अक्तूबर 14, 2016

फेसबुक की महिमा अपार है ( बेसर-पैर की ) डॉ लोक सेतिया

     फेसबुक की महिमा अपार है ( बेसर-पैर की ) डॉ लोक सेतिया

              किसी शायर ने कहा है , क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा , कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा। मेरा अनुभव फेसबुक का भी यही है , कुछ नहीं मिला लेकिन ये तो समझ आया ही कि फेसबुक क्या बला है। मोहभंग कभी का हो चुका था आखिर अलविदा कह ही दिया , फिर भी कुछ बातें कुछ खट्टी मीठी यादें बाकी हैं। कहानियां भी कुछ न कुछ तो बनी ही हैं , किरदार भी असली नकली देखे हैं। हिसाब कभी लगाना नहीं सीखा , कहां पर खोया क्या और पाया क्या। कुछ दिन पहले लिखा था इक व्यंग्य भी फेसबुक पर देवी देवताओं की बातें देख कर कि भगवान को भी अपने देवी देवताओं के दर्शन करने फेसबुक पर आना पड़ेगा। वो सभी चौबीस घंटे रहते ही वहीं हैं अपने मंदिरों को छोड़कर , भला इतने भक्त और कहीं मिलते हैं थोक के भाव। लेकिन भगवान नहीं आये फेसबुक पर , उनसे फेक आई डी बनी नहीं और सच्ची बनाने नहीं दी फेसबुक ने , सब से पहले जन्म की तारीख बताने में ही मामला अटक गया। इक देवी ने प्रस्ताव रखा भगवन आप से नहीं बनाई जायेगी नई फेसबुक , आप मेरी वाली का पासवर्ड लेकर नाम बदल सकते हो आसानी से , कोई नहीं पूछेगा आप महिला से पुरुष कैसे हो गये और आपकी जन्म तिथि कब बदली भी और अब कोई देख ही नहीं सकता क्या तारिख है। मगर भगवान डर ही गये और मेरी तरह छोड़ गये फेसबुक की दुनिया को। आपको ये सूचना देना भी मेरा कर्तव्य था क्योंकि मैंने ही बताया था कि जल्दी ही भगवान आयेंगे खुद फेसबुक पर। फेसबुक कोई बहुत पुरानी नहीं है फिर भी इसका इतिहास लिखने को हज़ारों साल लग सकते हैं , आखिर यहां हर दिन नहीं हर मिंट इतना कुछ घटता रहता है कि उसको याद रखना भी इक चुनौती है। सुबह फेसबुक बनाई और शाम तक सौ दोस्त बन भी गये , बनने के बाद पूछते हैं भाई आपका नाम पता क्या है और कहां रहते क्या करते हैं। कौन कहे जब मित्र बनाया तब देखा नहीं वाल पर अबाउट में सभी तो बताया हुआ है। मगर कहां बस फोटो देख मित्रता की भले फोटो भी खुद की किसी ज़माने की हो या किसी और की ही। नाम में क्या रखा है जब यहां नाम भी दो महीने बाद बदल सकते हैं। फिर भी लोग हज़ारों दोस्त बनाते जा रहे हैं जब कि उनको किसी से कोई मतलब ही नहीं होता एक दिन बाद। खुश हैं देख कर हज़ारों की संख्या देख कर। फेसबुक पर सभी कुछ है , दुनिया भर की बातें , यहां तक कि देशभक्ति से समाजसेवा तक पर लिखना भी , ईश्वर और मानवता की बातों से लेकर मुहब्बत तक सभी उपलब्ध है इस बाज़ार में।  बस असली की गारंटी नहीं है , हर कोई खुद झूठ का कारोबार करता है और समझाता है बाकी सब को लेकर कि वो बिलकुल झूठ हैं। समस्या वही है , दर्पण बेचते हैं मगर खुद दर्पण में अपने आप को देखने से बचते हैं। इसलिये कि लोग आपको खूबसूरत बताकर लाईक करते हैं कमैंट्स लिखते हैं और आपका मन दर्पण आपको बताता है आपकी असलियत क्या है। बाहर देखते हैं सभी औरों को खुद अपने भीतर देखता ही नहीं कोई। इसी का नाम फेसबुक है। ये इतिहास नहीं है फेसबुक का , ये तो केवल संक्षिप्त भूमिका है , पूरा इतिहास लिखने की ताकत मुझ में तो नहीं है। समझना हो तो इतने से समझ लेना। समझदार को इशारा काफी होता है , सभी समझदार हैं । 
कौन खुद को नासमझ कहता है । में नासमझ हूं फिर भी समझा रहा सभी को , विचित्र बात लगती है । 
 

 
 
 

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