जनवरी 12, 2014

POST : 402 मुक्ति ( कहानी ) डा लोक सेतिया

              मुक्ति ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

                    पता नहीं किसे ये दुनिया जीने के काबिल लगती होगी , कौन ज़िंदगी को जीता है यहां पर । मैं तो कभी ज़िंदा थी ही नहीं । हां मरती ज़रूर रही हूं हर दिन। मैं तो ये भी नहीं जानती कि इसकी शिकायत किस से करूं। किसे कहूं कि मुझे क्यों जीवन दिया अगर ज़िंदगी ही नहीं दे सकते थे। मां-बाप का भी क्या कसूर था , उन्हें कहां यह मालूम था कि जिस अपनी दुनिया को वो हसीन समझते हैं वो कितनी बुरी है। अब लगता है कि वो कुछ साल जो मां-बाप के साथ बिताये थे , जिनमें कभी दो वक्त पेट भरने को रोटी भी नहीं मिलती थी , तन ढकने को कपड़े भी नहीं होते थे , न कोई रहने का ठिकाना ही था , कभी इधर कभी उधर भटकते रहते थे , जहां मां-बाप को जो काम मिला कर लिया , जब रोटी मिली तो खा ली नहीं मिली तो पानी पी कर ही पेट भर लिया , तब न बचपन का पता था न ही बड़े होने का , तब शायद मैं किसी न किसी तरह ज़िंदा ज़रूर थी। मगर अब तो उन दिनों की यादें भी याद नहीं हैं , मालूम नहीं कब और कैसे मैं बड़ी हो गई और मेरी शादी हो गई। उस बाली उम्र में शादी जैसे गुड्डे-गुड़ियों का खेल ही था कोई। मैंने तो कभी न बचपन देखा न किसी सहेली के साथ कोई खेल ही खेला। बचपन की उम्र बीती भी नहीं थी कि मैं खुद बच्चों की मां बन गई। मां-बाप भूल गये या जाने कहीं खो गये और मैं भी अपने बच्चों में ही खो गई। मुझे जब अपने बच्चे दुनिया में सब से सुंदर , सब से अच्छे और सब से प्यारे लगने लगे तभी समझी कि मुझे भी मेरे मां-बाप इतना ही प्यार करते होंगे। मैंने बहुत कोशिश की कि खुद भूखी रह कर भी किसी भी तरह अपने बच्चों का पेट भरती रहूं। इसके लिये रात दिन काम किया , हर तरह का काम किया मगर फिर आज तक दोनों वक्त बच्चों का पेट नहीं भर सकी। अब तो मैं हर दिन बीमार रहने लगी हूं , अब सोचती हूं मैंने अपने बच्चों को जन्म क्यों दिया। मेरी तरह ये भी नादान हैं , बेबस और मज़बूर हैं। न खाने को रोटी न रहने को ठिकाना , न कोई उम्मीद। पढ़ना लिखना तो सोच भी नहीं सकते , अभी तो ये जानते ही नहीं कि उनकी दुनिया कितनी बेरहम है। यहां आदमी आदमी को खा जाना चाहता है। दूसरे की मज़बूरी का फायदा उठाना चाहता है हर कोई। एक अपना और अपने बच्चों का पेट भरने को क्या क्या नहीं करना पड़ता। मज़दूरी , घरों का काम ,बोझा ढोना ही नहीं जब कोई काम नहीं मिलता तब भीख मांगना क्या मज़बूरी में चोरी तक करने की नौबत आ जाती है।

                      सब लोग नफरत से देखते हैं हमें , उनको लगता ही नहीं कि हम भी इंसान ही हैं। क्या उसी भगवान ने बनाया है हमें भी जिसने इनको बनाया है , जिनके पास खाने को सब कुछ है , रहने को घर है , पढ़ने को स्कूल , नौकरी - कारोबार सब है। शायद ये जानते होंगे ज़िंदगी किसे कहते हैं और  उसे कैसे जिया जाता है। मुझे तो चक्कर सा आ गया था , शायद दो दिन से भूखी थी , मगर जब आंख खुली तो इस सरकारी अस्पताल में थी। बच्चों ने बताया कि मैं बेहोश हो गई थी और किसी के कहने पर वो मुझे रिक्शा में डाल कर यहां ले आये थे। रिक्शा वाला कोई भला आदमी था जो बिना पैसे लिये मुझे यहां पंहुचा गया था। होश आने पर डॉक्टर साहब ने बताया कि तुम्हारी जांच से पता चला है कि कोई बड़ा रोग है तुमको। बड़े अस्पताल जाना होगा आप्रेशन करवाना होगा जिसके लिये बहुत पैसे चाहिये होंगे ईलाज और दवा के लिये। अभी चार दिन पहले ही बच्चों का बाप काम की तलाश में दूर किसी बड़े शहर गया है , क्या पता अब कहां होगा। जब काम मिलेगा तब चाय वाली दुकान वाले के पते पर पोस्टकार्ड भेजेगा। अगर कहीं रास्ते में रेलगाड़ी में ही पकड़ा गया बिना टिकट तो मज़े से कुछ दिन जेल में पेट भर रोटी खाकर वापस आ जायेगा पिछली बार कि तरह। आदमी का क्या है , कैसे भी रह लेगा। मगर मैं औरत जात , इन छोटे छोटे बच्चों के साथ इस दुनिया में मर मर के जी रही हूं। डॉक्टर साहब बता गये हैं कि तुरंत आप्रेशन नहीं करवाया तो किसी भी समय जान जा सकती है। दिल में तो आता है यही अच्छा है , मौत आ जाये तो मुझे चैन आ जायेगा। लेकिन मैं चैन से मर भी नहीं सकती , मेरे बाद मेरे बच्चों के साथ ये दुनिया क्या क्या नहीं कर सकती। मैं जानती हूं इनको आज तक इन भेड़ियों से किस तरह बचा कर रखा है।

                      क्या मैं डायन बन गई हूं जो अपने ही बच्चों को मार डालूं। जिन बच्चों को ठोकर भी लगती थी तो मुझे रोना आ जाता था , जब ये बीमार होते तो रात रात भर गोद में लिये जगती रहती थी। जिन बच्चों से हसीन मुझे दुनिया की कोई भी चीज़ नहीं लगती है , उन अपने बच्चों को मैं खुद ही ज़हर दे कर मार डालूं , इसलिये कि मैं मर गई वह कैसे जियेंगे। मेरी तरह उम्र भर रोज़ मरते रहेंगे।  हां जब तक मां बाप ज़िंदा थे मैं भी ज़िंदा थी और जब तक जीती इनके लिये ज़िंदगी तलाश करती रहती। मगर मेरे मरने के बाद ये जिस तरह मरेंगे , मेरे जीने की ही तरह , उससे तो यही अच्छा होगा कि मेरे साथ ही इनको भी मौत आ जाये। यही अच्छा है कि ज़हर रोटी से सस्ता है और एक बार खाने से सभी ज़रूरतों ,सब मुश्किलों से निजात मिल जाती है। ज़िंदगी तो मेरे बस में नहीं रही कभी भी , लेकिन मौत तो हो सकती है। इसलिये मैंने आज अपने साथ अपने बच्चों को भी खिला दिया है। शायद ये ग़म हमारा आखिरी ग़म हो और सब ग़मों से मुक्ति।

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