जनवरी 02, 2014

तलाश लोकतंत्र की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        तलाश लोकतंत्र की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

       जाने कितने वर्ष हो गये हैं इस मुकदमें को चलते हुए , मगर देश की सुरक्षा की बात कह कर इसे अति गोपनीय रखा गया है। किसी को मालूम नहीं इसके बारे कुछ भी , उनको भी जिनका दावा रहता है सब से पहले हर इक बात का पता लगाने का। आज मैं आपको उस मुकदमें का पूरा विवरण बता रहा हूं बिना किसी कांट छांट के , बिना कुछ जोड़े , घटाये। जनता का आरोप है कि उसने लोकतंत्र का क़त्ल होते अपनी आंखों से देखा है। नेताओं ने मार डाला है लोकतंत्र को। क्योंकि कातिल सभी बड़े बड़े नेता लोग हैं इसलिये पुलिस और प्रशासन देख कर भी अनदेखा कर रहा है। अदालत ने पूछा कि क्या लोकतंत्र की लाश बरामद हुई है , उस पर किसी ज़ख्म का निशान मिला है , पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट क्या कहती है। जनता ने बताया है कि लोकतंत्र को एक बार नहीं बार बार क़त्ल किया जाता रहा है और उसकी लाश को छिपा दिया जाता रहा है। नेताओं ने परिवारवाद को पूंजीवाद को लोकतंत्र का लिबास पहना कर इतने सालों तक देश की जनता को छला है। अदालत ने जानना चाहा है कि क्या कोई गवाह है जिसने देखा हो क़त्ल होते और पहचानता हो कातिलों को। जनता बोली हां मैंने देखा है। अदालत ने पूछा है कि खुलकर बताओ कब कैसे कहां किसने किया क़त्ल लोकतंत्र को। जनता ने जवाब दिया कि आज़ादी के बाद से देश में हर प्रदेश में इसका क़त्ल हुआ है। कभी विधानसभाओं में हुआ है तो कभी संसद में हुआ है। अदालत को सबूत चाहिएं थे इसलिये जनता ने कुछ विशेष घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया है। एक बार आपात्काल घोषित करके लोकतंत्र को कैद में बंद रखा गया था पूरे उनीस महीनों तक। जब ये मुक्त हुआ और जनता ने राहत की सांस ली तब इसको दलबदल का रोग लग गया और ये अधमरा हो गया था।

       हरियाणा प्रदेश में इसको जातिवाद ने अजगर की तरह निगल लिया था , एक बार महम उपचुनाव में राजनीति के हिंसक रूप से लोकतंत्र लहू लुहान हो गया था। तब भी इसका क़त्ल ही हुआ था मगर उसको एक दुर्घटना मान लिया गया। कितने ही राज्यों में लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलती रही और चल रही है। पिता मुख्यमंत्री है तो सारा परिवार ही शासक बन जाता है। किसी नेता का निधन हो जाये तो लोक सभा , राज्य सभा अथवा विधान सभा की जगह उसके बेटे , पत्नी , दामाद को मिलना विरासत की तरह क्या इसे लोकतंत्र माना जा सकता है। बिहार में , पश्चिम बंगाल में हिंसा में मरता रहता है लोकतंत्र। साम्प्रदायिक दंगों में दिल्ली , पंजाब , उत्तर प्रदेश , गुजरात और कितने ही अन्य राज्यों में लोकतंत्र की हत्या की गई है। भ्रष्टाचार रूपी कैंसर इसको भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है कितने ही वर्षों से , बेजान हो चुका है लोकतंत्र। वोट पाने के लिये जब धन का उपयोग होता है तब भी लोकतंत्र को ही क़त्ल किया जाता है। सांसद खरीदे गये , विधायक बंदी तक बनाये गये हैं बहुमत साबित करने के लिये। संसद और विधान सभाओं में नेता असभ्य और अलोकतांत्रिक आचरण करते हैं जब , तब कौन घायल होता है।

     अभी तक सरकारी वकील चुपचाप बैठा था , ये सब दलीलें जनता की सुन कर वो सामने आया और कहने लगा , जनता को बताना चाहिये कि कब उसने लोकतंत्र को भला चंगा सही सलामत देखा था। जनता ने जवाब दिया कि पूरी तरह तंदरुस्त तो लोकतंत्र लगा ही नहीं कभी लेकिन अब तो उसके जीवित होने के कोई लक्षण तक नज़र नहीं आते हैं। आप किसी सरकारी दफ्तर में , पुलिस थाने में , सरकारी गैर सरकारी स्कूलों में , अस्प्तालों में , कहीं भी जाकर देख लो , सब कहीं अन्याय और अराजकता का माहौल है जो साबित करता है कि देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था चरमरा चुकी है। सरकारी वकील ने तर्क दिया है कि जब किसी का क़त्ल होता है तो उसकी लाश का मिलना ज़रूरी होता है , मुमकिन है वो कहीं गायब हो गया हो , अपनी मर्ज़ी से चला गया हो कहीं। बिना लाश को बरामद किये क़त्ल का पक्का सबूत नहीं माना जा सकता इन तमाम बातों की सच्चाई के बावजूद। जनता का कहना है कि उसको शक है नेताओं ने ही उसको क़त्ल करने के बाद किसी जगह दफ़न किया होगा। सरकारी वकील का कहना है कि अदालत को जल्दबाज़ी में कोई निर्णय नहीं करना चाहिये। लोकतंत्र को लापता मान कर उसको अदालत के सामने पेश होने का आदेश जारी कर सकती है या चाहे तो उसको जिंदा या मुर्दा होने की जानकारी देने वाले को ईनाम देने की भी घोषणा कर सकती है। सब से पहला सवाल ये है कि क्या वास्तव में लोकतंत्र था , कोई सबूत है उसके कभी जीवित होने का , अगर किसी के जिंदा होने तक का ही सबूत न हो तो उसका क़त्ल हुआ किस तरह मान लिया जाये। लगता है इस मुकदमें में भी नेता संदेह का लाभ मिलने से साफ बरी हो जायेंगे , जैसे बाकी मुकदमों में हो जाते हैं। अदालत ने सरकार को कहा है कि अपने प्रशासन को और पुलिस को आदेश दे लोकतंत्र को ढूंढ कर लाने के लिये , कोई समय सीमा तय नहीं है। जनता को अभी और और इंतज़ार करना होगा। लोकतंत्र की तलाश जारी है।

        जाने कैसे इक नेता को किसी तहखाने में घायल लोकतंत्र मिल ही गया और उसने जनता को देश की तमाम समस्याओं से मुक्त करवाने का झूठा वादा कर सत्ता हासिल कर ली। मगर सत्ता मिलते ही उस ने सच्चे संविधान में वर्णन किये लोकतंत्र की जगह किसी छद्म झूठे लोकतंत्र को स्थापित करने का काम शुरू कर दिया उसके होने के निशान तक को मिटाने लगा। खुद को सबसे अच्छा और मसीहा या भगवान कहलाने को रोज़ तमाशे और आडंबर करने लगा जिस से बहुत लोग सम्मोहित होकर उसकी जय जयकार करने लगे। उनको अपने नेता का झूठ और झूठी देशभक्ति वास्तविक सच और संविधान वाले लोकतंत्र से अधिक पसंद आने लगी। धीरे धीरे लोग भूलने लगे हैं आज़ादी का अर्थ और लोकतंत्र की परिभाषा तक को। किसी राजनीतिक दल काखोटा सिक्का चलने लगा खरा बनकर और जो खरे थे उनको कूड़ेदान में फेंक दिया गया। अदालत ने लोकतंत्र की तलाश करने वाली फ़ाइल बंद करवा दी है हमेशा हमेशा को। 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बहुत शानदार व्यंगात्मक लेख है.... भारत दुर्दशा नामक नाटक की याद आ गई