अक्टूबर 16, 2016

POST : 541 मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) 

                       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है
यही शोर क्यों हर तरफ हो गया है ।

बता दो हमें तुम उसे क्या हुआ है
ग़ज़लकार किस नींद में सो गया है ।

घुटन सी हवा में यहां लग रही है
यहां रात कोई बहुत रो गया है ।

नहीं कर सका दोस्ती को वो रुसवा
मगर दाग़ अपने सभी धो गया है ।

करेंगे सभी याद उसको हमेशा
नहीं आएगा फिर अभी जो गया है ।

कहां से था आया सभी को पता है
नहीं जानते पर किधर को गया है ।

मिले शूल "तनहा " उसे ज़िंदगी से
यहां फूल सारे वही बो गया है । 
 


 

POST : 540 दर्द अपने हमें क्यों बताए नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

 दर्द अपने हमें क्यों बताए नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

दर्द अपने हमें क्यों बताए नहीं
दर्द दे दो हमें हम पराए नहीं ।

आप महफ़िल में अपनी बुलाते कभी
आ तो जाते मगर बिन बुलाए नहीं ।

चारागर ने हमें आज ये कह दिया
किसलिए वक़्त पर आप आए नहीं ।

लौटकर आज हम फिर वहीं आ गए
रास्ते भूलकर भी भुलाए नहीं ।

खूबसूरत शहर आपका है मगर
शहर वालों के अंदाज़ भाए नहीं ।

हमने देखे यहां शजर ऐसे कई
नज़र आते कहीं जिनके साए नहीं ।

साथ "तनहा " के रहना है अब तो हमें
उन से जाकर कहो दूर जाए नहीं ।
 

 

POST : 539 ( Repeat : 261 ) उसको न करना परेशान ज़िंदगी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उसको न करना परेशान ज़िंदगी ( ग़ज़ल )  डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उसको न करना परेशान ज़िंदगी
टूटे हुए जिसके अरमान ज़िंदगी ।

होने लगा प्यार हमको किसी से जब
करने लगे लोग बदनाम ज़िंदगी ।

ढूंढी ख़ुशी पर मिले दर्द सब यहां
जाएं किधर लोग नादान ज़िंदगी ।

रहने को सब साथ रहते रहे मगर
इक दूसरे से हैं अनजान ज़िंदगी ।

होती रही बात ईमान की मगर
आया नज़र पर न ईमान ज़िंदगी ।

सब ज़हर पीने लगे जानबूझकर
होने लगी देख हैरान ज़िंदगी ।

शिकवा गिला और " तनहा " न कर अभी
बस चार दिन अब है महमान ज़िंदगी ।
 

 

POST : 538 आज खारों की बात याद आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

  आज खारों की बात याद आई ( ग़ज़ल )  डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आज खारों की बात याद आई
जब बहारों की बात याद आई ।

प्यास अपनी न बुझ सकी अभी तक
ये किनारों की बात याद आई ।

आज जाने कहां वो खो गये हैं
जिन नज़ारों की बात याद आई ।

साथ मिल के दुआ थे मांगते हम
उन मज़ारों की बात याद आई ।

कुछ नहीं दर्द के सिवा मुहब्बत
ग़म के मारों की बात याद आई ।

जब गुज़ारी थी जाग कर के रातें
चांद-तारों की बात याद आई ।

दूर रह कर भी पास-पास होंगे
हमको यारों की बात याद आई ।

आज देखा वतन का हाल " तनहा "
उनके नारों की बात याद आई । 
 

 

POST : 537 क्या हम झूठे लोग हैं ( दोगला समाज ) विचार - डॉ लोक सेतिया

   क्या हम झूठे लोग हैं ( दोगला समाज ) विचार - डॉ लोक सेतिया

  बार बार देखा है जहां भी कुछ गलत हो रहा हो , कोई देश-समाज के नियम क़ानून या नैतिकता की धज्जियां उड़ा रहा हो , अधिकतर लोग खामोश रहते हैं। तब तक जब तक आग उनके घर तक नहीं पहुंचती। औरों की परेशानी हमें परेशानी लगती ही नहीं। हम सोचते ही नहीं कि जब कोई भी सामजिक या न्यायिक नियमों का उलंघन करता है तो जो व्यक्ति सभ्य है कायदे से चलता है उसका जीना दूभर हो जाता है। कहीं दो नवयुवक असमय दुर्घटना में घायल होकर मर जाते हैं क्योंकि कोई तेज़ गति से गलत साईड से वाहन चला रहा होता है शराब पी कर। आप अगर अपने बेटे को यही शिक्षा दे रहे हैं कि सरकारी नियम पालन करने की ज़रूरत नहीं है अगर विभाग को पता चल भी गया तो कुछ पैसे जुर्माना भर चैन से रह सकते हो। तब आप कितने भी समझदार या शिक्षित हों आप अपने बेटे को सभ्य नागरिक नहीं बना सकते। बड़ा होकर आपका बेटा भले जो भी बन जाये देश का इमानदार नागरिक नहीं बन सकता। मुझे गलत बातों का विरोध करते उम्र बीत गई है और मैंने देखा है जब आप सरकार प्रशासन या किसी भी व्यक्ति की अनुचित बात का विरोध करते हैं तब कोई भी आपका साथ देना नहीं चाहता जब तक खुद उसको कोई नुकसान नहीं हो। देश समाज का नुकसान किसी को अपना लगता ही नहीं। क्या देश आपका नहीं है और समाज भी। आपका कोई एक पैसे का नुकसान करे आप तिलमिला उठते हैं , देश समाज को लूट रहा हो आपको सरोकार नहीं। हां कहने को आप धर्म की सच्चाई की बड़ी बड़ी बातें कर सकते हैं जबकि आचरण में आप उसके विपरीत ही होते हैं। मैं ये सब क्यों करता हूं एक बार फिर से दोहराता हूं। जब डॉक्टर बना और अपनी क्लिनिक शुरू की तभी इक पत्रिका , सरिता , में इक कॉलम पढ़ा था , कुछ सवाल पूछे गये थे , जैसे कि आप पढ़े लिखे हैं अपना काम या नौकरी करते हैं पैसा कमाते हैं घर बनाते हैं शादी करते हैं बच्चे पैदा कर उनको पालते हैं , तब आप अपने देश और समाज के लिये क्या करते हैं। घर बनाना संतान पैदा करना तो पशु पक्षी जानवर भी करते ही हैं , हम इंसान हैं तो कुछ हमें देश समाज के लिये करना चाहिये। उसके बाद लिखा होता था क्या क्या किया जा सकता है। उन्हीं बातों में इक प्रमुख बात थी देश समाज में जहां कहीं भी कुछ गलत अनुचित अनैतिक होता दिखाई दे उसका विरोध करना हर तरह से। बस तभी मन में इक संकल्प लिया था ये सब करने का।

                              बीस साल हो गये ये काम करते करते , भ्र्ष्टाचार , सरकार की मनमानी , अफ्सरों की तानाशाही का और धर्म समाजसेवा की आड़ में अपने स्वार्थ सिद्ध करते लोगों की वास्तविकता को उजागर करते। फिर लगा मेरे प्रयासों से हासिल क्या हुआ जब ये सारी बातें और भी बढ़ती नज़र आती हैं।  निराश होकर इक लंबा पत्र लिखा मैंने विश्वनाथ जी को जो संपादक थे सरिता के , आज ज़िंदा नहीं हैं , मैंने पूछा था आपकी बात मान मैंने यही काम रोज़ किया है मगर आज लगता है जैसे व्यर्थ गया सारा का सारा प्रयास। जल्दी ही उनका पत्र मिला मुझे विस्तार से समझाया था , लिखा हुआ था आपने ऊंचे पहाड़ों से निकलती नदी को देखा है , बहुत तीव्र वेग से बहती है , राह में आने वाले पत्थरों को मिटा देती है , रेत बन जाते हैं कठोर पत्थर और लगता है उनका नामो-निशान मिट गया जैसे। आप कहोगे देखा नदी को रोक नहीं सके रास्ते के वो पत्थर , मगर असलियत ये नहीं है , सच ये है कि रास्ते के अवरोधों से उस नदी का तीव्र वेग जो विनाशकारी हो सकता था , बाढ़ की तरह धरती को काटता , वही अवरोधों के कारण इतना कम हो गया कि सिंचाई के काम आता है वही पानी। ठीक इसी तरह जो लोग सच की डगर चलते हैं बुराई का विरोध करते रहते हैं उनकी कोशिश असफल नहीं होती , काफी हद तक रुकावट से बुराई बढ़ नहीं सकती। अगर हम भी खामोश रहें तब देश और समाज और भी नीचे रसातल में चला जायेगा। बस तभी फिर से अपना प्रयास कभी खत्म नहीं करने की बात तय की थी।

               अफ़सोस ये नहीं होता कि आप अपराध या गैर कानूनी कामों का अनुचित कार्यों का विरोध करते हैं अकेले और कोई आपके साथ नहीं होता है , ये तो पहले से मालूम ही है इस डगर पर कायर लोग साथ नहीं दे सकते , लेकिन अफ़सोस तब होता है जब कुछ लोग मेरे जनहित के प्रयास का विरोध लाज शर्म त्याग करते हैं और जो अनुचित कार्य करता उसके साथ खड़े होते हैं। शायद इक चरित्र बन गया है लोगों का कि उनको लगता है नियम कायदे क़ानून पालन करने को हैं ही नहीं , जिसको जब जैसे सुविधा हो उनकी अवहेलना कर सकता है , आज जिस ने गलत किया जो उसके साथ खड़े हैं चाहते हैं जब वो भी कुछ भी अनुचित करें तब उनको कोई रोकने वाला नहीं हो , सब समर्थन करें उनकी गलत बातों का। कोई इन से सवाल करे क्या आप धार्मिक हैं , सच की राह चलते हैं , क्या आप देशप्रेमी हैं देश के क़ानून संविधान का आदर करते हैं। अथवा झूठे और दोगले लोग हैं जिनके चेहरों पर नकाब है अच्छा होने की जबकि मानसिकता खराब ही है। ऐसे सभी लोगों को मेरा दूर से सलाम है , उनके दोहरे मापदंड मुझे मंज़ूर नहीं हैं। 

 

अक्टूबर 14, 2016

POST : 536 फेसबुक की महिमा अपार है ( बेसर-पैर की ) डॉ लोक सेतिया

     फेसबुक की महिमा अपार है ( बेसर-पैर की ) डॉ लोक सेतिया

              किसी शायर ने कहा है , क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा , कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा। मेरा अनुभव फेसबुक का भी यही है , कुछ नहीं मिला लेकिन ये तो समझ आया ही कि फेसबुक क्या बला है। मोहभंग कभी का हो चुका था आखिर अलविदा कह ही दिया , फिर भी कुछ बातें कुछ खट्टी मीठी यादें बाकी हैं। कहानियां भी कुछ न कुछ तो बनी ही हैं , किरदार भी असली नकली देखे हैं। हिसाब कभी लगाना नहीं सीखा , कहां पर खोया क्या और पाया क्या। कुछ दिन पहले लिखा था इक व्यंग्य भी फेसबुक पर देवी देवताओं की बातें देख कर कि भगवान को भी अपने देवी देवताओं के दर्शन करने फेसबुक पर आना पड़ेगा। वो सभी चौबीस घंटे रहते ही वहीं हैं अपने मंदिरों को छोड़कर , भला इतने भक्त और कहीं मिलते हैं थोक के भाव। लेकिन भगवान नहीं आये फेसबुक पर , उनसे फेक आई डी बनी नहीं और सच्ची बनाने नहीं दी फेसबुक ने , सब से पहले जन्म की तारीख बताने में ही मामला अटक गया। इक देवी ने प्रस्ताव रखा भगवन आप से नहीं बनाई जायेगी नई फेसबुक , आप मेरी वाली का पासवर्ड लेकर नाम बदल सकते हो आसानी से , कोई नहीं पूछेगा आप महिला से पुरुष कैसे हो गये और आपकी जन्म तिथि कब बदली भी और अब कोई देख ही नहीं सकता क्या तारिख है। मगर भगवान डर ही गये और मेरी तरह छोड़ गये फेसबुक की दुनिया को। आपको ये सूचना देना भी मेरा कर्तव्य था क्योंकि मैंने ही बताया था कि जल्दी ही भगवान आयेंगे खुद फेसबुक पर। फेसबुक कोई बहुत पुरानी नहीं है फिर भी इसका इतिहास लिखने को हज़ारों साल लग सकते हैं , आखिर यहां हर दिन नहीं हर मिंट इतना कुछ घटता रहता है कि उसको याद रखना भी इक चुनौती है। सुबह फेसबुक बनाई और शाम तक सौ दोस्त बन भी गये , बनने के बाद पूछते हैं भाई आपका नाम पता क्या है और कहां रहते क्या करते हैं। कौन कहे जब मित्र बनाया तब देखा नहीं वाल पर अबाउट में सभी तो बताया हुआ है। मगर कहां बस फोटो देख मित्रता की भले फोटो भी खुद की किसी ज़माने की हो या किसी और की ही। नाम में क्या रखा है जब यहां नाम भी दो महीने बाद बदल सकते हैं। फिर भी लोग हज़ारों दोस्त बनाते जा रहे हैं जब कि उनको किसी से कोई मतलब ही नहीं होता एक दिन बाद। खुश हैं देख कर हज़ारों की संख्या देख कर। फेसबुक पर सभी कुछ है , दुनिया भर की बातें , यहां तक कि देशभक्ति से समाजसेवा तक पर लिखना भी , ईश्वर और मानवता की बातों से लेकर मुहब्बत तक सभी उपलब्ध है इस बाज़ार में।  बस असली की गारंटी नहीं है , हर कोई खुद झूठ का कारोबार करता है और समझाता है बाकी सब को लेकर कि वो बिलकुल झूठ हैं। समस्या वही है , दर्पण बेचते हैं मगर खुद दर्पण में अपने आप को देखने से बचते हैं। इसलिये कि लोग आपको खूबसूरत बताकर लाईक करते हैं कमैंट्स लिखते हैं और आपका मन दर्पण आपको बताता है आपकी असलियत क्या है। बाहर देखते हैं सभी औरों को खुद अपने भीतर देखता ही नहीं कोई। इसी का नाम फेसबुक है। ये इतिहास नहीं है फेसबुक का , ये तो केवल संक्षिप्त भूमिका है , पूरा इतिहास लिखने की ताकत मुझ में तो नहीं है। समझना हो तो इतने से समझ लेना। समझदार को इशारा काफी होता है , सभी समझदार हैं । 
कौन खुद को नासमझ कहता है । में नासमझ हूं फिर भी समझा रहा सभी को , विचित्र बात लगती है । 
 

 
 
 

अक्टूबर 11, 2016

POST : 535 रावण बहुत हैं पर श्रीराम कहां हैं ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

      रावण बहुत हैं पर श्रीराम कहां हैं ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

                   श्रीराम कहां गये , रावण को जलाना है , राम कहीं नज़र ही नहीं आ रहे। युद्ध जारी है दोनों तरफ ही रावण हैं आमने सामने लड़ते हुए। जीत रावण की ही होगी , रावण मरेगा फिर भी ज़िंदा रहेगा , लंका में हो चाहे अयोध्या में राजतिलक रावण का ही होगा। कोई भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तलाश नहीं करना चाहता , सब ने मान लिया है इस युग में वो मिल ही नहीं सकते , सभी अपने अपने रावण को राम घोषित कर रहे हैं। नया इतिहास लिखा जाना है फिर से इक नई रामायण लिखनी है , कलयुगी तुलसीदास खोज लिये गये हैं। इन्होंने कितने ही नामों पर चालीसे लिख डाले हैं साहित्य में नाम कमाने को। रावण हर शहर में है और पिछले साल से अधिक ऊंचे कद का है , हर रावण को जलाने को और भी रावण हैं जो खुद को राम कहलाना चाहते हैं। उन सभी के पास अपना अपना तुलसी है जो उनको मर्यादा पुरुषोत्तम बता सकता है। बड़ी समस्या खड़ी हो गई है जनता को समझ ही नहीं आ रहा इतने रावणों में से किसको अपना राम समझे और उसकी वंदना करे। जनता की मज़बूरी है उसको आरती उतारनी ही है चाहे कोई भी मिल जाये बिना किसी को भगवान बनाये उसका गुज़ारा नहीं होता। जनता भेस देखती है , चरित्र को नहीं पहचानती , राम का भेस धरे खड़े हैं हर तरफ रावण , जनता है कि बंट गई है। हर रावण की जय-जयकार करने वाले लोग हैं , सभी का अपना अपना स्वार्थ जुड़ा हुआ है , किसी न किसी के साथ। इक बात सभी  की एक समान है , हर राम अकेला है , किसी के साथ लक्ष्मण नहीं है , न सीता ही है , हनुमान कौन है कोई नहीं जानता । जंग भी सीता को लेकर नहीं है , कुर्सी नाम की वस्तु को लेकर लड़ रहे हैं सब। सभी का दावा है वही कुर्सी का सही हकदार है , हक साबित करने की अपनी अपनी परिभाषा भी सब की है , देश और जनता की भलाई को छोड़ बाकी सब उनको याद है।

                      कलयुग में किसी को किसी का भरोसा नहीं है , भाई हो या पत्नी , चाहे कोई मित्र , कुर्सी की खातिर सभी बदल सकते हैं , इसलिये उनका त्याग भी किया जा सकता है। कुछ नये अवतार सामने आये हैं जो सब को निर्देश देते हैं कि जैसा हम बतायें वैसा ही विश्वास करें , जो भी हमारी बात से सहमत नहीं होगा उसको रावण साबित कर दिया जायेगा और उसी को आग के हवाले कर देंगे। खुद को राम घोषित करवाने को सभी उनकी बात का समर्थन कर रहे हैं। इन अवतारों का कहना है कि जो भी ये कहते हैं वही जनता का अभिमत है , उनका अपना सर्वेक्षण है अपनी बात को सच साबित करने को। कोई इनके अवतार होने पर शक नहीं कर सकता , जो ऐसा प्रयास करे वो पापी है झूठा है , नासमझ और नादान भी जो उनकी ताकत को नहीं पहचानता उनकी महिमा को समझना नहीं चाहता। वाकयुद्ध इनका ब्रह्मास्त्र है और उसका उपयोग करने में ये पारंगत हैं , इनका मानना है अब यही सब से बड़ा हथियार है। इनको एक ब्यान से कितने लोगों पर निशाना लगाना आता है , कोई इनका सामना करना नहीं चाहता। इनका झूठ ही आजकल सच कहलाता है। इनकी भी सेना है जो लड़ती रहती है छदम युद्ध सभी से , ये सभी सेनापति हैं , इनका सैनिक कोई भी नहीं है। मगर इनको इक मंत्र आता है जिसको जपकर ये जनता को अपना समर्थक बना लेते हैं , ये कहकर कि हम आपकी लड़ाई लड़ रहे हैं। इनको हर हाल में जीतना है , जीतने को सब कुछ करने को तत्पर हैं। ये हार भी जायें तब भी अपनी हार नहीं स्वीकार करते , हार को जीत साबित कर देते हैं।

                       आज युद्ध अच्छाई की बुराई पर जीत की खातिर नहीं है। सवाल किसी बुरे को भला साबित करना है , ताकि किसी रावण को राम घोषित किया जा सके जो खुद अपने को जलाने का चमत्कार दिखा कर भी कभी मरे नहीं ज़िंदा ही रहे। सभी अपने भीतर के रावण को बचाये रखना चाहते हैं , अहंकार रुपी रावण खत्म होता ही नहीं है। ये नया कुरुक्षेत्र है , किसी को धर्म की रक्षा नहीं करनी है , सब को राज्य पाकर जनता रुपी द्रोपती का चीरहरण करना है। सब व्याकुल हैं राजतिलक करवाने को , जीत की वरमाला पहनने का सपना हर किसी का है। बेबस जनता छली जाती है बार बार , फिर उसका चयन गलत साबित होता है , योग्य वर होता ही नहीं उसके पास कभी। मगर उसको जयमाला पहनानी ही पड़ती है , इनकार करने का अधिकार उसको नहीं है। काश अब के वो साफ कह दे साहस करके कि तुम सभी एक जैसे हो , मुझे तुम में किसी को वरमाला नहीं डालनी है। तुम में राम कोई भी नहीं है। अब मुझे न कोई अग्निपरीक्षा देनी है न ही धरती में समाना है। मैं इस युग की नारी निडर हो कर कहती हूं  , तुम सभी ही रावण हो राम नहीं हो। आज सीता कहीं भी सुरक्षित नहीं है न वन में न ही महलों ही में। नई रामायण लिखने वालो पहले जाओ कहीं से तलाश कर ढूंढ लाओ राम को। किस ने हरण कर लिया है श्री राम जी का , जनता रुपी सीता पूछती है कहां हैं श्री राम।

अक्टूबर 09, 2016

POST : 534 मेरा घर है या पागलखाना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     मेरा घर है या पागलखाना ( व्यंग्य )  डॉ लोक सेतिया 

                  उसको देखा तड़पते हुए ज़ख़्मी हालत में तो मुझे दया आ गई और मैं उसको अपने घर ले आया। नाम पूछा तो कहने लगा सच है मेरा नाम। मैंने कहा सच ये कैसी हालत हो गई है तुम्हारी , किसने घायल किया है तुम्हें। कहने लगा अब किस किस का नाम लूं , सभी तो शामिल हैं मुझे ज़ख्म देने में। जब कोई अदालत किसी बाहुबली नेता को बरी करती है सभी गुनाहों के आरोपों को निराधार बता कर तब एक गहरा घाव मेरे बदन पर होता ही है। जब हर दिन टीवी वाले और अख़बार वाले सत्ता के लोभी नेताओं का गुणगान करते हैं उनको देशभक्त बताते हैं तब भी मुझे ज़ख्म मिलता ही है।चाहे नेताओं के झूठ फरेब वाले भाषण हों अथवा मीडिया द्वारा तर्क कुतर्क से गलत को सही और झूठ को सच साबित करना , मेरी आत्मा तक को घायल करते हैं। सच को ये रोज़ क़त्ल करते हैं और खुद को सच का पैरोकार भी बताते हैं। मैं सच को अपने घर ले आया तो घर के लोग मुझ से नाराज़ हो गये , कहते हैं भला किस काम है ये आजकल , सच को घर में जगह देना बड़ी मुसीबत मोल लेना है।  मुझसे कहते हैं परिवार वाले कभी तो फायदे  का सौदा किया करूं , जो भी करता हूं घाटे का ही काम करता हूं। मगर मैंने सच को अपने घर में ठिकाना बनाने दिया और सोच लिया कि जब ओखली में सर दिया है तो मूसलों से क्या डरना। सच को शायद थोड़ा चैन अवश्य मिला होगा मेरी बात से फिर भी बोला भाई लेखक तुम मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे अपना बना कर। मैंने कहा तुम निराश क्यों होते हो , मैं ही नहीं यहां और भी तमाम लोग हैं जो तुम्हें बेहद चाहते हैं वो सभी तुम्हारे लिये बहुत कुछ करेंगे जब देखेंगे तुम्हारी दशा को। बस तुम एक बार चल कर उनसे मिल तो लो अख़बार वालों से टीवी चैनेल वालों से। वह हंस दिया , मगर उसकी हंसी में तंज नहीं दर्द था , अपनों द्वारा छले जाने का। कहने लगा कितने मूर्ख हो लेखक अभी तक नहीं समझे उनको , उन्हीं के कारण ही तो मेरी ऐसी हालत हुई है। कभी मेरा ठिकाना वही था  , अब तो उन्होंने मुझे निकाल बाहर फैंक दिया है , पहचानते तक नहीं मुझे आजकल। मुझे समझाते हैं खामोश रहो नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे। वो तो झूठ को सच साबित कर उसका कारोबार करने लगे हैं , कोई पत्रकार सच को तलाश करने नहीं जाता कहीं। उनको तो मेरी क्या खबर की भी परिभाषा तक याद नहीं है।

                        मैंने कहा चलो हम चलते हैं उनको अपनी बात कहते हैं , उनका दावा है सभी के विचारों को  अभिव्यक्त करने के अधिकार की रक्षा करते हैं वो। सच बोला सुना है मैंने मगर ऐसा वो केवल अपने लिये मानते हैं दूसरों के लिये हर्गिज़ नहीं , और जो उनसे सहमत नहीं हो उसके लिये तो कदापि नहीं। अब खुद को समाज का चौकीदार या रखवाला नहीं खुदा समझते हैं जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता , बस उन्हीं को हर किसी पर सवाल करने का हक है। देश समाज की भलाई से अधिक महत्व उनके लिये अपने अहम का है , समाज को जागरुक करना या बदलाव की बात करना उनका मकसद नहीं रहा , टी आर पी , प्रसार संख्या , सब से पहले और तेज़ कौन की अंधी दौड़ में शामिल होकर बाकी सब पीछे छोड़ आये हैं। आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास , पत्रकारिता की दशा ऐसी हो चुकी है। आज कुछ कहते हैं दो दिन बाद कुछ और कहते हैं , उल्टी बात को सीधा साबित करते हैं और कभी नहीं मानते कल जो कहा था वो गलत था , उनको खेद है। अपनी भूल कभी स्वीकार नहीं करते , औरों को खुद न्यायधीश बन अपराधी घोषित भी करते है और साबित भी। किसी से बयान लेते हैं मगर उसको बोलने नहीं देते , उसको कहते हैं आप यही कहना चाहते हैं , ऐसे अपनी बात अपने शब्द दूसरे के मुंह में ठूंसते हैं। हर बात में उनको अपना विशेषाधिकार याद रहता है , सभी को बराबरी का अधिकार हो ये उनको मंज़ूर नहीं है। प्रशासन और नेताओं से मित्रता करते हैं सरकारी विज्ञापन और अन्य सुविधा हासिल करने को , अपने काम निकलवाने को , अपनी गाड़ी पर प्रेस शब्द लिखवा समझते हैं अधिकार मिल गया यातायात नियमों को अनदेखा करने का। लगता है आज की पत्रकारिता निरंकुश है , बंदर के हाथ में तलवार की तरह खतरनाक। हर कोई इनसे भय खाता है , शरीफ लोग अधिक डरते हैं।

                 मैंने सच से कहा चलो आज खरा सच क्या है और किसके सच में खोट मिला है इसकी परीक्षा करते हैं।  इक नामी पत्रकार हैं जो साक्षात्कार लिया करते हैं हर किसी का और समझा जाता है नीर क्षीर को स्पष्ट कर सकते हैं। मैंने उनको फोन किया और बताया सच के बारे और पूछा क्या आप उस से मिलना चाहते हैं , सच से मुलाकात करेंगे ताकि उसका साक्षात्कार प्रकाशित कर सकें अपने कालम में। बोले पहले बताओ उसके पास कोई प्रमाणपत्र है सच होने का , किसी सरकारी विभाग से मिला परिचय पत्र , किसी अदालत ने उनकी सच होने की पहचान को शपथ लेकर प्रमाणित किया है। सच ने कहा भला सच को इनकी क्या ज़रूरत है , यूं भी यही सब तो झूठ लिये फिरता है सबूत सब को दिखने को। क्या खुद को सच साबित करने को मुझे भी झूठ ही का सहारा लेना होगा , प्रमाणपत्र पाने को। सच क्या सभी को समझ नहीं आता कि यही सच है। पत्रकार सच की बात से चिढ़ गये और बोले ये तो कोई पागल लगता है , मुझे किसी पागल से मिलने की फुर्सत नहीं है आज , आज तो मुझे साक्षात्कार लेने जाना है उन लोकप्रिय नेता जी का जिनको अदालत ने कई साल बाद ज़मानत पर रिहा किया है। किसी दार्शनिक ने कहा है सच बोलना पागलपन ही होता है , और समझदार लोग सदा सच से दूर रहते हैं ताकि किसी से बैर या टकराव की नौबत नहीं आये। झूठ की जय जयकार से लोग मालामाल हो जाते हैं। क्या जहां सच रहता हो वो पागलखाना होता है , मुझे अपने घर को क्या पागलखाना नहीं बनने देना चाहिये , क्या मैं भी पागल हूं , सच की तरह। 
 



 

अक्टूबर 08, 2016

POST : 533 स्वछता अभियान से तमाम खोखली बातों तक ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

    स्वछता अभियान से तमाम खोखली बातों तक ( आलेख ) 

                                   डॉ लोक सेतिया 

   ये बात सबसे पहले साफ कर देना चाहता हूं कि मुझे दल अथवा व्यक्ति से न कोई लगाव है न ही विरोध ही। ये भी हो सकता है जो मैं जैसे देखता हूं बाकी लोग उस तरह नहीं देखते हों , इसलिये आप मुझे से असहमत हों तो ये आपका अधिकार है। मगर मुझे जो बात जैसे लगती है मैं उस बारे अपनी राय रखने का हक तो रखता ही हूं। जब से मोदी जी की सरकार आई है हर कुछ दिन बाद कुछ न कुछ नया सामने आता रहता है जनता को बतलाने को कि ये सरकार कितना काम कर रही है। शुरुआत हुई थी दफ्तर में मंत्री से अधिकारी तक समय पर आने को लेकर। उसके बाद बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की चर्चा , फिर मेक इन इंडिया , गंगा सफाई योजना से स्वच्छता अभियान की बात और खुले में शौच बंद करने की बात। अगर आप भी गौर से देखते हैं अपने आस पास क्या होता है और क्या बदला है तो समझ सकते हैं जो दावे किये जाते हैं और जो असलियत सामने दिखाई देती है उनमें कोई मेल होता नहीं है। आज भी किसी भी सरकारी दफ्तर जाकर देख सकते हैं कोई भी सुबह समय पर आता नहीं है। महिलाओं के साथ शोषण और अपराध आज भी कम नहीं हुए हैं और पुलिस या प्रशासन का ढंग आज भी बदला नहीं है। आज भी जब कोई महिला शिकायत करती है तो प्रयास किया जाता है पुलिस और पशासन द्वारा कि किसी तरह मामला सुलट जाये समझौता करवा दिया जाये। सही और गलत को समझना और ऐसी घटनाओं को नहीं होने देना किसी की प्राथमिकता ही नहीं है। कन्या भ्रूण हत्या की हालत आज भी यही है कि लिंग जांच की जा रही है और ज़्यादा पैसे लेकर। स्वच्छता अभियान और सरकारी लोगों के काम का ढंग बदलना दोनों कहीं भी कारगर होते दिखते नहीं हैं। गंदगी पहले से अधिक ही हुई लगती है और सरकारी अधिकारी आज भी मनमानी करते हैं। कायदे क़ानून तोड़ने वाले बेफिक्र हैं और सभ्य नागरिक उल्टा अधिक परेशान प्रशासन को शिकायत कर के। प्रशासन आज भी सरकारी  प्लाट्स पर या  सरकारी भूमि पर सड़कों पर फुटपाथों पर नाजायज़ कब्ज़ा किये हुए लोगों पर कोई कठोर करवाई नहीं करना चाहता । विभाग के अधिकारी आंखे बंद किये हुए हैं।

              शायद जिस गति से इस सरकार की योजनाओं के विज्ञापन बदलते हैं गिरगिट भी रंग नहीं बदलती होगी। क्या नेता समझते हैं कि हर कुछ दिन में कोई नया शोर कोई तमाशा कोई आडंबर करते रहने से जनता भूल जाएगी पिछली बात को जो मात्र प्रचार ही बन कर रही। कुछ तस्वीरें हैं जो स्पष्ट करती हैं मेरे फतेहाबाद शहर जो हरियाणा का एक ज़िला भी है उसकी सबसे पॉश कालोनी की गंदगी और सरकारी विभाग की खाली दुकानों पर खुलेआम अनाधिकृत कब्ज़े को विभाग की अनदेखी या सहमति से। अगर हरियाणा सरकार वास्तव में भ्र्ष्टाचार को समाप्त करना चाहती है तो ये वास्विकता उसको हर शहर में देखनी और बदलनी होगी।

 

अक्टूबर 07, 2016

POST : 532 आयुर्वेद और योग की भलाई अथवा सिर्फ झूठ धन कमाने को ( गंभीर चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

     आयुर्वेद और योग की भलाई अथवा सिर्फ झूठ धन कमाने को 

                                            ( गंभीर चिंतन )  डॉ लोक सेतिया

 विज्ञापन सच नहीं होते सभी जानते हैं फिर भी झांसे में भी आते ही हैं लोग। आज कुछ ऐसे ही विषय की बात करनी है। विज्ञापन दावा करता है हमारा मुनाफा किसी व्यक्ति के लिये नहीं है समाज सेवा के लिये है। वास्तविकता सामने आती है कि उस कंपनी का मालिक दुनिया के अमीरों में शुमार हो गया है। शायद देश में कहीं कोई ज़रूरत बाकी ही नहीं रही समाजसेवा की अन्यथा वो पैसा जमा होता ही नहीं किसी के पास। क्या सच देश समाज स्वर्ग बन गया है , कहीं न किसी स्कूल की कमी है न अस्पताल की , न कोई भूखा है न ही बेघर या दुखी। अगर ये सब समस्याएं हैं तो वो धन जो दावा था समाजसेवा पर खर्च होगा बचा हुआ कैसे है।

         चलो ये मान लेते हैं कि ऐसा झूठ बोलने वाली वही पहली कंपनी नहीं है , और भी है जो विज्ञापन में दावा करती हैं कि उनका प्रोडक्ट खरीदो तो उसका एक भाग किसी विशेष मकसद पर खर्च होगा। उनका उद्देश्य समाजसेवा नहीं होता अपना सामान बेचना होता है आपकी भावनाओं का उपयोग कर के। लेकिन जब कोई खुद यही करता है लोगों की भावनाओं का फायदा उठाने को प्रचार करता है कि हम अपने मुनाफे के लिये नहीं कर रहे ये सब तो समाजसेवा की खातिर है तब उसका अमीर होते जाना धोखा है ठगी है। अब उनका प्रचार है नये विज्ञापन में नये ढंग से , बताते है वो सन्यासी पहाड़ों जंगलों में जाता रहा है और जड़ी बूटियों को खोज लाया है , और बताता है मैंने किस किस जड़ी बूटी में क्या खोजा क्या पाया है। कब गया कहां गया किसे मालूम। लगता तो नहीं पिछले कई सालों से उसको कारोबार करने से , राजनीति में दखल रखने से , योग को व्योपार बनाने से पल भर भी फुर्सत मिली होगी। फिर भी मान लेते हैं भगवा भेस धारी सच कहता होगा , तो पूछना होगा आपने खोजा क्या नया। टूथपेस्ट बनाना , फेसक्रीम बनाना , और सौंदर्य प्रसाधन बनाना , क्या यही आयुवेद है। आपको पता भी आयुर्वेद का उद्देश्य , लोगों को रोगमुक्त करना रोगों का निदान और उपचार करना। और शायद इक बात सभी जानते हैं बीमार को खुद देखे जांचे बिना कोई वैद भी सही निदान और उपचार नहीं कर सकता है। भूल मत जाना कि देश में इक कानून भी , भले उसको ठीक से लागू किया नहीं गया हो , कि कौन डॉक्टर वैद हकीम है जो उपचार करने का अधिकारी है। कोई डिग्री कोई शिक्षा ज़रूरी है। जैसे आप गली गली शहर शहर दुकानें खुलवा ईलाज करने का दावा कर रहे हैं वो खिलवाड़ है देश की जनता के स्वास्थ्य के साथ। आप सिर्फ और सिर्फ धन अर्जित करने का कार्य कर रहे हैं वह भी उचित अनुचित की परवाह किये बगैर। चलो इक सवाल और भी आखिर में , लोग समझते हैं आपने बड़ा काम किया है योग को प्रचार कर के। मगर जैसा आपका दावा है योग से स्वास्थ्य का , क्या कोई बता सकता है योग करने से देश में लोग कितने अधिक स्वस्थ हो गये हैं , रोग कम हुए हैं। वास्तव में आपने योग को भी अपना कारोबार ही बनाया है , आपका बताया योग देश की सत्तर प्रतिशत गरीब जनता के लिये किसी काम का नहीं है। जो धनवान हैं खुद अपना काम नहीं करते न ही कोई मेहनत ही करते उनको आप कसरत से मोटापा और चर्बी घटाने का उपाय बताते हो। किसी भूखे को मत कहना ये करने को , वो मर जायेगा।  योग क्या है योगी कौन इस पर अभी बहुत बातें हैं कहने को समझने को समझाने को , मगर फिर कभी।  

 

अक्टूबर 06, 2016

POST : 531 जीना चाहती है देश की इक बेटी ( इक फरियाद - इक दास्तां - इक विडंबना ) डॉ लोक सेतिया

                    जीना चाहती है देश की इक बेटी 

           ( इक फरियाद - इक दास्तां - इक विडंबना ) डॉ लोक सेतिया

            " बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ "   सभी कह रहे हैं , मगर कह किस को रहे हैं नहीं मालूम। शायद हमारी आदत है खुद जो नहीं करते न ही करना चाहते वही औरों से कहते फिरते हैं ये करो। नहीं करोगे तो बहु कहां से लाओगे , यहां भी बेटी को बचाना है मगर इंसान समझ कर नहीं , अपना स्वार्थ पूरा करने को। किस की बेटी है वो कह नहीं सकता , कल मेरे पास चली आई अपनी विपदा को लेकर। कैसा समझाता बेटी इक लेखक क्या कर सकता है तुम्हारे लिये , कविता , कहानी , ग़ज़ल , व्यंग्य या आलेख लिखने से तुम्हारी वेदना कम नहीं होगी। पढ़ कर भले लोग वाह वाह करें , मगर जब ज़रूरत हो तब तुम्हारा साथ कोई भी नहीं देगा। हर किसी को अपनी जंग खुद ही लड़नी पड़ती है , और जीवन की जंग कभी समाप्त नहीं होती है। जिनको तुम्हारे साथ न्याय करना चाहिये वही जब साथ नहीं खड़े होना चाहते तो तुम्हारा निराश होना समझ सकता हूं , मगर निराश होकर हार मानना इतना सरल भी नहीं है। खुद अपना ही नहीं अपनी संतान का भी भविष्य तभी संवर सकता है अगर तुम जूझती रहो  तब तक जब तक अपने और अपने बच्चे के लिये न्याय हासिल नहीं कर लेती। इक बात तो तुम्हें समझ आ ही गई है कि हमारी व्यवस्था में जिन संस्थाओं को बनाया गया है जिन जिन मकसद की खातिर वो चाहती ही नहीं उन मकसदों को पूरा करना। तभी पुलिस प्रशासन महिला आयोग महिला थाना क्या समाज तक तुम्हारे साथ अन्याय होते देखता खड़ा है खामोश तमाशाई बनकर। कितनी आसानी से कहते हैं सभी ये तुम्हारा परिवारिक मामला है हम कुछ नहीं कर सकते। क्या पति और ससुराल के लोग मारपीट करें तभी महिला पर अत्याचार होता है , अगर उसके मायके में भाई भाभी या बाकी सदस्य करें मारपीट तो वो निजि मामला है। क्या औरत इक जानवर है , गाय भैंस की तरह , जिसके खूंटे से बंधी है वो जो चाहे कर सकता है।

                     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी , बताएं मुझे मैं क्या करूं , आपको कैसे दिखलाऊं ये सब कड़वा सच , किसी के दर्द को समझना आसान नहीं है। आप उस पर भाषण दें या मैं कविता कहानी लिखूं दोनों किस काम के , सवाल तो इस सब को रोकना है। मगर खेद की बात है कि हमारे देश का प्रशासन किसी की वेदना को देखता ही नहीं समझना तो बहुत दूर की बात है। मुझे यहां शायर दुष्यंत कुमार की पहली ग़ज़ल का शेर याद आता है , जो उनकी मौत के चालीस साल बाद भी उपयुक्त लगता है।

                                  "  यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है ,
                                   चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिये। "

        जो विभाग जो संस्थायें न्याय देने को बनाई गई थी जब वही अन्यायकारी हो जायें तो कोई क्या करे , शायर ने तो कह दिया चलो यहां से चलें , मगर जायें कहां। अभी तक कहने को बहुत कुछ कह दिया मगर फिर भी आपको लगता होगा क्या कहना चाहता हूं , किसलिये परेशान हूं , किसकी बात है ये , वास्तविकता है अथवा कहानी है। या ये प्रार्थना पत्र है या शिकायती खत है , क्या है।  नहीं पता मुझे क्या है मगर इतना कसम खाकर कहता हूं आपके देश के समाज का सच है शत प्रतिशत सत्य। " सत्यमेव जयते " आदर्श वाक्य है। फिर भी सच हर कदम हारता हुआ दिखाई देता है।  संक्षेप में विवरण बताता हूं , ज़रा गौर से पढ़ना , यही आपकी तस्वीर है देश की दशा की जो सरकारी कागजों में कहीं नहीं लिखी हुई।

                                  मैं आपकी बेटी हूं ( कहानी )

                              
      अठारह बरस की होने से पहले पिता ने विवाह कर दिया था , पति दस प्लस दो तक शिक्षित , रिश्ता हमारे समाज में ज़मीन देख कर किया जाता है। मगर वो ज़मीन कभी न बेटी की होती है न ही बहु की। पिता की पति की भाई की अथवा बेटे की हो सकती है। बड़ी बड़ी बातें करने वाले कभी बेटी को जायदाद में बराबरी का अधिकार नहीं देते। ये बताना ज़रूरी है इसलिये नहीं कि मुझे पिता की या पति की जायदाद चाहिये , इसलिये बता रही हूं कि महिलाओं की समस्या की जड़ यहां है। खैर शादी हुई इक बेटा दिया भगवान ने मगर फिर पति एक कत्ल के केस में जेल भेज दिया गया लंबी अवधि की सज़ा में। पिता को लगा ऐसे में बेटी को सहारे की ज़रूरत है , पढ़ाया लिखाया ताकि अपने पांव पर खड़ी हो सकूं। और मैं स्वालंबी बन गई , खुद नौकरी करती हूं और बेटे का लालन पालन कर रही हूं। मां और पिता दोनों की मौत हो गई और मैं मायके के घर में रह रही हूं , काफी बड़ा घर है तीन सौ गज़ का करीब होगा , उसमें साथ रह सकते हैं सभी। मगर भाइयों को लगता है घर के एक कमरे में आश्रय पाती बहन किसी दिन जायदाद में बराबरी का हिस्सा नहीं मांग ले। बस इसी लिये मुझे रोज़ परेशान किया जाता है मारपीट की जाती है ताकि मैं अपने पिता के घर को छोड़ कहीं और चली जाऊं। मैंने समझाया भी है मुझे जायदाद का मोह नहीं है सुरक्षित रहना चाहती हूं पिता के घर में जब तक खुद कमा कर अपना छोटा सा घर नहीं बना लेती और बेटा जो अभी नौवीं क्लास में है उसको किसी काबिल नहीं बना लेती। क्या हमारा समाज अपनी बहन को इतना भी अधिकार नहीं देना चाहता , बेटियां आपसे कानूनी हक नहीं मांगती , भले मांग सकती हैं और उनको मिलना भी चाहिये , वो चाहती हैं कि उनको इक भरोसा हो कि कोई उनका अपना है।  उधर पति जेल से बाहर निकल आया है और वो भी पुरुषवादी सोच के कारण या हीन भावना के कारण चाहता है कि मैं इक उच्च शिक्षा प्राप्त महिला अपनी नौकरी छोड़ उसके साथ गांव में जाकर रहूं और किसी जानवर की तरह उसके खूंटे से बंधी रहूं चुप चाप अपमान अन्याय शोषण को सहती। अभी तीस बरस की हूं मैं और मेरी कहानी अभी शायद और बहुत लंबी उम्र तक चलेगी , कब तक नहीं जानती। मगर लगता है देश में समाज में शायद संविधान तक में मेरे लिये , या मुझ जैसी  लाखों अकेली महिलाओं के लिये कहीं कोई उजाले की किरण नहीं है।

                         मानवाधिकार महिला आयोग न्यायपालिका सरकार और समाजसेवी संस्थायें मुझे इतना भी भरोसा नहीं दिला  सकती कि तुम अकेली बेसहारा नहीं हो और इक आज़ाद देश में रहती नागरिक हो जिसको जीना का अधिकार हासिल है। 

 

अक्टूबर 05, 2016

POST : 530 मुहाफिज़ गरीबों के ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            मुहाफिज़  गरीबों  के ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     देखो तुम नाराज़ मत हो , जो हम कर रहे उसका बुरा नहीं मानो , ऐसा करना ज़रूरी है। टीवी का एंकर उस गरीब महिला को बहला रहा है , जो आग बबूला हो गई थी जब कैमरा मैन ने उसकी कमीज़ को फाड़ दिया था। वो समझ रहा है , तुम्हारी भूख और गरीबी पूरी तरह दिखाई देगी तभी देखने वालों पर असर होगा। तुम्हारी कमीज़ को इसीलिये फाड़ा गया है ताकि दर्शकों की नज़रें तुम पर ठहरें , नंगा बदन देखने को , तुम्हारे लिये सहानुभूति पैदा करना ही हमारा मकसद है आज। तुम्हें नहीं मालूम हमारे कैमरे की नज़र पड़ते ही छोटी से छोटी चीज़ बड़ी लगने लगती है। लाखों लोग तरसते हैं कि कभी मीडिया उन पर मेहरबान हो और उनका चेहरा टीवी पर आये और वो आम से ख़ास होकर फोकस में आयें ताकि सेलिब्रिटी बन सकें। तुम्हें मुफ्त में ये अवसर मिल रहा है , बस्ती की सीधी साधी भोली औरत को एंकर चुप करवा रहे हैं , सामने देखो सभी को तुम्हारी छिपी सुंदरता भा रही है। बेचारी महिला अपमानित महसूस करती करती मान गई है कि उसकी और बाकी गरीबों की भलाई हो रही है टीवी शो से , शायद यहां से निकलते ही उनको सब कुछ मिलेगा जो अभी तक सिर्फ सरकारी वादों घोषणाओं में ही था। एंकर खुद एक कठपुतली है उस के हाथों की जिसका टीवी चैनेल से अनुबंध है हर रविवार कोई चर्चा शो आयोजित करने का। सप्ताह भर उसको चिंता रहती है नया विषय तलाश करने की। काफी दिन से अख़बार और समाचार चैनेल वाले इस सदाबहार विषय को भुला बैठे हैं और फालतू की बहस में पूरा दिन उलझे रहते हैं , जैसे देश में भूख - गरीबी जैसी कोई समस्या बाकी ही नहीं रही , और सरकारी आंकड़े सच हैं। कुछ नया और दूसरों से अलग और सब से पहले की चाह में ये विषय आज की बहस का चुना है। प्रभावशाली बनाने को कुछ गरीब लोग बस्ती से पकड़ लाये हैं खुशहाली का सपना दिखला कर और शो के बाद भरपेट खाना खिलाने का वादा करके। कार्यक्रम शुरू होने से दो घंटे पहले उनको लाकर फोटोजनक रूप दिया गया है , कुर्ता पायजामा उतार धोती बनियान पहनाई गई है , किसी की सलवार कमीज़ बदल घाघरा चोली पहनने को कहा गया है। भूख से मुरझाये चेहरों को मेकअप से चमकाया गया है कैमरे की खातिर , इस पर इतना पैसा खर्च किया गया है जितने से वो सप्ताह भर भोजन कर सकते थे। मगर करें क्या मीडिया का कैमरा खाली पेट को नहीं देख सकता , मनहूस मुरझाया चेहरा उसको अच्छा नहीं लगता। बताया गया है यहां सब वास्तविक है , कुछ भी नकली नहीं है।

                  टीवी चैनेल के पास कुछ खास गिने चुने लोग हैं जो बुद्धिजीवी कहलाते हैं और हर विषय पर बहस कर सकते हैं। ज़रूरत हो तो एंकर ही तय करता है किस को किस पक्ष की बात कहनी है , और उनके विचार उसी पक्ष में बदल भी जाते हैं , मज़बूरी है उनकी दाल रोटी इसी तरह चलती है। उनका भी एक ग्रुप सा है , अपनी सुविधा से तय करते हैं आज किस को बुलाना है विषय का विशेषज्ञ समझ कर। जब टीवी पर उलझते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे जन्म जन्म के विरोधी हैं , इक दूजे की जान के दुश्मन , लेकिन रिकार्डिंग खत्म होते ही  सभी गले मिल बधाई दे रहे होते हैं प्रभावशाली ढंग से बहस करने की। नतीजा तुरन्त उनको हज़ारों रूपये का चैक मिल जाता है टीवी चैनेल से , उनका वास्तविक सरोकार इसी से ही होता है। गरबों की चिंता , पर्यावरण की बातें , सांप्रदायिक सदभावना जैसी बातें सिर्फ मिलने वाली राशि की खातिर होती हैं। 

                       सभी पैनिलिस्ट आ गये हैं , बहस शुरू हो रही है।आंकड़े बता कर सब को प्रभावित किया जा रहा है , कोई सेलफोन कार ऐ सी के आंकड़े लाया है तो दूसरे के पास भूख से मरने वालों की संख्या में साल दर साल बढ़ोतरी के आंकड़े भी हैं। कोई बता रहा गरीबी की रेखा से नीचे प्रतिशत लोग है तो कोई देश में बढ़ती करोड़पतियों की गिनती बता रहा है। लेकिन कैमरा बार बार वहीं जाकर रुक जाता है जहां उस महिला की कमीज़ को फाड़ दिया था ताकि उसकी गरीबी के साथ सुंदरता भी दर्शक देख सकें। इक पैनेलिस्ट भी ये देख खुद को रोक नहीं पाता और बात बात में इशारा भी करता है कि जिसके पास भगवान की दी ऐसी खूबसूरती हो उसको गरीब कहा ही नहीं जाना चाहिये। उसके पास तो खज़ाना है , सभी बेशर्मी से खिलखिला देते हैं। पूरी चर्चा में कहीं भी किसी के चेहरे पर गरीबी और गरीबों की दुर्दशा पर संवेदना का भाव भूले से भी आया नहीं। टीवी शो की शूटिंग पूरी होने के बाद सभी मेहमान साथ के हाल में डिनर का आंनद ले रहे हैं शाकाहारी मांसाहारी और शराब के जाम का भी लुत्फ़ उठाया जा रहा है। उन गरीबों को सभी भूल गये हैं जो कब से खाना मिलने की आस लगाये हुए थे। गरीबी घबरा गई है अमीरों को करीब देख कर , गरीब बाहर निकल आये हैं , एक भूख से बेताब ने साहस कर वहां खड़े किसी से पूछ ही लिया कि उनको खाने को कब मिलेगा कुछ। बताया गया है बड़े लोग खा रहे हैं , उनके खाने के बाद जो बचेगा तुमको बांट दिया जायेगा। शायद गरीबों के प्रति सहानुभूति बहस में ही खर्च हो गई थी , खाने के वक़्त दिलों में इंसानियत बाकी ही नहीं बची थी। सारे भूखे गरीब इक बैंच पर बैठ इंतज़ार कर रहे थे रोटी मिलने का। बहुत देर बाद एक पैनलिस्ट और एंकर झूमते हुए निकले थे , गरीब हाथ जोड़ खड़े हो गये थे। ये वही पैनलिस्ट थे जो सुंदरता को दौलत बता रहे थे , एंकर से कह रहे थे उसको मेरी कोठी पर आने को कह देना , मुझे उसकी गरीबी पर बहुत तरस आ रहा है। कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। खास लोगों के जाने के बाद बचा हुआ कहना पैक कर गरीबों को दिया जा रहा है , घर जाकर खाने को। अब ऐसी साफ सुथरी जगह उनको खाने की अनुमति भला कैसी दी जा सकती है।  गरीब आज भी अमीरों की गरीबी दूर करने को काम आये हैं  , आखिर इन्हीं के नाम से कार्यक्रम सफल होगा और टीवी वालों को खूब मुनाफा भी होगा विज्ञापनों की आमदनी से।

                     एंकर उस गरीब महिला से बात कर रहे हैं , उनका विज़िटिंग कार्ड देकर समझ रहे हैं , तुम उनको खुश करोगी तो गरीबी कभी तुम्हारे पास तक नहीं फटकेगी। पैसा घर नाम कार तक सब मिलेगा। अच्छा , गरीब महिला ने पूछा उनको खुश करने को क्या करना होगा मुझे , ये भी बता ही दो। बस उनकी रातें रंगीन करनी होगी , बेहद बेशर्मी से एंकर बताता है। गरीब महिला गुस्से से पूछती है , क्या तुम लोग इसी तरह अमीर बने हो , क्या क्या बेचा है , अपना ज़मीर भी। अपने पूरे कार्यक्रम में क्यों ये नहीं बताया कि तुम सभी की सोच कैसी गिरी हुई है , गरीबी मिटाने का यही उपाय समझ आता है तुमको। इक बात जान लो अगर ऐसे गरीबी मिटानी होती तो हम कब के गरीबी से छुटकारा पा लेते , मगर नहीं हमको तुम जैसे दोगले लोगों की दिखाई रह पर कभी नहीं चलना। आज तुम पर ऐतबार कर धोखे में आ गये थे पर अब देख लिया तुम लोगों का चेहरा उतरी हुई बकाब के बाद। सच तुम बेहद कुरूप हो , हमारी गरीबी कभी इतनी कुरूप नहीं हो सकती। 

अक्टूबर 04, 2016

POST : 529 हम सभी देश भक्त हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

           हम सभी देश भक्त हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

        देशभक्ति किसे कहते हैं शायद उसकी कोई परिभाषा कभी रही होगी , तब जब कुछ लोग देश को गुलामी से मुक्त करवाने की खातिर अपना तन मन धन सब कुछ देश की आज़ादी पर कुर्बान किया करते थे। जब देश आज़ाद हो गया तब भला उस पुरानी देशभक्ति की क्या ज़रूरत थी। बस देशभक्त कहलाने को नारे लगाना ही काफी था। फिर भी कुछ साल तक लोग थोड़ा तो लिहाज़ करते ही थे कि कुछ ऐसा नहीं करें जो लोग नफरत करने लगें कि देश के प्रति निष्ठा तक शक के घेरे में आ जाये। तब  तक नेता हों या प्रशासन के अधिकारी कुछ लाज रखते थे अपने पद की , इतने ऊंचे ओहदे पर बैठ इतना नीचे नहीं गिरना। आत्मसम्मान की कीमत धन दौलत से कहीं बड़ी समझी जाती थी। कहते हैं हम तरक्की कर आये हैं , कहीं से कहीं आ पहुचें हैं। आज देखते हैं कौन कौन क्या करता है और देशभक्त भी खुद को मानता है।

         बीस साल पहले मंत्री मुख्यमंत्री हो तो उसे भाई बंधु शहर में जहां कहीं भी किसी सरकारी विभाग की जगह या ज़मीन पड़ी हो या कोई पार्क अथवा मैदान हो उसको कब्ज़ाकर अपनी संपति घोषित कर लिया करते थे , और उसके बाद सत्ता का दुरूपयोग कर उसको अधिकृत भी करवा लिया करते थे। अधिकारी लोग भी हर काम के बदले घूस लेने लगे थे। आज़ादी का मतलब यही सभी को समझ आया था कि आपका देश है और जितना अंग्रेज़ नहीं लूट सके उतना खुद ही लूटना है। बस राजनीति और अफसरशाही में इक सहमति बन गई थी चोर चोर मौसेरे भाई वाली , मगर तब भी अपने अपकर्मों पर शर्म कभी  कभी आती अवश्य थी। उसके बाद जैसे जैसे परिवारवाद और जातिवाद राजनीति का आधार बना तो भ्र्ष्टाचार ही सत्ता की नींव बन गया।  सारा खेल ही पैसे की राजनीति का बन गया। चुनाव धन बल और बाहुबल से लड़ा और जीता जाने लगा। नैतिकता  को सब दलों ने ताक पर रख दिया और सत्ता की खातिर उन से हाथ मिला लिया जिन के विरुद्ध जनता के पास गये थे। जनता को ठगना राजनीति का अनिवार्य पाठ हो गया।

                  अब आज की बात , नेता ही नहीं प्रशासन के अधिकारी भी खुद अपराध कराते हैं , विभाग की भूमि या प्लॉट्स पर कब्ज़ा करवाना और बाद में कब्ज़ा करने वाले को मालिकाना हक देना उनका पसंद का काम बन गया है। बड़े अफ्सर क्या क्लर्क तक करोड़पति बन गये हैं। अवैध धंधे आजकल पुलिस की अनुमति या सहमति अथवा सहयोग से चलते हैं , किस की मज़ाल है उनको रोके। आप जाकर किसी सरकारी विभाग में देखो सब जनता को लूटने में लगे हुए मिलेंगे। मगर यही झंडा फहराते हैं और देश प्रेम पर भाषण भी देते हैं। जो खुले आम रिश्वत लेते रहे वही बाद में देश सेवा और ईमानदारी के लिये राष्ट्रपति जी से सम्मानित भी होते हैं। देशभक्ति का प्रमाणपत्र और तमगे इन सभी के पास रखे हुए हैं , इनके घर में ड्राइंगरूम की दीवार पर सजी हुई है देशभक्ति।

POST : 528 उनका साहित्य , मेरी बातें ( सवाल कठिन है ) डॉ लोक सेतिया

      उनका साहित्य , मेरी बातें ( सवाल कठिन है ) डॉ लोक सेतिया

    कोई ऐसी बात तो नहीं की जो अनुचित कही जा सके , फिर भी मुझे अच्छी नहीं लगी उनकी बात , शायद मुझे उनसे आपेक्षा नहीं थी कि वो भी उसी तरह की ही बात करेंगे जैसी सभी दुनिया वाले करते हैं । बहुत नाम सुनता रहा हूं उनका , बहुत बड़े साहित्यकार हैं । मैंने उनसे साहित्य पर ही बात करने को संपर्क किया था , ये उनको भी मालूम भी था , फिर भी किसलिये वो साहित्य की बातों से इत्तर और ही बातें करना चाहते थे । मैं कहता रहा उनकी रचनाओं की बात और वो अनसुना करते रहे मेरे हर सवाल को , और मुझे से पूछते रहे मेरी ज़मीन जायदाद और आमदनी की बात । मेरे लिये जिन बातों का कोई महत्व नहीं था , उनको वही ज़रूरी लगती थीं । सच मैं नहीं समझ पाया उनकी बातों का मतलब । उम्र भर मिलता रहा हूं ऐसे लोगों से जो मुझे छोटा साबित करने को बिना पूछे मुझे बताया करते थे कि उनकी आमदनी कितनी अधिक है , क्या क्या बना लिया उन्होंने पैसा कमा कमा कर । फिर कहते आप खूब हैं जो कितनी कम आय में गुज़र बसर कर के भी खुश रहते हैं । उनको मेरी थोड़ी आमदनी से मतलब नहीं था , उस के बावजूद खुश रहने से परेशानी थी । मुझे पता है अधिकतर लोग एक ख़ुशी हासिल करते हैं ऐसी बातें कर के । शायद कहीं न कहीं वो हीन भावना के शिकार होते हैं और जिनको समझते हैं हमसे छोटे हैं उनसे ये बातें करते हैं अपनी हीन भावना को दूर करने को । लेकिन आज तक न वो अपनी हीन भावना मिटा पाये न ही मुझे हीन भावना का शिकार ही कर पाये हैं । उल्टा मुझे यही लगता है कि ये सब धन दौलत पाकर भी उनको वो ख़ुशी नहीं मिली है जो मेरे पास है बिना धन दौलत के । तभी मैं कभी दुनिया वालों से कोई मुकाबला करना चाहता ही नहीं । मुझे उनके मापदंड समझ ही नहीं आये  , खुद अपने बनाये मापदंडों से अपने को बड़ा साबित करने की कोशिश ही करते रहते हैं । मैं जो हूं जैसा हूं उसी को स्वीकार कर चैन से रहता हूं , आदमी को कितनी ज़मीन चाहिये , दो गज़ , उस कहानी को कभी भूला नहीं। कोई कह सकता है मैं तरक्की करना ही नहीं चाहता , मुझे परवाह नहीं उनकी बातों की , किसी की बातों से मैं जो नहीं करना है वो नहीं कर सकता दुनिया की दौड़ में तरक्की हासिल करने को ।

             आज मुझे इक लेखक एक साहित्यकार से वही बातें सुन समझ नहीं आया क्या चाहते हैं वो । क्या उनको मुझ से साहित्य की बात करना इसलिये पसंद नहीं था क्योंकि मुझे वो छोटा समझते हैं लेखन में । बेशक मैंने आज तक इक पुस्तक भी नहीं छपवाई है तो क्या इसी से मेरा आंकलन करते हैं । मुझे न लेखक कहलाना है न साहित्यकार कहलाने को लिखता हूं , मगर फिर भी नियमित लिखता रहता हूं अपने देश समाज की वास्तविकता को । क्या ये महत्वपूर्ण नहीं हो सकता । अब केवल उनकी और मेरी बात को छोड़ सभी की बात करते हैं।  लेखक हैं लिखते हैं , कविता कहानी , लगता है सभी के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं , सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है । मगर जब अपने आस पास लोगों को परेशान देखते हैं तब हमारे अंदर का दर्द कहां छुप जाता है , तब औरों की परेशानी या दुःख क्यों हमें परेशान नहीं करती और हम संवेदना रहित और पाषाण हृदय बन जाते हैं । ये देख कर मैं सोचता हूं जो कविता जो कहानी हमने लिखी , अगर वो खुद हम में संवेदना मानवीय दुःख दर्द के प्रति नहीं जागृत कर पाई तो क्या उसको सफल मान सकते हैं । सैकड़ों किताबें लिख कर भी क्या होगा , कोई क्या सोचता है कभी । साहित्य का ध्येय क्या है । 

 

अक्टूबर 03, 2016

POST : 527 हे राम ( महात्मा गांधी से धर्म तक ) इक पक्ष ये भी - डॉ लोक सेतिया

      हे राम ( महात्मा गांधी से धर्म तक ) इक पक्ष ये भी 

                                   - डॉ लोक सेतिया

     2 अक्टूबर को गांधी जी को याद किया गया , मगर किस को , हाड़ मांस के इंसान को। उस को नहीं जो इक विचार है सोच है , उसको भुला दिया गया कभी का। हमने इक रिवायत सी बना ली है हर दिन को किसी तरह मनाने की , बिना मकसद ही। शायद भटक गये हैं , समझ नहीं पा रहे किधर जाना था , किधर आ गये हैं , और आगे किस तरफ जाना है। धर्म राजनीति समाज सभी जगह बस औपचारिकता निभा रहे हैं लोग।

          बार बार होता है यही , कुछ ख़ास दिन किसी देवी देवता की उपासना की धूम मची रहती है। तब जिधर भी देखते हैं वही दोहराया जाता दिखाई देता है , जैसे आजकल नवरात्रे हैं तो जय माता दी की आवाज़ गूंजती रहती सुबह शाम हर शहर हर गांव हर गली। जगराता होता है रात रात भर माता के भजन उसकी आरती सुनाई देती रहती है। ऐसे साल भर में भगवान और देवी देवताओं की भक्ति उनकी पूजा अर्चना पर करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं। जब से मैंने होश संभाला है ऐसी बातें जिनको धर्म बताया जाता है बढ़ती ही गई हैं , लेकिन जो मुझे समझ आया है , अधर्म और पाप कम नहीं हुआ अपितु और भी अधिक होता जा रहा है। इक डॉक्टर होने के नाते मैं सोचता हूं अगर मेरी लिखी दवा से सुधार होने की जगह रोगी का रोग और बढ़ता जा रहा है तो ऐसी दवा को बंद करना ही उचित होगा। क्यों धर्म के पैरोकार बने लोग ऐसा धर्म को लेकर नहीं सोचते , क्या उनका मकसद वास्तव में धर्म को स्थपित करना बढ़ावा देना है , या उनको मात्र धर्म नाम से अपना कारोबार ही चलाना है। सोचना उन्हीं को है। मुझे तो इतना ही लगता है कि जितना धन लोग धार्मिक आयोजनों पर खर्च करते हैं उतना अगर धर्म कर्म पर खर्च करते तो मुमकिन है अधिक अच्छा होता। एक बात शायद हमें याद ही नहीं है कि दान धर्म पूजा आदि बताया गया है सभी ग्रंथों में कि हक हलाल की मेहनत की नेक कमाई से किया जाना चाहिये। किसी से लूट कर छीन कर या एकत्र कर के कदापि नहीं।

             नरेंद्र मोदी जी जब प्रधानमंत्री बने तभी इक मंदिर में विदेश में गये थे पूजा अर्चना करने को। तब वे एक करोड़ मूल्य की 2 5 0 0 किलो चंदन की लकड़ी दान में दे आये थे , क्या ये धर्म था। यकीनन ये पैसा देश की तिजोरी से खर्च किया गया था , जनता की बुनियादी ज़रूरतों की खातिर बजट नहीं होता है , नेताओं की इच्छाओं की खातिर सब हाज़िर है। ये लोकतंत्र का राजधर्म नहीं है। कैसी विडंबना है कि इस मुल्क में गरीब जनता किसी लावारिस लाश की तरह है जिसको जलाने को बजट में प्रावधान नहीं है , मगर नेताओं की चिता जलाने  को चंदन की चिता सजाई जाती है। ये कैसा जनतन्त्र है जिस में नेताओं की समाधियों के लिये कई कई एकड़ भूमि है मगर जनता की छत के लिये नहीं। इक राष्ट्रपति के आवास के रखरखाव पर ही करोड़ों रूपये हर महीने खर्च होते हैं , जितने पैसे से रोज़ हज़ारों लोग रोटी खा सकते हैं। कल महात्मा गांधी का जन्म दिन सरकार ने जाने कितना धन खर्च कर मनाया , क्या ये गांधी जी की विचारधारा से मेल खाता है। जो आदमी लोगों को नंगे बदन देख तय करता है कि उसने उम्र भर एक वस्त्र धोती ही डालनी है , उसकी विचारधारा का ये उपहास सरकार नेता और लोग कब तक करते रहेंगे।

                     सरकार का अर्थ ही जनता की सेवा के नाम पर धन की खुली लूट है बर्बादी है। अगर सरकारें फज़ूल खर्च नहीं करती तो देश में आज भूख और गरीबी नहीं होती। गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने से आप गांधीवादी नहीं हो जाते , आपको सोचना होगा गांधी जी क्या चाहते थे। उन्हीं का कहना था कि इस भारत देश में इतना कुछ तो है जो सभी की ज़रूरतों को पूरा कर सके मगर इतना नहीं है जो किसी की भी धन सत्ता की हवस को भूख को पूरा कर पाये। आज वास्तव में गांधी जी को हर दिन कत्ल किया जाता है , उनके नाम पर आडंबर के के , और उनकी सोच को दरकिनार कर के । 

 

अक्टूबर 02, 2016

POST : 526 किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया

              कहां से शुरू करूं आप ही बताओ , अपने से , आप से , उन से जिनको सभी समझते हैं कि वो राह दिखाते हैं औरों को , या जिनकी हर बात का अनुसरण करते लोग , अथवा जो इन सभी से अधिक जानकार खुद को मानते हैं। सवाल बहुत सीधा है जीवन क्या है और किसको जीना कहते हैं। अख़बार पत्रिका टीवी चैनेल भी सभी को ध्यान से देखने पर लगता है जैसे बस दो ही उद्देश्य हैं इंसानों की खातिर। पैसा और मनोरंजन। आप अगर सोशल मीडिया पर हैं तब भी आपको सिर्फ समय बिताना है मौज मस्ती की बातों से। अगर कोई समझता है कि वहां लोग संजीदा बातों को पढ़ते हैं और संवेदनशील बनते है तो आपको वास्तविकता और बनावट में अंतर करना नहीं आता है। समझ नहीं आता करोड़ों लोग क्या हासिल करते हैं पूरा दिन फेसबुक या व्हाट्सऐप पर रह कर। टीवी अख़बार कभी लोगों को जानकारी देने और जागरुक करने का ध्येय लेकर चलते थे , आज विज्ञापनों की आय के मोह में ऐसे अंधे हुए हैं कि उचित और अनुचित की परिभाषा तक बदल ली है उन्होंने। क्या हंसना ही ज़िंदगी का मकसद होना चाहिए , टीवी शो सिनेमा से पत्रकारिता तक उलझे हैं बेहूदा बातों पर हंसने को सही बताते हुए जबकि ऐसी बातों पर कभी सोचा जाये तो रोना आना चाहिए। खेद है कि हर जगह इक बीमार मानसिकता हावी नज़र आती है जिस में औरत और मर्द में एक ही रिश्ता दिखाई देता है , वासना का। लोग बेशर्मी से इज़हार करते हैं टीवी पर अपनी गंदी सोच की कुत्सिक भावनाओं का। कॉमेडी शो से समाचार के चैनल तक सभी अपनी गरिमा को भुला चुके हैं। कभी कभी किसी कार्यक्रम में भावुकता भी दिखाई देती है और आंसू भी पल भर को , मगर तभी मंच संचालन करने वाला प्रयास करता है उसको भुला फिर से हा - हा का शोर शुरू करने का। क्या भावुकता और किसी के दुःख दर्द को समझ संवेदनशील होना ऐसी बात है जो नहीं हो तो बेहतर है। सोचा जाये तो पता चलता है यही आज अधिक ज़रूरी है , ऐसा इंसान बनना जो केवल अपने लिये मौज मस्ती और हंसी ही नहीं चाहे बल्कि समाज और बाकी लोगों की भी चिंता करे।

             टीवी पर धर्म के बारे बताते हैं वो लोग जिनको खुद अपना धर्म तक याद नहीं , पत्रकारिता क्या है , खबर किसको कहते हैं , और इक शब्द होता है पीत पत्रकारिता जिसको आज कोई बोलना तक नहीं चाहता क्योंकि पत्रकारिता इस कदर पीलियाग्रस्त हो चुकी है कि उसका ईलाज तक असंभव हो गया है। अंधविश्वास को बढ़ावा देना अपने आर्थिक फायदे की खातिर क्या यही पत्रकारिता का ध्येय है। लोगों को क्या ज्ञान देना चाहते हैं , उनकी समस्या किसी तालाब पर स्नान करने से , कोई जादू टोना , तथाकथित ज्योतिषीय उपाय से हल होगी अथवा खुद अपने प्रयास से। भाग्यवादी बना कर आप किसी का भला नहीं कर सकते हैं।  विडंबना की बात है आज विज्ञान के युग में और जब हमारे पास साधन हैं लोगों तक सभी तरह की जानकारी पहुंचाने को तब हम उनका सदुपयोग नहीं कर उल्टा दुरूपयोग करते हैं। आधुनिक सुविधाओं का सही उपयोग कम अनुचित उपयोग अधिक होने लगा है। निजि स्वतंत्रता के नाम पर क्या समाज को गलत मार्ग पर जाते देखना सही होगा।
                      अपराध हैं कि बढ़ रहे हैं , खासकर महिलाओं से अनाचार की घटनाओं में जैसे कोई रोक लगती दिखाई ही नहीं देती। संगीत का नाम पर , टीवी सीरियल या सिनेमा के मनोरंजन की आड़ में समाज को विशेषकर युवा वर्ग को भ्रमित किया जा रहा है और उनकी समझ को प्रदूषित। सब से खेदजनक बात ये है कि सरकार , धर्म की बातें करने वाले भी फ़िल्मी और टीवी मनोरंजन वालों की तरह देश की सत्तर प्रतिशत जनता को भूल गये हैं जिनको चमक दमक और आडंबर नहीं वास्तविक बातों से मतलब है। शिक्षा रोज़गार गरीबी छत और रोटी पानी ईलाज की समस्या। इन सभी के पास देश की बहुमत आबादी के वास्ते खोखली बातों के सिवा कुछ भी नहीं। ऐसे में साहित्य रचने वालों को तो सोचना होगा , किन की बात कहनी है लेखन में , या उनको भी अपने खुद के नाम शोहरत और ईनाम पुरुस्कार की दौड़ में ही समय बिताना है ताकि आखिर में समझ आये कि रौशनी की बातें करते करते भी अंधकार को ही बढ़ावा देते रहे हैं तमाम उम्र।

        विषय गंभीर है और इस पर चरचा भी कभी खत्म नहीं हो सकती , मगर आज यहीं विराम देते हैं। 

 

सितंबर 30, 2016

POST : 525 अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) डॉ लोक सेतिया

     अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) 

                                  डॉ लोक सेतिया

 यूं तो हमेशा से साधनविहीन लोगों को अपमानित किया जाता रहा है , इक शायर का शेर कुछ इसी तरह है :-

                      " या हादिसा भी हुआ इक फ़ाक़ाकश के साथ ,

                       लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिये  "

    मगर लोकतंत्र में जनता भले गरीब भी हो उसका अपमान करना खुद संविधान को अपमानित करना है। शायद आपको इस में बुराई नहीं लगती हो कि सरकार जब स्वच्छता अभियान की बात करे तो जनता को ही कटघरे में खड़ा करती हो कि आप गंदगी करते हैं तभी गंदगी है। गंदगी नहीं हो इसका प्रबंध सरकार को करने की ज़रूरत ही नहीं शायद। भाषण देना बहुत सरल है मगर जिस तरह इस देश की जनता जीती है उसकी कल्पना भी ये नेता अफ्सर नहीं कर सकते। जब सब कुछ अपने आप मिल जाता हो तब ये नहीं समझ सकते कि जिनको कुछ भी नहीं मिलता उनका जीवन कैसा होता है। इधर सरकारी प्रचार विज्ञापनों में ऐसा ही किया जाने लगा है , ये दिखाया जाता है कि मूर्ख लोग हैं जो खुले में शौच करते हैं। पूछना जाकर उन महिलाओं से जो झौपड़ी में रहती हैं क्या खुश हैं खुले में शौच को जाकर। आप कागजों पर दिखा सकते हैं घर घर शौचालय बनवा दिया वास्तव में नहीं दिखा सकते। कितनी खेदजनक बात है सरकार जो स्वयं सामान्य सुविधा सुरक्षा की जीने की बुनियादी ज़रूरतों की सभी को दे पाने में विफल रही है आज़ादी के 6 9 साल बाद भी , और इस पर कभी शर्मसार नहीं होती वो जनता को शर्मसार करने की बात करती है। वाह मीडिया वालो आपको भी ऐसे विज्ञापन गलत नहीं लगते न ही किसी नेता के भाषण में ऐसी बातें जो गरीबों को हिकारत से देखने और अपमानित करने का काम करती हैं अनुचित लगता है।

          देश की सत्तर प्रतिशत आबादी जिन गांवों में रहती है या गंदी बस्तियों में , उन को साफ पीने का पानी तक उपलब्ध  नहीं करवा पाने वाली सरकारें , आदर्श नगर और सुंदर शहरों की बात करती हैं।  क्या ये इक भद्दा उपहास नहीं है जनता के साथ।  लेकिन अब सरकारों ने अपना कर्तव्य समझना छोड़ दिया है , कि सभी को आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य सेवा , और रोज़गार के अवसर देना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिये। हां कितना अधिक कर वसूल सकते हैं और जनता के धन को कैसे अपने ऐशो-आराम पर या झूठे गुणगान के विज्ञापनों पर बर्बाद कर सकते हैं ये प्राथमिकता दिखाई देती है।

               अगर कोई नेता , चाहे उसको कितना भी जनसमर्थन हासिल हो , देश की जनता को अपमानित करना सही समझता है तो फिर उसको लोकतंत्र की परिभाषा ही नहीं , संविधान की भावना ही नहीं , मानव धर्म को भी पढ़ना समझना और अपनाना होगा , अन्यथा उसको किसी भी तरह महान नहीं कहा जा सकता।

 

सितंबर 28, 2016

POST : 524 सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन )  डॉ लोक सेतिया

      बहुत दिन से इक खलबली सी है दिलो-दिमाग़ में खुद अपने ही बारे में , मुझे क्या करना था क्या नहीं करना था , क्या किया अभी तक क्या नहीं किया , सोचता हूं ज़िंदगी के इतने लंबे सफर में मुझे कहां जाना था और मैं कहां पर आ गया हूं , अभी किधर को जाना है। बहुत कठिन है समझ पाना वास्तव में जीवन की सार्थकता क्या है। आज सोचता हूं लोग बहुत कुछ सोचते हैं समझते हैं और मानते भी हैं कि हमने क्या क्या किया है क्या हासिल कर लिया है अपने प्रयास से , लेकिन शायद ये कभी नहीं सोचते कि उन सब की सार्थकता क्या है। जैसे कुछ उदाहरण देखते हैं। कोई समझता है वह देशभक्त है , मगर देशभक्ति की परिभाषा क्या है , क्या आप अपने देश को अपना सर्वस्व अर्पित कर सकते हैं। तन मन धन सभी कुछ। नहीं कर सकते तो फिर कैसे देशभक्त हैं , केवल देशभक्त होने का आडंबर करते हैं। अगर कोई धर्म प्रचारक या साधु महात्मा बना फिरता है तो उसको सोचना होगा कि उसके प्रयास से धर्म का क्या भला हुआ है , क्या उसके समझने से लोग सच्चे इंसान बन गये हैं , लोभ लालच झूठ पाप मोह माया के जाल से मुक्त हुए हैं। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि आपके लाखों अनुयाई हैं सैंकड़ों मठ आश्रम हैं धन संपति है तो आपको खुद ही धर्म का ज्ञान तक नहीं है। अगर आप शिक्षक हैं तो क्या आपकी शिक्षा से छात्र ज्ञानवान बने हैं , उनकी अज्ञानता का अंधेरा मिटा है , अगर ऐसा कुछ नहीं तो आपने मात्र किताबों को रटा खुद भी और रटाया है औरों को भी , जिस का कोई अर्थ ही नहीं है। अगर आप चिकित्सक है तो आपकी चिकित्सया क्या सफल रही लोगों को स्वथ्य करने में या कहीं आप रोगों की चिंता अधिक करते हैं रोगियों की काम , और आप रोगमुक्त समाज बनाना ही नहीं चाहते अपने स्वार्थ की खातिर। अगर आप जनसेवक हैं अफ्सर हैं या सरकारी कर्मचारी तो आपने क्या जनता की परेशानियों को दूर किया है या फिर अपने अहंकार और अधिकारों के मद में विपरीत कार्य ही करते रहे हैं , क्या आपने अपना फ़र्ज़ निभाया है देश और समाज के प्रति। अगर आप नेता हैं और आपको सत्ता का अवसर मिला है तो क्या आपने देश की आम जनता की ज़िंदगी को कुछ आसान बनाया है या उसकी मुश्किलें और भी बढ़ाई हैं। देश की वास्तविक दशा क्या सुधरी है सभी के लिये अथवा मात्र आंकड़े ही दिखाते रहे हैं और जो सब से नीचे हैं उनके बारे आपने सोचा तक नहीं समझ भी नहीं सके उनकी भलाई क्या है। अगर आप पत्रकारिता करते हैं तो आपने कितना सच का पक्ष लिया है कितना झूठ को बढ़ावा दिया है , क्या आप वास्तव में जनहित में सच को उजागर करते हैं , निष्पक्ष हैं निडर हैं। लेकिन अगर आप झूठ को सच साबित करते हैं , धन बल और ताकत के मोह जाल में उलझे हुए है और आपका मकसद अधिक पैसा किसी भी तरह कमाना है खुद अपनी प्रगति की खातिर तब आप जो भी करते हैं कम से कम पत्रकारिता तो हर्गिज़ नहीं करते हैं। अब अगर आप लेखक हैं तो आपके लेखन का ध्येय क्या है , खुद अपने लिये नाम शोहरत हासिल करना , ईनाम पुरुस्कार पाना या समाज को सच्चाई की राह दिखलाना बिना निजि स्वार्थ के। अगर इक ऐसे समाज की कल्पना को सार्थक करना आपका मकसद नहीं है जिस में न्याय हो अत्याचार का नाम तक नहीं हो , जिस में मानवता हो हैवानियत का निशान तक नहीं हो , जिस में प्यार हो भाईचारा हो नफरत की कहीं बात तक भी नहीं हो , और आपके लेखन से ऐसा कुछ भी सार्थक नहीं हो सकता तब आपका लिखना किसी काम का नहीं है। कहने को बहुत है मगर केवल बातें करने से क्या होगा , आओ हम सभी सोचें हम जीवन में जो भी करते हैं या आगे करना है वो कितना सार्थक है।  दुनिया किस को क्या समझती है वो महत्व नहीं रखता , महत्वपूर्ण है कि खुद हम क्या समझते हैं , हमारी आत्मा हमारा ज़मीर क्या कहता है। 
 

सितंबर 26, 2016

POST : 523 Part 4 हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

       हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार- अंतिम 

                             { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                   हिलती हुई दीवारें ( आखिरी भाग  )          
   
 लाजो ने प्यार से जगाया था भावना को और जगाकर कहा था , बेटी अब तुम कोई चिंता कोई डर अपने मन में न रखो , अब तुम अकेली नहीं हो , मैं तुम्हारी मां तुम्हारे साथ हूं  और ढाल बनकर तुम्हारी सुरक्षा करूंगी हर पल हर कदम। बस यही समझ लो कल इक घनी अंधेरी काली रात थी जो समाप्त हो चुकी है , आज की भौर लाई है तुम्हारे जीवन में नया उजाला नई रौशनी। और लाजो अपनी बेटी का हाथ थामे उसको नीचे घर के आंगन में वहां लाई थी जहां सभी बाकी सदस्य बैठे चाय पी रहे थे। और भावना का हाथ थम उन सभी को सामने जाकर खड़ी हो गई थी अपना सर ऊंचा किये जैसा शायद कभी किया नहीं था आज तक। सब समझ गये थे कि लाजो कुछ कहना चाहती है , और समझ रहे थे कि उसने भावना को समझा लिया है। मगर जो कुछ लाजो ने कहा था उसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी। लाजो ने जैसे एलान किया था , मैंने अपनी बेटी से सब कुछ जान लिया है और मुझे उस पर पूरा यकीन भी है। वह समझदार है परिपक्व भी है और अब इस काबिल हो चुकी है कि उचित अनुचित , सही और गलत में अंतर कर सके। मुझे लगता है कि हम किसी रिश्ते को सिर्फ इसलिये गलत नहीं मान सकते क्योंकि वो भावना की पसंद है , न ही कोई रिश्ता इसी लिये सही नहीं हो जाता क्योंकि वो हमने तय किया है। सवाल किसी के अहम का नहीं है , ये हमारी बेटी के जीवन का प्रश्न है , और अपनी बेटी की ख़ुशी को समझना हमारा कर्तव्य है। आज अपने अहम को दरकिनार कर हमें समझना होगा कि भावना की भलाई किस में है। मैं चाहती हूं कि हम सभी शांति से बातचीत करें आपस में और इक दूजे की भावनाओं का आदर करें। इसलिये हमें इक बार जाकर विवेक और उस के परिवार से मिलना चाहिये और अगर हमें उनमें वास्तव में कोई कमी नज़र आये तो हम भावना को समझा सकते हैं। और अगर कुछ भी ऐसा नहीं है तो हमें अपनी बेटी की बात को स्वीकार करना चाहिये। सब से पहले आज एक बात सभी समझ लें कि आज के बाद मेरे साथ , भावना के साथ अथवा परिवार की किसी महिला के साथ मार पीट , हिंसा कदापि सहन नहीं की जायेगी। जिस तरह से बेबाकी से लाजो ने ये बातें कहीं उसको सुन कर बलबीर सहित सभी दंग रह गये थे , ये रूप किसी ने पहले नहीं देखा था। एक ही रात में ऐसा बदलाव चकित करने की बात थी , फिर यहां तो वो नज़र आ रहा था जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। पूरे आत्मविश्वास से बुलंद आवाज़ में निडरता पूर्वक अपना पक्ष रख कर लाजो ने सभी को सकते में डाल दिया था , और किसी से भी जवाब देते नहीं  बन रहा था।

              थोड़ी देर में बलबीर उठ खड़ा हुआ था , और लाजो की तरफ देख कर बोला था , ये क्या हो गया है तुम्हें , जो तुम सारे समाज को चुनौती देने जैसे बातें कर रही हो। ऐसा कर के तुम कहीं की नहीं रह जाओगी। वास्तव में लाजो ने बलबीर को भीतर से हिला कर रख दिया था , और उसको लगने लगा था कि उसका शासन और मनमानी अब और नहीं चल सकेगी। फिर भी वो अपनी बेचैनी और घबराहट को छिपाने का प्रयास कर रहा था , ताकि सभी को मानसिक तौर से अपने अधीन रख सके। लाजो बलबीर की बात सुन कर ज़रा भी नहीं घबराई थी और उसी लहज़े में जवाब देते बोली थी , आज मुझे क्या मिला या क्या खोया है की बात नहीं करनी मुझे , मुझे बस भावना की बात करनी है।  उसकी शिक्षा को बीच में नहीं रोक सकता कोई भी , ये उसका अधिकार है अपना भविष्य बनाने का , जो किसी भी कारण वंचित नहीं किया जा सकता। मैं उसको हॉस्टल छोड़ने जा रही हूं और मुझे रोकने का प्रयास मत करना कोई भी।  कोई मां जब दुर्गा बन जाती है तो अपनी बेटी की खातिर सब कर गुज़रती है , आज मैं इक तूफान बन चुकी हूं जो रोकने वालों को तिनके की तरह हवा में उड़ा देता है। ये मत समझना कि मैं आप पर निर्भर हूं  मैं खुद आत्मनिर्भर हो सकती हूं  लेकिन आपने अभी शायद दूर तक नहीं सोचा है। अपनी बेटी या पत्नी को जान से मारने वाले को कौन अपनी बेटी देगा , हमें मार कर खुद आपका जीना भी दुश्वार हो जायेगा ये सोचना। अपने दोनों बेटों का ब्याह नहीं कर सकोगे ऐसा अपराध करने के बाद।  कैसी विडंबना है कि जो खुद अपराध करना चाहते हैं वही न्यायधीश बन कर फरमान जारी करते हैं। लेकिन हम मां बेटी फैसला कर चुकी हैं कि भले जो भी अंजाम हो अन्याय की इस अदालत के सामने हम अपना सर नहीं झुकायेंगी।

              तभी दरवाज़े की घंटी बजी थी , लाजो किवाड़ खोलने जाने लगी तो बलबीर ने उसको रोक दिया था , मैं देखता हूं इतनी सुबह कौन आया है। तुम दोनों चुप चाप कमरे के अंदर चली जाओ और ये ख्याल दिल से निकाल दो कि हम तुम्हें इस तरह कहीं भी जाने देंगे।  मुझे ऐसे ठोकर लगाकर नहीं जा सकती हो तुम। लाजो ने बलबीर की बात का कोई जवाब नहीं दिया था। घर की घंटी फिर से बजी थी और कोई बाहर से ऊंची आवाज़ में बोला था बलबीर दरवाज़ा खोलो। जैसे ही बलबीर ने किवाड़ खोला था कई लोग एक साथ भीतर आ गये थे , पुलिस , प्रशासनिक अधिकारी , महिला संगठन , मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि। बलबीर और बाकी परिवार के सदस्य आवाक रह गये थे। आते ही अधिकारी ने पूछा था लाजो कौन है , और उनकी बेटी भावना कहां है। लाजो और भावना सामने आ गई थीं और कहा था हम दोनों हैं जिन्होंने आपसे यहां आने की गुहार लगाई थी।
हमने ही फोन किया था मीडिया को आप सभी को भी सूचित करने को , परिवार के लोग भावना को जान से मारना चाहते हैं और मुझे भी इनसे जान का खतरा है , लाजो ने बताया था। हम अपनी मर्ज़ी से घर को छोड़ कर जाना चाहती हैं , हम स्वतंत्र नागरिक हैं और अपनी इच्छा से जीने का हक हमें है। आप इन लोगों को समझा दें ताकि ये हम से अनुचित व्यवहार नहीं करें। 

           प्रशासन के अधिकारी और पुलिस अफ्सर ने परिवार के सभी सदस्यों को ताकीद कर दी थी कि आप लाजो और भावना की ज़िंदगी में कोई दखल नहीं दे सकते , हमारा दायित्व है उनको सुरक्षा देना और किसी को भी अपने मनमाने नियम बनाकर दूसरे पर थोपने का अधिकार नहीं है।  आप क़ानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस रूढ़ीवादी घर की सारी दीवारें खोखली होकर हिलने लगी हों और कभी भी गिर सकती हों।  लाजो और भावना इक दूसरे का हाथ मज़बूती से थाम कर घर से बाहर जाने लगी तो सभी खामोश देखते रह गये थे।  कोई उनको रोकने का साहस नहीं कर सका था , वो दोनों चली गईं थी और उनके जाने के बाद अधिकारी लोग भी। घर के बाकी सदस्य स्तब्ध खड़े घर के खुले दरवाज़े को देख रहे थे।
         
                                      समाप्त
       
इस कहानी का ध्येय यही है , खुद महिलाओं को आना होगा आगे साहस पूर्वक कदम उठाकर।  

सितंबर 25, 2016

POST : 522 Part 3 हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

     हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा 

                            { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया                              

                                   हिलती हुई दीवारें ( अंक तीसरा  )    
                                
    भावना के पिता से पापा की  हुई बातचीत विवेक ने फोन पर भावना को बता दी थी जिस को सुन कर भावना परेशान होकर रोने लगी थी। विवेक अब क्या होगा , रोते रोते इतना ही बोल सकी थी। विवेक ने दिलासा दिलाया था तुम घबराओ मत सब ठीक हो जायेगा , अभी शायद अचानक सुनकर उनकी ऐसी प्रतिक्रिया सामने आई है। तुम प्यार से आदर से अपनी ख़ुशी की बात कहोगी तो वो अवश्य समझेंगे बेटी की बात को। मगर भावना को किसी अनहोनी का अंदेशा होने लगा था जो विवेक को नहीं बता सकती थी क्योंकि खुद उसको नहीं मालूम था कल क्या होने वाला है। अगले दिन सुबह ही उसके पिता और दोनों भाई हॉस्टल आये थे और उसको ज़बरदस्ती घर को लेकर चल पड़े थे। किसी ने कोई बात नहीं की थी न ही कोई सवाल ही पूछा था , बस सब सामान उठा कर चल दिये थे।  उन सब के चेहरों पर इक कठोरता और तनाव साफ झलक रहा था जो भावना को भीतर तक डरा रहा था। घर पहुंचते ही जैसे इक पहाड़ टूट पड़ा था , मार पीट , बुरा भला कहना जाने क्या क्या हो गया था। सभी की निगाहों में नफरत ही नफरत थी भावना के लिये जैसे उसने कोई अक्षम्य अपराध कर दिया हो , मोबाइल छीन लिया गया था , ताने मारे जा रहे थे कि तुम वहां पढ़ाई करने गई थी या परिवार की इज्ज़त से खिलवाड़ करने को।  ऐसा लग रहा था  जैसे इक चिड़िया के पर कटकर उसको पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। जाने क्या बात थी जो उसको ऐसे में भी कमज़ोर नहीं होने दे रही थी बल्कि और भी मज़बूत हो गई थी अपने इरादे में।  उसने सोच लिया था अपने प्यार की इस परीक्षा में उसने हर बात सहकर भी विचलित नहीं होना है , अडिग रहना है। शायद सच्चा प्रेम ही ये शक्ति प्रदान करता है।

                                     भावना को घर में सब से ऊपर की मंज़िल पर बने इक कमरे में कैद सा कर दिया था , कोई उस से बात तक नहीं करता था। रात तक कुछ भी खाने पीने को नहीं मिला था न ही भावना ने मांगा ही था।  रात को मां उसके लिये खाना लाई थी जो उसने चुप चाप खा लिया था।  लाजो को बेटी के चेहरे पर इक दृढ़ संकल्प दिखाई दिया था जो किसी आने वाले तूफ़ान का ईशारा करता लगा था।  भावना कहीं घर से भागने का प्रयास न करे इस डर से बलबीर ने लाजो को भावना के साथ ही सोने को कह दिया था।  मां बेटी दोनों ही किसी गहरी चिंता में डूबी हुई थीं इसलिये नींद कोसों दूर थी उसकी आंखों से।  लाजो ने प्रयास किया था भावना को समझाने का कि पिता ने तुम्हारे लिये इक लड़का पसंद किया है उस से चुप चाप विवाह कर लो।  माना लड़का पढ़ा लिखा नहीं है फिर भी हमारी तरह ज़मींदार परिवार है धन दौलत की कोई कमी नहीं है , हर सुख सुविधा मिलेगी तुम्हें वहां जाकर।  भावना ख़ामोशी से मां की बात सुनती रही थी , एक शब्द नहीं बोली थी , बस कुछ सोचती रही थी। थोड़ी देर रुक कर भावना बोली थी , " मां मेरा वादा है मैं बिना आपकी सहमति या आज्ञा के कोई कदम नहीं उठाऊंगी , आपको मेरे बेटी होने पर कभी शर्मसार नहीं होना पड़ेगा।  बस एक बार सिर्फ एक बार आज मेरी बात मेरी मां बनकर सुन लो , समझ लो कि तुम्हारी बेटी की भलाई किस में है।  मां मैं चाहती हूं कि अज तुम मुझे ही नहीं खुद अपने आप को भी ठीक से पहचान लो।  मुझे पता है तुमने पूरी उम्र कैसे दुःख सहकर अपमानित होकर रोते हुई बिताई है। मैंने हर दिन तुम्हारे दर्द को समझा है महसूस भी किया है , और चाहती हूं किसी तरह तुम्हारे दुखों का अंत कर तुम्हें ख़ुशी भरा जीवन दे सकूं मैं , मेरी मां।  मां तुम मेरा यकीन रखना तुम्हारी ये बेटी कभी भी तुम्हारे लिये कोई परेशानी नहीं खड़ी करेगी।  मेरी कोई ख़ुशी कोई चाहत कोई स्वार्थ इतना मेरे लिये इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता जिस की खातिर मैं तुम्हारे दुःख दर्द और बढ़ा दूं।  फिर भी मेरी बात सुन कर इक बार विवेक के परिवार से मिल लोगी तो अच्छा होगा , बहुत ही सभ्य लोग हैं , इक दूजे को सम्मान देते हैं , प्यार से साथ साथ रहते हैं , सवतंत्र हैं किसी बंधन की कैद में कोई नहीं है।  मां कभी सोचा है तुमने , तुम भी इक इंसान हो , तुम्हारा भी कुछ स्वाभिमान होना चाहिए , सम्मान मिलना चाहिए। क्या क्या नहीं करती तुम दिन रात घर की खातिर , कोई कभी तो समझे तुम भी महत्वपूर्ण हो। तुम्हारी अपनी भी कोई सोच समझ है , पसंद नापसंद है , सही और गलत समझने का अपना निर्णय है।  कुछ कर दिखाने की काबलियत तुम में भी है।  तुम कोई पशु नहीं जिसको खरीद लाये और बांध दिया है खूंटे से , बचपन से देखती रही हूं तुम्हें पिता जी की अनुचित बातें सहते भी और उनकी हर बात को मानते भी।  क्या तुम कभी वास्तव में खुश रही हो , क्या हर दिन हर पल तुम इक डर इक दहशत में नहीं रहती रही हो।  क्या ऐसे जीने की कभी कल्पना की थी तुमने या करोगी मेरे लिये भी। 

                          भावना की बातें सुन लाजो को अपना बचपन याद आ गया था , जब उसकी मां लाजो को  प्यार से गोदी में लिटाकर समझाती थी कितनी बातें।  कैसे हर समस्या का समाधान साहस पूर्वक किया जा सकता है , कैसे प्यार से आपस में मिलकर रहना सब को अपना बनाना होता है।  लाजो को लगा जैसे आज भावना उसकी मां बन गई है जबकि आज उसको ज़रूरत है मां की।  तब लाजो की नम आंखों को अपने हाथों से पौंछ के भावना ने कहा था  , मां अब रोना नहीं है , मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने दो , मैं तुम्हारी सभी परेशानियों का अंत कर दूंगी।  मां अब भले जो भी हो , हम कभी ऐसे मर मर कर नहीं जिएंगी।  मैंने सुन लिया था शाम को छत पर जो मेरे पिता जी ने तुम्हें कहा था कि अगर मैं उनकी पसंद की जगह शादी के लिये नहीं मानी तो तुम्हें मुझे ज़हर देना होगा।  मुझे मालूम है तुम ऐसा नहीं कर सकोगी , कोई भी मां नहीं कर सकती है ऐसा घिनोना कार्य।  हां कुछ कायर लोग विवश करते हैं ऐसा करने को।  अपने झूठे मान सम्मान की खातिर , अपने अहंकार की खातिर , महिलाओं को बलिवेदी पर चढ़ाना चाहते हैं , खुद अपनी आबरू की खातिर अपनी जान कभी नहीं लेते।  मां कितने ढोंगी हैं समाज के लोग , मीरा और राधा के मंदिर बनाते हैं , उनकी पूजा करते हैं और प्यार को अपराध बता कत्ल करते हैं।  अखिर कब तलक परम्पराओं के नाम पर महिलाओं पर अन्याय अत्याचार होगा उनका शोषण किया जाता रहेगा।  क्या हमने पूछा है हर युग में नारी ही अग्निपरीक्षा क्यों दे , आज तुम्हें इस अग्निपरीक्षा से नहीं गुज़रना पड़ेगा।  अगर तुम्हें लगेगा कि मुझे जीने का अधिकार नहीं है तो तुम ज़हर नहीं पिलाओगी , मैं खुद अपने हाथ से पी लूंगी ज़हर।  आज मैं अपने प्यार का अपने जीवन का हर निर्णय तुम पर छोड़ती हूं , मगर बस इतना चाहती हूं कि वो निर्णय तुम अपने विवेक से अपनी समझ से लो न कि किसी और द्वारा थोपे हुए निर्णय को बिना सोचे स्वीकार करो।  लाजो ने भावना को बाहों में भर लिया था , एक अश्रुधारा बह रही थी दोनों की आंखों से।  यूं ही लेटे लेटे दोनों जाने कब सो गईं थी। लाजो की नींद खुली तो उसे खिड़की से सुबह का उगता हुआ सूरज दिखाई दे रहा था , जो शायद इक संदेशा दे रहा था , नये उजाले का , नये जीवन का।

    
            (  जारी है  हिलती हुई दीवारें  ,  अगले अंतिम  अंक  में )

POST : 521 Part 2 हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

  हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा

                           { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                       ( पिछले अंक से आगे )
                                     
               भावना ने स्नातक की शिक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किये थे और उच्च शिक्षा से पूर्व की परीक्षा में भी अच्छा रैंक पाकर बड़े शहर के अच्छे कॉलेज में प्रवेश हासिल कर लिया था जबकि उसके दोनों भाई हमेशा मुश्किल से उत्तीर्ण होकर भी संतुष्ट हो जाते थे। दोनों आगे पढ़ाई करने में रुचि ही नहीं रखते थे। भावना को हॉस्टल में कमरा मिल गया था और वो मन लगा कर पूरी मेहनत करने लगी थी ताकि भविष्य में कुछ बन सके और अपना ही नहीं अपने गांव तक का नाम रौशन कर सके। कॉलेज में सहपाठी रंजना से उसकी मित्रता हो गई थी और दोनों काफी घुल मिल गई थी। रंजना का बड़ा भाई विवेक कई बार उसको छोड़ने आया करता था कॉलेज में और कभी कभी भावना से हाय हेल्लो नमस्ते हो जाती थी। हालांकि भावना अंतर्मुखी स्वभाव की सीधी सादी लड़की थी जो बहुत कम बातें करती थी और रंजना और उसका भाई विवेक सभी से खुलकर बातें करने वाले मिलनसार लोग थे , फिर भी उनसे भावना का तालमेल बन गया था। भावना और रंजना में घनिष्ठता हो गई थी और आपस में दोनों अपनी हर बात बिना झिझक बताने लगी थी। रंजना के पापा का अच्छा कारोबार था और विवेक किसी कंपनी में अच्छे पद पर जॉब करता था , खुश रहना मस्ती करना उसकी आदत थी और शहरी आम लड़कों की तरह बेपरवाह न होकर संवेदनशील था। पापा मम्मी जब भी शादी की बात करते तो वो कहता था जब कोई लड़की पसंद आई तो खुद ही लेकर मिलवा देगा उन से। औपचारिक मुलाकातों में ही विवेक और भावना कब इक दूजे को पसंद करने लगे दोनों को पता ही नहीं चला था , शुरू में थोड़ा संकोच से विवेक भावना को उसके मोबाइल पर फ़ोन करता , कभी रंजना का फोन बिज़ी होने पर तो कभी कॉलेज नहीं आ सकने का संदेशा देने को भावना को रंजना को बताने के बहाने से।  धीरे धीरे जान पहचान इक गहरे मधुर संबंध में बदल गई थी , एक दो बार भावना रंजना और विवेक सिनेमा गये थे साथ साथ और कभी किसी रेस्टोरेंट में खाना भी साथ खा लेते  थे।  जब उन दोनों को विश्वास हो गया कि हमें उम्र भर साथ रहना है तब भावना ने ही रंजना  से ये बात बताई थी , विवेक ने ही भावना से रंजना को बताने को कहा था ताकि ये जान सके कि उसकी क्या राय है। रंजना को भी कुछ कुछ आभास पहले से होने लगा था मगर भावना के मुंह से विवेक से प्यार की बार जान कर उसको और भी अच्छा लगा था। उसको भावना बहुत समझदार और काबिल लड़की लगती थी जो उसके भाई के लिये अच्छी जीवन साथी बन सकती थी। रंजना ने तभी घर जाकर मम्मी  को भावना और विवेक के प्यार की बात बता दी थी ,  उनको भी भावना का स्वभाव अच्छा लगता था जब भी रंजना के साथ मिली थी भावना उनको। विवेक के पिता को धर्मपत्नी ने बताया था भावना के बारे कि मधुर स्वभाव की अच्छे संस्कारों की सुशील लड़की है जो बड़ों का आदर सम्मान करना भली तरह जानती है। और उन्होंने हामी भर दी थी और विवेक से कहा था भावना से भी कहो अपने माता पिता से बात करे ताकि हम उनसे मिलकर रिश्ते की बात कर सकें।

                         जब विवेक ने बताया कि उसके माता पिता भावना के माता पिता से शादी की बात करना चाहते हैं तब वो खामोश हो गई थी। प्यार के रंगीन सपने देखते समय भावना इस वास्तविकता को भूल गई थी कि उसके पिता और परिवार के लोग बेहद रूढ़ीवादी मान्यताओं में जकड़े संकुचित सोच के लोग हैं जो किसी लड़की को अपनी मर्ज़ी से प्यार करने और शादी करने की स्वीकृति प्रदान नहीं करने वाले।  जब विवेक ने भावना से ख़ामोशी का कारण पूछा था तब भावना ने बताया था कि उसके समाज और परिवार में बेटियों को अपनी पसंद बताने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता है , और अगर उसने ऐसा कुछ किया तो न जाने परिवार के लोग कैसा सलूक करेंगे उसके साथ। भावना ने बताया था विवेक को कि आज तक उसने अपने मन की बात किसी से की नहीं है , न कभी किसी ने जानना चाही है कि उसके दिल में क्या है। इतना तय है कि वो जब भी विवाह करेगी विवेक से ही करेगी अन्यथा किसी से भी नहीं करेगी।  विवेक ने भावना को तसल्ली दी थी कि हम हर हाल में साथ निभायेंगे तुम चिंता मत करो , भावना से उसके घर का पता और फोन नंबर ले लिया था ताकि उसके पिता से विवेक के पापा बात कर सकें। 

              रविवार का दिन था , विवेक के पापा ने भावना के पिता को फोन कर बात की थी। अपना परिचय दिया था , विवेक के बारे भी सब बता दिया था और रंजना से मित्रता और भावना को पसंद करने की बात कही थी और पूछा था कब कैसे मिल सकते हैं आगे की बात करने को।  जैसा भावना के पिता का स्वभाव था उन्होंने तल्खी से सवाल किया था आप किस काम के लिये हमसे मिलना चाहते हैं।  विवेक के पापा ने भावना और विवेक के एक दूसरे को पसंद करने की बात बताकर कहा था कि मिलकर उनका रिश्ता तय करना चाहते हैं। इस बात से बलबीर आग बबूला हो गया था और विवेक के पापा से गुस्से में बोला था हमें आपसे नहीं मिलना है न ही ऐसे रिश्ता करना हम कभी स्वीकार करेंगे , आप बेटे को समझ दें कि भविष्य में भावना से मिलने का प्रयास नहीं करे इसमें उसकी भलाई है , खुद अपनी बेटी को भी हम रोक देंगे।

                            अभी कहानी जारी है बाकी अगले अंक में

POST : 520 Part 1 हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग पहला { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

    हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी )  भाग पहला

                           { ऑनर किल्लिंग पर }  डॉ लोक सेतिया 

 भावना को तड़पता देख कर भी भावशून्य लग रही थी लाजो , जैसे उसका अपनी ही बेटी से कोई संबंध ही ना हो। आधी रात का सन्नाटा और घर के ऊपर की मंज़िल पर अकेले कमरे में वे दोनों। खुद लाजो ने ही तो ज़हर पिलाया है अपनी बेटी को। उसके पति बलबीर ने शाम को उसको आदेश दिया था , घर की इज्ज़त बचाने के नाम पर बेटी को जान से मार देने का। और अगर लाजो ने ऐसा नहीं किया तो वह मां बेटी दोनों को तड़पा तड़पा कर मरेगा बलबीर ने ये भी कहा था। लाजो जानती है अपने पति के स्वभाव को वो कुछ भी कर सकता है। ज़हर पिलाने के बाद लाजो इंतज़ार कर रही थी भावना के मरने का ताकि उसकी मौत के बाद वो खुद जाकर बलबीर और बाकी सभी सदस्यों को बता सके कि उसने वह कर दिया है जो करने का आदेश उसको दिया गया था। तड़प तड़प आखिरी सांसें गिनती भावना ने अपनी मां को इशारे से अपने पास बुलाया था , बेहद मुश्किल से धीमी धीमी आवाज़ में उसने कहा था , " मां तुमने मुझे ज़हर दिया है ना , कोई बात नहीं , अच्छा ही है , तुमने ही तो मुझे जन्म दिया था , तुम मेरी जान ले लो ये भी तुम्हें अधिकार है। मां तुम इस के लिये दुखी मत होना। मैंने शाम को ही सुन ली थी वो सारी बातें जो पिता जी ने तुमको कही थी छत पर बुलाकर। इसलिये रात को सोने से पहले ज़हर मिला दूध पीने से पहले मैंने सब कुछ बता दिया था और सोच लिया था कि अगर मुझे जन्म देने वाली मां को भी लगता हो कि मुझे इस जहां में ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं है तो मुझे जी कर क्या करना है। मां तुम्हारे हाथ से ज़हर पी कर मरना तो मुझे एक सौगात लग रहा है। मुझे नहीं जीना इस समाज में तुम्हारी तरह हर दिन इक नई मौत मरते हुए। मां मेरी बात ध्यान पूर्वक सुन लो , मैंने अलमारी में अपने कपड़ों के नीचे इक पत्र लिख कर रख छोड़ा है , जिस में लिखा है कि मैं अपनी मर्ज़ी से आत्महत्या कर रही हूं। तुम वो पत्र पुलिस वालों को दे देना , और कभी किसी को ये मत बताना कि तुमने मुझे ज़हर पिलाया है दूध में मिलाकर , वरना दुनिया की बेटियों का भरोसा उठ जायेगा मां पर से "।

                          अचानक लाजो की नींद खुल गई थी , उस भयानक सपने से डरकर जाग गई थी लाजो , अपनी धड़कन उसको ज़ोर ज़ोर से सुनाई पड़ रही थी और पूरा बदन पसीने से तर हो गया था। अपनी दिमाग़ की नसें लाजो को फटती फड़फड़ाती सी लग रही थीं। भावना उसकी बगल में सोई पड़ी थी , बाहर से आ रही हल्की रौशनी में उसका प्यारा सा चेहरा मुरझाया हुआ लग रहा था। शायद बेटी भी कोई ऐसा बुरा सपना देख रही हो सोच कर लाजों की आंखों में आंसू भर आये थे। प्यार से ममता भरा हाथ उसने बेटी के माथे  पर रख दिया था और सहलाती रही थी। रात को बहुत देर तक भावना मां को दिल की हर बात बताती रही थी , और बेटी की अपनत्व भरी बातों ने लाजो को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। आज लाजो को एहसास हुआ था कि उसने बेटी के साथ अकारण कठोर व्यवहार  किया है आज तक , कभी प्यार से ममता भरी बातें की ही नहीं। आज उसको अपनी सोच पर ग्लानि हो रही थी कि क्यों भावना के जन्म लेने पर उसको लगा था कि उसकी कोख से बेटी जन्म ही नहीं लेती। अपना सारा प्यार सारी ममता लाजो अपने दोनों बेटों पर ही न्यौछावर करती रही है , आज तक कभी समझा ही नहीं कि बेटी को भी प्यार दुलार और अपनत्त्व की उतनी ही ज़रूरत है। शायद ऐसा उस समाज और उस परिवेश के कारण हुआ जिस में खुद लाजो पली बढ़ी थी। लेकिन आज भावना ने मन की सारी गांठे खोल कर रख दी थीं , बचपन से लेकर जवानी तक के सभी एहसास अपनी मां को बता दिये थे , जिनको सुन कर समझ कर दिल में महसूस कर के लाजो के मन में बेटी के लिये ममता का सागर छलक आया था। आज पहली बार लाजो को समझ आया था कि इस पूरे समाज में पूरी दुनिया में इक बेटी ही है जो अपनी मां की पीड़ा को उसके दर्द को समझ सकती है और चाहती भी है जैसे भी हो सके अपनी मां का आंचल खुशियों से भर दे। लाजो ने आज जाना था कि मां के लिये जो भाव कोई बेटी महसूस कर सकती है वो बेटे कभी नहीं कर सकते। आज पहली बार बेटी की मां होने पर लाजो को गर्व और प्रसन्नता की अनुभूति हुई थी वह भी ऐसे समय जब जब उसका सारा परिवार , पूरा समाज ही बेटी की जान का दुश्मन बन चुका है। मगर आज इक मां ने भी ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाये वो अपनी बेटी पर कोई आंच नहीं आने देगी। बेटी की ख़ुशी उसके भविष्य उसके अधिकार के लिये वो अपनी जान तक की परवाह नहीं करेगी। समय आ गया है इक मां के अपनी बेटी के प्रति कर्तव्य निभाने और ममता की लाज रखने का।

           (   अभी जारी है कहानी बाकी अगले अंक में  )