बात करने का सलीका ( संवाद - विवाद ) डॉ लोक सेतिया
भाषा कोई भी हो उस की शुद्धता आवश्यक है , जिस तरह से आजकल वार्तालाप से लेकर तमाम अन्य स्थानों पर मिलावटी भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा है हमारी दरिद्रता को दर्शाता है । लेकिन उस से भी अधिक चिंता की बात तब लगती है जब अनुचित शब्दों अथवा बोलने में अनावश्यक रूप से अपशब्दों का उपयोग किया जाता है । सार्वजनिक मंच पर सभाओं में एवं टेलीविज़न सिनेमा में जिस भाषा का उपयोग करने लगे हैं सुन कर लगता है जैसे समाज को गंदगी और झूठ परोसा जाता है । क्या हम अच्छे शब्दों का उपयोग कर सही ढंग से अपनी बात अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकते हैं , तार्किक ढंग से बात समझाई जा सकती है फिर क्यों बात करते हुए अपनी वाणी पर संयम नहीं रख पाते और ऊंची आवाज़ में या कड़वे शब्दों का उपयोग कर किसी को मानसिक रूप से आहत करने का कार्य करते हैं । विचित्र बात है वही व्यक्ति जिस को पसंद करता खुश करना चाहता उस से प्यार से मधुर स्वर और शालीन शब्दों में संवाद करता है लेकिन जिस को पसंद नहीं करता उस से अलग और गलत तरीके से बात कर दर्शाता है कि मन में उस के लिए पहले से कोई धारणा बनाई हुई है । किसी की खराब बात को भी अनदेखा करते हैं तो किसी की भली बात भी हमको भाती नहीं है । उच्च शिक्षा ही नहीं उम्र का अनुभव भी हमको हमेशा उचित तौर तरीके से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना नहीं सिखला सका तो सोचना चाहिए कारण क्या है । किसी और में बुराइयां देखना आसान है खुद अपने आचरण को समझना परखना कठिन है , आप कितने अच्छे हैं सही हैं तब भी अगर आप का बात करने का तरीका और शब्दों का सभ्यतापूवक उपयोग नहीं है तो उसे बदलना आवश्यक है । अपशब्दों के तीर जब किसी को घायल करते हैं तो उनसे हुए ज़ख़्म कभी आसानी से भरते नहीं हैं ।
आजकल समाज में बीमार मानसिकता बढ़ती जा रही है , स्वार्थ की खातिर चाटुकारिता और अपनी नापसंद की बात पर बिना समझे क्रोधित होना दर्शाता है कि आप कितने खोखले किरदार वाले हैं । दोस्ती चाहे कोई संबंध कितना भी करीबी हो भाषा संयमित रखना ज़रूरी है , कुछ लोग आदी होते हैं हर बात में गाली गलौच की भाषा उपयोग करने के बेशक कितने शिक्षित और उच्च पद पर कार्यरत हों । आपसी वाद विवाद में भी शब्दों का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिए इधर इसी कारण आपसी संबंध और मतभेद ख़त्म नहीं होते बल्कि वार्तालाप से और कटुता पैदा होती है । बड़े छोटे होने से आपको अधिकार नहीं मिलता मनचाहे ढंग से किसी को अपमानित करने का । संसद विधानसभाओं में भाषा और शिष्टाचार की मर्यादा का उलंघन बहुत अधिक होने लगा है शायद आपराधिक छवि के लोगों के संसद विधानसभाओं में चुने जाने से भी ऐसा होता है लेकिन बहुत बार समाज में सभ्य और शरीफ़ समझे जाते लोग भी आवेश में विरोध करते हुए आपा खो बैठते हैं । हिंदी दिवस मनाते समय भाषा को बढ़ावा देने तक ही चर्चा नहीं की जानी चाहिए अपितु संवाद चाहे वाद विवाद हो इक सीमा निर्धारित की जानी चाहिए शब्दों को सोच समझ कर सावधानी से उपयोग करना चाहिए । मैं अधिकांश असहज महसूस करता हूं जब कोई बातचीत में शाब्दिक सभ्यता की मर्यादा को लांघता है , कुछ ऐसा ही इक काफी पुरानी ग़ज़ल में कहना चाहा है जो अभी तक डायरी में लिखी हुई थी संशोधित करना शेष था आज सुधारा है नीचे पढ़ सकते हैं ।
बे-अदब लोगों से मुझको डर लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
हर गली हर बस्ती अपना घर लगता है
बे-अदब लोगों से मुझको डर लगता है ।
सारे आलम में पसरा हुआ है सन्नाटा
सहमा -सहमा सा हर इक बशर लगता है ।
थरथर्राहट सी होने लगी धरती में
गिर गया आंधी में वो शजर लगता है ।
ओट लेकर छिपता फिर रहा है परिंदा
ले गया है कोई काट पर लगता है ।
आजकल हमसे कोई बहुत रूठा है
हम मना लेंगे इक दिन मगर लगता है ।
कब तलक दुनिया करती इबादत आखिर
लग गया उठने हर एक सर लगता है ।
रात दिन जो रहता था खुला ' तनहा ' अब
हो गया उस घर का बंद दर लगता है ।
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