प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया
नज़राना फिल्म का गीत :-
एक प्यासा तुझे मयख़ाना दिए जाता है
जाते-जाते भी ये नज़राना दिए जाता है
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को
साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को , हाय
कश्ती ख़ुशी से जिसने भँवर में उतार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
जब चल पड़े सफ़र को तो क्या मुड़ के देखना ? हाय
दुनिया का क्या है, उसने सदा बार-बार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
समझने का फेर है कोई हार कर नहीं हारता कोई जीत कर भी सब हार जाता है जब वक़्त बदलता है हर आशिक़ का उतर बुखार जाता है । नशे की रात बीत जाती है बचा ख़ुमार रह जाता है दिल में बस इक ऐतबार रह जाता है फिर सुबह होगी कुछ पास नहीं लेकिन बकाया उधार रह जाता है । कभी जश्न कभी मातम होता है ज़माना हंसते हुए भी लगता है रोता है । पहले नंबर की कहानी है दूसरे नंबर की यही नादानी है हम अगर नहीं हारते तो उनकी जीत नहीं हो सकती थी और हम घर आये महमान को खाली हाथ नहीं भेजा करते बस जो था पास नज़राना दे दिया । हमने इक खेल को खेल नहीं समझा है हार जीत होना अनोखी बात नहीं लेकिन हमने तो खेल की भावना तक को हार दिया है । कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती कविता सभी को याद रहती है समझा नहीं अर्थ कोई भी ।
छोड़िये राजनेताओं की राजनीति का क्या कहना चुनाव हार कर चिंतन करते हैं क्यों हारे ताकि जिस ने हराया उसको बचाया जा सके और हार का ठीकरा किसी और के सर फोड़ कर राहत का अनुभव किया जा सके । क्या हम पहली बार खेल में हारे हैं या क्या विश्व कप जीतने से हम वास्तव में दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाते । हम तो जाने कब से हारते आये हैं सच कहें तो सब कुछ हार बैठे हैं जो जो भी हमारी पहचान हुआ करती थी कुछ भी हम में बचा नहीं है । प्यार सच्चाई वो सामाजिक सदभावना परोपकार की बातें भाईचारा क्या हम तो अपनी बात पर अडिग रहने की आदत तक भुला बैठे हैं । आज़ादी मिली मगर हमने आज़ाद रहना नहीं सीखा कभी भी गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं होना चाहते और विडंबना ये है कि ऐसे ऐसे किरदार वाले लोगों को अपना मसीहा समझ लिया जिनका कोई ज़मीर तक नहीं था । कड़वी बात है मगर सच है कि हमने खेल के मैदान को जंग का मैदान समझ लिया है जबकि जंग को हमने खेल समझने की भूल की है । सीमा की नहीं ज़िंदगी की जंग भी हमको कैसे लड़नी चाहिए नहीं आती है हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली जीवन जीने का कोई सबक नहीं सिखलाती है ।
ज़िंदा तो है जीने की अदा भूल गए हैं ।
ख़ुशबू जो लुटाती है मसलते हैं उसी को
एहसान का बदला यही मिलता है कली को
एहसान तो लेते है, सिला भूल गए हैं ।
करते है मोहब्बत का और एहसान का सौदा
मतलब के लिए करते है ईमान का सौदा
डर मौत का और ख़ौफ़-ऐ-ख़ुदा भूल गए हैं ।
अब मोम पिघल कर कोई पत्थर नही होता
अब कोई भी क़ुर्बान किसी पर नही होता
यूँ भटकते है मंज़िल का पता भूल गए हैं ।
-पयाम सईदी
1 टिप्पणी:
बढ़िया आलेख..भूख गरीबी से हारे ...न्याय मिलने की बात दूर की कौड़ी👌👌
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