सितंबर 16, 2024

कुर्सी के अजब खेल ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

               कुर्सी के अजब खेल ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

सब कुछ बदलता है बदलना प्रकृति का नियम है मौसम तो बदलते रहते हैं कुछ लोग मौसम को देख बदलते हैं । राजनीति इतनी बदल चुकी है कि उस में नीति विलुप्त हो गई है राजनेता हवा का रुख देख जिधर की हवा चलती है उधर चल पड़ते हैं । देश की राज्य की राजनीति में कुछ लोग इस का आंकलन करने में माहिर होते हैं किस गठबंधन से सत्ता में भागीदारी मिल सकती है और हर बार शासक दल के संग साथी बने दिखाई देते हैं । नौकरी कारोबार में अथवा राजनीति के बाज़ार में उनको सफ़लता हमेशा मिलती है समाज में जिनको लोग निठल्ले समझते हैं चाटुकारिता उनको वरदान दिलवाती है । एकरूपता से लोग बोर होने लगते हैं अभी कुछ दिन पहले कॉमेडी पसंद थी अब उबाऊ लगती है कितनी बार वही सब देख सुनकर हंसी आएगी आखिर तो उकताहट होने लगती है । सिनेमा जगत इतना बदला है कि उसकी जगमगाहट आजकल घोर अंधकार को बढ़ावा देने लगी है । धार्मिक फ़िल्में टीवी सीरियल कितना शानदार लगते थे आजकल उनका बंटाधार कर समाज को गुमराह किया जाने लगा है मगर लोग दर्शक समझने लगे हैं चैनल वाले सिर्फ भावनाओं को अपने आर्थिक फायदे को इस्तेमाल करना चाहते हैं उनको आस्था धर्म से कोई सरोकार नहीं है । 
 
देश आज़ाद हुआ राजनीति भी श्वेत श्याम फिल्मों की तरह रंगीन होती गई राजनैतिक दलों का चलन बदलता गया और धीरे धीरे पर्दे खुलते खुलते लोकलाज से किनारा कर लिया सभी ने सत्ता की चाहत ने सभी को अंधा कर दिया । लोकतंत्र को अपनी सुविधा से मनचाहे परिधान पहनाये गए समाजवाद पूंजीवाद से शुरू कर गरीबी हटाओ से परिवारवाद तक का सफर जारी है । बस एक बार जिसे सत्ता मिली जनता जिसके झूठे वादों पर भरोसा करती रही वो सभी मनमानी करते रहे और खुद को मसीहा समझते रहे । शासक बनकर किसी ने देश की जनता की समस्याओं का समाधान करने का कोई प्रयास नहीं किया और केवल अपना घर भरने और लूट करने पर ध्यान केंद्रित रहा । लोग बदहाल बर्बाद होते गए और राजनेता शाहंशाह और अमीर बनते गए जिस से सरकारी धन तथाकथित विकास की आड़ में उनकी तिजोरियां भरता रहा । चुनाव आयोग से सुप्रीम कोर्ट तक जानते हुए भी अनजान बन कर चुनावी राजनीति में धन और बाहुबल का दुरूपयोग होते देख खामोश रहे । लोकतंत्र किसी काल कोठरी में कैद होकर अंतिम सांसे गिन रहा है जैसे रोगी आईसीयू में वेंटीलेटर पर ज़िंदा हो । 
 
आजकल राजनीति आशिक़ों का कभी रूठने कभी मान जाने का खेल बन गया है । किसी को किसी पर भरोसा नहीं हर कोई इस हाथ दे उस हाथ ले की बात करता है । अपना बेगाना बनते देर नहीं लगती और अजनबी अनजान से मधुर संबंध बना लेते हैं आवश्यकता पड़ने पर बहुमत साबित करने को । मर्यादा की बात और आदर्शों की बात नैतकता की बात आधुनिक राजनीति के शब्दकोश में ये सभी उपयोगी नहीं हैं । अब राजनीति में सभी दोस्ती करते हैं दुश्मनी से बढ़कर ख़ंजर पीठ में घोप सकते हैं गले लगाकर । राजनीति किसी गंदगी कीचड़ से भरी नदिया जैसी बदबूदार है सभी कहते हैं लेकिन सभी अवसर मिलते ही डुबकी लगाने को तैयार हैं ।  किसी वैश्या की तरह बदनाम होकर भी जब करीब आती है तो आलिंगन करने में साधु सन्यासी से धनवान और शासकीय पद पर रहा अधिकारी न्यायधीश चला आता है संबंध बनाने गंदी राजनीति से दिल बचाना आसान नहीं है । नर्तकी के कोठे की रौनक चमक दमक ने सभी को पागल बना रखा है । 
 
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1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

आज की राज नीति पर बढ़िया आलेख। सही कहा नीति गायब है