बातें राजा और बेताल की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
बेताल खुद वापस लौट आया और प्रधानमंत्री जी के कंधे पर लटक गया और बोला , " राजन अब आपको मौन रहने की ज़रूरत ही नहीं अब आप बेफिक्र हो जो भी कहना हो कह सकते हैं । अब मैं आपको छोड़ कहीं जा ही नहीं सकता क्योंकि जिस पेड़ पर मेरा ठिकाना था आपने उसे ही जड़ से काट कर उसका नामोनिशान तक मिटा दिया है । आपको हर दिन मैंने इक नई कहानी सुनाई है अभी तक , मगर आपने कभी खुद अपनी कहानी मुझे नहीं सुनाई । विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र के आप निर्वाचित शासक हैं , आपकी ताकत का अंदाज़ा मुझे भी है । आपका पांच साल का कार्यकाल कब खत्म हो जायेगा आपको पता ही नहीं चलेगा , आपने देश की जनता को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था और उसी से चुनाव जीता था । अभी तक जनता के जीवन में कोई ऐसा बदलाव हुआ दिखाई नहीं देता फिर भी आपको यकीन है अगला चुनाव भी आपका दल जीतेगा आपके ही भरोसे । आपके दल को भी आपके नेतृत्व और करिश्मे का ऐतबार है और सभी सोचते हैं आज आपसे लोकप्रिय कोई दूसरा नेता नहीं है न दल के भीतर न किसी और दल के पास । आप भी खुद को पहाड़ समझते हैं और बाकी सभी आपको बौने लगते हैं । राजन आपने घोषणा कर दी है उस काले राक्षस का आपने अंत कर दिया है , जबकि आप भी जानते हैं उस दैत्य का ठिकाना जहां रहा है वहां तक जाने का साहस आप भी नहीं कर पा रहे हो । आप भी वही करने लगे हो जो पहले बहुत शासक करते आये हैं , शोले फिल्म के गब्बर सिंह की तरह सभी को समझाते हो कि मुझ से बचना है तो दूसरा कोई रास्ता नहीं है मेरी शरण में चले आओ । आपने किसी परिवार का अंत कर उसके मुखिया को अपाहिज बना डाला है , ताकि कोई आपसे लड़ने का साहस नहीं कर सके भविष्य में । आपके दल में सिर्फ आप ही आप हो और कोई कद्दावर नेता बचा नहीं है । आपके पास हर दिन इक नई योजना भी रहती है जनता को बताने को कि आप बहुत कुछ करना चाहते हैं । मगर आपको नहीं मालूम कि एक सौ चालीस करोड़ जनता को सुनहरे दिन किस तरह दिखाई दे सकते हैं , आप चाहते हो कि अगले चुनाव में जनता आपका पुराना वादा भूल जाये और इक नया नारा सुन कर फिर से आपकी बातों में आ जाये । शायद पिछले चुनाव में सुनहरे दिनों का सपना दिखलाते समय आपको लगा ही नहीं था कि जनता उस पर भरोसा कर आपको इतना बहुमत दे सकती है । आपने सोचा तक नहीं था वो सपना हकीकत बनाना किस तरह है । "
प्रधानमंत्री जी बोले , " बेताल तुम्हें लोकतंत्र की राजनीति का ज़रा भी ज्ञान नहीं है । जनता ने मुझे नहीं चुना था , जो पहले सत्ता में था उसको हराना था और विकल्प में मेरे सिवा कोई दूसरा दिखाई दिया ही नहीं उसको । पिछली सरकार की बदनामी मेरे बड़े काम आई , काला रंग सामने होता तभी सफेद रंग की चमक नज़र आती है । मुझे अपनी चमक बरकरार रखनी है पांच साल तक और अपने से ज़्यादा किसी को चमकने नहीं देना है , बस और कुछ भी नहीं करना है । रही जनता की बदहाली तो सरकार कोई भी हो उसकी चिंता अपना खज़ाना बढ़ाने की रहती है । कर तो जनता से ही वसूल करना होता है , और हर शासक अधिक धन चाहता है सत्ता की खातिर । यही अर्थशास्त्र है राजनीति का । चलो आज तुम्हें इक नीति कथा सुनाता हूं । जाग कर सुनना , कहीं नींद में आधी सुन बाद में भूल मत जाना , आम लोगों की तरह ।
धरती का रस । यही नाम है उस कथा का । इक राजा शिकार को गया और रास्ता भटक अपने सैनिकों से अलग हो गया , दोपहर होने को थी और उसको गर्मी में प्यास लगी थी । चलते चलते उसको इक खेत में इक झोपड़ी नज़र आई तो वहां चला गया । इक बुढ़िया बैठी थी वहां , मगर सादा भेस में उसको राजा की पहचान मालूम नहीं हुई थी । राजा बोला मईया मुझे प्यास लगी है पानी पिला दो , बुढ़िया ने सोचा मुसाफिर है जाने कितनी दूर से आया है और आगे भी जाना होगा , इसलिये उसको पानी की जगह गन्ने का रस पिलाती हूं , और वो खेत से इक गन्ना काट लाई और उसका रस निकाल गिलास में भर राजा को दिया पीने को । रस पीकर राजा को बहुत अच्छा लगा और वो थोड़ी देर को वहीं छाया में चारपाई पर आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा उसके पास कितनी भूमि है कितने बच्चे हैं और कितनी आमदनी होती है । बुढ़िया ने बताया उसके चार पुत्र हैं और चार जगह ऐसा ही इक खेत है सबका अपना अपना । चार रुपया आमदनी है , एक रुपया खर्च आता है और तीन रूपये बचत होती है , दो रूपये से घर चलता है , फिर भी एक बच ही जाता है जो बचत करते हैं । बात करते करते राजा सोचने लगा कि अगर मैं ऐसे हर खेत से एक रुपया अधिक कर लेने लग जाऊं तो मेरा खज़ाना कितना बढ़ सकता है । और उसको नींद आ गई थोड़ी देर को , जागा तो देखा दूर से उसके सैनिक आ रहे हैं । राजा ने बुढ़िया से कहा , मईया क्या मुझे एक गिलास और गन्ने का रस पिला सकती हो , बुढ़िया बोली ज़रूर , और फिर से खेत से इक गन्ना काट कर ले आई । मगर जब रस निकाला तो वो बहुत थोड़ा था इसलिए बुढ़िया इक और गन्ना लाई , मगर तब भी गिलास नहीं भरा , इस तरह चार गन्ने से एक गिलास रस मुश्किल से निकला । राजा भी ये देख हैरान हुआ और उसने बुढ़िया से सवाल किया , मईया पहले तो एक ही गन्ने से गिलास भर रस निकल आया था अब क्या बात हुई जो कम निकला रस । बुढ़िया बोली ये मुझे भी समझ नहीं आया कि इतनी देर में ऐसा क्या हुआ , मगर इतना सुनते आये हैं कि जब राज्य या देश का शासक लालच में आ जाता है और लोकहित को भुला देता है तब धरती का रस सूख जाता है । और प्रकृति में सब गलत होने लगता है । राजा समझ गया था ऐसा क्यों हुआ था । "
बेताल प्रधानमंत्री जी की कथा सुन कर हंस दिया , तो प्रधानमंत्री जी ने हंसने का कारण पूछा । बेताल बोला राजन कोई भी व्यक्ति देश से बड़ा नहीं होता , सभी को कभी न कभी सत्ता को छोड़ना ही पड़ता है । एक सौ चालीस करोड़ की जनता किसी भी नेता या दल के रहमोकरम पर कभी नहीं रही है । चाहे कोई खुद को कितना शक्तिशाली समझता रहा हो सभी को जनता ने जब चाहा बदल दिया है । जाने क्यों तब भी किसी को ये बात कभी समझ नहीं आई है । मैंने सभी को आगाह किया है , आपको भी बताना चाहता हूं , जनता को मूर्ख समझने की भूल मत करना । राजन मैं तुम्हें फिर से छोड़ कर जा रहा हूं , मुझे किसी राजा किसी शासक के कंधे की सवारी की ज़रूरत नहीं है , न ही कोई पेड़ मेरा ठिकाना है । आज तुम्हें समझाया है कभी पहले वाले को समझाया था , कल जो शासक बनेगा उसको भी समझाऊंगा ही । मैं अपना फ़र्ज़ निभाता आया हूं , कोई समझे न समझे , अब वक़्त जाने या इस देश की अभागी जनता , जो बार बार ठगी जाती है ।

1 टिप्पणी:
Bahut achcha lekh....Aaj ki rajniti pr...Shasak lalchi ho gya h👍👌
एक टिप्पणी भेजें