तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फ़साना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फ़साना। हर मोड़ पर लिखा था कोई न इधर जाना , लेकिन अच्छी कोई हिदायत कोई भी नहीं माना। अब कौन किससे पूछे तुम आगे कितना पहुंचे , वो लोग सब पीछे रहे जिनको था साथ लाना। सब दर्द से कराह रहे हैं आह भरना भी मना है , देखना ज़रूरी है तेरा नाच गाना। खो गए हैं जनता के कहीं सवेरे , तेरी रौशनी ने बढ़ा दिए हैं कुछ और भी अंधेरे। साये भी हैं डराते हर शाम कांपती है हर राह डर है घेरे। मौसम है सुहाना जो लड़की गा रही है , बादलों को बुला रही है , बिजली भी गिरनी है दिल में सोचती है घबरा रही है। बंद दरवाज़ों को खोलता नहीं कोई कोई अजनबी अकेला और भीड़ आ रही है। भीड़ जुटी हुई तफरीह के लिए जो सामने आया उसी पर कहर ढा रही है। यहां किसी कवि की कविता याद आई है। हर कोई अपने झोले में अपना अपना सच लिए हुए है। भगत सिंह पाश सफदर हाशमी कितनी बार जन्म लेते कोई साथ नहीं चलता है , कलम तो कलम है अपने खून से लिखती है अपनी ही मौत का फरमान।
आज़ादी किसी बेबस महिला की तरह बंद है उनकी कैद में जो दावा करते हैं सुरक्षा देने का। झुकना नहीं जानते जो जो भी कट गए हैं , ये लोग कितने अजीब हैं ख़ामोशी से हर ज़ुल्म सह गए हैं। अब कोई नहीं गुनगुनाता उनके गीतों को जो खून बनकर रगों में बह रहे हैं। सरफ़रोशी की तमन्ना किसी के दिल में नहीं बाकी , बाज़ुए कातिल के हौसले बढ़ गए हैं। सब ने समझ लिया है आएगी नहीं सुबह कभी हर किसी के आंगन में , मीनार महलों के रौशनी को रोके हुए बढ़ते जा रहे हैं। दिन भी है रात जैसे और रातों को दिन हैं कहते , हवा चलाने दिया जलाने का दम भर रहे हैं। ये हद है आप को 1975 से 1977 का आपत्काल याद है और उस समय जो कैद रहे उनको पेंशन भी मिलने लगी चालीस साल बाद। जो उसी समय जेल में रहने से ही नेता ही नहीं राज्यों के मुख्यमंत्री तक बने उन्होंने क्या नहीं किया। मगर आज जो बिना आपात्काल घोषित किये डर दहशत ही नहीं बदले की भावना से विरोध की आवाज़ को दबाने को लगे हैं वो क्या है। अगर उसे काला अध्याय समझा जाता है तो ये भी कोई सुनहरी काल कदापि नहीं कहलायेगा।
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