नवंबर 05, 2025

POST : 2037 मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

मैं क्या हूं क्यों हूं कहां हूं कैसे हूं सभी लोग तमाम दुनिया उलझी हुई है मेरी उलझन सुलझाने में , मगर चाहे जितना सुलझाए कोई उलझन बढ़ती जाती है । दुनिया वाले क्या भगवान भी मुझसे अनजान है क्योंकि मेरी बनाई दुनिया में उसका नहीं कोई नाम है न कोई निशान है । आप समझे नहीं ये किसी टीवी शो की बात नहीं है मेरी सबसे ऊंची निराली शान है मेरे लिए हर शख्स नासमझ है अभी नादान है । मेरा सभी कुछ है कुछ भी मेरा है नहीं लेकिन जो भी है सब कुछ मेरे अधिकार में है , आपका जीना आपका मरना कोई मायने नहीं रखता है जो भी है सिर्फ मेरे ही इख़्तियार में है । मेरी सत्ता इस पार से उस पार तलक फैली है मेरा आकार  धरती से फ़लक तक से बढ़कर , शून्य से अनगिनत संख्या जैसे किसी विस्तार में है , किसी देश में किसी शासक में वो बात कहां है जो विशेषता मेरी सरकार में है । मुझे नाचना नहीं आता नचाना जानता हूं सभी को अपने इशारों पर सब नहीं जानते असली लुत्फ़ सत्ता देवी की पायल की मधुर झंकार में है । मेरा ही मोल सबसे महंगा दुनिया के हर बाज़ार में है जो कहीं नहीं है वो चमत्कार मेरे ही किरदार में है । मुझे जानते हैं सभी पहचानता कोई नहीं मुझ जैसा कोई हुआ कभी न ही कभी होगा पहला आखिरी भी शुरुआत भी अंत भी मैं खुद से खुद तक रहता हूं हर बात सच्ची है जो भी मैं कहता हूं । मेरे हाथ मेरी आंखें पहुंचती हैं देखती हैं पल पल जहां भी कुछ भी घटित होता है , सब मालूम है कोई हंसता है किसलिए कौन किस बात पर रोता है । मेरी शरण में जो भी आता है सब पाता है , मुझसे बिछुड़ने वाला अपनी हस्ती को खोता है । मेरा साथ पाकर सभी गुनाह माफ़ हो जाते है जितने भी अपराध किये पिछले सभी पाप धुल जाते हैं , खुशियों के कमल कीचड़ में भी खिल जाते हैं ।     
 
मेरी दुनिया के सभी दस्तूर निराले हैं बचना इस खंडहर जैसी हवेली में कदम कदम पर फैले जाले हैं , कोई भी खिड़की दरवाज़ा नहीं है लेकिन पांव में बेड़ियां हैं जंज़ीरों से बंधे हुए लोग हैं ,  सलाखों की कैद में जादुई लगे ताले हैं । मुझे ढूंढने वाले गुम हो जाते हैं जिनको चाहत है मेरे भीतर समाकर शून्य हो जाते हैं । कोई दादी नहीं कोई नहीं नानी है फिर भी ख़त्म कभी होती नहीं मेरी प्रेम कहानी है , राजा महाराजा शाहंशाह कुछ भी समझ सकते हैं मेरा परिवार बड़ा है कोई भी नहीं मेरी रानी महारानी है । जिस को समझ आई मेरी बात इक वही जानकर है नहीं समझ पाया कोई जो महाअज्ञानी है । मेरी लीला निराली है चेहरे पर लाली दिल में कालिख़ से बढ़कर छाई काली परछाई है मैंने आपका चैन लूटा है दुनिया की नींद चुराई है , चोर छिपकर रहते हैं मुझी में मैंने चोरों की नगरी इक अलग बसाई है । मैं भी फंस गया हूं अपने खुद के बुने जाल में सामने है कुंवां और पीछे गहरी खाई है । मैंने सबको ख़त्म करने की शपथ उठाई है नाम से मेरे हर चीज़ घबराई है हर जगह थरथराई है मैंने स्वर्ग को नर्क बनाया है वही खुश है जो शरण में मेरी आया है , सामने जिस ने सर अपना भूले से उठाया है उसका शीश कट गया मरकर भी पछताया है । आपने मुझे क्यों बनाया है कुछ समझ नहीं आपको आया है इक अजूबा सामने नज़र आता है कोई जूते साफ करता है कोई तलवे चाटता है कोई पांव दबाता है कोई जूता फैंकता है मगर कोई बच कर खैर मनाता है । मुझे जब भी कुछ बहुत भाया है मैंने उसको खाया चबाया है मैंने सभी को खुद से बौना साबित करने को दुनिया को ये मापदंड समझाया है , सबको लगता है बिग्ग बॉस शाम ढलते है कोई साया है ।  
 
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नवंबर 02, 2025

POST : 2036 क्या मिला , क्या बनाया , होगा क्या ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया

क्या मिला ,  क्या बनाया , होगा क्या  ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ भी निर्धारित नहीं है कोई विधाता खुद अपनी बनाई रचना को बनाने के बाद उसका भविष्य निर्धारित नहीं करता है । जैसा हम लोग मानते हैं विश्वास करते हैं कि किसी ईश्वर की मर्ज़ी से सभी कुछ होता है सोचो अगर वैसा होता तो कोई अपनी बनाई दुनिया को बर्बादी की तरफ जाने देता । जैसा तमाम तरह के वैज्ञानिक जाने कितने शोध कर समझने का प्रयास भर करते हैं कि कैसा करने से क्या होना तय है लेकिन हज़ारों ढंग से प्रयोग करने के बावजूद भी कभी परिणाम वांछित नहीं प्राप्त होते हैं । तब उस को लेकर भी शोध कार्य किया जाता है कि क्यों जैसा अपेक्षित था नहीं हुआ और जो हुआ आखिर किस कारण हुआ । कुछ ऐसा ही हमारा भूतकाल वर्तमान काल और भविष्य को लेकर है जिस रहस्य को समझने की कोशिश ही शायद किसी ने की ही नहीं । हमको हैरानी होती है जिनको खिलता गुलशन मिलता है वो लोग गुलशन को खिलाने की नहीं उजाड़ने की बातें करते हैं इसलिए आने वाली पीढ़ियों को गुलशन नहीं बर्बादी मिलती है विरासत में । लेकिन हमने देखा नहीं भी तो पढ़ते सुनते हैं कि कितने ही महान लोगों ने अपने देश समाज को शानदार बनाने में अपनी ज़िंदगी समर्पित कर कितना अच्छा बदलाव किया अपनी मेहनत लगन और तमाम कठिनाईयों से लड़ते जूझते हुए । अगली पीढ़ी को विरासत में जो जैसा मिला उसका कर्तव्य था उसे और शानदार बनाने का लेकिन जब ऐसा नहीं कर किसी पीढ़ी ने मिली विरासत को सुरक्षित नहीं रख कर उसके साथ मनमर्ज़ी से छेड़खानी की अपने मतलब स्वार्थों को हासिल करने को तब विकास के नाम पर विनाश होता गया । 
 
आपको कोई धर्म कोई ज्योतिष विशेषज्ञ कभी नहीं बता सकता है क्या था पहले आज क्या है और भविष्य क्या होना है । क्योंकि खुद उन लोगों ने ही अपनी परंपराओं को सहेजा संभाला तक नहीं है । जिसको जो मिला सभी ने उसका दोहन किया है उसको फलने फूलने नहीं दिया ये बात सामने हैं ध्यान पूर्वक देखने से समझ सकते हैं । दुनिया सृष्टि किसी को पूर्वजों से मिली विरासत नहीं है , प्रकृति ने सभी कुछ सबको इक समान देने का कार्य किया है , हवा रौशनी अंधकार दिन रात बारिश आंधी बदलते मौसम किसी से कोई भेदभाव नहीं करते हैं । कुछ लोग शासक मालिक बन बैठे और उन्होंने अपने अपने स्वार्थों की खातिर कुछ ऐसे नियम कायदे बनाकर थोप कर विधाता समझने लगे अपने आप को । विधाता ईश्वर किसी से कुछ मांगता नहीं है जैसा धरती पर शासक बनकर अपनी सत्ता स्थापित करने वालों ने खुदगर्ज़ी का इक जाल बिछाया है ।लेकिन अगर आधुनिक ढंग से मौसम विज्ञान की तरह समझने की कोशिश करें तो हमको समझ आएगा कि हमारा भूतकाल वर्तमान और भविष्य इक कड़ी है जिसको जैसा सही गलत उपयोग किया जाता है वो उसी अनुरूप अच्छा या खराब बनता जाता है । कभी पुरातन काल में अधिकांश लोग सही राह पर चलने और कुछ आदर्शों मूल्यों का पालन करने वाले हुआ करते थे , उन्होंने समाज को अच्छा बनाने की कोशिश की हमेशा ही भविष्य को बेहतर सौंपने का प्रयास किया । 
 
अब लोग समाज और व्यवस्था इस कदर सड़ी गली बन चुकी है कि हर कोई जैसा चाहे सामाजिक माहौल को बिगाड़ने को तत्पर दिखाई देता है कोई समाज को अच्छा बनाने में कोई योगदान नहीं देना चाहता । ऐसा हमारी सभ्यता में कभी नहीं था कि जिसे भी अवसर मिले वही अपनी महत्वकांशा पूर्ण करने को अन्य सभी से भेदभाव कर अपने अधीन करने लगे । बड़े बड़े महान पुरुष महात्मा संत सन्यासी दार्शनिक समझाते रहे कि हमारे पास सभी की आवश्यकता को काफी है लेकिन किसी की हवस लोभ लालच पूरा करने को कदापि नहीं है । खेद है कुछ लोग धनवान शासक बनकर समाज को बनाने नहीं लूट कर अपनी हवस मिटाने को पागलपन की सीमा तक बेरहम और मतलबी बने हुए हैं । उनको शायद नहीं पता है कि जो पेड़ बबूल वाले वो बो रहे हैं भविष्य में उनके कांटों पर उन्हीं को चलना होगा , ज़रूरी नहीं किसी को जीवन काल में कर्मों का नतीजा मिल जाए लेकिन जिनकी खातिर ऐसे लोग समाज को बर्बादी की तरफ ले जा रहे हैं  वही भविष्य में दुःख परेशानी झेलेंगे । आपका लिखवाया झूठा इतिहास किसी काम का साबित नहीं होगा जब भविष्य आपकी कार्यशैली पर विचार विमर्श कर शोध कर आपको देश समाज ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि को तहस नहस करने का दोषी समझेगा । संक्षेप में तीन कालों का लेखा जोखा यही है भूतकाल से मिला वर्तमान का किया ही भविष्य का निर्माण करता है ।  
 
 भूतकाल सपना, भविष्यकाल कल्पना, किन्तु वर्तमान अपना है… - Shiv Amantran |  Brahma Kumaris

अक्टूबर 30, 2025

POST : 2035 दौड़ना भी साथ रहना भी ( समाजवाद ) डॉ लोक सेतिया

      दौड़ना भी साथ रहना भी ( समाजवाद ) डॉ लोक सेतिया  

एकता की खातिर दौड़ना अच्छा है , तभी जब सभी को बराबर समझ साथ लेकर कदम बढ़ाया जाये , लेकिन जब मकसद खुद आगे बढ़ना अन्य सभी को छोड़ कर पीछे का बन जाये तब , एकता नहीं संभव हो सकती है । लगता है जैसे भीड़ में भी सभी अलग अलग अकेले अकेले हैं । हमने साथ निभाना छोड़ दिया है हमको साथी भी चाहिए तो ऐसा जो हमको बढ़ने दे खुद पीछे पीछे चलकर , वास्तविकता यही है । कम से कम बड़े लोग  शासक वर्ग प्रशासन धनवान लोग कभी लगता नहीं अपने समान कदम से कदम मिलाकर सभी को चलने देना पसंद करते हैं । जब तक आदमी आदमी में इतना अधिक अंतर रहेगा कि कुछ लोग लाखों करोड़ों रूपये सिर्फ अपनी खातिर खर्च कर रहे हों जब अधिकांश को जीवन भर में लाख तो क्या हज़ार रूपये भी बुनियादी ज़रूरत को हासिल नहीं हों ऐसी भेदभाव पूर्ण व्यवस्था देश की बनाई गई है तब तक एकता कहने भर को दिखावा हो सकती है वास्तविक नहीं । लगता नहीं है कि जिन्होंने देश की धन संपदा का सबसे बड़ा हिस्सा किसी न किसी तरह अपने आधीन कर लिया है वो भूखे नंगे लोगों को अपने पैरों पर खड़े होना भी देंगे । सभी राजनैतिक दलों से कारोबार उद्योग व्यौपार करने वालों ने अपनी अधिक से अधिक हासिल कर एकत्र करने की हवस कर  मानवधर्म को भुला दिया है । अपने से छोटे की खातिर कुछ भी छोड़ना नहीं बल्कि जितना भी मुमकिन हो उनसे छीनना आदत बन गई जिसे उन्होंने अपना अधिकार मान लिया है । बीस तीस प्रतिशत ख़ास वर्ग में शामिल लोग कभी साधरण जनता को आत्मनिर्भर होने नहीं देना चाहते हैं । लोकतंत्र के नाम पर लूट का ऐसा वातावरण बना दिया गया है जिस में भले चंगे लोग लूले लंगड़े बना दिए गए हैं जिनको हर कदम बैसाखियों की ज़रूरत पड़ती है । सिर्फ सरकारी आयोजन के लिए ही सड़कों के गड्ढे नहीं भरे जाते सही मायने में साधरण इंसान के लिए इतनी कठिनाईयां इतने अवरोध ये सभी खड़े करते हैं कि लोग लड़खड़ाते नहीं औंधे मुंह गिरते हैं और ये बेरहम प्रणाली हंसती है कोई सहायता को नहीं हाथ बढ़ाता । आपको जो लोग कहने को समाजसेवा करने वाले दिखाई देते हैं उनकी भी बदले में कितनी महत्वकांक्षाएं स्वार्थ छिपे रहते हैं । दान धर्म समाजसेवा तक सभी कारोबार बन गए हैं और इतना ही नहीं सभी में होड़ लगी है खुद को महान कहलवाने की प्रचार प्रसार कर के । 
 
काश जितना पैसा हम तमाम ऐसे आयोजनों पर समारोहों पर बर्बाद करते रहते हैं उस का उपयोग वास्तव में जनता और सामाजिक कल्याण पर खर्च किया जाये बिना कोई शोर शराबा या शोहरत पाने की लालसा के तो कुछ बेहतर नतीजे मिल सकते हैं । जबकि यहां जितना ये सब बढ़ता गया है इंसान इंसान से उतना ही अलग होता गया है हर शख्स खुद को छोड़ समाज को लेकर सोचता समझता ही नहीं है । हमने हर समस्या को गंभीरता पूर्वक नहीं समझा और उसका हल ऐसे ही किसी दिन कुछ करने से मानते हैं कि कोई रस्म निभा दी है । आडंबर करना हमारी कार्यशैली बन गई है इसलिए हमने वास्तविक प्रयास करना छोड़ ही दिया है , एकता कायम रखने के लिए सभी को आपस में विश्वास और संवेदना से आपसी मतभेद भुलाकर दिल से अपनाना होगा । बीती बातों को भुलाना होगा और इक नई सुबह को लाना होगा कोई दीपक जलाना होगा ये गीत याद करना होगा गुनगुनाना होगा । नया ज़माना आएगा  : -  शायर आनंद बक्शी । 
 
कितने दिन आंखें तरसेंगी , कितने दिन यूं दिल तरसेंगे 
इक दिन तो बादल बरसेंगे , आय मेरे प्यासे दिल 
आज नहीं तो कल महकेगी , ख़्वाबों की महफ़िल 
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा । 
 
सूने सूने से मुरझाये से हैं क्यूं , उम्मीदों के चेहरे 
कांटों के सर पे ही बांधे जाएंगे , फूलों के सेहरे 
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा । 
 
ज़िंदगी पे सब का एक सा हक है , सब तसलीम करेंगे 
सारी खुशियां सरे दर्द बराबर , हम तकसीम करेंगे 
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।  
 
 Join the Run for Unity: Celebrating Sardar Patel's 150th Birth Anniversary

अक्टूबर 26, 2025

POST : 2034 भटकती रहेगी रूह उसकी ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

    भटकती रहेगी रूह उसकी ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

मुझसे पूछती है उसकी आत्मा किसलिए उसकी मौत की खबर सभी को बताई मैंने । क्या बताऊं मैं भी हैरान हूं सोशल मीडिया पर हर दिन कितनी ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं , हर ऐसी खबर पर तमाम लोग लिखते हैं दुःखद है । उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते हैं संवेदनाएं जताते हैं , ईमानदारी की मौत की खबर पर किसी ने इक शब्द भी लिखना आवश्यक नहीं समझा । ईमानदारी की आत्मा भटका करेगी आखिर कब उसकी खातिर कोई प्रार्थना भी करेगा शांति के लिए । मुमकिन है आजकल लोग जानते ही नहीं हों की उनकी दुनिया में कभी ईमानदारी भी हुआ करती थी जिस को धन दौलत नाम शोहरत सभी से अधिक महत्व दिया जाता था । मालूम नहीं कब दुनिया का ईमानदारी से रिश्ता इस हद तक टूट गया कि किसी को किसी की भी ईमानदारी पर यकीन ही नहीं रहा । आधुनिक समाज में माना जाता है कि ईमानदार कोई होता ही नहीं जिस को बेईमानी चोरी हेरा फेरी का अवसर ही नहीं मिलता बस उसकी बदनसीबी है ईमानदारी से जीना । जैसे कहते हैं मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी है उसी तरह से ईमानदार होना किसी की चाहत नहीं हो सकता । ईमानदारी का स्वभाव ही कुछ ऐसा हुआ करता था कि उसको किसी ने भी अपना समझा ही नहीं क्योंकि जब लोग ईमानदार हुआ करते थे तब दोस्ती दुश्मनी नहीं करते थे जो सही उसकी तरफ खड़े रहते थे । वास्तव में ईमानदारी ने कभी किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा कभी लेकिन दुनिया को जो चाहिए उसको किसी भी पाना हासिल नहीं हो तो छीन लेना तक पसंद था उनकी राह में हमेशा किसी की ईमानदारी रुकावट बनकर खड़ी रहती थी । ईमानदारी सभी को अच्छी लगती थी लेकिन खुद को छोड़कर बाकी सभी में ईमानदारी देखना चाहते थे । ईमानदारी को अपने घर आंगन में तो दूर अपने अंतर्मन तक में कोई जगह नहीं देना चाहता था , ईमानदारी अकेली अकेलेपन का शिकार हो कर भी ज़िंदा रहती रही जब तक संभव हुआ । ईमानदारी ने कभी घबरा कर ख़ुदकुशी नहीं की जैसे कुछ लोग करते रहते हैं । 
 
दार्शनिक समझाते हैं बहुत बातें काफी कुछ बेहद कीमती हुआ करते थे जिनको कोई खरीद ही नहीं सकता था सभी कुछ चुकाकर भी मोल अदा नहीं होता था । सोना चांदी हीरे मोती तमाम रत्न जवाहरात का ढेर लगा कर भी मिलती नहीं थी ईमानदार की ईमानदारी । ईमानदार को क़त्ल करने पर भी ईमानदारी की मौत नहीं होती थी अमर बनकर सामने अडिग खड़ी रहती थी ईमानदारी । आप ने कभी उसको जाना नहीं ठीक से पहचाना नहीं किसी दिन झूठ फरेब जालसाज़ी की अपनी दुनिया से तंग आकर उसकी याद आएगी उसे इधर उधर तलाश करोगे उसकी तस्वीर बनाओगे सीने से लगाओगे , उसे नहीं पाकर बहुत पछताओगे । सरकार ने कहीं उसकी याद में इक स्मारक बनवाया है जाओगे उस पर फूल चढ़ाओगे कोई शमां जलाओगे आंसू बहाओगे । ईमानदारी आपकी बूढ़ी नानी दादी थी जिस ने आपके गोदी में खिलाया था , अच्छे सच्चे बनने का सबक उसीने सिखलाया था जो कभी किसी को समझ नहीं आया था । जिस ने आपका बचपन खुशहाल बनाया आपने बड़े होते उसको भुलाया कभी एहसान का बदला नहीं चुकाया । बाप मां दादा का क़र्ज़ याद है बहुत बकाया है जिस को याद रखना था जानकर भुलाया था , ईमानदारी हम सभी पर कितना बड़ा क़र्ज़ छोड़ गई है कभी चुकता नहीं कर पाएंगे जीवन भर मौज उड़ाएंगे , एहसान फरमोश कहलाएंगे ।  माना उसका हमसे नहीं खून वाला रिश्ता नाता था लेकिन बगैर उसके कभी किसी को जीने का ढंग नहीं आता था , हमने जीने का सलीका भुलाया है सब खोया कुछ भी नहीं हाथ आया है । 
 
शायद कोई बूढा जोगी मिल जाये किसी दिन सुनाये उसकी कहानी , ईमानदारी नाम की हुआ करती थी इस देश की बड़ी खूबसूरत इक रानी । उसको किसी की नज़र लग गई थी उसने जिस को भी जन्म दिया उसकी हर संतान असमय ही मर गई थी । किसी ज़ालिम शाहंशाह ने उसको कैद कर लिया था बंद तहखाने में उसकी सांसों की आवाज़ गूंजती रहती थी लेकिन कोई उसको रिहा नहीं करवा पाया था । देश का शासक बदलता रहा शासन का तौर तरीका बदलता रहा लेकिन किसी भी बेरहम शासक प्रशासक को उस पर रत्ती भर भी तरस नहीं आया था सभी ने उसका शोषण किया सितम पर सितम ढाया था । सभी को सपने में डराता था जो वो कुछ और नहीं ईमानदारी का कोई साया था । लोकतंत्र ने जिस को सत्ता पर बिठाया था उसी ने लोकतंत्र का लहू बहाया था , सत्ता ने हैवान सभी को बनाया था ।  ईमानदारी कौन थी कोई नहीं जानता हिंदू थी सिख थी मुसलमान थी ईसाई थी , उसने सभी धर्मों की रीत निभाई थी फिर भी अजनबी रहती शौदाई थी । किसी ने उसको चाहा न पाला पोसा न ही संभाला इक ऊपरवाला ही था उसका रखवाला जिस दिन उसकी अर्थी गई थी उठाई कोई भी आंख नहीं उसकी खातिर भर आई । उसकी आत्मा भटकती रहती है सबक पढ़ना ईमानदारी का सिर्फ इतना कहती है , लोग जाने क्यों इस बात से घबराते हैं रोज़ झूठी कसमें खाकर याद रखते हैं , ईमानदारी से बचकर रहना है बेईमानी हर शख़्स का कोई गहना है ।  
 
 मरने के बाद यहां भटकती है आत्मा, यमलोक पहुंचने में लगता है इतना समय
 

अक्टूबर 23, 2025

POST : 2033 भ्र्ष्टाचार पुराण की कथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          भ्र्ष्टाचार पुराण की कथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   { भ्र्ष्टाचार के अंत के बाद , 2014 की बात से आगे 2025 की बात । जारी }

 
मुझे जान लो मुझे समझ लो मुझे पहचान लो , मुझमें सभी हैं सब में मैं हूं , मेरी आराधना कर मनचाहा हमेशा वरदान लो । मुझे मिटाने की बातें करते हैं जो लोग खुद कितनी आरज़ूएं रखते हैं , हर आरज़ू पर दम निकलता है मेरी चौखट पर हर शख़्स फिसलता है । आपको क्या मालूम जिनको ऐसी संस्था में नियुक्ति दी जाती है उनका पहला कदम ही मेरी तरफ ही उठता है , किसी उच्च पद  से सेवानिवृत होकर पहले से बढ़कर वेतन सुविधाएं पाने का सुखद अनुभव समझाता है किस से किस का कितना गहरा नाता है । मेरा अंत खुद ऐसे लोगों को भविष्य को ही अंधकारमय बनाता है , भला कोई अपने हाथ से अपने पांव पर कुल्हाड़ी चलाता है । मुझे ख़त्म करने वाला विभाग मेरे नाम से सभी पाता है खाता खिलाता है मुझको अपना स्वामी समझ कर हर दिन मेरे गीत गाकर खुशियां मनाता है हम दोनों का अटूट नाता है ।  सरकार सभी विभाग पुलिस प्रशासन जानते हैं जिस दिन अपराध लूट बेईमानी झूठ अन्याय अत्याचार समाज में नहीं रहे उनकी कीमत दो टके की नहीं रहेगी । जब सभी को हर अधिकार न्याय खुद ब खुद मिलने लगेगा कौन उनके सामने आकर सर झुका हाथ जोड़ कर उनका रुतबा ऊंचा होने का एहसास करवाएगा । लोकतंत्र संविधान कायदा कानून जिस दिन वास्तविकता बन जाएगा सबसे अधिक मुश्किल शासक वर्ग की बढ़ाएगा , कौन अंधे को घर बुलाएगा जब पता होगा साथ इक देखने वाला आकर बोझ बढ़ाएगा । 
 
भगवान को सामने किसी ने देखा है कभी भी नहीं लेकिन विश्वास सभी करते हैं कोई है ज़रूर , कुछ ऐसा ही मेरे लिए है मैं हर जगह रहता हूं सभी जानते समझते हैं । रिश्वत दलाली कमीशन घूस देने लेने वाले जानते हैं लेकिन सामने नहीं आने देते मैं सौ पर्दों में छिपकर रहता हूं मैं आपका आप सभी मेरे हैं ये सिर्फ मैं ही कहता हूं । आजकल की दुनिया में कोई इतना रिश्ता निभाता है बस मेरी शरण जो भी आता है उसका कल्याण हो जाता है । मुझको बुरा कहने वाले भी मुझे दिल से चाहते हैं  कुछ लोग महफ़िल जमाते हैं जाम से जाम टकराते हैं कुछ मयखाने में छुपते छुपाते आते हैं होश वाले क्या जाने कैसे बिना पिये कदम डगमगाते हैं । जिनको शान ओ शौकत आन बान चाहिए वो मुझको क्या समझेंगे मेरा अस्तित्व कैसे मिटाएंगे मुझे बिछड़ कर खुद अपनी हसरतों का जनाज़ा कैसे उठाएंगे । सागर हाथ में लिए क्या प्यासे ही मर जाएंगे ,  सुबह शाम झूठी कसम खाकर मौज मनाएंगे ।  रिश्वत की कहानी कितनी पुरानी है , अनंत काल से रिश्वत शासन और साधरण जनता के बीच का पुल है जो सत्ता की नदी पर बनाया गया है , आपसी सहमति से इस हाथ ले उस हाथ दे का संबंध निभाया गया है । रिश्वत खाकर भी काम नहीं करना बुरी बात है सभी मंत्रालयों को यही सबक पढ़ाया समझाया गया है । जब भी सरकार पर कोई आंच आई है कोई जांच आयोग बनाया गया है हमेशा ये नुस्ख़ा आज़माया गया है दुनिया को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र दिखाकर उल्लू बनाया गया है । कविता में यही विस्तार से समझाया गया है । लोकपाल भी इसी तरह कुछ लोगों को रोज़गार देने का शानदार ढंग बनाया है किसी को कुछ समझ नहीं आया है भ्र्ष्टाचार चरम पर खड़ा है उसका परचम ऊंचा लहराया है । भगवान के अलग अलग अवतार जैसे ही मेरे स्वरूप बदलते रहते हैं , पैसा नहीं कुछ भी उपहार से लेकर नकद उधार तक आपसी भरोसे से आदान प्रदान किया जाता है जिस से पूछो गाता मेरी गाथा है , सामने मेरे झुकता हर सर हर माथा है । 
 
 

जांच आयोग ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

काम नहीं था
दाम नहीं था
वक़्त बुरा था आया
ऐसे में देर रात
मंत्री जी का संदेशा आया
घर पर था बुलाया ।

नेता जी ने अपने हाथ से उनको
मधुर मिष्ठान खिलाया
बधाई हो अध्यक्ष
जांच आयोग का तुम्हें बनाया ।

खाने पीने कोठी कार
की छोड़ो चिंता
समझो विदेश भ्रमण का
अब है अवसर आया ।

घोटालों का शोर मचा
विपक्ष ने बड़ा सताया
नैया पार लगानी तुमने
सब ने हमें डुबाया ।

जैसे कहें आंख मूंद
सब तुम करते जाना
रपट बना रखी हमने
बिलकुल न घबराना ।

बस दो बार
जांच का कार्यकाल बढ़ाया
दो साल में रपट देने का
जब वक़्त था आया ।

आयोग ने मंत्री जी को
पाक साफ़ बताया
उसने व्यवस्था को
घोटाले का दोषी पाया ।

लाल कलम से
फाइलें कर कर काली
खोदा पर्वत सारा
और चुहिया मरी निकाली ।    
 
    लोकपाल की संरचना | VIA मध्यस्थता केंद्र

अक्टूबर 20, 2025

POST : 2032 ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( जागते - सोते ) डॉ लोक सेतिया

       ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( जागते -  सोते  ) डॉ लोक सेतिया 

सपना ही था पिछली रात का अभी तक उलझन है कि उसका अर्थ क्या है , मैंने तो कभी तमाम अन्य लोगों की तरह चाहत नहीं की थी उसकी दुनिया में जाने की तो क्या कभी पास जाकर करीब से देखने की भी । मैंने तो हमेशा दूर से भी उस दुनिया को देखने से बचने की कोशिश की थी जिधर जिस रास्ते से जाना होता है उस राह की तरफ जाने से बचता ही रहा । उसको लेकर भव्यता और ऐसी तस्वीर सभी से सुनी समझी थी जिस का कोई ओर छोर मिलता ही नहीं कहां से शुरू कहां तक उसकी सीमा है कोई नहीं जान पाया हर कोई उलझकर रह गया । मुझे ऐसी दुनिया और दुनिया वालों को लेकर कोई कौतूहल मन में नहीं रहा कभी सोचा मेरे काम की नहीं ऐसी दुनिया जहां कोई बड़ा कोई छोटा कोई आम कोई ख़ास समझा जाता हो । फिर कैसे रात सपने में उस दुनिया में चला गया सामने ऊंची महल की दीवार की तरफ कोई प्रवेशद्वार ढूंढा नहीं और पीछे पहुंच कर हैरान था कच्ची मिट्टी की दीवार थी कोई सीढ़ी भी नहीं थी फिसलने का गिरने का डर था फिर भी जैसे कोई मुझे बुला रहा था चले आओ घबराओ मत । और मैं बिना किसी सहारे जाने कैसे उस ऊंचाई पर चढ़ता ही गया और ऊपर से भीतर नीचे उस दुनिया में पहुंच गया था , हवाओं में उड़ने जैसा प्रतीत हुआ था । लेकिन उस दुनिया को लेकर जैसा सोचा था उस के विपरीत घना अंधेरा छाया हुआ था कोई शोर शराबा नहीं आवाज़ नहीं ख़ामोशी छाई हुई थी । उस दुनिया के मालिक बनाने वाले को देखने की कोशिश की तो मिलते जुलते अनगिनत लोग नज़र आये लेकिन यकीन नहीं हुआ कोई सही में वह ही है । यही सोच कर ठहरा तो कुछ आहत सी सुनाई दी जैसे कोई पुकार रहा हो , जाकर देखा तो वह अकेला कुछ अजीब हालत में दिखाई दिया । महसूस हुआ यही है इस दुनिया को बनाने वाला इसका मालिक पर किसलिए ऐसा जैसे कोई अपने ही घर में अजनबी हो हमारी ही तरह से । बैठा था ज़मीन पर मैले कुचैले कपड़े पहने मैं भी वहीं बैठ गया बिना कुछ भी बोले , अभिवादन करना भी ज़रूरी नहीं लगा हम दोनों को शायद । 
 
ऐसा पहली बार हुआ जैसे कभी कोई दोस्त हुआ करता था जिस का साथ घंटों तक चुपचाप बैठे बीत जाता था बगैर कोई शब्द बोले ही कितनी बातें कह सुन लेते थे । कुछ वैसे ही मन में जो भी बात कोई सवाल आता अपने ही भीतर से जवाब मिल जाता , ऐसा वार्तालाप समझाना संभव नहीं है , फिर भी कोशिश करता हूं जो भी समझ आया मुझे उस ख़ामोशी में बैठे । जैसे उसको मालूम है मुझे क्या क्या पूछना है वह बताता ही गया मैं समझता भी रहा । उसने क्या क्या नहीं बनाया था कुछ इंसानों को भरोसा कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सभी कुछ उन्हीं को सौंप कर बताया कि ये किसी किताब की तरह लिखा हुआ है क्या कर्तव्य है क्या कैसे करना है और दुनिया में सभी से प्यार कर बराबर बांटना है । शपथ उठाने जैसी बात कभी ज़रूरी ही लगी थी क्योंकि खुद अपने ही बनाये खिलौने जैसे लोग कभी बनाने वाले को ही अनावश्यक समझने लगेंगे ये भला कल्पना भी कैसे करता कोई भी बनाने वाला । लेकिन मुझे कहा गया आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है हमने आप से सभी हासिल कर लिया है और आपकी दुनिया अब हमारी विरासत है उसको और भी समृद्ध कर आगे बढ़ाना हमारा धर्म है । मेरे कच्ची मिट्टी के बनाये घर को सुरक्षित रखने को ईंट पत्थर जाने क्या क्या लाकर पर्वत जैसी इक दीवार खड़ी कर सामने अपनी महलों जैसी दुनिया रंगीन और चमकदार निर्मित कर दुनिया को आधुनिक बनाने लग गए सभी । पहले कुछ साधु सन्यासी मुझे खोजते थे फिर कुछ जिज्ञासु मुझे समझने में जीवन व्यतीत किया करते थे आजकल मुझे चुनौती देने लगे हैं मगर मुझे खुद को प्रमाणित या साबित करने की आवश्यकता ही नहीं है । 
 
मुझे मालूम ही नहीं है कि मैं क्या कोई अपराधी हूं जिसे युगों युगों तक इक कैद में रहना है , कोई मुझसे मिलता नहीं मेरा हालचाल नहीं पूछता सभी जिनको मैंने बनाकर सर्वस्व सौंप दिया उसे अमानत नहीं बल्कि अपनी मलकियत समझ कर मनचाहे ढंग से उपयोग करने लगे हैं । मैंने उनसे उनकी बनाई दीवार के बाहर नहीं जाने और देखने का वादा किया था जिसे निभाते निभाते लगने लगा है जैसे मैं खुद ही अपनी पहचान खो बैठा हूं या भूल ही चुका हूं कि असली सिर्फ मैं ही हूं बाक़ी सभी इक दिन ख़त्म होने को ही बनाये हैं । हैरान होता हूं चार दिन की ज़िंदगी मिली है सभी को फिर भी सभी समझते हैं उनका कभी अंत नहीं होना है । देख रहें है कितने लोग आये जिये और अपनी ज़िंदगी बिताकर चले भी गए कहां किसी को नहीं मालूम फिर भी अपने अंजाम को लेकर कभी सोचते ही नहीं , आगाज़ भी याद नहीं है कि इतनी बड़ी कायनात जिस में कितने धरती अंबर से अंतरिक्ष तक सीमारहित सृष्टि में इक कतरा इक बूंद भी उनका अस्तित्व नहीं खुद को क्या क्या समझते हैं कहलाते हैं । शुरू में ही बता दिया था कि इक सपना देखा था लेकिन शायद अभी आधा ही देखा था कि नींद से जाग गया लेकिन ख़्वाब अभी तक ख्यालों में विचरण कर रहा है । कौन था किस का सपना था मुझे समझना है अभी ज़िंदगी छोटी है अर्थ गहरा है ।   
 
 Khayalon Ki Duniya | Hindi Poetry | By Vipin Baloni

अक्टूबर 18, 2025

POST : 2031 गरीबी की रेखा , अनचाही औलाद ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

 गरीबी की रेखा , अनचाही औलाद ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

एक मां है , जिसके तीन बच्चे हैं । बड़ा बेटा कमाऊ पूत की तरह है , उस से छोटा जानता है कि उसे अपना अधिकार कैसे मांगना है , और मांगने से भी ना मिले तो छीन कर ले लेना है । तीसरा बच्चा उस बेटी की तरह है जो मां को एक बोझ सा लगती है और मां अक्सर यह सोचती है कि काश वो कभी पैदा ही ना होती । सरकार भी ऐसी ही इक मां है जिस की कोख से गरीबी पैदा हुई है विकास पुत्र की चाह में एक अनचाही संतान इक बोझ । सरकार के लिए इक तिहाई जनता , जो गरीबी की रेखा से नीचे मर मर कर ज़िंदा रहती है ऐसी ही किसी बेटी की तरह है । हर चुनाव में सभी राजनेता भाषण देते हैं तो उसकी बदहाली पर घड़ियाली आंसू बहाते हैं यह वादा करते हैं कि इस मरणासन बेटी का उद्धार किया जाएगा , उसे दो वक़्त रोटी का हक मिलेगा , उसकी बिमारी को जड़ से ख़त्म कर दिया जाएगा निर्धारित सालों में । 78 साल में वो शुभ दिन लाया नहीं गया जिस का सपना हर बार दिखलाया गया । जैसे ही चुनाव निपट जाते हैं सरकार जिस भी दल की या घठबंधन की बन जाए तब उस मां को गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या की सुध लेना याद नहीं रहता , उसका सारा ध्यान दो बेटों की तरफ लगा रहता है । 
 
कैसे बड़े बड़े उद्योग धंधे मुनाफ़ा कमा सकें ताकि सरकारी तिजोरी खज़ाना और राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा मिलता रहे सभी राजनेता चोर चोर मौसेरे भाई हैं  , उनकी लड़ाई सत्ता की देवी को अपनी बनाकर रंगरलियां मनाने को है जनता की भलाई से किसी का कोई रिश्ता नाता नहीं है ।  हर सरकार बड़े बड़े शहर शानदार होटल पार्क सड़कें बनाती है खुद की खातिर और दो दुलारे बेटों की खातिर क्योंकि उनकी ख़ुशी में ही सरकार की टिकने की गारंटी होती है । जगमग रौशनी हर दिन रंगारंग कार्यक्रम शान ओ शौकत भरा जीवन लाडले जिगर के टुकड़ों के लिए ज़रूरत है जिस पर जनता से वसूला कर बर्बाद किया जाता है जिसे कल्याणकारी जनकार्यों पर शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार पर खर्च करना चाहिए था । ऊंठ के मुंह में जीरे की तरह बुनियादी सुविधाओं पर नाम मात्र को बजट आबंटित किया जाता है जिस का अधिकांश भाग बंदरबांट में चला जाता है । गरीबी की रेखा और चिंतनीय होती जाती है जिस की चिंता किसी को नहीं होती है । 
 
सरकार इक मां ही है जिसको पहले अधिक से अधिक कर जुर्माना कितनी तरह से वसूलना होता है ताकि बड़ी बड़ी योजनाएं अपने प्रिय नेताओं अफ्सरों और करीबी लोगों की खुशहाली के लिए बनाई जा सकें सगी मां जिनकी है गरीबी वालों से सतौली जैसा बर्ताव करती है कमाऊ पूत मां को प्यारे हैं  । अधिकांश जनता को इनसे कुछ हासिल नहीं होता सिवा ऐसे माहौल दिखाई देने के जो उनके लिए ज़ख्म पर नमक छिड़कने जैसा है , आपको कुछ नहीं मिलता कुछ को बेतहाशा मिलता है । ख़ास वर्ग और वंचित शोषित वर्ग के बीच में इक मध्यम वर्ग है जो कोई न कोई तरकीब अपना कर अपने लिए थोड़ा हिस्सा हासिल कर लेता है । ऐसा करने के लिए उसको ख़ामोशी से बहुत कुछ देख कर अनदेखा करना पड़ता है , जब भी वो बोलने की कोशिश करता है उसे चुप रहने की हिदायत दी जाती है वर्ना जो मिलता है उसे भी गंवाना पड़ सकता है । 
 
गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली जनता रुपी बेटी को हर ज़ुल्म सहना पड़ता है बेबस होकर सर झुकाये खड़ी रहती है सत्ता की चौखट पर न्याय की झूठी आस लगाए । उस ने अपना भाग्य समझ स्वीकार कर लिया है अपने हालात को । उसको संविधान जैसी किसी चीज़ का पता नहीं है उसका कोई जीने का मौलिक अथवा मानवीय अधिकार नहीं है उसको खैरात की तरह कुछ मिलता है बदले में अपने आप को सत्ता की गुलामी बंधन स्वीकार करने पर । कभी कभी उसको भीख मांगने पर भी लताड़ लगाई जाती है ऐसा कहा जाता है गरीबी तुम देश के लिए शर्म और बदनामी का सबब हो । विदेशी लोग आते हैं तो गरीबी को ढकने छुपाने को कितना पैसा खर्च करती है सरकार कोई हिसाब नहीं जिसका । यही मापदंड है हमारे देश और समाज का , बेटों से सम्मान होता है और बेटी बदनामी का कारण होती है , तभी कोई भी नहीं चाहता घर में बेटी का जन्म हो , गरीबी आये कौन चाहता है । आजकल जो शोर सुनाई देता है जब कभी लड़कियां कुछ ख़ास कर इक कीर्तिमान स्थापित कर दिखाती है तब गर्व की बात कहते हैं मगर वास्तव में आज भी लड़की लड़का इक समान समझना तो क्या बराबर उनको मिलता नहीं कुछ भी रसोई से ससुराल तक कड़वा सच यही है । 
 
बेटों को सब करने की छूट है आवारगी की तरह लूट भ्रष्टाचार अपराध कर बचाव करवा उसको नेता बनने का भविष्य समझते हैं । जिनको कोई काम नहीं आता राजनीति उनके लिए सही अवसर की तरह है पहली सीढ़ी यही है । राजनेताओं के कारनामों से अधिकारी लोगों की मनमानी पूर्वक प्रशासनिक शैली से कोई बदनामी नहीं होती है देश की बदनामी मिलावट नकली सामान से धोखाधड़ी के कारोबार से कदापि नहीं होती है । हमको अपनी ऐसी पहचान शर्मसार नहीं करती है सिर्फ गरीब कहलाना हमको पसंद नहीं है आखिर हमको तीसरी विश्व की अर्थव्यवस्था बनना है कीमत कुछ भी चुका सकते हैं ।  सरकार हमेशा सोचती रहती थी कि काश ये अनचाही औलाद गरीबी की रेखा ख़त्म हो जाती जन्म से पहले ही उसका अंत कर दिया जाता । लेकिन अब सभी दलों को इक रहस्य मालूम हुआ है कि भूखे नंगे गरीब लोग उनकी बैंक में जमा फ़िक्स डिपॉज़िट की पूंजी जैसे हैं  भरोसे का वोट बैंक हैं थोड़ा पाकर उपकार मानते हैं ।  जबकि शैतान बेटों की उदंड प्रशासन और अधिकारी वर्ग सत्ता की परेशानी का कारण बन कर शासक से बचाव की आपेक्षा रखते हैं अपने बिगड़े बेटों का बचाव सरकार को करना ही पड़ता है ।  आखिर सरकार ने गरीबी की रेखा का भी इक नामकरण कर आधे से अधिक लोगों को झोली फैलाने को विवश कर अपनी वाहवाही का ग़ज़ब ढंग ढूंढ लिया है करोड़ों लोग पांच किलो अनाज और कुछ नकद राशि के बदले अपने वोट बेच रहे हैं और राजनेता खुले आम खरीद रहे हैं । चुनाव आयोग अदालत सभी तमाशाई बन खड़े हैं ।  सरकार सबसे अधिक गगरीब होकर भी दानवीर कहलाती है जनता का धन जनता को लौटाना बदले में खुद मसीहा बन कर इतराना इसको लोकतंत्र हर्गिज़ नहीं कह सकते ये जालसाज़ी है छलना है भेस बदल कर जनता छली जाती है । सच तो ये है कि सरकार किसी की सगी नहीं होती है सरकार सिर्फ अपनी भलाई चाहती है हर कीमत पर हमेशा हर जगह दुनिया का चलन है । 

 

 


 

अक्टूबर 17, 2025

POST : 2030 ख़त्म नहीं होती अमीरों की गरीबी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       ख़त्म नहीं होती  अमीरों की गरीबी   ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया   

कभी बात हुआ करती थी गरीबी की रेखा को लेकर , सरकारी योजनाओं के गर्भ से अनचाही संतान पैदा हो ही जाती थी । सरकार आंकड़ों से खिलवाड़ कर उनकी गिनती घटाती रहती मगर हालात समझाते रहते संख्या बढ़ती जा रही है ।  गरीब लोग भूख बदहाली में भी ज़िंदगी बिता ही लेते हैं उलझन धनवान लोगों की है हर दिन उनको एहसास होता है अभी धन दौलत नाम शोहरत की हसरत अधूरी है । अख़बार समाचार चैनल से टीवी सीरियल और सिनेमा जगत तक देश में जनता की गरीबी की चर्चा नहीं करते हैं । अमीरी की प्रतियोगिता निरंतर जारी है आज उसकी कल किसी और की बारी है सबको लगी ऐसी बिमारी है दुनिया ख़त्म होने तक खेल तमाशा जारी है । गरीबी मिटाने की कोशिश सरकार की जारी है जो वास्तव में आंकड़ों की कलाकारी है बजट कहता है सबसे कर्ज़दार सरकार है उस की आमदनी से बढ़कर उधारी है सत्ता की ग़ज़ब लाचारी है बड़ी महंगी शासक वर्ग की दोस्ती यारी है , सियासत तलवार दोधारी है । हमने पढ़ा था कथाओं कहानियों में लोभ लालच की कोई सीमा नहीं होती आखिर दो ग़ज़ ज़मीन ही चाहिए फिर भी धनवान लोगों की लालसा अधिक पाने की हवस मिटती ही नहीं जितना भी अंबार लगा हो उनको थोड़ा लगता है , साधुजन कहते हैं ऐसे लोग सबसे दरिद्र होते हैं ।  गरीबी की रेखा किसी को मालूम नहीं क्या हुआ यूं भी गरीबी के मापदंड़ बदलते रहते हैं सरकारी सुविधा से अपनों को रेवड़ियां बांटते समय । गरीबी रेखा ज़मीन पर बनी हुई लकीर जैसी लगती थी लेकिन अमीरों ने आसमान में सतरंगी इंदरधनुष जैसी लक्ष्मणरेखा काल्पनिक लोक की बनाई हुई है और सभी को कैसे भी उस ऊंचाई को छूना है । 
 
जो जितना बड़ा कहलाता है उसको उतना ही नशा चढ़ता जाता है , सत्ता का ताकत का नाम का शोहरत का नशा विवेक को खत्म कर हर तरह से लूट कर छीनकर गैरकानूनी तरीके अपना कर रिश्वत भ्र्ष्टाचार से लेकर हिंसा डर दिखाकर पैसा जमा कर के भी चैन नहीं मिलता । ऐसे कितने धनवान हैं जिनको नहीं मालूम कि तमाम हथकंडे अपना कर एकत्र की पूंजी का करना क्या है , इंसान नहीं धनपशु बन गए हैं । दिखावे को धर्म करते हैं जबकि धार्मिकता उनमें बची ही नहीं जैसे आसानी से बिना परिश्रम किये धनवान बनते गए हैं । इक बात साफ है उनको किसी भगवान का कोई डर बिल्कुल नहीं है कितना ही अनुचित कार्य करते उनको कभी नहीं लगता है कि कभी कोई उनसे अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब मांगेगा । उनका बही खाता लाभ हानि की परिभाषा समझता है पाप पुण्य की परवाह नहीं करता ।  हमको लगता है हमने लोकतंत्र को ज़िंदा रखा है जबकि हमको मालूम ही नहीं कि कब कैसे लोकतंत्र इक बेजान चीज़ बनकर रह गया है और शासन सत्ता प्रशासन सभी सरकारी तंत्र लोकतंत्र की पत्थर की प्रतिमा पर चढ़ कर नंगा नाच दिखा रहे हैं बिना किसी संकोच । कुछ साल पहले ही इक राजनेता घूस लेते पकड़े गए थे इक चैनल के स्टिंग ऑप्रेशन में उपदेश दे रहे थे खुदा कसम पैसा भगवान तो नहीं लेकिन भगवान से कम भी नहीं है । 
 
पैसा तब से या उस से भी पहले से दुनिया का भगवान बन गया है , इधर तो देशों की दोस्ती दुश्मनी सिर्फ और सिर्फ कारोबार को लेकर होने लगी है । शायद हमारे पूर्वजों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि भारतवर्ष जैसे पुरातन परम्पराओं आदर्शों और ऊंचे नैतिक मूल्यों वाले समाज में पैसा इस हद तक महत्वपूर्ण बन जाएगा कि सभी पागलपन की हद तक उसके चाहने वाले बन जाएंगे । आदमी खुद अपनी कीमत लगवाने को बीच बाज़ार तमाशा बन खड़ा है खरीदार मोल चुकाए तो आत्मा तक का सौदा करने को राज़ी है । हर कदम पर ज़िंदगी मौत की बाज़ी है  हर शख़्स पलड़े पर तुलने को राज़ी है सियासत की ज़र्रानवाज़ी है । जो लोग बिक गए हैं बनकर खड़े खरीदार हैं शिकारी होने लगे खुद ही घायल ग़ज़ब किरदार हैं । इंसान अब भगवान को भी बेचने लगे हैं आखिर में इक पुरानी ग़ज़ल पेश है  । 
 

इंसान बेचते हैं , भगवान बेचते हैं ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इंसान बेचते है   , भगवान बेचते हैं
कुछ लोग चुपके चुपके ईमान बेचते हैं ।

लो हम खरीद लाये इंसानियत वहीं से
हर दिन जहां शराफत शैतान बेचते हैं ।

अपने जिस्म को बेचा  उसने जिस्म की खातिर
कीमत मिली नहीं   पर नादान बेचते है ।

सब जोड़ तोड़ करके सरकार बन गई है
जम्हूरियत में ऐसे फरमान बेचते हैं ।

फूलों की बात करने वाले यहां सभी हैं
लेकिन सजा सजा कर गुलदान बेचते हैं ।

अब लोग खुद ही अपने दुश्मन बने हुए हैं
अपनी ही मौत का खुद सामान बेचते हैं ।

सत्ता का खेल क्या है उनसे मिले तो जाना
लाशें खरीद कर जो , शमशान बेचते हैं ।  
 
 10 कारण क्यों अमीर और अमीर होते जाते हैं (दिमाग हिला देने वाला सच) - न्यू  ट्रेडर यू


अक्टूबर 15, 2025

POST : 2029 बहारें ख़ुदकुशी करने लगी ( दर्द - ए - गुल्सितां ) डॉ लोक सेतिया

  बहारें ख़ुदकुशी करने लगी ( दर्द - ए - गुल्सितां ) डॉ लोक सेतिया 

अब जो होने लगा है अनहोनी नहीं है सदियों की भूल की सज़ा है जिनको रखवाली करनी थी माली बन कर बगिया की वही खुद कंटीली झाड़ियां बन कर छलनी छलनी कर रहे हैं चमन में आने जाने वालों के दामन से उलझकर । तलवार बंदूक पिस्तौल समाज की सुरक्षा की बजाय सत्ता के मनमाने ढंग से आतंक और भय का वातावरण बनाने लग जाएं तो कभी न कभी शिकारी खुद शिकार होना अंजाम सामने है । अभी भी लगता नहीं है कि देश समाज की नींद खुले और समझने का प्रयास किया जाये कि हमने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को इस हद तक सड़ा गला बना दिया है कि इसको फिर से दोबारा पूर्णतया सही करना बेहद कठिन होगा या असंभव है तब तक जब तक शासक वर्ग खुद अपने पर अंकुश स्वीकार कर कायदे कानून पर चलना नहीं सीखते । जिस देश की सरकार खुद कानून को संविधान को नैतिकता के मूल्यों को आदर्शों को कुचलती रौंदती जाती है किसी आवारा सांढ की तरह खेत को उजड़ने जैसा आचरण करती है उस में खुद उसका ही अंग कोई विभाग ऐसे हालात में पहुंच गया है जहां हर शाख पर उल्लू बैठा है । दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल से समझते हैं । 
 
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं , 
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं ।  
 
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं । 
 
वो सलीबों के करीब आए तो हमको 
कायदे- कानून समझाने लगे हैं । 
 
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है 
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं । 
 
मछलियों में खलबली है , अब सफ़ीने
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं । 
 
मौलवी से डांट ख़ाकर अहले मक़तब 
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं । 
 
अब नयी तहज़ीब के पेशे - नज़र हम 
आदमी को भून कर खाने लगे हैं ।   
 
लोग ज़िंदगी से ही नहीं दुनिया से कभी खुद अपने आप से तंग आकर ख़ुदकुशी करते रहते हैं , आजकल साधारण आदमी की ज़िंदगी की कोई कीमत है न बेमौत मरने की , ये खबरें अब सुर्खियां नहीं बनती हैं । हमने फ़िल्मी नायक का ऐसा रंग ढंग वास्तविक समाजिक माहौल में स्वीकार कर लिया है जिस में पुलिस की वर्दी पहन कर आपराधिक कृत्य करना सामान्य समझा जाता है । देश की सर्वोच्च अदालत जानते देखते कुछ भी कर नहीं सकती जब शासक राजनेता और प्रशासनिक गठबंधन खुद को कानून संविधान से बड़ा समझने लगे हैं । चाहे जैसे भी हुआ हो हमने अपराधी गुंडे बदमाशों को चुनकर संसद विधानसभाओं में भेजा है और हमेशा उनकी जयजयकार करते रहते हैं भले उनका आचरण जैसा भी हो । खोखले लोग शासक वर्ग से मिलने पर उनके साथ अपनी फोटो करवा समझते हैं कुछ शान बढ़ गई है जबकि वास्तव में उनका किरदार बौना लगता है जिस किसी को अपना आदर्श समझना चाटुकार लोग करते हैं । 
 
राजनीति की सौगत ने कार्यपालिका न्यायपालिका तक को लोहे की तरह जंग लगा इतना कमज़ोर कर दिया है कि पूरी व्यवस्था कभी चरमरा कर ढह सकती है । बाहरी चमक दमक से कुछ भी ठीक किया नहीं जा सकता है । हमने सपना देखा था गुलमोहर जैसे रंगीन पेड़ों की शीतल छांव देने वाले लोकतांत्रिक प्रणाली से उगाने का लेकिन कब कैसे कंटीले कैक्टस बबूल और ऐसी विषैली बेलें सभी तरफ बाग़ में फैलती गई हैं और लोग घायल होकर तड़पने लगे हैं । आखिर ये सभी कांटेदार पेड़ पौधे आपस में भी एक दूजे का अस्तित्व मिटाना चाहते हैं हर कोई सिर्फ अपना वर्चस्व स्थापित करने को व्याकुल है , सुलग रही है भीतर ही भीतर कोई चिंगारी जिसे बुझाया नहीं गया तो कुछ भी बचना मुश्किल होगा ।  
 
आज सवाल हमारे देश समाज की दिन पर दिन बिगड़ती दशा को सुधरने का है , कौन कौन दोषी है इस बहस में पड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा । लेकिन अभी भी सचेत नहीं हुए तो भविष्य अंधकारमय होना लाज़मी है चलो मिलकर अपने खुद से पहले देश समाज के प्रति कर्तव्य को महत्व दे कर पूर्ण निष्ठा से जो भी खोया है उसको फिर से पाने का संकल्प लेते हैं , ये हमारा देश है और हमको ही इसको बेहतर बनाना है ।  
 


अक्टूबर 12, 2025

POST : 2028 ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

    ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया  

आज़ाद होकर भी मानसिकता ग़ुलामी की ही है , हम सभी अभी भी किसी न किसी को अपना आक़ा बना कर उसकी वंदना उसका गुणगान करने में सुखद अनुभूति का आभास करते हैं । खुद को बराबर नहीं जाने किस किस से कमतर समझते हैं । ग़ज़ब तमाशा हर जगह दिखाई देता है कुछ लोग ऊंचे सिंघासन पर अथवा किसी मंच पर आसीन होते हैं अधिकांश निचले पायदान पर उनका अभिनंदन करते है खड़े होकर तालियां बजाते हैं । बहुधा ऐसे बड़े लोगों को हमने ही बनाया होता है बल्कि उनका पालन पोषण सुख सुविधाएं सब हमारे दम पर कायम होता है । खुद अपने ही बनाये भगवानों से हम लोग डरते हैं सच बोलने से घबराते हैं झूठ की उपासना करते हैं ।  आधुनिक युग साहित्य कला संस्कृति जैसे अंधकार मिटाकर रौशनी दिखाने वाले शिखर सतंभ से विहीन कृत्रिम चमक दमक का काल है । सही मायने में उच्च कोटि का लेखन पढ़ने को नहीं मिलता है क्योंकि लिखा भी नहीं जा रहा और प्रकाशित भी नहीं हो रहा है । साहित्य को कितने खांचों में बांटकर जैसे परिभाषित किया जाने लगा है उस से साहित्य सृजन अपने मार्ग से भटक कर कोई आसान राह ढूंढने लगा है बिना विचारे कि मंज़िल क्या है । कहने को सामने अनगिनत लिखने वाले हैं कितने तो ऐसे हैं जिनकी घोषित सैंकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हैं लेकिन तब भी ऐसे तमाम लोग कहते हैं और समझते हैं कि उनको वास्तविक ख्याति मान सम्मान हासिल नहीं हुआ है । कुछ भी ऐसा उनकी लेखनी से निकला नहीं जो समाज को सही मायने में सच्चाई से अवगत करवाता हो , बार बार वही पुरानी बातों को दोहराना पढ़ कर लगता है जैसे कहीं पहले सुना पढ़ा हुआ है । देश समाज को जागरुक करना समझाना कि वास्तविक स्वतंत्रता भौतिक नहीं मानसिक गुलामी से मुक्त होना होता है कोई नहीं लिख रहा है । 
 
शुरआत अपने घर से की है लेकिन सही मायने में हमारे देश समाज में हालत ऐसी है कि तमाम लोग खुद ग़ुलामी को भी बरकत समझने लगे हैं । कोई खुद से अमीर के सामने हाथ जोड़े है कोई किसी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के सामने सर झुकाए खड़ा है कोई अपने से बड़े पद पर आसीन अधिकारी की चाटुकारिता उसका हर उचित अनुचित आदेश सर झुकाकर मानता है निजि स्वार्थ को देख कर । मतलब ने अंधा ही नहीं किया बल्कि स्वाभिमान आत्मसम्मान को दांव पर लगा दिया है । देश को आज़ाद हुए 78 साल हो गए हैं लेकिन हम अभी भी सच बोलने का साहस नहीं जुटा सकते कि ये वो आज़ादी नहीं है जिस की कल्पना आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों ने की थी और जिस की खातिर जान हथेली पर रख कर अपना सभी कुछ समर्पित किया था । अपने स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों की कीमत हमने समझी ही नहीं तभी कैसे कैसे खुदगर्ज़ लोगों को हमने अपना मसीहा समझ उनकी अनुचित और अन्यायपूर्ण भेदभाव बढ़ाने की नीतियों का भी समर्थन किया है खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा कार्य करते हैं । लगता है हम सभी केवल खुद की खातिर सोचते हैं बाक़ी सभी को लेकर चिंता नहीं करते अन्यथा अधिकांश जनता की भूख बदहाली और असमानता हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था । 
 
देश की राजनीति सत्ता का खेल बनकर रह गई है जिस में कोई शकुनि हर बाज़ी जीत कर भरी सभा में चीरहरण की भूमिका बना रहा है । हमने रामायण से कुछ सीखा है न ही महाभारत से और गीता की व्याख्या करने को खुद को काबिल समझते हैं । कोई कृष्ण नहीं है कोई भी किरदार असली नहीं है सामने सभी कुछ समाता जा रहा है काल ग्रस्त कर रहा बचना किसी को नहीं है जानते नहीं अनजान हैं सभी खुद को अजर अमर मानकर मनमानी कर रहे हैं । इतिहास खुद को दोहराता है लेकिन शायद आधुनिक युग का इतिहास कोई लिखना चाहेगा भी तो लिख नहीं पाएगा क्योंकि खुद वही अपने आप को कटघरे में खड़ा पाएगा ।  आज सच लिखना भी होगा तो छापने को कौन तैयार होगा जब संपादक प्रकाशक सभी लिखने वाले को किसी बंधुआ मज़दूर से भी गया गुज़रा समझते हैं । जिस समाज में साहित्य लेखन से कोई पेट नहीं भर सकता सिर्फ छपने से ही संतोष करना पड़ता है उस देश में लेखन का स्तर कैसे बचेगा । अधिकांश लोग खुद लिखते खुद पैसे खर्च कर किताब छपवाते अपने जानकर लोगों को बांटते और आपस में इक दूजे को महान बताकर खुश रहते बिना पाठकवर्ग ऐसे लेखन से किसे क्या हासिल होगा । टेलीविज़न सिनेमा की बात क्या करें लगता है अच्छी कहानियों संगीत गीत का अकाल पड़ा है और भाषा की तो बात ही मत पूछो , दर्शक को क्या परोसा जा रहा है जिस से देख कर लोग निराश होने लगे हैं , विज्ञापनों की बैसाखियों के सहारे कितने समय तक ज़िंदा रह सकते हैं । टीवी सिनेमा खुद अंधकार बढ़ाने लगे हैं राग दरबारी गाने लगे हैं खुद बिकने लगे हैं अपनी कीमत बढ़ाने लगे हैं रसातल की तरफ कदम जाने लगे हैं खुद अपने आप से घबराने लगे हैं , झूठ को सच बनाने लगे हैं । 
 
 Sagar Voice on X: "अज्ञानता से भय पैदा होता है, भय से अंधविश्वास पैदा होता  है, अंधविश्वास से अंधभक्ति पैदा होती है, अंधभक्ति से व्यक्ति का विवेक ...

अक्टूबर 06, 2025

POST : 2027 लौटना गुज़रे हुए वक़्त में ( संस्मरण ) डॉ लोक सेतिया

          लौटना गुज़रे हुए वक़्त में ( संस्मरण ) डॉ लोक सेतिया 

 

अपनी इक ग़ज़ल से बात शुरू करने का मकसद है कितने लोग रह गए छूट गए पहले उनकी याद ज़रूरी है । 

         हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना ( ग़ज़ल ) 

            (  डॉ लोक सेतिया "तनहा" )   


हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना
कोई कभी हिदायत ये आज तक न माना ।

मझधार से बचाकर अब ले चलो किनारे
पतवार छूटती है तुम नाखुदा बचाना ।

कब मांगते हैं चांदी कब मांगते हैं सोना
रहने को झोंपड़ी हो दो वक़्त का हो खाना ।

अब वो ग़ज़ल सुनाओ जो दर्द सब भुला दे
खुशियाँ कहाँ मिलेंगी ये राज़ अब बताना ।

ये ज़िन्दगी से पूछा हम जा कहाँ रहे हैं
किस दिन कहीं बनेगा अपना भी आशियाना ।

मुश्किल कभी लगें जब ये ज़िन्दगी की राहें
मंज़िल को याद रखना मत राह भूल जाना ।

हर कारवां से कोई ये कह रहा है "तनहा"
पीछे जो रह गए हैं उनको था साथ लाना । 

     
( नाख़ुदा = नाविक ,  मांझी , केवट , कर्णधार )


 
आदमी की कुछ ऐसी ही फितरत है वर्तमान से नज़रें नहीं मिलाता भविष्य को लेकर आशंकित रहता है और हमेशा बीते हुए पलों को वापस बुलाना चाहता है ।  गीत याद आया है याद न जाये बीते दिनों की , जाके न आये जो दिन , दिल क्यूं बुलाये , उन्हें दिल क्यों बुलाये । दिन जो पखेरू होते पिंजरे में मैं रख लेता , पालता उनको जतन से  , मोती के दाने देता , सीने से रहता लगाये । दिल एक मंदिर फ़िल्म का ये गीत कॉलेज के समय कितनी बार गाया और सुना होगा । करीब महीने भर से अपने कॉलेज के एलुमनाई मीट का सभी ने बेसब्री से इंतज़ार किया शायद यही कारण रहा होगा वापस लौटने की दिलों की छुपी चाहत जिसे हक़ीक़त में सच करना संभव नहीं कुछ घंटे वर्तमान से चुराकर अतीत में जीने की आरज़ू दिल की । कभी सोचा है हम बचपन से युवा अवस्था से उम्र के साथ कितने मित्रता या अन्य संबंधों को अपनी तथाकथित व्यस्तताओं के कारण निभाना भूल जाते हैं , गांव शहर क्या सामने रहने वाले लोगों तक से मिलने बात करने की कोई कोशिश ही नहीं करते , कभी सोचते हैं पहल कोई और करे या फिर आजकल व्हाट्सएप्प संदेश ही काफी लगता है रिश्ते कायम रकने को । फिर भी ऐसे में हम सभी पचास साल से अधिक समय गुज़र जाने के बाद अपने कॉलेज की पुराने छात्रों की मिलन की बेला की सभा को लेकर कितने उत्सुक थे , कारण वही बीती हुई यादों को ताज़ा कर जीवन में नई ऊर्जा का संचार करना उन पलों में वापस लौटने की ख़्वाहिश । 
 
अब बात 4 अक्टूबर 2025 संजीवनी संगम - 2025 , बाबा मस्तनाथ आयुर्वेदिक कॉलेज अस्थल बाहर रोहतक में आयोजित कार्यक्रम की । जैसा सोचा था उस से भी बढ़कर शानदार आयोजन ही नहीं बल्कि उस से अधिक महत्वपूर्ण आयोजक मंडली के सभी सदस्यों के साथ संसथान और वहां शिक्षा प्राप्त कर रहे नवयुवकों युवतियों का आत्मीयता पूर्वक व्यवहार अभिभूत कर गया सभी को । भौतिकता की बात छोड़ भावनात्मक स्नेह का एहसास कोई कभी भूल नहीं सकता है वो भी ऐसे लोगों से जिनसे हमारी कोई जान पहचान ही नहीं थी शायद बाद में भी उनके चेहरे धुंधली याद में रह जाएंगे नाम नहीं मालूम हैं । आपने अपने घर परिवार समाज में कितने समारोह देखे होंगे लेकिन कभी ऐसा शायद अनुभव किया होगा जैसा उस दिन छह से आठ घंटों में सभी को अनुभव हुआ होगा । अपने कॉलेज की प्रगति शानदार प्रदर्शन से लेकर अपने सहपाठियों से मिलकर जो ख़ुशी मिली उनका वर्णन नहीं किया जा सकता , मंच आपका स्वागत कर रहा था आपको आमंत्रित कर आपकी उन्नति को जानकर गौरान्वित था । जिस तरह से हर महमान को अतिविशेष आदरणीय होने का आभास हुआ क्या कभी किसी अन्य जगह हुआ होगा , कभी नहीं । एक दिन साथ रहकर हमने कितनी भूली बिसरी बातों को ताज़ा किया क्या क्या नया जाना समझा जो ज़िंदगी में हासिल करना आसान नहीं होता है ।  
 
सब जानते हैं कि जब हम कॉलेज में पढ़ते थे शायद ही लगता होगा कि सभी कुछ शानदार है बल्कि सदा महसूस हुआ करता था काश कुछ अच्छा आधुनिक होता । लेकिन आज लगता है उस सादगीपूर्ण जीवन की खुशियां कितनी अनमोल थी जिनको फिर नहीं पाया जा सकता है , लगता है मन में इक अनुभूति रहती है कि हमने ही उस सवर्णिम काल को समझने में देरी कर दी ।  बड़ी देर बाद समझ आया कि वास्तविक ज़िंदगी की चाहत दोस्ती और निस्वार्थ प्यार संबंध से आपस में सहयोग त्याग की भावनाएं उस वक़्त के साथ जाने कहीं खो गई हैं । आपने कभी गांव का जीवन जिया है तो समझ आएगा सालों बाद अपने गांव जाने पर सभी कुछ बदला हुआ दिखाई देता है यहां तक कि रहने वाले लोग भी अलग होते हैं तब भी उन गलियों की उस धरती की कोई महक आपको महसूस होती है । कुछ आधुनिक नवीन निर्मित हुआ होता है तो कहीं कोई पुरानी ईमारत जर्जर नज़र आती है , आपको उसे देख कर उदास नहीं होना चाहिए बल्कि सोचना चाहिए कि ईंट पत्थर से बढ़कर हम सभी में जो भावनाएं थीं कैसे आज भी कायम हैं । दार्शनिकता की बात की जाये तो आपको दिखाई देता है इक दिन हमको भी मिट्टी में मिलना ही है । क्या आपको नहीं लगता कि उस जगह की मुहब्बत की अनुभूतियां अभी पहले सी ही हैं । आज इतना ही कुछ तस्वीरें देख सकते हैं , सबसे सुंदर छवि कॉलेज की शुरुआत की पहले बैच की छात्रा रही 1958 बैच की डॉ जयंत वीर कौर तनेजा जी की सभा में मंच पर उपस्थिति को कहना चाहता हूं । 
 


 




सितंबर 25, 2025

POST : 2026 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया

 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया  

ये हमारी उम्र की पीढ़ी ने देखा समझा गुज़ारा है जो हमसे पहले हुए उनको विज्ञान और भौतिकता की प्रगति का कहां पता होगा की आदमी कितने बदलाव का साक्षी बनने जा रहा है । जो आज की युवा पीड़ी है उसकी कल्पना भी वहां नहीं पहुंच पाएगी जहां से हमने उनके पूर्वजों ने शुरुआत की थी । और ये बदलाव गांव से शहर और शहर से महानगर या महानगर से विदेशी चमक दमक का ही नहीं है बल्कि उस से बढ़कर बदलती सोच और इंसानी संवेदनाओं से मशीनी तौर तरीकों का भी है । आपको भूखे पेट खुले आसमान की बारिश गर्मी सर्दी से शानदार पंचतारा जीवन शैली का अनुभव आधुनिक काल में एक साथ नहीं हो सकता है । आज आपके सामने भले गरीबों की दुनिया हो सकती है जिस से आप कोई संबंध नहीं रखना चाहते हों और आपकी मध्यम वर्ग की दुनिया जिस को महलों की तख्तों ताज़ों की दुनिया पाने की ख़्वाहिश है उस भीतर से बेहद खोखली दुनिया धनवान लोगों की मतलबी संवेदनारहित दुनिया , ज़िंदगी की वास्तविक पहचान इन से बिल्कुल अलग है । फ़िल्मी किताबी काल्पनिक नहीं वास्तविक दुनिया हमारी थी है और रहेगी जो कुछ विचित्र महसूस हो सकती है मगर विचित्र नहीं वही देश की सही तस्वीर है जिसे हमने भुला दिया है । आज हम जिस ऊंची इमारत पर खड़े हैं उसकी बुनियाद कितनी गहरी है मज़बूत है अथवा कमज़ोर है जिसको कोई आंधी कोई तेज़ हवा का झौंका हिला देता है जाने किस दिन क्षण भर में उसका निशान ही मिट जाए कोई तूफ़ान कोई सैलाब अगर आ गया तो । 
 
चलो बचपन से शुरआत करते हैं , गांव जिस में कोई सड़क नहीं बिजली नहीं सरकारी स्कूल भी है केवल पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई कर सकते हैं । कभी खुले में कभी पेड़ों की छांव में अध्यापक पढ़ाते हैं कभी एक ही अध्यापक पहली से पांचवी तक की कक्षा को पढ़ाते थे । लकड़ी की तख़्ती पर किसी पेड़ की टहनी से तराशी हुई कलम और दवात में काली स्याही की पुड़िया पानी में मिलाकर बनाई स्याही से लिखने का अभ्यास । लेकिन गांव का वातावरण कितना प्यारा होता था कोई भी अनजान अजनबी नहीं होता था , मिलते तो कहते तुम फलाने के बेटे पोते भाई बहन लगते हो , जी हां चाचा जी बाबा जी बताते थे । खेलने को कोई मैदान नहीं था गली मोहल्ला हर घर अपना था किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं थी । दिये की रौशनी या कोई लालटेन जलती थी मगर चांदनी रात को खुली छत पर कोई कहानी सुनते सुनते किसी सपनों की दुनिया में नींद में भी चेहरे पर मुस्कान रहती थी । पांचवी कक्षा के बाद छोटे से शहर में छह साल की पढ़ाई जिस में हिंदी पंजाबी अंग्रेजी भाषा को पढ़ना और उसके बाद नौंवीं कक्षा में विज्ञान गणित की राह चुनना सब जैसे भविष्य को निर्धारित करता गया । लेकिन हम गांव के घर से शहर में परिवार के किसी बड़े सदस्य की सुरक्षित देख रेख में शहरी वातावरण से तालमेल बिठाते हुए भी खेत खलियान से जुड़ाव रखते रहे । जिस गांव तक बस जाती उस से यात्रा कर आगे पांच मील का कच्चा रास्ता पैदल ही तय हो जाता था । कभी अगर साईकल मिलती तो आनंद लेते अन्यथा कदमों ने कभी थकना नहीं सीखा था , गांव पहुंचते ही गांव के बाहर वाले खेत भाग कर मिलने जाते पिता चाचा दादा ताया जी ही नहीं खेत में काम करने वाले सभी से कुछ रिश्ता हुआ करता था । कितना अपनापन है कि गांव से सालों साल बाहर रहकर भी किसी को देखते लगता की ये कोई अपने गांव का ही है पूछने पर मालूम होता किसी सहपाठी की संतान है जिस से शायद मिले तक नहीं । 
 
कॉलेज की बात बिल्कुल अलग है , मुझे आधी ज़िंदगी बिताने के बाद समझ आया कि उन पांच सालों में हमने सिर्फ किताबी पढ़ाई ही नहीं की बल्कि हमारा दिल दिमाग़ सोच समझ को कोई आकाश तभी मिला जिस से हम लोग जैसे हैं वैसे बन सके हैं । आपको सुनकर हैरानी होगी कि कॉलेज जीवन से हमने क्या क्या नहीं सीखा समझा और अपने भीतर समा लिया । सोचता हूं तो लगता है कि जैसे किसी बाग़ के पौधे को उखाड़ कर किसी ऐसे खुले मैदान में रोप दिया हो जिस में कोई माली नहीं कोई बाढ़ नहीं और मौसमों से गर्मी बारिश सर्दी से जूझना पड़ता है । ठोकर लगती है कोई उठाने को हाथ नहीं बढ़ाता खुद संभलना होता है । कभी कॉलेज कभी हॉस्टल कभी कितनी अन्य दुश्वारियां पता नहीं होता किस किस उलझन से निकलना होगा । कभी घर से पत्र नहीं आया अकेलापन कभी मनीऑर्डर नहीं पहुंचने पर खाली जेब ऐसी कितनी बातें लगती छोटी हैं लेकिन हालात से सामना करना सिखलाती हैं । सबसे महत्वपूर्ण दो बातें हैं पहली किसी से मिलते ही निकटता का एहसास और दूसरा कभी कोई समस्या होने पर सहयोगी सहपाठी मित्रों का परिवार के अन्य सदस्यों से बढ़कर अपनत्व । इक दोस्त का दुर्घटना में फ्रैक्चर होने के बाद कुछ महीने अपने माता पिता साथ गुज़ार कर आने पर बताना कि लगता है हाथ में बैसाखियां नहीं मानसिक रूप से विवशता का एहसास होने लगा है , दो दोस्तों का भरोसा दिलवाना कि हम हैं तो कभी ऐसा मत समझना । आज वो दोस्त नहीं है दुनिया में लेकिन हम दो दोस्तों ने उसको प्यार से सभी रिश्तों से बढ़कर अपनापन देकर उस निराशा से निकाला और कभी असहाय नहीं महसूस होने दिया , ये कॉलेज के मधुर संबंध से ही संभव था ।  
 
ज़िंदगी भटकाती नहीं रही बल्कि शायद नित नई मंज़िलें मुझे बुलाती रही हैं , 1974 से 1980 तक दिल्ली में रहना शायद मेरे भविष्य की आधारशिला जैसा था । सरिता पत्रिका का कॉलम अंतर्मन तक समाया जिस ने देश समाज को लेकर सक्रिय करने सोचने समझने की प्रेरणा दी , और 25 जून 1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का रामलीला मैदान में जाकर भाषण सुन कर इक संकल्प लिया था निडर होकर अन्याय अत्याचार भ्र्ष्टाचार से टकराने का । लेकिन लेखन को तेज़ धार देने में जिस हिंदी अख़बार दैनिक जनसत्ता और उसके संपादक प्रभाष जोशी जी की प्रेरणा ने मज़बूती दी उनका महत्व कम नहीं है । अब अधिक विस्तार से बताना ज़रूरी नहीं है लेकिन लेखन कार्य में करीब 35 साल से निरंतर सक्रियता में कितनी समस्याएं बाधाएं और अड़चने सामने आती रहीं मगर अपने पांव डगमगाने नहीं दिए भले कीमत कुछ भी चुकानी पड़ी है । ये बात समझने में ज़िंदगी लग गई है कि हम लिखने वालों की दुनिया अपनी अलग ही होती है और अधिकांश आसपास की दुनिया को हम लोग कभी पसंद आते नहीं क्योंकि उनको समझ ही नहीं आता कोई क्यों ऐसे काम में लगा हुआ है जिस से मिलता कुछ भी नहीं चिंताओं को छोड़कर । लेकिन अब समझ आता है कि हमारी बात पढ़ने समझने वाले दुनिया भर में कितने लोग हैं जिनसे हमारा कोई नाता ही नहीं है । आधुनिक संसाधनों ने लिखने वालों को खुला आसमान दिया है किताबों को लोग सिमित संख्या में पढ़ते हैं जबकि ब्लॉग्स साइट्स पर आप को संसार पढ़ता है यही हमारी उपलब्धि है जिसे हासिल करने में निरंतर प्रयास करना होता है ।  
 
 10 सरल घर डिजाइन - भारत में सरल गांव घर डिजाइन
 

सितंबर 22, 2025

POST : 2025 विदेशी कर हवन , स्वदेशी पर प्रवचन ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

  विदेशी कर हवन , स्वदेशी पर प्रवचन  ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

कथनी करनी एक समान होनी चाहिए , अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने को गांधी जी ने स्वदेशी आंदोलन चलाया था  1921 में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई थी । ऐसा समाचार ज्ञात हुआ है कि कुछ लोग जनता को इस पर जागरूक करने का प्रयास प्रेस वार्ता से करने वाले हैं ताकि लोग स्वदेशी को अपनाएं विदेशी को छोड़कर ।  उन सभी से करबद्ध अनुरोध है कि उनके पास जितना भी कुछ विदेशी है जनता को समझाने को उन सभी की होली जलानी उचित होगी । शपथ उठानी होगी सभी ऐसे प्रयास का समर्थन करने वालों को कि उनके पास जितना विदेशी सामान है उसका त्याग कर भविष्य में कभी विदेशी सामान नहीं खरीदेंगे । मगर विडंबना ये है कि साधरण जनता को जो कहना हैं खुद आपके आचरण में शामिल नहीं हो तब गंभीर विषय भी उपहास बन जाती है । कल ही खबर पढ़ी थी कि हिंदी चैनल वालों को उर्दू भाषा का उपयोग करने पर ऐतराज़ जताया गया है , जबकि कोई भी चैनल अख़बार नहीं है कोई अधिकारी मंत्री शासक नहीं है जो अंग्रेजी भाषा का उपयोग किये बगैर अपनी बात रख सकता हो । हिंदी और उर्दू तो दो बहनों जैसी हैं कोई लाख कोशिश कर के भी उनको अलग नहीं कर सकता है जैसे गंगा जमुना नदियां हैं । संकुचित मानसिकता ने लोगों को बांटने का प्रयास किया है जब कि उर्दू भाषा प्यार की भाषा है देश में आज़ादी के बाद तक भी सरकारी कार्यालय की भाषा रही है उर्दू । अंग्रेजी विदेशी भाषा है लेकिन आधुनिक काल में किसी भाषा को आप चाह कर छोड़ नहीं सकते अन्यथा आपको अपने देश की सीमाओं से बाहर निकलना तो दूर कितने राज्यों में भी संवाद करने में कठिनाई होगी । 
 
पिछले सालों में बुलेट ट्रैन से तमाम अन्य परियोजनाओं में विदेशी सामान का उपयोग किया गया है बहुत लोग गाड़ी से कपड़े जूते पेन अर्थात सर से पांव तक विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल कर स्वदेशी पर व्याख्यान देते हैं तो लगता है जैसे गुड़ खाना गुलगुलों से परहेज़ की कहावत सच करते हैं ।  हमारे समाज में मूल्यों का पतन निरंतर होने का कारण ये भी है कि हमने साहित्य की किताबों से नाता तोड़ लिया है और भौतिकतावादी संस्कृति का शिकार हो गए हैं । देशभक्ति को हमने सिर्फ नारा समझ लिया है देश की खातिर कुछ भी त्याग करना नहीं चाहते हैं । वास्तव में हमने अपनी भारतीयता की पहचान को गंवा दिया है और हम पश्चिमी चमक दमक में खोये हुए चेहरे और मुखौटे का भेद नहीं समझते हैं । हर शख़्स बाहर कुछ और दिखावा करता है मगर अपने घर दफ़्तर में असलियत कुछ अलग नज़र आती है । विकास के नाम पर विनाश की राह दौड़ते डेडते हम निकल आये हैं किसी अजनबी दुनिया में भटके मुसाफिर बनकर , ऐसे में कोई रास्ता बताने वाला नहीं है सभी ख़ुदपरस्ती का शिकार हैं । आखिर में अपनी इक बहुत पुरानी ग़ज़ल से कुछ चुनिंदा शेर पेश हैं  , हमको ले डूबे ज़माने वाले , नाखुदा खुद को बताने वाले , नाखुदा कहते हैं मांझी को कश्ती के खेवनहार को ,  माझी जब नाव डुबोये  उसे कौन बचाये , गीत सुना होगा । आई लव माय इंडिया मेड इन इंडिया जैसे शब्द प्रभावशाली नहीं लगते आजकल आडंबर प्रतीत होते हैं देश प्रेम देशभक्ति देशसेवा आपके आचरण में शामिल हो तो बताने की आवश्यकता नहीं होती है । 
 
 

 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।

मझधार में नैया डोले तो म... | Quotes & Writings by Debangsu Mandal |  YourQuote

सितंबर 21, 2025

POST : 2024 बेताल सुनता , कहानी राजा सुनाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  बेताल सुनता , कहानी राजा सुनाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

शासक ने बेताल को बेबस कर चुपचाप उसकी कहानी सुन कर ताली बजाने को विवश कर ही लिया । हमेशा से बेताल अपनी शर्त मनवाता रहा इस बार बाज़ी पलट गई और राजा ने तौर तरीका बदल बेताल की पीठ पर खुद सवार हो गया था । राजा कहने लगा बेताल की कितनी कथाएं कहानियां दुनिया ने सुनकर भुला दीं पर कोई सबक नहीं सीखा आज भी राजतंत्र खत्म हुआ लोकराज स्थापित होने पर भी जनता खुद को किसी न किसी का गुलाम ही बनाये रखा । मूर्ख लोग गुलामी का भी लुत्फ़ उठाने लगे हैं पिंजरे में कैद ख़ुशी के गीत गाने लगे हैं । किसी भिखारी को ताज पहनकर खुद अपनी झोली फ़ैलाकर गंगा उलटी बहाने लगे हैं अपनी हस्ती खुद ही मिटाने लगे हैं सोशल मीडिया की चमक दमक की झूठी दुनिया को सच समझने लगे है क्या जाने किसलिए ज़ालिम को मसीहा समझ कर महिमा उसी की गाने लगे हैं । शासक कुछ भी जनता या समाज के कल्याण की खातिर नहीं करते हैं हमेशा अपनी तिजोरी भरते हैं मौज करते हैं लोग देखते हैं उनको बस आह भरते हैं । खुद सभी देशवासी शासक बनकर मनमानी करने की चाहत रखते हैं इसलिए झूठ का ही गुणगान करते हैं सच बोलने से डरते हैं । शासक बनते ही भूखे नंगे लोग भी बादशाह खुद को मानते हैं देश सेवा के नाम पर लूट खसौट करते हैं जनता को झूठे वादों से बहलाते हैं उसकी खैरात बांटते है अधिकार कभी नहीं देते खुद दानवीर कहलाने का ग़ज़ब ढाते हैं ।    
 
चोर चोर मौसेरे भाई हैं सत्ता की रेवड़ियां संग संग खाते हैं देशवासी हमेशा गलती करते हैं जिन पर भरोसा करते हैं वही ज़ुल्म ढाते हैं लोग चिड़िया खेत चुग जाती है तब बाद में पछताते हैं । सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गुनगुनाते हैं मगर अच्छा कुछ भी दिखाई देता ही नहीं झूठे ख्वाब सजाते हैं । मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा सभी लोग जाते हैं लेकिन भगवान कहीं नहीं मिलते आजकल इंसान भी कम नज़र आते हैं । जो लोग बबूल बीजते हैं सत्ता हासिल कर आम आदमी को चूसते हैं उसका सब निचोड़ कर पीते हैं बस गुठलियां गरीब को मिलती हैं शासक हंसी उड़ाते हैं ये तमाशा देख दिल बहलाते हैं ।  शासक देश विदेश जाकर भाईचारा बनाते हैं दोस्त देश दुश्मन देश कौन सब भूलकर लेन देन का ऐसा चक्र्व्यू रचाते हैं जिस में साधारण लोग बिना कुछ लिए कर्ज़दार बन कर जीवन भर किश्ते चुकाते हैं । आयात निर्यात के खेल में सत्ताधारी लोग अधिकारी उनके यार लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं गरीब और गरीब अमीर और रईस बनकर देश का बंटाधार कर इतराते हैं समझते हैं हम बनाते हैं जब चाहे सरकार गिराते हैं । ख़ास वर्ग स्वार्थ की बेड़ियों में  कोल्हू के बैल की तरह अपनी परिधि में घुमते रहते हैं कभी आंखों से पट्टी नहीं हटाते मतलब की बात समझते हैं आपको ये समझाते हैं , कविता सुनाते हैं लोग आम क्यों नहीं खाते हैं । 
 
 

गुठलियां नहीं , आम खाओ ( व्यंग्य कविता ) 

डॉ लोक सेतिया

गुठलियाँ खाना छोड़ कर
अब आम खाओ
देश के गरीबो
मान भी जाओ ।

देश की छवि बिगड़ी
तुम उसे बचाओ
भूख वाले आंकड़े
दुनिया से छुपाओ ।

डूबा हुआ क़र्ज़ में
देश भी है सारा
आमदनी नहीं तो
उधार ले कर खाओ ।

विदेशी निवेश को
कहीं से भी लाओ
इस गरीबी की
रेखा को बस मिटाओ ।
 
मान कर बात
चार्वाक ऋषि की
क़र्ज़ लेकर सब
घी पिये  जाओ ।

अब नहीं आता
साफ पानी नल में
मिनरल वाटर पी कर
सब काम चलाओ ।

होना न होना
तुम्हारा एक समान
सारे जहां से अच्छा
गीत मिल के गाओ ।

Vikram Aur Betaal, Vikram Aur Betal Kahani, Vikram Aur Betal story

सितंबर 19, 2025

POST : 2023 सच छुपाने लगा है ( कविता / नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

       सच छुपाने लगा है ( कविता / नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

 
आईना ही हक़ीक़तको छुपाने लगा है 
दिन को भी अंधियारा छाने लगा है ।
 
दामन अपना वो अब छुड़ाने लगा है 
कहानी पुरानी फिर सुनाने लगा है ।   
 
चोर भी कितना शोर मचाने लगा है  
पहाड़ तले कोई  ऊंठ आने लगा है । 
 
तिलिस्म समझ सबको आने लगा है 
रहनुमा ही आजकल  घबराने लगा है ।
 
कोई तिनका छुपा सच बताने लगा है 
हर इक शख़्स ही दाढ़ी खुजाने लगा है ।
 
दोस्त खंज़र छुपा मिलने आने लगा है 
क्या खूब दोस्ती मुझसे निभाने लगा है ।  
 
उस गली गुज़रते सर को झुकाने लगा है
चुपचाप मिलने किसे आने जाने लगा है ।   
 

( 28 फरवरी 2003 पुरानी डायरी से ) 

 

 

सितंबर 18, 2025

POST : 2022 लिखना सीखा नहीं , मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      लिखना सीखा नहीं ,  मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

इतिहास रचना कठिन होता है लेकिन इतिहास को बदलना कभी भी संभव हो नहीं सकता है , जिनको कुछ भी अच्छा नहीं लगता जो उनको आईना दिखाए उनको सच को झूठ साबित करने में पसीना छूट जाता है ।  कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है आजकल फिर कोशिश की जा रही है सामाजिक सच्चाई को उजागर करने वाली सामिग्री को आदेश देकर मिटवाने की लेकिन क्या मिटा देने से दुनिया भूल जाएगी जो भी हक़ीक़त रहा है । बात पचास साल पुरानी है तब किसी ने विदेश से सवाल किया था कि शायर दुष्यंत कुमार किस बूढ़े आदमी की बात ग़ज़ल में कह रहा है कौन है जो इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है । लेकिन तब किसी ने ऐसा नहीं किया कि साये में धूप ग़ज़ल संग्रह को ही प्रतिंबधित कर देता , जैसे कवि शिव कुमार बटालवी को मिटाने को हर निशानी मिटाने के बावजूद भी हो नहीं सका कोई कवि अपनी राख से चिंगारी की तरह वापस आ गया , निशान बाक़ी रहते हैं जिस पगडंडी से ऐसे अकेले लोग गुज़रते हैं । क्या इसको आत्मविश्वास की कमी कहा जाये अथवा मन के भीतर छुपे डरे हुए इंसान की घबराहट जो दुनिया भर में करोड़ों करोड़ रूपये खुद को महान साबित करने पर खर्च करने और हर तरफ शोर ही शोर मचाने के बाद भी जिनकी वाणी सुनाई मुश्किल से देती है सत्य की उसको दबाकर खामोश करने की आवश्यकता महसूस होने लगी है ।  कहते हैं कि अगर आप चाहते हैं कि आपके बाद भी लोग आपको याद रखें तो या कुछ ऐसा कर जाओ जिस पर कोई लिख कर आपको अमर कर दे या फिर कुछ ऐसा लिख जाओ जिसे दुनिया पढ़कर आपको याद करे कि कभी उस घने अंधकार में भी कोई छोटा सा दीपक जलाता रहा था । 
 
जिन्होंने खुद लिखना सीखा ही नहीं और कुछ अच्छा नवीन सार्थक करना जानते भी नहीं उनको लगता था कि पुराने इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसका नाम निशान मिटाकर अपना कीर्तिमान स्थापित किया जाये तभी उनकी  रेखा बड़ी उनका कद ऊंचा साबित हो सकता है । हुआ क्या जिसको मिटाना चाहा वो और भी उभर कर सामने दिखाई देने लगा , आमने सामने होने पर हालत ऐसी हुई जैसे किसी कवि ने लिखा था कि बौने कद वालों को पहाड़ पर चढ़ने का शौक होता है और उनको लगता है पहाड़ पर खड़े होकर उनकी ऊंचाई बढ़ जाती है , जबकि पहाड़ पर खड़े होकर बौने और भी छोटे दिखाई देते हैं । आप पैसे प्रचार से तरह तरह से तमाशों से दुनिया को आडंबर से प्रभावित कर सकते हैं लेकिन खुद अपने आप से नज़रें मिलाना आसान नहीं है , खोखलापन बाहर नहीं भीतर है । आज के हालात पर मेरे मित्र विपिन सुनेजा ' शायक ' जी की इक ग़ज़ल सटीक लगती है उनकी अनुमति से प्रस्तुत कर रहा हूं नीचे उनकी तस्वीर भी यादगार रखने को उपयोगी हो सकती है ।   
 
 

    ग़ज़ल    :  विपिन सुनेजा ‘ शायक़ ’

दिल धड़कते हैं अभी पर भावनाएँ मर गयीं
वेदनाएँ   बढ़   गयीं,   संवेदनाएँ   मर गयीं

देह की चादर को ताने  सो  रही हर आत्मा
ज्ञान  बेसुध सा  पड़ा है ,चेतनाएँ  मर गयीं

एक भी नायक नज़र आता नहीं इस भीड़ में
क्रान्ति  होने की  सभी  संभावनाएँ  मर गयीं

जंगलों पर दिन-दहाड़े  चल रहीं कुल्हाड़ियाँ
सिंह  बैठे  हैं  दुबक  कर, गर्जनाएँ  मर गयीं

कामना  उनको ही पाने  की न जब  पूरी हुई
अब नहीं कुछ माँगना,सब कामनाएँ मर गयीं 

 


 


सितंबर 17, 2025

POST : 2021 किसे पकड़ना छोड़ना किसे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

     किसे पकड़ना छोड़ना किसे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया  

इ डी अर्थात प्रवर्तन निदेशालय की कहानी से आगे की बात है  ए सी बी अर्थात भ्र्ष्टाचार निरोधक ब्यूरो से हरियाणा सरकार ने कहा है कि आपने सरकार से पहले अनुमति नहीं ली थी छापे मारने की इसलिए आप किसी अधिकारी के रिश्वत लेते पकड़े जाने पर मुकदमा दायर नहीं कर सकते । सरकार कहते हैं सभी सरकारी अधिकारी वर्ग से राजनेताओं का काला सफेद का हिसाब किताब रखती है और जब ज़रूरत होती है तभी उसका उपयोग करती है । चुनावी बॉन्ड भले अवैध घोषित किये अदालत ने देने लेने वालों पर कोई असर नहीं हुआ खाया पीया हज़्म जैसी बात है । अगर कोई विभाग बिना इजाज़त नेताओं अधिकारियों पर छापे डालने लगा तो कौन बचेगा क्योंकि इस हम्माम में सभी नंगे हैं । आजकल देश की सरकार पर ही अल्पमत की तलवार लटकी हुई है समर्थन देने वाले कीमत मांगते हैं सरकार को रहना है तो चुपचाप मांगे पूरी करनी पड़ती हैं । शराफत नैतिकता के मापदंड आजकल कौन समझता है इस हाथ दे उस हाथ दे की बात है कल का क्या भरोसा है अभी तो जान बची तो लाखों पाए । अब सरकार कितने साहूकारों की उंगलियों पर नाचती है उनको जितना जब जैसे चाहिए देना मज़बूरी है , क्या बिकने को बचा है हिसाब लगाना बाकी है लाखों पेड़ों की हज़ार एकड़ की कीमत सिर्फ एक रुपया सालाना खूबसूरत चालाकी है । जिस संसद में आधे से अधिक लोग खुद गंभीर अपराधों के दोषी हैं वही कानून बनाती है मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को हटाने को किसी अदालती करवाई की आवश्यकता नहीं जेल में महीना कैद होना पर्याप्त है मगर यही मापदंड खुद उन्हीं पर लागू नहीं होता है । क्या ग़ज़ब की न्याय की अवधारणा है । 
 
वास्तविकता तो ये है कि राजनीति और प्रशासनिक सेवाओं से तमाम वैधानिक संस्थाओं में भ्र्ष्टाचार को किसी और नाम से स्वीकृति मिली हुई है । बदले में कुछ भी देना लेना आपसी भाईचारा है ये लूट का रंग ढंग न्यारा सभी को प्यारा है । मीडिया वालों को विज्ञापन से लेकर कितना कुछ मिलता है बदले में सिर्फ जी हज़ूरी चाटुकारिता गुणगान करनी होती है लोक लाज की परवाह छोड़ बेशर्मी से । ये सभी लूले लंगड़े हैं जिनको इक इक कदम सरकारी बैसाखियों की ज़रूरत पड़ती है । मैंने कल ही लिखी है इक हास्य व्यंग्य की कविता जिसे आज की खबर पढ़कर लगता है लागू करने का समय आ गया नहीं बल्कि लुका छुप्पी से लागू किया जा चुका है । रिश्वत हमारे देश की राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था से लेकर कारोबार उद्योग ही नहीं अन्य तमाम सामाजिक संगठनों में रग रग में बसी हुई है अगर कोई जांच संभव हो तो सभी में ये भ्र्ष्टाचार खून में शामिल मिलेगा जिसे अलग करते ही जीवन लीला का अंत हो जाएगा । इसलिए इसको वैधता देकर सभी माजरा ख़त्म किया जाना उचित है नहीं रहना तेरे बिन रिश्वत की देवी कितनी सुंदर लगती है । 
 
 
पहले इक पुरानी कविता पढ़ते हैं अंत में कल की कविता समझते हैं ।  
 
11 सितंबर 2012 पोस्ट : 127  

जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ  लोक सेतिया

है अपना तो साफ़ विचार
है लेन देन ही सच्चा प्यार ।

वेतन है दुल्हन
तो रिश्वत है दहेज
दाल रोटी संग जैसे अचार ।

मुश्किल है रखना परहेज़
रहता नहीं दिल पे इख्तियार ।

यही है राजनीति का कारोबार
जहां विकास वहीं भ्रष्टाचार ।

सुबह की तौबा शाम को पीना
हर कोई करता बार बार ।

याद नहीं रहती तब जनता
जब चढ़ता सत्ता का खुमार ।

हो जाता इमानदारी से तो
हर जगह बंटाधार ।

बेईमानी के चप्पू से ही
आखिर होता बेड़ा पार ।

भ्रष्टाचार देव की उपासना
कर सकती सब का उध्धार ।

तुरन्त दान है महाकल्याण
नौ नकद न तेरह उधार ।

इस हाथ दे उस हाथ ले
इसी का नाम है एतबार ।

गठबंधन है सौदेबाज़ी
जिससे बनती हर सरकार । 
 
 

16 सितंबर 2025 पोस्ट : 2020 
 

रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

कर्मचारी संघ की बैठक चर्चा में इक बात सामने आई 
वेतन नहीं हक मेहनत का , हम सत्ता के हैं घर जंवाई 
शासक की अनुचित बातों को ख़ामोशी से मान लेते हैं  
लूट खसूट से उनको मलाई , छाछ अपने लिए है बचाई । 
 
रिश्वत सेवा का मेवा , करते हैं दूर जनता की कठिनाई 
कुछ भी अनुचित नहीं करते हम , लेन देन है चतुराई 
लोगों की सुनता कौन जनता सत्ता की साली - भौजाई
राजनेताओं ने हंसी मज़ाक में उसकी की मार कुटाई । 
 
रिश्वत को बदनाम कर दिया किसने कर कर के है बेईमानी
वर्ना ये भरोसे की निशानी हर किसी की होती थी आसानी 
सरकार से इक मांग हमारी बंद करनी तलवार है ये दोधारी 
बिना वेतन करेंगे काम हम पर रिश्वत से निभानी सबने यारी ।
 
काश कोई फरियाद सुने रिश्वत लेने की मिल जाये आज़ादी 
आओ हमको ख़ैरात डालकर मनचाहा करवा लो सभी लोग 
पुण्य मिलेगा जन्म जन्म में जितना दिया बढ़कर ही पाओगे  
वरमाला हाथ में लिए खड़ी स्वयंबर में जैसे कोई शहज़ादी । 
 
कैसे आज़माना योजना आयोग को नई तरकीब सुझाई गई है 
हर दफ़्तर में हर विभाग की आमने सामने बनाकर दो शाखाएं 
बीच में निर्देश लगवाएं रिश्वत देने वाले इधर अन्य उधर जाएं 
बिना रिश्वत जाने का मतलब होगा भटकते भटकते मर जाएं ।
 
रिश्वत देने वालों की तरफ सभी जाएंगे खुश होकर देंगे दुआएं 
एक बार ज़रूर आज़माएं बिना रिश्वत नहीं उधर जा पछताएं 
सफल योजना होगी सरकार की सभी का बराबर हिसाब होगा
बारिश होगी गरज बरस कर लौटेंगी आसमान से काली घटाएं ।      
 
 

सितंबर 16, 2025

POST : 2020 रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

कर्मचारी संघ की बैठक चर्चा में इक बात सामने आई 
वेतन नहीं हक मेहनत का , हम सत्ता के हैं घर जंवाई 
शासक की अनुचित बातों को ख़ामोशी से मान लेते हैं  
लूट खसूट से उनको मलाई , छाछ अपने लिए है बचाई । 
 
रिश्वत सेवा का मेवा करते हैं ,दूर जनता की कठिनाई 
कुछ भी अनुचित नहीं करते हम , लेन देन है चतुराई 
लोगों की सुनता कौन जनता सत्ता की साली - भौजाई
राजनेताओं ने हंसी मज़ाक में उसकी की मार कुटाई । 
 
रिश्वत को बदनाम कर दिया किसने कर कर के है बेईमानी
वर्ना ये भरोसे की निशानी हर किसी की होती थी आसानी 
सरकार से इक मांग हमारी बंद करनी तलवार है ये दोधारी 
बिना वेतन करेंगे काम हम पर रिश्वत से निभानी सबने यारी ।
 
काश कोई फरियाद सुने रिश्वत लेने की मिल जाये आज़ादी 
आओ हमको ख़ैरात डालकर मनचाहा करवा लो सभी लोग 
पुण्य मिलेगा जन्म जन्म में जितना दिया बढ़कर ही पाओगे  
वरमाला हाथ में लिए खड़ी स्वयंबर में जैसे कोई शहज़ादी । 
 
कैसे आज़माना योजना आयोग को नई तरकीब सुझाई गई है 
हर दफ़्तर में हर विभाग की आमने सामने बनाकर दो शाखाएं 
बीच में निर्देश लगवाएं रिश्वत देने वाले इधर अन्य उधर जाएं 
बिना रिश्वत जाने का मतलब होगा भटकते भटकते मर जाएं ।
 
रिश्वत देने वालों की तरफ सभी जाएंगे खुश होकर देंगे दुआएं 
एक बार ज़रूर आज़माएं बिना रिश्वत नहीं उधर जा पछताएं 
सफल योजना होगी सरकार की सभी का बराबर हिसाब होगा
बारिश होगी गरज बरस कर लौटेंगी आसमान से काली घटाएं ।