जनवरी 04, 2014

लौट के वापस घर को आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    लौट के वापस घर को आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     सचिवालय क्या होता है मुझे मालूम नहीं था , कभी गया ही नहीं था अभी तक ऐसी किसी भी जगह। जाने को तो मैं किसी कत्लगाह भी नहीं गया मगर नाम से ही पता चलता है कि वहां क्या होता होगा। सचिवालय शब्द से समझ नहीं सकते कि वो क्या बला है। जब हमारे नगर में सचिवालय भवन बना तब लगा कि वहां सरकार के सभी विभागों के दफ्तर साथ साथ होंगे तो जनता को आसानी होती होगी , काम तुरंत हो जाते होंगे। वहां कुछ पढ़े लिखे सभ्य लोग बैठे होंगे जनसेवा करने का अपना दायित्व निभाने के लिये। मगर देखा वहां तो अलग ही दृश्य था , जानवरों की तरह जनता कतारों में छटपटा रही थी और सरकारी बाबू इस तरह पेश आ रहे थे जैसे राजशाही में कोड़े बरसाये जाते थे। सरकारी कानून का डंडा चल रहा था और लोगों को कराहते देख कर्मचारी , अधिकारी आनंद ले रहे थे , उन्हें मज़ा आ रहा था। कुर्सियों पर , मेज़ पर और अलमारी में रखी फाईलों पर बेबस इंसानों के खून के छींटे साफ नज़र आ रहे थे। कुछ लोग इंसानों का लहू इस तरह पी रहे थे जैसे सर्दी के मौसम में धूप में गर्म चाय - काफी का लुत्फ़ उठा रहे हों। लोग चीख रहे थे चिल्ला रहे थे मगर प्रशासन नाम का पत्थर का देवता बेपरवाह था। उसपर रत्ती भर भी असर नहीं हो रहा था , लगता है वो अंधा भी था और बहरा भी। मैं डर गया था , वहां से बचकर भाग निकलना चाहता था , लेकिन उस भूल भुलैयां से निकलने का रास्ता ही नहीं मिल सका था। तब मुझे बचपन में नानी की सुनाई कहानी याद आई थी जिसमें राजकुमारी राक्षसों के किले में फंस जाती है और छटपटाती है आज़ाद होने के लिये। मगर उसकी तरह मेरा कोई राजकुमार नहीं था जो आकर बचाता मुझे। मैं उन राक्षसों से फरियाद करने , दया की भीख मांगने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था।

                        मुझे नज़र आया एक दरवाज़ा जिसपर बजट व अर्थव्यवस्था का बोर्ड टंगा था , सरकारी लोग उसमें से कहीं जा रहे थे। उस पर लिखा हुआ था आम जनता का जाना मना है , मगर मैं परेशानी और घबराहट में देख नहीं सका और उधर चला आया था। मैंने देखा वहां से एक नदी बहती हुई निकल रही थी और दूर बहुत दूर राजधानी की तरफ जा रही थी। आम जनता का जो लहू सचिवालय के कमरों के फर्श पर बिखरा हुआ था वो धीरे धीरे बहता हुआ उस नदी में आकर पैसे चांदी सोने में बदल जाता था। उसी से बंगले फार्महाउस नेताओं के बनाये जा रहे थे। इस जादू के खेल को वहां लोकतंत्र नाम दिया जा रहा था। उस नदी के एक तरफ स्वर्ग जैसी दुनिया बसी हुई थी , नेता अफ्सर , धनवान लोग जिसमें सब सुख सुविधा पाकर रहते थे।  तो उस पार नदी के दूसरी तरफ नर्क का मंज़र था जहां तीन चौथाई देश की जनता मर मर कर जीने को विवश थी। बता रहे थे हर पांच साल बाद चुनाव रूपी पुल बना कर नेता आते हैं जनता के पास और वादा करते हैं कि बहत जल्द आपके लिये भी स्वर्ग का निर्माण किया जायेगा। झूठे सपने दिखला कर जनादेश लेकर वापस चले जाते हैं अपने स्वर्ग का आनंद लेने को।

                         सचिवालय की सब से ऊपरी मंज़िल बेहद खास लोगों के लिये आरक्षित थी। उसके प्रमुख द्वार पर कड़ा पहरा था और एक बड़ा सा ताला उसपर लगाया हुआ था। सूत्रों से ज्ञात हुआ कि उसमें आज़ादी नाम की मूल्यवान वस्तू बंद कर रखी गई थी जिसके दर्शन केवल वी आई पी लोग ही कर सकते थे। कभी कभी उधर से अफवाह की तरह से जानकारी मिलती थी कि आज़ादी की दशा शोचनीय है , लेकिन हर बार सरकार और सचिवालय खंडन करते थे और कहते थे वो ठीक ठाक है बल्कि पहले से स्वस्थ है। हर वर्ष जश्न मनाते थे और सरकारी समारोह आयोजित कर बताते रहते थे कि आज़ादी इतने वर्ष की हो गई है। मैंने वहां सुरक्षा में तैनात कर्मियों से विनती की थी कि मुझे दूर से ही अपनी आज़ादी की देवी को देख लेने दो , मगर उन्होंने इंकार कर दिया था और मुझसे कहा था तुम सीधे सादे आम आदमी लगते हो , गलती से यहां आ गये हो , चुपचाप वापस चले जाओ वर्ना कोई देश द्रोह का झूठा इल्ज़ाम लगा कर बेमौत मारे जाओगे। तुम्हें नहीं पता कि लोकतंत्र में आम आदमी को आज़ादी को सच में क्या सपने में देखना तक प्रतिबंधित है। हां अगर तुम भी नेता या अफ्सर बन जाओ तो आज़ादी को देख ही नहीं उसके साथ कोई खेल भी खेल सकते हो। तब तुम्हें छूट होगी जो चाहे करने की।

                किसी तरह उस इमारत से बाहर आया था और उसके पिछले हिस्से में पहुंच गया था। देखा सभी दल के नेता वहां वोटों की राजनीति का सबक पढ़ रहे थे। जाति धर्म के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने और लाशों पर सत्ता का गंदा खेल खेलने का पाठ पढ़ाया जा रहा था। चुनाव में जीत कर इंसानों की खोपड़ियों को फूलमाला बना गले में पहन इतरा रहे थे। कल तक चुनाव में दुश्मन की तरह लड़ने वाले सहयोगी बन गये थे , इक दूजे को गले लगा बधाई दे रहे थे। नैतिकता की बात करने वालों का अनैतिक गठबंधन हो गया था , विरोधी सहयोगी बन गये थे। दोनों को वोट देने वाली जनता ठगी सी खड़ी थी , अब अगले पांच साल इनकी बंधक बन चुकी थी। उसे अभी भी नर्क में ही रहना है और जब भी सचिवालय की तरफ आना पड़े उसे वही सब झेलना है। मैं भटकते भटकते सचिवालय के सामने पहुंच ही गया था। भाग कर अपने घर वापस आ गया हूं और कसम उठा ली है फिर कभी उधर नहीं जाने की। जान बची तो लाखों पाये।

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