अगस्त 11, 2018

रूह भटक रही है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        रूह भटक रही है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

       सब उसकी तस्वीर के सामने हाथ जोड़ फूल चढ़ा रहे हैं।  अफ़सोस जता रहे हैं। भगवान इसकी आत्मा को शांति दे कह रहे हैं। आत्मा तड़प रही है ये क्या माजरा है ये कैसा तमाशा है। जीते जी कोई साथ नहीं था अकेले ज़िंदगी का सफर तय किया और आज इतनी भीड़ लगी है। कितनों के तो नाम तक याद नहीं हैं शायद पहचान नहीं रही , कभी बात ही नहीं की जो आज रिश्ते नाते निभाने को फल फूल भी लेकर आये हैं। मांगने पर कांटें भी उधार नहीं देते यही। शोक सभा हो रही है मगर शोक नदारद है , ये आंसू ये रोना धोना आज किस काम का। मुझे रुलाते भी थे रोने भी नहीं देते थे , खुश रहो कहते भले थे खुश रहने देते नहीं थे। ख़ुशी देख कर जलते रहे और आज खुश हैं मगर दुखी बने हुए हैं। मंच पर जो लोग भली भली बातें कर रहे उनकी निगाह भी सामने जमाराशि पर है , और कह रहे हैं माया साथ नहीं जाती मोह माया को छोड़ दो। मरना सच है जीना झूठ बात तो ठीक है बस जो समझा रहा खुद उसी को समझ नहीं आती। ये सब नहीं जानते रूह सब देख रही है और समझ रही है , बेचैन हो रही है और चाहती है ये सब बंद हो। भगवान से यही तो कहा था जो मेरे अपने हैं उनका हाल बता दो तो भगवान इस जगह लेकर आये , मगर खुद नहीं रुके इक पल को भी बाहर दरवाज़े पर छोड़ कर चले गये। भगवान नहीं देख पाते ये सब , झूठी और दिखावे की विनती खुदा इस आत्मा को शांति देना स्वर्ग देना। मन में तो कुछ और है , कोई सोचता है ज़रूर नर्क गयी होगी इसकी आत्मा। कोई सोचता है यकीन ही नहीं होता ज़िंदा नहीं है कहां आसानी से मरते हैं ऐसे लोग। भगवान के साथ भी छल कपट होता है भरी सभा में। भगवान नहीं समझ सके ये सब किस मकसद से किया जाता है , मरने के बाद बहुत कुछ जीते जी कुछ भी नहीं। 
 
                 क्या क्या बातें नहीं कर रहे लोग। इधर उधर की बेकार की भी और अपने अपने काम की भी। समय सब को लग रहा ठहर गया है घड़ी चलती नहीं जैसे धीमी चल रही है थककर रुकना चाहती है। जितनी चाबी भरी उतनी चलती है अब सैल खत्म होने को , सांस चलने की तरह। बस यही इक घड़ी ही वास्तव में शोक जता रही है। कोई मरने वाले को याद नहीं कर रहा सभी और ही बात कर रहे हैं। सब को बोरियत हो रही है रूह तक को लगता है कब जाऊं इस जगह से , भगवान आओ मुझे यहां से कहीं दूर ले जाओ। एक घंटा इतना लंबा तो कभी नहीं लगता था हर सेकंड लगता है इक सदी के समान है। इतनी लंबी आयु थी अब समझ आया आत्मा को शरीर से निकल कर। लोग सोच रहे हैं जो तय समय था दस मिंट ऊपर हो गये है , इनको आज वक़्त की पाबंदी की बात समझ आई है जो कभी किसी के वक़्त की कदर नहीं करते हैं। गप्पबाज़ी में क्या स्मार्ट फोन पर सोशल मीडिया पर व्यर्थ समय बिताने वाले ऐसे दिखा रहे हैं जैसे उनका इक इक लम्हा किसी विशेष कार्य को होता है। सभा का अंत हुआ तो सबको चैन आया मगर रूह को अभी भी नहीं मिला चैन। लोग कतार लगाकर अफ़सोस जताने नहीं अपना चेहरा दिखाने आये हैं किसे जिसे देख भी नहीं सकते उसको छोड़ बाकी सबको। अब जाने की जल्दी नहीं है आपस में मिलना जुलना बातें करना खूब शोर है और पूरा माहौल बदल गया है। हंस रहे हैं सब कुछ है बस शोक ही नहीं है मगर है शोकसभा ही की जगह। इतना अधिक शोर है कि रूह घबरा रही है भगवान मुझे यहां से ले जाओ गुहार लगा रही है। हलवा मिल रहा खुशबू लुभा रही है रूह सकपका रही है। गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है ,  चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है। देखो वो आ रही है देखो वो जा रही है। आते हैं लोग जाते हैं लोग पानी के जैसे रेले , जाने के बाद आते हैं याद गुज़रे हुए वो मेले। यादें मिटा रही है यादें बना रही है। 
 

 


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