लाज - शर्म की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
कभी जिसे बेशर्मी कहते थे आजकल बिंदास का संबोधन दे कर सुशोभित किया जाता है । कुछ लोग गंभीर चिंतन में डूबे हैं उनको पता चला कोई शर्म नाम की चीज़ भी समाज में हुआ करती थी जो अब कहीं दिखाई नहीं देती एकदम विलुप्त हो गई है । ऐसे में सवाल खड़ा हुआ कभी आवश्यकता पड़ी तो कहां से लाएंगे लाज शर्म इक आभूषण कहलाता था , जाने उनको इसकी क्या ज़रूरत आन पड़ी जो तलाश करते करते थक हार कर उदास हुए बैठे हैं । हर आते जाते से सवाल करते हैं क्या आपको शर्म आती है क्या सभी ने बेच खाई है लोकलाज या फिर घोट कर पी लिया है । कहीं ऐसा तो नहीं कोई शर्म की जमाखोरी का कारोबार करना चाहता है जिस से भी मिली कौड़ियों के भाव खरीद ली शर्मोहया बाद में मुनाफ़ा कमा कई गुणा कीमत वसूलने को । शर्माना आजकल चलन से बाहर हो गया है ऐसा पहनावा या गहना जिसे पहन कर कोई कार्टून की तरह लगता है महफ़िल में उपहास का कारण बन जाती है शराफ़त सादगी भोलापन । शायद कुछ समय बाद लोग यकीन ही नहीं करेंगे कि कभी भले लोग अकारण भी शर्मिंदा हो जाते थे , महात्मा गांधी जैसे लोग अपने की अनुयाइयों के अनुचित आचरण से आहत होकर उपवास रखते थे । राजनीति जब से स्वार्थ और सत्ता की लड़ाई बनी है नेताओं ने निर्धारित कर लिया है कि जब नाचन लागी तो घूंघट काहे । ज़मीर का सौदा कभी घबरा कर नहीं किया जाता सौदेबाज़ी की राजनीति में कोई नक़ाब नहीं रखते सही गलत का कोई हिसाब नहीं रखते राजनेता अपनी मेज़ पर क्या अलमारी में भी ईमानदारी वाली किताब नहीं रखते । जनता को कहते हैं तुमको ख़ैरात मिली हमारा एहसान समझना अधिकार नहीं मिलेंगे कभी सत्ताधारी शासक अपने ज़ुल्मों का कभी कोई हिसाब नहीं रखते ।
सिनेमा टीवी चैनल ही नहीं लेखक संगीतकार कलाकार चित्रकार सफलता हासिल करने के लिए ही नहीं बल्कि अपनी गंदी सोच विकृत मानसिकता की खातिर दर्शकों को बेशर्मी और गंदगी फूहड़ता परोस कर शोहरत की बुलंदी पर खड़े हैं बदनाम हैं तो क्या नाम होना चाहिए । खलनायक का महिमामंडन किया जाने लगा है खलनायक दिल लुभाने लगे हैं , आइटमसांग महिलाओं को 6 पैक एब्स फिल्म टीवी सोशल मीडिया पर जिस्मफ़रोशी का आधुनिक रंग समझाने लगे हैं । बाबा लोग नाचने नचाने लगे हैं छलिया बनकर बंसी बजा कर भजन कीर्तन में रंगरलियां मनाने लगे हैं । अधिकारी कारोबारी पुलिस वाले अनबुझी प्यास अपनी बुझाने को बाबाओं की शरण जाने लगे हैं । बाबाओं का सरकारों से मधुर संबंध बन गया है अपने बेगाने ठिकाने लगे हैं गुनाहगार पांव दबा कर जुर्म की माफ़ी पाने लगे हैं धर्म राजनीति प्रशासन ठेकेदार मिल कर खाने खिलाने लगे हैं आश्रम आलीशान भवन बनवाने लगे हैं । सभी नंगे हम्माम में नहाने लगे हैं अपनी बेशर्मी को खुलकर दिखाने लगे हैं चोर कोतवाल रिश्ते बनाने लगे हैं ।
कोई नया अवतार आया हुआ है जिस ने बड़ा बाज़ार सजाया हुआ है । शर्म के बांड्स शेयर प्रमाणपत्र क्या क्या नहीं उस के पास खरीदना है खरीदो बेचना है बेचो भाव चढ़ रहा है लिखवाया हुआ है । शर्म का युग ख़त्म हुआ कभी लौट कर नहीं आएगा आधुनिक काल बेशर्मी का है बढ़ता ही जाएगा । पुराना ज़माना था कि लोग मुंह छिपाते थे असामाजिक कृत्य कर घर से बाहर निकलने से घबराते थे , आजकल जुर्म का मुक़दमा चलेगा अभी ज़मानत पर रिहा होने पर ढोल नगाड़े बजाते जुलूस से शान दिखाते हैं क़ातिल नहीं बाहुबली कहलाते हैं । कहते हैं लोग मालामाल हैं मगर समझ आये तो शर्म की बात पर सभी कंगाल हैं ।
1 टिप्पणी:
शानदार....बेशर्मी.आजकल...बिंदास👌👍
सच कहा आजकल शर्माना चलन से बाहर है
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