द का इक जाम है ये ज़िंदगी ।
 
भौतिकतावादी इस युग की सच्चाई भी क्या ख़ूब है —
 
सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ,
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
 
मतलबपरस्त सरकार पर शायर का प्रश्नचिन्ह देखिए —
 
सरकार है ,बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।
 
राजनेताओं पर आरोप लगाता हुआ शायर कह उठता है —
 
तुम बताओ है कहीं ऐसा जहाँ ,
राजनेता दर्द को समझे कहाँ ।
 
सचाई की राह ही जीवनोपयोगी होती है । बक़ौल शायर -
 
पथ पर सच के चला हूँ मैं ,
जैसा अच्छा - बुरा हूँ मैं ।
 
हमें विश्वास का आँचल नहीं छोड़ना चाहिए —
 
उन्हें मिल ही जाते हैं इक दिन किनारे ,
जो रहते नहीं नाखुदा के सहारे ।
 
 सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत बन पड़ीं हैं । इनकी छांव मन को सुकून देती हैं । नज़्मों में भी ग़ज़लों जैसी ही रवानी है ।
 
’ बेचैनी’ से —
पढ़कर रोज़ ख़बर कोई ,
मन फिर हो जाता है उदास ।
 
 ‘ क्या हो गया ’ में सच का दर्द देखते चलिए —
 
मत ये पूछो कि क्या हो गया ,
बोलना सच ख़ता हो गया ।
 
एक साफ़-सुथरे संग्रह के लिए शायर डॉ. लोक सेतिया को ख़ूब सारी बधाइयाँ । हिंदी ग़ज़ल में कृति का खुलेमन से स्वागत होना चाहिए ।
 
कृति : फलसफ़ा-ए-ज़िंदगी 

शायर : डॉ. लोक सेतिया
 
प्रकाशक : श्वेतवरणा प्रकाशन, दिल्ली
 
पृष्ठ : 168
 
मूल्य :₹200

26 जनवरी 2022
 
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