अक्टूबर 15, 2025

POST : 2029 बहारें ख़ुदकुशी करने लगी ( दर्द - ए - गुल्सितां ) डॉ लोक सेतिया

  बहारें ख़ुदकुशी करने लगी ( दर्द - ए - गुल्सितां ) डॉ लोक सेतिया 

अब जो होने लगा है अनहोनी नहीं है सदियों की भूल की सज़ा है जिनको रखवाली करनी थी माली बन कर बगिया की वही खुद कंटीली झाड़ियां बन कर छलनी छलनी कर रहे हैं चमन में आने जाने वालों के दामन से उलझकर । तलवार बंदूक पिस्तौल समाज की सुरक्षा की बजाय सत्ता के मनमाने ढंग से आतंक और भय का वातावरण बनाने लग जाएं तो कभी न कभी शिकारी खुद शिकार होना अंजाम सामने है । अभी भी लगता नहीं है कि देश समाज की नींद खुले और समझने का प्रयास किया जाये कि हमने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को इस हद तक सड़ा गला बना दिया है कि इसको फिर से दोबारा पूर्णतया सही करना बेहद कठिन होगा या असंभव है तब तक जब तक शासक वर्ग खुद अपने पर अंकुश स्वीकार कर कायदे कानून पर चलना नहीं सीखते । जिस देश की सरकार खुद कानून को संविधान को नैतिकता के मूल्यों को आदर्शों को कुचलती रौंदती जाती है किसी आवारा सांढ की तरह खेत को उजड़ने जैसा आचरण करती है उस में खुद उसका ही अंग कोई विभाग ऐसे हालात में पहुंच गया है जहां हर शाख पर उल्लू बैठा है । दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल से समझते हैं । 
 
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं , 
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं ।  
 
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं । 
 
वो सलीबों के करीब आए तो हमको 
कायदे- कानून समझाने लगे हैं । 
 
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है 
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं । 
 
मछलियों में खलबली है , अब सफ़ीने
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं । 
 
मौलवी से डांट ख़ाकर अहले मक़तब 
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं । 
 
अब नयी तहज़ीब के पेशे - नज़र हम 
आदमी को भून कर खाने लगे हैं ।   
 
लोग ज़िंदगी से ही नहीं दुनिया से कभी खुद अपने आप से तंग आकर ख़ुदकुशी करते रहते हैं , आजकल साधारण आदमी की ज़िंदगी की कोई कीमत है न बेमौत मरने की , ये खबरें अब सुर्खियां नहीं बनती हैं । हमने फ़िल्मी नायक का ऐसा रंग ढंग वास्तविक समाजिक माहौल में स्वीकार कर लिया है जिस में पुलिस की वर्दी पहन कर आपराधिक कृत्य करना सामान्य समझा जाता है । देश की सर्वोच्च अदालत जानते देखते कुछ भी कर नहीं सकती जब शासक राजनेता और प्रशासनिक गठबंधन खुद को कानून संविधान से बड़ा समझने लगे हैं । चाहे जैसे भी हुआ हो हमने अपराधी गुंडे बदमाशों को चुनकर संसद विधानसभाओं में भेजा है और हमेशा उनकी जयजयकार करते रहते हैं भले उनका आचरण जैसा भी हो । खोखले लोग शासक वर्ग से मिलने पर उनके साथ अपनी फोटो करवा समझते हैं कुछ शान बढ़ गई है जबकि वास्तव में उनका किरदार बौना लगता है जिस किसी को अपना आदर्श समझना चाटुकार लोग करते हैं । 
 
राजनीति की सौगत ने कार्यपालिका न्यायपालिका तक को लोहे की तरह जंग लगा इतना कमज़ोर कर दिया है कि पूरी व्यवस्था कभी चरमरा कर ढह सकती है । बाहरी चमक दमक से कुछ भी ठीक किया नहीं जा सकता है । हमने सपना देखा था गुलमोहर जैसे रंगीन पेड़ों की शीतल छांव देने वाले लोकतांत्रिक प्रणाली से उगाने का लेकिन कब कैसे कंटीले कैक्टस बबूल और ऐसी विषैली बेलें सभी तरफ बाग़ में फैलती गई हैं और लोग घायल होकर तड़पने लगे हैं । आखिर ये सभी कांटेदार पेड़ पौधे आपस में भी एक दूजे का अस्तित्व मिटाना चाहते हैं हर कोई सिर्फ अपना वर्चस्व स्थापित करने को व्याकुल है , सुलग रही है भीतर ही भीतर कोई चिंगारी जिसे बुझाया नहीं गया तो कुछ भी बचना मुश्किल होगा ।  
 
आज सवाल हमारे देश समाज की दिन पर दिन बिगड़ती दशा को सुधरने का है , कौन कौन दोषी है इस बहस में पड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा । लेकिन अभी भी सचेत नहीं हुए तो भविष्य अंधकारमय होना लाज़मी है चलो मिलकर अपने खुद से पहले देश समाज के प्रति कर्तव्य को महत्व दे कर पूर्ण निष्ठा से जो भी खोया है उसको फिर से पाने का संकल्प लेते हैं , ये हमारा देश है और हमको ही इसको बेहतर बनाना है ।  
 


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