बिका ज़मीर कितने में , हिसाब क्यों नहीं देते ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
बिका ज़मीर कितने में ,हिसाब क्यों नहीं देतेसवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते।
किसी ने घर जलाया था , उसी से जा के ये पूछा
जला के घर हमारा आप आब क्यों नहीं देते।
जला के घर हमारा आप आब क्यों नहीं देते।
सभी यहाँ बराबर हैं सभी से प्यार करना तुम
सबक लिखा हुआ जिसमें किताब क्यों नहीं देते।
सबक लिखा हुआ जिसमें किताब क्यों नहीं देते।
छुपा नहीं छुपाने से हुस्न कभी भी दुनिया से
हसीं सभी हटा अपना हिजाब क्यों नहीं देते।
हसीं सभी हटा अपना हिजाब क्यों नहीं देते।
नहीं भुला सके हम खाव्ब जो कभी सजाये थे
हमें वही सुहाने फिर से ख्वाब क्यों नहीं देते।
हमें वही सुहाने फिर से ख्वाब क्यों नहीं देते।
इश्क यहाँ सभी करते , नहीं बचा कभी कोई
न बच सका किसी का दिल जनाब क्यों नहीं देते।
न बच सका किसी का दिल जनाब क्यों नहीं देते।
यही तो मांगते सब हैं हमें भी कुछ उजाला दो
नहीं कहा किसी ने आफताब क्यों नहीं देते।
नहीं कहा किसी ने आफताब क्यों नहीं देते।
अभी तो प्यार का मौसम है और रुत सुहानी है
कभी किसी हसीना को गुलाब क्यों नहीं देते।
कभी किसी हसीना को गुलाब क्यों नहीं देते।
उन्हें अभी बता देना यही गिला है "तनहा" को
हमें कभी सभी अपने अज़ाब क्यों नहीं देते।
हमें कभी सभी अपने अज़ाब क्यों नहीं देते।
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